बहुत अंधेरा है। सुबह बहुत दूर है अभी। अमेरिका से अभी चली हो शायद...
नींद नहीं आती। आये भी कैसे? पेट खाली नहीं, भविष्य तो खाली है। खाली पेट नींद भले आ जाये; लेकिन भविष्य की सुरक्षा की चिंता कब सोने देती है? माँ बाप के लाखों फूंक कर, रात और दिन की तपस्या से व्यवसायिक डिग्री हासिल करने के बाद भी यह साल दो साल के एग्रीमेंट? इससे तो बेहतर था पकोड़े तलता। लेकिन वहां भी पहले से जमे लोग आपका स्वागत नहीं करते... “यहां नहीं, यहां नहीं। हम इतने बरसों से यहां झक मार रहे हैं क्या?”
“एक तो…
ContinueAdded by Mirza Hafiz Baig on September 14, 2018 at 11:00am — 6 Comments
देश की धड़कन
वाणी का यौवन
संवाद का आँगन
हिंदी है मेरा तन-मन
अपनों से रखती है लगाव
भरती दिलों के घाव
मिटाती है अलगाव
हिंदी में है मेरा झुकाव
सबकी ज़रूरत
दिलों की हसरत
मिटाती नफ़रत
हिंदी है मेरी वकालत
शब्दों का हल
खुशियों का हर पल
सरस कलकल छलछल
हिंदी है मेरा आत्मबल
भारत की है शान
संपर्क की पहचान
सरगम की तान
हिंदी है मेरा स्वाभिमान
भेदभाव भी सहती है
मगर सच को सच कहती है
दिलों में…
Added by Mohammed Arif on September 14, 2018 at 8:00am — 5 Comments
कितनी प्यारी ये मनभावन हिन्दी है
भारत की वैचारिक धड़कन हिन्दी है
जो लिखता हूँ हिन्दी में ही लिखता हूँ
मेरी ख़ुशियों का घर आँगन हिन्दी है
रफ़ी, लता,मन्नाडे को तुम सुन लेना
इन सबकी भाषा और गायन हिन्दी है
भारत में कितनी हैं भाषाएँ लेकिन
सारी भाषाओँ का यौवन हिन्दी है
पहले मैं अक्सर उर्दू में लिखता था
अब तो मेरा सारा लेखन हिन्दी है
मुझको तो लगती है ये भाषा…
ContinueAdded by Samar kabeer on September 13, 2018 at 11:39pm — 33 Comments
बहर
1212-1122-1212-22
मेरे खयाल में अब फासलों से आती है।।
तुम्हारी याद भी अब दूसरों से आती है।।
कदम रुके हैं मुहब्बत की राह में जबसे।
है सच के नींद बड़ी मुश्किलों से आती है।।
की जर्रा जर्रा कही टूट कर है बिखरा यूँ।
सदा ये आज मेरी महफिलों से आती है।।
मसल चुका हुँ सभी कुछ मैं जह्न के भीतर।
अभी भी तेरी कसक , हौसलों से आती है।।
गुजर रही है मुहब्बत की तिश्नगी दे कर।
जो…
Added by amod shrivastav (bindouri) on September 13, 2018 at 9:30pm — 5 Comments
आप आये अब हमें दिल से लगाने के लिए
जब न आँखों में बचे आँसू बहाने के लिए
छाँव जब से कम हुई पीपल अकेला हो गया
अब न जाता पास कोई सिर छुपाने के लिए
तितलियाँ उड़ती रहीं करते रहे गुंजन भ्रमर
पुष्प में मकरंद था जब तक…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on September 13, 2018 at 4:20pm — 12 Comments
सबके लिए है कुछ न कुछ, मुंबई मे ज़रूर ।
एक बार सही मुंबई में बस आइए ज़रूर॥
निर्विघ्न हो जब हाथ है सर पे विघ्नहर्ता का।
श्रद्धा तू रख ये होंगे सिद्ध एक दिन ज़रूर।।
खाली नहीं लौटा है बशर, हाजी-अली…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on September 13, 2018 at 12:00pm — 2 Comments
221 2121 222 1212
हाकिम ही देश लूट के जब यूँ फरार हो
ऐसे में किस पे किस तरह तब ऐतबार हो।१।
रूहों का दर्द बढ़ के जब जिस्मों को आ लगे
बातों से सिर्फ बोलिए किसको करार हो।२।
इनकी तो रोज ऐश में कटती है खूब अब
क्या फर्क इनको रोज ही जनता शिकार हो।३।
हर शख्श जब तलाश में अवसर की लूट के
हालत में देश की भला फिर क्या सुधार हो ।४।
मुट्ठी में सबको चाहिए पलभर में चाँद भी
मंजिल के बास्ते किसे तब इन्तजार हो…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 13, 2018 at 4:56am — 13 Comments
"अरे सुखिया! सुन तो मन्ने एक बात सूझी हैं, तू कहे तो बताऊँ।"
"का बात सूझी है दद्दा! बताय ही द्यो। मैं तो परेसान हो गया हूँ, एक तो उ बैंक का मनजेर बाबू आज सुबह ही कह रहे थे कि जो करजवा हम लिये रही उ का ब्याज भरने को पड़ी...।"
"ह्म्म्म हम सुन लिए थे उ वा की बात, तभी तो हम आये हैं, तू एक काम कर, तू कल सरपंच से कछु उधार मांग ले, वो इंकार न करेगा, और उ पैसा से अपन का ब्याज की किश्त चुकाई दिए।"
"होउ , इ हे बात तो हमरी ख़ोपड़िया में आयी ही नही। हम कल ही सरपंच जी से बात करेंगे। पर…
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on September 12, 2018 at 10:30am — 7 Comments
ओस कण ....
ओ भानु !
कितने अनभिज्ञ हो तुम
उन कलियों के रुदन से
जो रोती रही
तुम्हारे वियोग में
रात भर
सन्नाटे की चादर ओढ़े
और बैरी जग ने
दे दिया
उन आँसूओं को
ओस कणों का नाम
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on September 11, 2018 at 7:56pm — 6 Comments
12122 12122 12122 12122
है दूर मन्ज़िल तिमिर घनेरा, अगर कलम की डगर कठिन है
नहीं थकेंगे कदम हमारे हमारा व्रत भी मगर कठिन है
चलो उठाओ तमाम बातें जवाब सारा कलम ही देगी
चले भले ही कदम अभी कम पता है हमको सफर कठिन है
मना ले जश्नां उड़ा मज़ाकाँ ज़माने दूँगा सलाम लाखों
सलाम वापस इधर ही होंगे हालाँकि तुमसे समर कठिन है
न पूछ काहें मैं अक्षरों की ये धार सब पर बिखेरुँ पल पल
है इक हिमालय यहाँ भी ग़म का सो आँसुओं की लहर कठिन…
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 11, 2018 at 7:30pm — 9 Comments
मॉरिशस में हिंदी साहित्यिक समारोह
एक एतिहासिक दिन
7 सितम्बर 2018 हिंदी प्रचारिणी सभा मॉरिशस,परिकल्पना संस्था भारत तथा उच्चायोग मॉरिशस के संयुक्त तत्वाधान में एक दिवसीय संगोष्ठी का आयोजन हिंदी भवन लॉन्गमाउन्टेन पोर्ट लुई मॉरिशस में सफलता पूर्वक सम्पन्न हुआ|
जिसमे भारत के सहभागी ३२ साहित्यकारों को भिन्न भिन्न विधाओं के मद्देनज़र सम्मानित किया गया| मुझे मेरे लघुकथा संग्रह ‘गुल्लक’ हेतु ये सम्मान प्राप्त हुआ|
परिकल्पना संस्था से मेरा जुड़ाव कई वर्षों से है| २०१२ में…
ContinueAdded by rajesh kumari on September 11, 2018 at 6:09pm — 9 Comments
किसकी सुनता है मन की करता है,
मुँह में रखता ज़बान-ए-गोया है..
हक़ बयानी ही उसका शेवा है,
कब उसे ज़िन्दगी की परवा है..
मौत पर ये जवाब उसका है,
क्या अजब है कि इक तमाशा है..
वो जो हर ग़म में इक मसीहा है,
कौन जाने कहाँ वो रहता है..
क्यूँ ख़्यालों में है अबस मेरे
किस ने ज़ोहेब उसको देखा है..??
मौलिक एवं अप्रकाशित।
Added by Zohaib Ambar on September 11, 2018 at 10:30am — 1 Comment
२२१/ २१२१ /२२२/१२१२
हर शख्स जो भी दूर से भोंदू दिखाई दे
देखूँ करीब से तो वो चालू दिखाई दे।१।
अब तो हवा भी कत्ल का सामान हो रही
लाज़िम नहीं कि हाथ में चाकू दिखाई दे।२।
मालिक वतन के भूख से मरते रहे यहाँ
सेवक की तस्तरी में नित काजू दिखाई दे।३।
सच तो यही कि जग में है मन से फकीर जो
सोना भी उसको दोस्तो बालू दिखाई दे।४।…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 10, 2018 at 9:01pm — 6 Comments
आज उसे अपने वादे के मुताबिक अपनी पत्नी के साथ पास के एक माॅल में ही फिल्म देखने जाना था। कुछ ज्यादा उत्साहित तो नहीं था, लेकिन फिर भी अपनी पत्नी के लिए कुछ 'खास' करने की खुशी उसके चेहरे पर दिखाई दे रही थी। आॅफिस की नोंक झोंक और रास्ते में ट्रैफिक की रोक टोक जैसी बाधाओं को पार कर, जब वो घर पहुंचा तो अत्याधिक शांति पाकर थोड़ा ठिठक सा गया। हाॅल में घुसते ही, एक जाना पहचाना चेहरा जो शायद…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on September 10, 2018 at 3:00pm — 6 Comments
पुष्प श्रद्धा के ना चढ़ें तो अर्चना ही व्यर्थ है।
भाव जिसमें शुचित ना हो, सर्जना ही व्यर्थ है।।
तुम न कोलाहल सुनो,
ना ही करतल ध्वनि बिको।
सत्य के आधार पर
सुंदरम बन कर टिको।।
दृष्टिहीनों के समक्ष, अति नर्तना ही व्यर्थ है।
पुष्प श्रद्धा के ना चढ़ें तो अर्चना ही व्यर्थ है।।
भाव जिसमें शुचित ना हो, सर्जना ही व्यर्थ है।।
मेनका की कामना
और उसीकी उपासना।
व्यर्थ शालिग्रामों में है
फिर सत्य को…
Added by SudhenduOjha on September 10, 2018 at 11:00am — No Comments
पतझड़ों के बीच भी यदि ऋतु सुहानी है तो है
घर हमारे महमहाती रात रानी है तो है
हो रहीं मशहूर परियों की कथाएँ आजकल
और उनमें एक अपनी भी कहानी है तो है
बेवफा वो हो गया पर हम न भूले हैं उसे
यदि हमारे पास उसकी कुछ निशानी…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on September 10, 2018 at 9:43am — 4 Comments
महासमर की बेला है
वीरों अब संधान करो,
शत्रु को मर्दन करने को,
त्वरित अनुसंधान करो |
मातृभू की खातिर फिर
लहू बहाना होगा;
ज्वार उठाना होगा,
मस्तक कटाना होगा|
सिंहासन की कायरता से ,
संयम अब डोल रहा
चिरस्थायी संस्कृति हित ,
कडक संघर्षों को खोल रहा|
अखिल विश्व की दिव्य मनोरथ,
अधरों में अब डोल रहा,
लुट रही मानवता नित-क्षण
लंपट सदा कायरों की भाषा
बोल रहा|
वीरों को आगे आना होगा,
संघर्ष शिवाजी सा –
सतत्…
Added by आलोक पाण्डेय on September 9, 2018 at 12:00pm — 1 Comment
दाढ़ी-मूंछधारी दोनों दोस्त, मौलवी अब्दुर्रहमान साहिब और पंडित रामनारायण जी रोज़ाना की तरह अलसुबह की चहलक़दमी कर हंसी-मज़ाक सा करते हुए अपने घरों की ओर वापस लौट रहे थे। तभी विपरीत दिशा से दिखाई दिये दिलचस्प नज़ारे पर परंपरागत संबोधन के साथ टिप्पणी करते हुए पंडित जी ने कहा - "मुल्ला जी! वो देखो तुम्हारी पड़ोसन बुरका पहन कर अपने बच्चे को श्रीकृष्ण जी की फ़ैन्सी पोशाक में स्कूल छोड़ने अकेले जा रही है पैदल!"
"उसका नहीं, उसकी पड़ोसन शर्मा मैडम का बेटा होगा पंडित जी!"
"नहीं, उसी का…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 7, 2018 at 11:41pm — 5 Comments
बह्र - 2122-1221-22
इतना उलझा है आदम बसर में।।
खुद से पूछे वो है किस सफर में ।।
क्या समझ पाएगे रात भर में।।
फर्क है इस नजर उस नजर में।।
ना बदल पाऊं बिलकुल न बदले।
पर है कोशिश उड़ूँ कुतरे पर में।।
अपनी मंजिल से है लापता जो ।
चीखता फिर रहा, रह-गुजर में।।
हर मुसाफिर की कोशिस यही बस।
सब सलामत रहे मेरे घर में।।
आमोद बिन्दौरी /मौलिक- अप्रकाशित
Added by amod shrivastav (bindouri) on September 7, 2018 at 8:30pm — 3 Comments
औक़ात - लघुकथा –
"सलमा, यह किसके बच्चे को लेकर जा रही हो"।
"चचाजान, आप पहचान नहीं पाये इन्हें, अपने अर्जुन हैं"।
"अरे वाह, बहुत बड़े हो गये। पर इनको यह क्या पोशाक डाल रखी है"।
"इनको एक सीरियल में कान्हा का किरदार करना है। उसी के लिये लेकर जा रही हूँ"।
"बहुत खूब, संभल कर जाना"।
अभी सलमा चार क़दम ही चली थी कि एक कट्टरपंथी ग्रुप ने उसे घेर लिया। उसे बच्चा चोर बताकर पुलिस थाने ले गये।
"दरोगा जी,बड़ा तगड़ा केस लाये हैं,आज तो आपके दोनों हाथों में लड्डू…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on September 7, 2018 at 7:01pm — 14 Comments
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