धरती माँ की गोद में, फिर आया नववर्ष,
प्यार मिला माँ बाप से, जीवन में उत्कर्ष |
भाई सब देते रहे, मुझको प्यार असीम,
मित्र मिले संसार में, रहिमन और रहीम |
आई बेला साँझ की, समय गया यूँ बीत,
इतने वर्षों से यही, समय चक्र की रीत |
बचपन बीता चोट खा, माँ बापू बेचैन,
पूर्व जन्म के कर्म थे, भोगूँ मै दिन रेन |
मिला मुझे संयोग से,सात जन्म का प्यार,
मेरे घर परिवार से, दूर हुआ अँधियार…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on November 19, 2014 at 6:00am — 18 Comments
देखो उसे, दार्शनिक बनकर
फिर बैठेगा, नाक में ऊँगली डालेगा
कुछ निकलेगा, गोल –गोल गोलियायेगा
बिस्तर में पोछेंगा, पर कुछ सोचेगा
आँखे बंद करेगा, चिंतन करेगा
इस पर चिंतन, उस पर चिंतन
कर्म पर चिंतन, भाग्य पर चिंतन
शून्य पर चिंतन, अनंत पर चिंतन
चिंतन से निकले हल पर, चिंतन
चिंतन करते –करते, थककर सो जाएगा
इस दर्शन को, कौन समझ पाया है ?
कौन समझ पायेगा ?,पर मैं जानता हूँ,
जब वह चिंतन से जागेगा ,समय से तेज…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 19, 2014 at 1:00am — 7 Comments
1222 1222 1222 1222
नहीं होता तो क्या होता अगर होगा तो क्या होगा
कभी तुमने बचाया क्या अभी खोया तो क्या होगा
जमाने को सिखाया है हुनर तुमने यही अब तक
वफ़ा करके कभी खुद को मिले धोखा तो क्या होगा
किसी की जिन्दगी में तुम उजाला कर नहीं सकते
अगर खुर्शीद भी दिन में न अब जागा तो क्या होगा
चले हो आबशारों को जलाने आग से अपनी
समंदर ने तुम्हारा रास्ता रोका तो क्या होगा
लिए वो हाथ में पत्थर कभी फेंका…
ContinueAdded by rajesh kumari on November 18, 2014 at 10:43pm — 25 Comments
एक गमले में रोपा गया पौधा
उसका दायरा क्या है
बस वो गमला
जब तक वो गमले में है
कभी वृक्ष नहीं बन सकता
उस पौधे की जड़ों को
गमले से बाहर आना होगा
परिन्दों को उड़ना हो
तो उनकी सीमा क्या है
कोई नहीं
असीम आकाश फैला हुआ है
उन्हें अपने पर खोलने होंगे
हमें जीना हो तो
पूरी कायनात पड़ी है
हमें
ख़्वाहिशों को परवाज़ देना होगा
सपनो को
उम्मीदों का आकाश देना…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on November 18, 2014 at 9:44pm — 11 Comments
पाकर आभास
अपनी ही कुक्षि में
अयाचित अप्रत्याशित
मेरी खल उपस्थिति का
सह्म गयी माँ !
* * *
हतप्रभ ! स्तब्ध ! मौन !
आया यह पातक कौन ?
जार-जार माँ रोई
पछताई ,सोयी, खोयी
‘पातकी तू डर
इसी कुक्षि में ही मर
मैं भी मरूं साथ
तेरे सर्वांग समेत
धिक् ! हाय उर्वर खेत’
* * …
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 18, 2014 at 6:00pm — 19 Comments
लम्हा महकता … एक रचना
सोया करते थे कभी जो रख के सर मेरे शानों पर
गिरा दिया क्यों आज पर्दा घर के रोशनदानों पर
तपती राहों पर चले थे जो बन के हमसाया कभी
जाने कहाँ वो खो गए ढलती साँझ के दालानों पर
होती न थी रुखसत कभी जिस नज़र से ये नज़र
लगा के मेहंदी सज गए वो गैरों के गुलदानों पर
कैसा मैख़ाना था यारो हम रिन्द जिसके बन गए
छोड़ आये हम निशाँ जिस मैखाने के पैमानों पर
देख कर दीवानगी हमारी कायनात भी हैरान है
किसको तकते हैं भला हम तन्हा…
Added by Sushil Sarna on November 18, 2014 at 2:37pm — 14 Comments
देख रहा था
थकी हुई बस में
थके हुए चेहरे
गाल पिचके हुए
हड्डियाँ उभरी हुई
अवसादित परिणति में
एक सिगरेट सुलगाली
बढते विकारों पर
मैंने किया प्रदान
अपना उल्लेखनीय योगदान
देख रहा था,
लोगों को चढ़ते-उतरते
सीटों पर लड़ते- झगड़ते
शोरगुल के साथ- साथ
पसीने की दुर्गन्ध भरी है
बस अब भी वहीँ खड़ी है
लोग बस को धकिया रहे हैं
ड्राइवर साहब गियर लगा रहे हैं
धीरे धीरे बस चल रही है…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on November 18, 2014 at 12:30am — 13 Comments
Added by pooja yadav on November 17, 2014 at 9:52pm — 18 Comments
स्नेह रस से भर देना …..
कुछ भी तो नहीं बदला
सब कुछ वैसा ही है
जैसा तुम छोड़ गए थे
हाँ, सच कहती हूँ
देखो
वही मेघ हैं
वही अम्बर है
वही हरित धरा है
बस
उस मूक शिला के अवगुण्ठन में
कुछ मधु-क्षण उदास हैं
शायद एक अंतराल के बाद
वो प्रणय पल
शिला में खो जायेंगे
तुम्हें न पाकर
अधरों पर प्रेमाभिव्यक्ति के स्वर भी
अवकुंचित होकर शिला हो जायेंगे
लेकिन पाषाण हृदय पर
कहाँ इन बातों का असर होता है
घाव कहीं भी हो…
Added by Sushil Sarna on November 17, 2014 at 6:49pm — 8 Comments
कुछ दो-चार मरीजोँ, नर्स एक बड़ी-सी खिड़की और क्रीम कलर के बड़े-बड़े पर्दोँ के अलावा उस अस्पताल मेँ मेरे लिए देखने
लायक कुछ भी नही था। ऑपरेशन के तुरन्त बाद मैँ अपने बिस्तर पर पड़ी कराह रही थी। कुछ ग्लूकोज़ की बूँदेँ जो नलियोँ के सहारे रिस-रिस कर मेरे हाथ से होती हुई मेरे शरीर मेँ शामिल हो जाती थी, ने मेरे हाथ को किसी पत्थर की तरह भारी और ठण्डा कर दिया था और मैँ कम्बल से ढ़ककर इसे गरम रखने का नाकाम प्रयास करती। पैर अभी भी सुन्न थे पर कमर का दर्द मुझे अन्दर तक तोड़ देता था मानो मेरी जीजिविषा को…
Added by pooja yadav on November 17, 2014 at 3:30pm — 9 Comments
"रमा, सेठ रामलाल की बेटी पिछले महीने किसी के साथ भाग गई थी। कई दिन अखबारों की न्यूज भी बनी। आज उस बात को सब भूल गए हैं। रामलाल भी आराम से अपना धंधा कर रहा है और एक मेरी बेटी ने 5 साल पहले भागकर शादी की थी। आज भी लोग मेरी बेटी और मेरे परिवार को गिरी हुई नजरों से देखते हैं।"- सावित्री ने दुखी मन से कहा।
"सावित्री बहन, गरीब की बेटी और अमीर की बेटी में बहुत फर्क होता है।"- रमा ने सांत्वना देते हुए कहा।
"मौलिक और अप्रकाशित"
Added by विनोद खनगवाल on November 17, 2014 at 3:30pm — 7 Comments
आईना तो
सच दिखा रहा था
जाला,
हमारी ही आखों में था
दुनिया जिसे
बेदाग़ समझती रही
धब्बा,
उसी केे दामन में था
वो बहुत पहले की बात है
जब लोग
दो रोटी और दो लंगोटी में
खुश रहा करते थे
तुम
ये जो राजपथ देखते हो
कभी वहां पगडंडी
हुआ करती थी
और एक
छांवदार पेड भी हुआ करता था
ये तब की बात है
जब लोग
धन में नही धर्म में
आस्था रखा करते थे
खैर छोडो मुकेश बाबू
इन बातों…
Added by MUKESH SRIVASTAVA on November 17, 2014 at 11:00am — 10 Comments
आज ‘नियति’ व ‘आदित्य ‘ आमने-सामने बैठे थे | सेमिनार के बाद यह उनकी पहली मुलाकात थी |और शायद .....
सेमिनार की उस आखिरी शाम से उनके बीच की बर्फ पिघलने लगी थी| शुरुवात एक चिट्ठे से हुई थी जब उसने बिल्कुल खामोश रहने वाली नियति की डायरी में अपना नम्बर लिखा और लिखा-“शायद हम दोनों का एक दर्द हो| तुम्हारी ये ख़ामोशी खलती है ,तुमसे बात करना चाहता हूँ |”
“ क्यों ?”
“ लगता है तुम्हारा मेरा कोई रिश्ता है शायद दर्द का - - “
पूरे सेमिनार वो चुप्प रही और वो उसे रिझाने अपनी और…
ContinueAdded by somesh kumar on November 16, 2014 at 1:30pm — 11 Comments
तुमने बुलाया और मैं चली आई
मगर तुम भी जानते हो
न तुमने दिल से बुलाया
न मैं दिल से आई
अच्छा हुआ जो तुम
मेरी महफ़िल में नहीं आये
क्यूंकि तुम अदब से आ नहीं सकते थे
और मैं औपचारिकतानिभा नहीं सकती थी
आयोजन में कस के गले मिले और बोले
अरे बहुत दिनों बाद मिले हो
अच्छा लगा आप से मिलकर
सुनकर हम दोनों के घरों के पड़ोसी गेट हँस पड़े
सुबह से भोलू गांधी जी की प्रतिमा…
ContinueAdded by rajesh kumari on November 16, 2014 at 1:00pm — 14 Comments
विकृत मस्तिष्क की
उथल पुथल को
तुम क्यों लिखते हो
किसे फ़साने के लिए
ये शब्द-जाल बुनते हो
आड़ी तिरछी रेखायें खींच
छिपा सके न
कुरूपता स्वंय की
अब किसे रिझाने को
व्यर्थ उसमें रंग भरते हो
सावधान अब कुछ मत लिखना
जो लिखा है उसे जला देना
तुम्हारा लिखा नहीं छपेगा
कोई इसे नहीं पढ़ेगा
© हरि प्रकाश दुबे
"मौलिक व अप्रकाशित”
Added by Hari Prakash Dubey on November 15, 2014 at 10:30pm — 10 Comments
हूँ कवि , मन में मेरे नित यही अरमान पले !
मेरी कविता से मुझे एक नयी पहचान मिले !
...........................................................
कवि हूँ कल्पना को मैं साकार कर देता ,
घुमड़ते उर-गगन में नित सृजन-अम्बुद घने ,
रचूँ कुछ ऐसा यशस्वी 'नूतन' अद्भुत ,
मिले आनंद उसे जो भी इसे पढ़े-सुने ,
कभी नयनों को करे नम कभी मुस्कान खिले !
मेरी कविता से मुझे एक नयी पहचान मिले !
...........................................................
नहीं रच सकता कोई…
Added by shikha kaushik on November 15, 2014 at 10:30pm — 7 Comments
सुना है सितारे सजाने लगे हैं |
सभी को गले से लगाने लगे हैं |
वहीँ जो लिए सात फेरे ख़ुशी में ,
जुदा हो ग़मों में जलाने लगे हैं |
नदी में नहा के किनारे खड़े हैं ,
जिगर से लगा के भुलाने लगे हैं |
जिसे देव माना सहारा समझ के ,
बेगाना बनाके सताने लगे हैं |
कहानी पुरानी वहीँ है ए वर्मा ,
निगाहें अभी भी…
Added by Shyam Narain Verma on November 15, 2014 at 11:30am — 2 Comments
माँ ने तुलसी लगाई, ताकि घर में सुख-शांति आए | माँ ने मनी-प्लांट लगाया- ताकि घर में बरकत और समृद्धि आए |
माँ बीमार हो गई, बेटा ग्वारपाठा और गिलोय लगाने लगा |
“माँ,दवाइयाँ रोज़ महंगी हो जाती हैं,आप इनका....“
माँ उन्हें भी सीचने लगी पर.....
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सोमेश कुमार (मौलिक एवं अप्रकाशित )
Added by somesh kumar on November 15, 2014 at 9:00am — 3 Comments
212 212 212 212
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नाम जिसके मेरी जिन्दगानी लिखी है
कतरे कतरे में वो ही दिवानी लिखी है
आखिरी साँस तक आह भरता रहूँ मैं
इस तरह से ये उसने कहानी लिखी है
मैं बदलता रहा उम्र भर आशियाँ
फिर भी तस्वीर दिल में पुरानी लिखी है
कैसे भूलूँ उसे मै बताओ मुझे
नाम जिसके ये मेरी जवानी लिखी हैे
याद करता रहूँ मैं हमेशा उसे
इसलिये आँसुओं की निशानी लिखी है
मौलिक व अप्रकाशित
उमेश कटारा
Added by umesh katara on November 14, 2014 at 9:30pm — 14 Comments
छुपा ना सकोगे मेरी चाहत को
यूँ नजरें चुराने से
धडकता है दिल तुम्हारा
मेरे ही बहाने से
पलभर का ही साथ है
या पल दो पल की बात है
यूँ ही तो नही
तुमसे हुई मुलाकात है
धडकता है दिल मेरा
तेरी ही धड़कन से
मौन है सारे शब्द
बोलते नयन है नयन से
बहुत सम्हाला इस दिल को
पर होकर रहा बेकाबू
दिल के हाथों है मजबूर
जा नही सकते तुझसे दूर
जाने किससे हुई खता
जाने किसका है क़ुसूर
सरिता पन्थी…
ContinueAdded by sarita panthi on November 14, 2014 at 8:30pm — 5 Comments
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