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ग़ज़ल - ज़माना खराब है

मफऊल फाइलात मफाईल फाइलुन



हर सू है मारधाड़ ज़माना ख़राब है।

खोलो नहीं किवाड़ ज़माना ख़राब है।



गुन्डों को सीख दे के मुसीबत न मोल लो,

ये देंगे घर उजाड़ ज़माना ख़राब है।



ले दे के अपना काम कराओ किसी तरह

कर लो कोई जुगाड़ ज़माना ख़राब है।



बच्चे भी तंज कसते हैं मुझ पर अदा के साथ,

हँसते हैं दाँत फाड़ ज़माना ख़राब है।



पहले कभी हमारे भी क्या ठाठ बाट थे,

अब झोंकते हैं भाड़ ज़माना खराब है।



अब दो टके में भी न कोई पूछता मुझे,

मैं… Continue

Added by Ram Awadh VIshwakarma on November 28, 2017 at 10:50pm — 11 Comments

चोर-मन

चोर-मन

कमर खुजाती उस स्त्री पर

पंजे मारकर बैठ गई आँख

मदन-मन खुजाने लगा पांख |

अभी उड़ान भरी ही थी कि

पीठ पर पत्नी ने आके ठोका

रसगुल्लामुँह हो गया चोखा |

जवाब में रख दीं बातें इमरती

छत की धूप और सुहानी सरदी

सचेती स्त्री संभल के चल दी |

बहलाने लगा मूंगफली के बहाने

चोर-मन ढूंढता बचने के ठिकाने

भर चिकोटी पत्नी लगी मुस्कुराने |

सोमेश कुमार (मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by somesh kumar on November 28, 2017 at 9:36am — 4 Comments

अब न कोई जंग हारा कीजिये

2122 2122 212

अब न कोई जंग हारा कीजिये ।।

अब बुलन्दी पर सितारा कीजिये ।



चाहिए गर कामयाबी इश्क़ में ।

रात दिन चेहरा निहारा कीजिये ।।



चाँद को ला दूं जमी पर आज ही ।

आप मुझको इक इशारा कीजिये ।।



बेखुदी में कह दिया होगा कभी ।

बात दिल मे मत उतारा कीजिये ।।



पालिये उम्मीद मत सरकार से ।

जो मिले उसमे गुजारा कीजिये ।।



ले लिए हैं वोट सारे आपने ।

काम भी कुछ तो हमारा कीजिये ।।



अब मुकर जाते हैं अपने, देखकर… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on November 28, 2017 at 2:00am — 13 Comments

बचपन को फिर देख रहा हॅूं,

बचपन को फिर देख रहा हॅूं,

विद्यालय का प्यारा आॅंगन,

साथी-संगियों से वह अनबन,

गुरू के भय का अद्भुत कंपन,

इन्हीं विचारों के घेरे में,

मन को अपने सेंक रहा हूॅं,

बचपन को फिर देख रहा हॅूं,

निष्छल मन का था सागर,

पर्वत-नदियों में था घर,

उछल-कूद कर जाता था मैं,

गलती पर डर जाता था मैं,

लेकिन आज यहाॅं पर फिर से,

गल्तियों का आलेख रहा हूॅं,

बचपन को फिर देख रहा हॅूं,

चिर लक्ष्य का स्वप्न संजोया,

भावों का मैं हार पिरोया,

मेहनत की फिर कड़ी…

Continue

Added by Manoj kumar shrivastava on November 27, 2017 at 9:47pm — 8 Comments

ग़ज़ल- पक्की अभी ज़ुबान नहीं है

22 22 22 22



जिंदा क्या अरमान नहीं है ।

तुझमें शायद जान नहीं है ।।



कतरा कतरा अम्न जला है ।

अब वो हिंदुस्तान नहीं है ।।



एक फरेबी के वादों से ।

ये जनता अनजान नहीं है ।।



कौन सुनेगा तेरी बातें ।

सच की अब पहचान नहीं है।।



जरा भरम से निकलें भाई ।

टैक्स तेरा आसान नहीं है ।।



रोज कमाई गाढ़ी लुटती ।

मत समझो अनुमान नहीं है ।।



पढलिख कर वो बना निठल्ला।

क्या तुमको संज्ञान नहीं है ।।



कुर्सी… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on November 27, 2017 at 9:00pm — 7 Comments

अबोले स्वर

अबोले स्वर ...

कुछ शब्दों को

मौन रहने दो

मौन को भी तो

कुछ कहने दो

कोशिश करके देखना

एकांत पलों में

मौन तुम्हारे कानों में

वो कह जाएगा

जो तुम कह न सके

वो धड़कनों की उलझनें

वो अधरों की सलवटों में छुपी

मिलन के अनुरोध की याचना

वो अंधेरों में

जलती दीपक की लौ में

इकरार से शरमाना

बताओ भला

कैसे शब्दों से व्यक्त कर पाओगी

हाँ मगर

मौन रह कर

तुम सब कह जाओगी

चुप रह कर भी

अपनी साँसों से…

Continue

Added by Sushil Sarna on November 27, 2017 at 8:25pm — 6 Comments

परिवर्तन (सरसी छन्द)

परिवर्तन (सरसी छन्द)



प्रचंड लीला परिवर्तन की, सभी झेलते मार

पुष्प सदा जो खिलते रहते, कम्पित होती डार।1।



भृंग मधुर रव तान सुनाते, करते वे मदहोश

गम में सभी सहन करते हैं, परिवर्तन आक्रोश।2।



हरित पर्ण पर हिमकन शोभित, नर्तन करती रोज

परिवर्तन का तांडव पल में, धूमिल करता ओज ।3।



सदा बाग का माली हँसता, सुषमा देख अपार

पतझड़ में नित रुदन करे वह, दिखता हाहाकार।4।



परिवर्तन की विषम ज्वाल में, जलता राज समाज

चीख पुकार सुनाई देती,… Continue

Added by डॉ छोटेलाल सिंह on November 27, 2017 at 6:57pm — 7 Comments

पेड़ उखड़ते तूफानों में, दूब हँसे हर बार (सरसी छःन्द)

अंधी दौड़ आधुनिकता की, गली नगर या गाँव

ना बरगद के पेड़ दिखें अब, ना पीपल की छाँव।।



संस्कार बिना इंसान यहाँ, चलती फिरती लाश

बिना नींव का हवामहल भी, गिरते जैसे ताश।।



अर्धनग्न अब देह बनी है, फैशन की पहचान

भूल गए सब जड़ें पुरातन, पढ़े लिखे नादान।।



सूर्य उदय पूरब से होता, पर पश्चिम में अस्त

उदय अस्त का सत्य जान लो, वरना होगे त्रस्त।।



दरक रहे हैं नित्य यहाँ पर, संस्कारो के दुर्ग

भूल रहे हैं बात पुरातन, बच्चे युवा… Continue

Added by नाथ सोनांचली on November 27, 2017 at 6:30pm — 4 Comments

रूप घनाक्षरी (8,8,8. 8 ) चरणांत गुरु

(डॉ 0 अनिल मिश्र की अंग्रेजी कविता का हिन्दी रूपांतरण )

सभी जो निरीह हैं वो भ्रूण हों या वयोवृद्ध  

सब के सब जीवित शताधिक जला दिये   

 

गोलियों से भूने गए कितने हजार और

कितने सहस्र को निराश्रित बना दिये   

 

और कई पारावार आंसुओं के बार-बार

बाढ़ की तरह नित्य सहसा उफना दिये    …

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 26, 2017 at 8:30pm — 3 Comments

क्षणिकाएँ

     

1. 

उतारिए चश्मा

पोछिये धूल

चीज़ें खुदबखुद... साफ़ हो जाएँगी ।

 

 

2.

ज़रूरी है… सफाई अभियान

शुरुआत कीजिये

दिल से ....

 

3.

गंदगी सिर्फ मुझमे ही नहीं

तुम में भी है मित्र

ज़रा अंदर तो झाँको ....

 

4.

जब ईमान गिरवी हो

ज़मीर बिक चुका हो

कौन उठायेगा बीड़ा

समाज की सफाई का ....

 

5.

साफ़ नहीं होती गंदगी

बार बार उंगली दिखाने…

Continue

Added by नादिर ख़ान on November 26, 2017 at 8:00pm — 10 Comments

बदला परिवेश

“सर, दरवाजा खोलिए” प्रोफेसर राघव की शोध छात्रा नूर ने दरवाजे पर दस्तक देते हुए आवाज दी

“अरे! नूर तुम, दोपहर में अचानक, कैसे?” दरवाजा खोलते हुए प्रोफेसर राघव ने आने की वजह जाननी चाही

“ हाँ सर, एक रिसर्च पेपर में करेक्शन के लिए आई थी”

“ पर अभी तो मैडम घर पर नहीं हैं,और बाज़ार से कब तक लौटें इसका भी अंदाज नहीं है,आखिर तुम कब तक इस धूप में बाहर इंतज़ार करोगी”  प्रोफेसर राघव् ने त्वरित जवाब  दिया

“ बाहर क्यों सर ?” नूर ने कौतूहल से…

Continue

Added by Dr Ashutosh Mishra on November 26, 2017 at 2:30pm — 11 Comments

कमाल की बात है

बुजुर्गों को सत्ता और युवाओ को बेरोजगार बनाया है,
कमाल है इतने सालों में क्या देश हमने बनाया है ! 
टेक्स हमने भरे सारे, नेताओं ने जमकर मौज उडाया है,
कमाल की बात है कि हमने अब तक इन्साफ नहीं पाया है !
घोटालों पर घोटाले होते रहे और हम खुली आंखों सोते रहे,
कमाल की बात है कानून के नाम पर क्या बेवकूफ़ बनाया है !
शिक्षित लोग, विकसित देश का सपना लिये फ़िर रहे हैं हम,
कमाल की बात है ऊचे पद पर अनपढो को बैठाया है…
Continue

Added by जयति जैन "नूतन" on November 26, 2017 at 2:30pm — 2 Comments

ग़ज़ल -क्या कहूँ उनकी नज़ाकत, जो दिवाना दिल में’ है--कालीपद 'प्रसाद'

काफिया  ;इल ; रदीफ़ : में है

बह्र : २१२२  २१२२  २१२२  २१२

क्या कहूँ उनकी नज़ाकत, जो दिवाने दिल में’ है

किन्तु का ज़िक्र दिल से दूगुना महफ़िल में’ है |१|

जानती है वह कि गलती की सही व्याख्या कहाँ

पंख बिन भरती उड़ाने, भूल इस गाफिल में’ है  |२|

राम रब कृष्ण और गुरु अल्लाह सब तो एक हैं

बोलकर नेता खुदा पर, पड़ गए मुश्किल में है |३|

गर सफलता चाहिए तुमको करो दृढ मन अभी

जज़्बा’ विद्यार्थी में’ हो वैसा…

Continue

Added by Kalipad Prasad Mandal on November 26, 2017 at 9:00am — 7 Comments

अश्क़ आंखों से उतर गाल पे आया होगा

2122 1122 1122 22



गर शराफ़त में उसे सर पे बिठाया होगा ।

ज़ुल्म उसने भी बड़े शान से ढाया होगा ।।



लोग एहसान कहाँ याद रखे हैं आलिम ।

दर्द बनकर वो बहुत याद भी आया होगा ।।



हिज्र की रात के आलम का तसव्वुर है मुझे ।

आंख से अश्क़ तिरे गाल पे आया होगा ।।



मुद्दतों बाद तलक तीरगी का है आलम ।

कोई सूरज भी वो मगरिब में उगाया होगा ।।



कर गया है वो मुहब्बत में फना की बातें ।

फिर शिकारी ने कहीं जाल बिछाया होगा ।।



कत्ल करने का… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on November 26, 2017 at 1:30am — 9 Comments

मेरी माॅं का है

सागर जैसी आॅंखों में,
बहते हुए हीरे मेरी माॅं के हैं,
होठों के चमन में,
झड़ते हुए फूल, मेरी माॅं के हैं,
काॅंटों की पगडंडियों में,
दामन के सहारे मेरी माॅं के हैं,
गोदी के बिस्तर में,
प्यार की चादर मेरी माॅं की हैं,
प्यासे कपोलों,
पर छलकते ये चुंबन मेरी माॅं के हैं,
ईश्वर से मेरी,
कुशलता की कामना मेरी माॅं की हैं,
इतराता हूॅं इतना,
पाकर यह जीवन,
मेरी माॅं का है।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Manoj kumar shrivastava on November 25, 2017 at 9:30pm — 10 Comments

ओ निश्छलता!

ओ निश्छलता!

क्यों नहीं हो मेरे मन में?

रहती क्यों,

नवजात शिशु के,

मुखमंडल में,

तुम क्यों रहती!

स्वच्छाकाश,

चंद्र-तारे

और धरातल में,

तुम क्यों रहती!

हवा के झोंकों,गिरि की सुंदरता,

उन्मुक्त गगन में,

क्यों नहीं हो मेरे मन में?

तुम क्यों रहती!

नदी की लहरों,

फूलों के चेहरों और हरियाली में,

क्यों रहती तुम!

माॅं की ममता,

दुआओं और खुशहाली में,

हर वक्त हर घड़ी,

दे रही हो साथ,

प्रभु के दिये,

इस… Continue

Added by Manoj kumar shrivastava on November 25, 2017 at 12:18pm — 10 Comments

चीख रही माँ बहने तेरी -क्यों आतंक मचाता है

क्यों मरते हो हे ! आतंकी

कीट पतंगों के मानिंद

हत्यारे तुम-हमे बुलाते

जागें प्रहरी नहीं है नींद…

Continue

Added by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on November 25, 2017 at 11:00am — 8 Comments

बस बहस ही वश में (लघुकथा)

"शुक्र है कि हमारा हाल पड़ोसी मुल्क जैसा नहीं है! हमारा लोकतंत्र जवां है, सदाबहार है!"

"हां, परिपक्व हो रहा है!"

"आप दोनों ग़लत कह रहे हैं! 70 साल से ऊपर का हो गया है अपना लोकतंत्र; तज़ुर्बेदार तो है, लेकिन अब सठिया गया है!"

"लोकतंत्र नहीं, लोग सठिया गए हैं । ख़ुदगर्ज़ी, होड़बाज़ी, अंधी नकल, अंधानुकरण और जुगाड़बाज़ी ने बंटाधार कर दिया है, बुद्धियों का, इस पीढ़ी का!"

"हां, सच कह रहे हो! इसी चक्कर में बच्चे कम उम्र में बड़े और युवा बूढ़े हो रहे हैं!"

"... और बूढ़े… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 25, 2017 at 7:16am — 7 Comments

ग़ज़ल

2122 1212 22

उसकी खुशबू तमाम लाती है ।।

जो हवा घर से उसके आती है ।।



आज मौसम है खुश गवार बहुत ।

बे वफ़ा तेरी याद आती. है ।।



कितनी मशहूर हो गई है वो ।

कुछ जवानी शबाब लाती है ।।



टूटकर. मैं भी कशमकश में हूँ।

रात उलझन में बीत जाती है ।।



ओढ़ लेती बड़े अदब से वो ।

जब दुपट्टा हवा उड़ाती है ।।



यूँ तमन्ना तमाम क्या रक्खूँ ।

जिंदगी रोज तोड़ जाती है ।।



हम भी दीवानगी से हैं गुजरे ।

जिंदगी मोड़ ढूढ लाती है… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on November 25, 2017 at 12:00am — 9 Comments

देश के हर इंसान में शंकर देखा है

22 22 22 22 22 2

आंखों में आबाद समंदर देखा है ।

हाँ मैंने उल्फ़त का मंजर देखा है ।।



कुछ चाहत में जलते हैं सब रोज यहां ।

चाँद जला तो जलता अम्बर देखा है ।।



आज अना से हार गया कोई पोरस ।

तुझमें पलता एक सिकन्दर देखा है ।।



एक तबस्सुम बदल गई फरमान मेरा ।

मैंने तेरे साथ मुकद्दर देखा है ।।



कुछ दिन से रहता है वह उलझा उलझा ।

शायद उसने मन के अंदर देखा है ।।



बिन बरसे क्यूँ बादल सारे गुज़र गए ।

मैंने उसकी जमीं को बंजर…

Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on November 24, 2017 at 6:30pm — 5 Comments

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