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भुलाने के लिए राज़ी...संतोष

ग़ज़ल

मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन मफ़ाईलुन

भुलाने के लिए राज़ी तुझे ये दिल नहीं होता

तभी तो याद से तेरी कभी ग़ाफ़िल नहीं होता

महब्बत को अभी तक मैंने अपनी राज़ रक्खा है

तुम्हारा ज़िक्र यूँ मुझसे सरे महफ़िल नहीं होता

तुझे ही ढूँढता रहता मैं अपने आप में हर दम

सनम तू मेरे जीवन में अगर शामिल नहीं होता

दग़ा देना ही आदत बन गई हो जिसकी ऐ यारो

भरोसे के कभी वो आदमी क़ाबिल नहीं होता

हमेशा बीज बोता है जो…

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Added by santosh khirwadkar on December 8, 2017 at 9:30am — 11 Comments

बापमाँ (संस्मरण कथा )

बापमाँ (संसमरण-कथा)

19 मार्च 2017

एम्स के नेत्र वार्ड में दाखिल होने की सोच ही रहा था कि फ़ोन फिर से बज उठा |

बिटिया गोद में थी पत्नी ने फ़ोन जेब से निकाला,देखा और काट दिया |

“ कौन था ? ” “लो,खुद देखों -- -“

बिटिया को हाथ से छिनते हुए उसने फ़ोन बढ़ा दिया |

“विवेक-मधु |” स्क्रीन पर नाम दिखा |

पहले भी मिसकॉल आई थी | मैंने माहौल को हल्का करने के लहज़े से कहा |

“तीन-चार रोज़ से तो यही सिलसिला है |” पत्नी ने तीर छोड़ा

“वो…

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Added by somesh kumar on December 8, 2017 at 12:50am — 4 Comments

ग़ज़ल- एक नेता हर गली कूचे में है।

बह्र - फाइलातुन फाइलातुन फाइलुन

2122 2122 212

वो कबूतर बाज के पंजे में है।

फिर भी कहता है भले चंगे में है।

हम उसे बूढ़ा समझते हैं मगर,

एक चिन्गारी उसी बूढ़े में है।

ये सियासत आज पहुँची है कहाँ,

एक नेता हर गली कूचे में है।

वो मज़ा शायद ही जन्नत में मिले,

जो मज़ा छुट्टी के दिन सोने में है।

इस सियासत में फले फूले बहुत,

कितनी बरकत आपके धंधे में है।

नींद जो आती है खाली खाट पर,

वो कहाँ पर फोम के गद्दे में…

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Added by Ram Awadh VIshwakarma on December 7, 2017 at 10:50pm — 13 Comments

ग़ज़ल (किसी खंजर का मत अहसान लीजिए )

(मफाईलुन-मफाईलुन -फऊलन )

किसी खंजर का मत अहसान लीजिए |

हमारी मुस्करा कर जान लीजिए |

जिसे अपना बनाने जा रहे हैं

उसे अच्छी तरह पहचान लीजिए |

हमारा साथ दोगे ज़िंदगी भर

वफ़ा से पहले दिल में ठान लीजिए |

मुझे तो बाद में चुन लीजिएगा

जहाँ की खाक पहले छान लीजिए |

किसे है ख़ौफ़ दिलबर इम्तहाँ का

कमाँ हाथों में अपने तान लीजिए |

किसी का लीजिए अहसान लेकिन

न दौलत मंद का अहसान लीजिए…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on December 7, 2017 at 2:00pm — 12 Comments

भाग्य

एक कार आकर रज़ाई बनाने वाले की दुकान के आगे खड़ी हुयी । कार के पिछले दरवाजे से साहबनुमा व्यक्ति बाहर निकला । दुकान वाले की बांछें खिल गईं । भला कौन इस तरह उसकी दुकान पर इतनी बड़ी गाड़ी लेकर आता है ।

दुकानदार से उन्मुख होते हुए साहब ने छोटे साइज़ के रज़ाई, गद्दा, तकिया और चद्दर दिखने को कहा । दुकानदार ने सोचा साहब को अपने छोटे बच्चे के लिए ये सब चाहिए, सो बड़े उत्साह से चीजें दिखने लगा । पर साहब ने बताया कि उन्हें ये सब समान अपने "डौगी" के लिए लेना है ।…

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Added by Neelam Upadhyaya on December 7, 2017 at 10:30am — 8 Comments

ग़ज़ल

2122 2122 212

फिर कोई सिक्का उछाला जा रहा ।

रोज मुझको आजमाया जा रहा ।।

मानिये सच बात मेरी आप भी ।

देश को बुद्धू बनाया जा रहा ।।

कौन कहता है यहां सब ठीक है ।

हर गधा सर पे बिठाया जा रहा ।।



हो रहे मतरूफ़ सारे हक यहां ।

राज अंग्रेजों का लाया जा रहा ।।

हर जगह रिश्वत है जिंदा आज भी ।

खूब बन्दर को नचाया जा रहा ।।

कुछ हिफाज़त कर सकें तो कीजिये ।

बेसबब ही जुर्म ढाया जा रहा…

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Added by Naveen Mani Tripathi on December 7, 2017 at 1:58am — 4 Comments

चेह्रा फ़क़त हसीं न हो दिल भी हसीं रहे - तरही ग़ज़ल

221  2121 1221 212



राह- ए- बदी से हम कभी वाक़िफ़ नहीं रहे 

फिर भी तेरे निशाने पे वाइज़ हमीं रहे     

कर ग़ौर अपने तौर-तरीकों पे एक बार

चहरा फ़क़त हसीं न हो दिल भी हसीं रहे 



दिल के दियार की ज़रा रौनक बहाल हो

गर इस मकाँ में आप सा कोई मकीं रहे

कर इश्क या जगा दे तसव्वुफ़ तेरी रज़ा

ऐ दिल तेरे खिलाफ़ कभी हम नहीं रहे 



अब भी यहीं हैं फूल कली चाँद सब मगर

दिलकश तुम्हारे बाद ये उतने नहीं रहे



दिल के…

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Added by Gajendra shrotriya on December 6, 2017 at 8:30pm — 12 Comments

जीने के लिए ...

जीने के लिए ...

जाने

कितनी दुश्वारियों को झेलती

ज़िंदगी

रेंगती हसरतों के साथ

खुद भी

रेंगने लगती है

हर कदम

जीने के लिए

ज़ह्र पीती है

हर लम्हा

चिथड़े -चिथड़े होते

आरज़ूओं के

पैबंद सीती है

जाने कब

वक़्त

ज़िंदगी की पेशानी पर

बिना तारीख़ के अंत की

एक तख़्ती

लगा जाता है

उस तख़्ती के साथ

ज़िंदगी रोज

मरने के लिए

जीती है

और

जीने के लिए

मरती है

सुशील सरना…

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Added by Sushil Sarna on December 6, 2017 at 1:25pm — 9 Comments

अचंभित हूँ ....

अचंभित हूँ ....

अचंभित हूँ

इस गहन तिमिर में भी

तुमने श्वासों के

आरोह-अवरोह को

महसूस कर लिया

अचंभित हूँ

तुमने कैसे मेरे

अबोले तिमित स्वरों को

पहचान लिया

और चुपके से

मेरे अंतर्भावों का

अपने नयन स्वरों से

शृंगार कर दिया

अचंभित हूँ

तुम कैसे मुझसे मिलने

हृदय की गहन कंदराओं में

मेरे अस्तित्व की प्रेमानुभूतियों से

अभिसार करने आ गए

मैं तो कब से

अस्तित्वहीन हो गयी थी…

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Added by Sushil Sarna on December 6, 2017 at 1:00pm — 10 Comments

ग़ज़ल-प्रयास में असफल लोग नामुराद नहीं |-कालीपद 'प्रसाद'

काफिया : आद ,रदीफ़ : नहीं

बहर : १२१२  ११२२  १२१२  ११२ (२२)

अभी किसी को’ भी’ नेता पे’ एतिकाद नहीं

प्रयास में असफल लोग नामुराद नहीं |

किये तमाम मनोहर करार, सब गए भूल

चुनाव बाद, वचन रहनुमा को’ याद नहीं |

गरीब सब हुए’ मुहताज़, रहनुमा लखपति

कहा जनाब ने’ सिद्धांत अर्थवाद नहीं |

जिहाद हो या’ को’ई और, कत्ल धर्म के’ नाम

मतान्ध लोग समझते हैं’, उग्रवाद नहीं  |

कृषक सभी है’ दुखी दीन, गाँव…

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Added by Kalipad Prasad Mandal on December 6, 2017 at 10:21am — 9 Comments

उसकी सूरत नई नई देखो

2122 1212 22

उसकी सूरत नई नई देखो ।

तिश्नगी फिर जगा गई देखो।।

उड़ रही हैं सियाह जुल्फें अब ।

कोई ताज़ा हवा चली देखो ।।

बिजलियाँ वो गिरा के मानेंगे ।

आज नज़रें झुकी झुकी देखो ।।

खींच लाई है आपको दर तक ।

आपकी आज बेखुदी देखो ।।

रात गुजरी है आपकी कैसी ।

सिलवटों से बयां हुई देखो ।।

डूब जाएं न वो समंदर में ।

क्या कहीं फिर लहर उठी देखो ।।

हट गया जब नकाब चेहरे से ।

पूरी बस्ती यहां…

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Added by Naveen Mani Tripathi on December 5, 2017 at 7:00pm — 22 Comments

दामन को तीरगी से बचाते चले गए - सलीम रज़ा रीवा

221 2121 1221 212 

दामन को तीरगी से बचाते चले गए

ईमाँ की रोशनी में  नहाते चले गए

 -

हम दर-बदर की ठोकरे खाते चले गए

फिर भी तराने प्यार के गाते चले गए

 -

कोशिश तो की भंवर ने डुबोने की बारहा

हम कश्ती-ए-हयात बचाते चले  गए

 -

रुसवाईयों के डर से कभी बज़्में नाज़ में

हंस-हंस के दिल का दर्द छुपाते चले गए

 -

अपना रहा ख़्याल न कुछ होश ही रहा

आँखों में उनकी हम तो समाते चले गए

 -

करता है जो सभी के मुक़द्दर का…

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Added by SALIM RAZA REWA on December 5, 2017 at 6:00pm — 16 Comments

ग़ज़ल

2122 1212 22

वक्त के साथ खो गयी शायद ।

तेरे होठों की वो हँसी शायद ।।

बन रहे लोग कत्ल के मुजरिम।

कुछ तो फैली है भुखमरी शायद ।।

मां का आँचल वो छोड़ आया है ।

एक रोटी कहीं दिखी शायद ।।

है बुढापे में इंतजार उसे ।

हैं उमीदें बची खुची शायद ।।

लोग मसरूफ़ अब यहां तक हैं ।

हो गयी बन्द बन्दगी शायद ।।

खूब मतलब परस्त है देखो ।

रंग बदला है आदमी शायद…

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Added by Naveen Mani Tripathi on December 5, 2017 at 2:30pm — 3 Comments

लघुकथा – गप्पी पुत्तू -

लघुकथा – गप्पी पुत्तू -

वैसे  असल नाम तो उसका पुरुषोताम दास था , मगर वह गप्पी इतना तगड़ा था कि सारा गाँव उसे गप्पी पुत्तू कह कर बुलाता था। माँ बाप उसकी इस आदत से इतने परेशान थे कि पूछिये मत।

हर दूसरे दिन स्कूल से माँ बाप को बुलावा आता रहता था। पहली बात तो यह कि वह स्कूल जाता ही बड़ी मुश्किल से था। और कोई ना कोई बहाना बना कर भाग आता था। सारे अध्यापक उसकी आदतों से दुखी थे।

पूरे गाँव में ऐसा कोई नहीं था जो उससे खुश हो। हर कोई उसकी गप्प बाज़ी का शिकार बन चुका था। क्योंकि वह झूठ…

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Added by TEJ VEER SINGH on December 5, 2017 at 11:43am — 8 Comments

कविता--उम्मीद की कुनकुनी धूप

लो फिर आ गई !

नए साल के स्वागत में

उम्मीद की कुनकुनी धूप

भरोसे की मुँडेर पर

आशा-आकांक्षा की परियाँ भी

धीरे-धीरे उतरेंगी धैर्य के आँगन में

नई सोच का बाज़ीगर

सजाएगा नये-नये सपनें

जमा है जो तुम्हारे पास

अडिग विश्वास की पूँजी

अब उसे खर्च करना होगा

नये साल में मितव्ययिता के साथ

नया साल आहिस्ता-आहिस्ता

आज़माएगा तुम्हें

सावधान !! डरना नहीं

धारण कर लो अपना

फौलादी इरादों वाला कवच

जो तुमने गढ़ा है श्रम से ।

मौलिक एवं अप्रकाशित…

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Added by Mohammed Arif on December 5, 2017 at 12:06am — 12 Comments

दोहरा

दोहरा

पत्नी पर पराई-दृष्टी से

होकर खिन्न

डांट कर कहता

तू लोक लाज विहीन

“चल भीतर |”

_______________

पड़ोसिन को सामने पा

स्वागत में मुस्कुरा

गाता हूँ-तिनक धिन-धिन

आप सा कौन कमसिन !

खड़ा रहता हूँ-बाहर |

सोमेश कुमार(मौलिक एवं अप्रकाशित )

Added by somesh kumar on December 4, 2017 at 6:07pm — 5 Comments

तेरे-मेरे दोहे - (२)

तेरे-मेरे दोहे - (२)

नर समझाये नार को, नार करे तकरार,

रार-रार में खो गया ,मधुर पलों का प्यार।१ ।

बिन तेरे पूनम सखा , लगे अमावस रात ,

प्रणय प्रतीक्षा दे गयी ,अश्कों की सौग़ात।२।

तेरी मीठी याद है ,इक मीठा अहसास,

रास न आये श्वास को, जीवन का मधुमास।३ ।

अवगुंठन में देह की ,स्पंदन हुए उदास,

दृगजल बन बहने लगी , अंतर्मन की प्यास।४ ।

मौन भाव को मिल गए ,स्पर्श मधुर आयाम ,

पलक नगर को दे गए, स्वप्न अमर…

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Added by Sushil Sarna on December 4, 2017 at 5:30pm — 10 Comments

न पूछता है.. कोई आज यूँ पता मेरा/

बहर:- 1212-1122-1212-22



मेरे अतीत मेँ जाकर के जिन्दगी मुझसे॥

क्योँ चाहती हो मेरा प्यार,दोस्ती मुझसे॥

न पूछता है.. कोई आज यूँ पता मेरा॥

तमाम शहर मेँ इक तुम हो अजनबी मुझसे॥…

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Added by amod shrivastav (bindouri) on December 4, 2017 at 3:30pm — 5 Comments

ग़ज़ल,,,,इशारों का साथ दो,,,,,,,

221/2121/1221/212



है इख़्तियार तुमको बहारों का साथ दो।

लेकिन कभी तो दर्द के मारों का साथ दो।।



गर हैं निजात के लिए दरकार नेकियाँ।

डोली उठाने वाले कहारों का साथ दो।।



बाहम वो मिल सके न जो सारी हयात में।

मजबूर बेक़रार कनारों का साथ दो।।



तुम इन उदासियों की रिदाओं को चीर कर।

दिलकश हसीन शौख़ नजारों का साथ दो।।



ये वक़्त का तकाजा़ है दानाइ भी यही।

रक्खो ज़ुबान बंद इशारों का साथ दो।।



मिट्टी के ढेर हैं ये फ़कत और… Continue

Added by Afroz 'sahr' on December 4, 2017 at 1:36pm — 20 Comments

गणितज्ञ (लघुकथा)

तमाम अटकलों के बीच आयुषी की आकस्मिक मौत मीडिया, पुलिस और जांच एजेंसियों के लिए रोमांचक और रोमांटिक विषय बन चुकी थी। छान-बीन में जब उसकी ख़ास सहेली तसनीम का ख़ास ख़त खोजियों के हाथ लगा तो वह भी मीडिया में वायरल हो कर सार्वजनिक हुआ :



अज़ीज़म आयुषी,



हर बार किसी न किसी इशारे से आत्महत्या के इरादे ज़ाहिर करती हो। दुःख होता है तुम जैसी होनहार सहेली की ऐसी नकारात्मक सोच पर, इसलिए सोचा कि मैं अपनी आपबीती सुनाकर काश तुम्हें इस घोर अवसाद से बाहर ला सकूं।

मर्द जाति के 'उस'… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 4, 2017 at 1:30pm — 5 Comments

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