काफिया : अर ; रदीफ़ : नहीं हूँ मैं
बहर : २२१ २१२१ १२२१ २१२ (२१२१)
तारीफ़ से हबीब कभी तर नहीं हूँ’ मैं
मुहताज़ के लिए कभी’ पत्थर नहीं हूँ’ मैं |
वादा किया किसी से’ निभाया उसे जरूर
इस बात रहनुमा से’ तो’ बदतर नहीं हूँ’ मैं |
वो सोचते गरीब की’ औकात क्या नयी
जनता हूँ’ शाह से कहीं’ कमतर नहीं हूँ’ मैं |
जनमत ने रहनुमा को’ जिताया चुनाव में
हर जन यही कहे अभी’ नौकर नहीं हूँ’ मैं…
ContinueAdded by Kalipad Prasad Mandal on December 3, 2017 at 4:39pm — 8 Comments
आज फिर उसने कुछ कहा मुझसे।
आज फिर उसने कुछ सुना मुझसे।।
बाद मुद्दत के आज बिफ़रा था।
आज दिल खोल कर लड़ा मुझसे।।
जिसकी क़ुर्बत में शाम कटनी थी।
हो गया था वही ख़फ़ा मुझसे।।
दूर दिल से हुए सभी शिकवे।
टूट कर ऐसे वो मिला मुझसे।।
दरमियाँ है फ़क़त मुहब्बत ही।
अब कोई भी नहीं गिला मुझसे।।
चांद तारे या वो फ़लक सारा।
बोल क्या चाहिए ? बता मुझसे।।
क़ुर्बत= सामीप्य
फ़लक=…
Added by डॉ पवन मिश्र on December 3, 2017 at 1:30pm — 16 Comments
Added by पंकजोम " प्रेम " on December 3, 2017 at 1:23pm — 15 Comments
मैं कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं,
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं,
भेद-भाव के दरया को,
पाटने की कोशिश में,
सूरज के घर में चाॅंद का,
संदेशा लेकर जाता हॅूं, हाॅं,
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं।
खुशियों को ढ़ूंढ़ने निकला हॅूं,
मिल भी गयी दुखदायी खुशी,
दुखदायी खुशी के चक्कर में,
हसीन गम को भूल जाता हॅूं।, हाॅं,
मैं भी कवि-सम्मेलन में जाता हॅूं।
ऐशो-आराम की जिंदगी मिली है,
आराम से सोता पर क्या करूॅं,
पहले हजारों अर्धनिद्रा से…
Added by Manoj kumar shrivastava on December 3, 2017 at 1:00pm — 4 Comments
समय की कोई अनदेखी गुमनाम कढ़ी
संभावनाओं की रूपक रश्मि से भरी
प्राण-श्वास को पूर्ण व पुलकित करती
पेड़ों की छायाएँ घटती मिटती बढ़ती-सी
धरती के गालों पर छायाएँ बेचैन नहीं थीं
किसी मीठे समीर की मीठी कोमल झकोर
हँसा कर फूलों को करती थी आत्म-विभोर
प्रात की नई उमंगों में भू को नभ से जोड़ते
जिज्ञासा की उजली चादर के फैलाव में हम
कोरे बचपन में एक ही पथ पर थे साथ चले
आयु की मामूली सच्चाईओं से घिरे हम…
ContinueAdded by vijay nikore on December 3, 2017 at 12:36am — 10 Comments
गीत
धरती अम्बर पर्वत नदियाँ,सबके ताने सुनने हैं
हमने जितने कंटक बोये, इस जीवन में चुनने हैं
सर्दी गर्मी की मार सही
या बिन मौसम बरसात सही
चंदा तारों से जगमग हों
या काली नीरव रात सही
हमको तो अभिलाषाओं के,ताने बाने बुनने हैं
हमने जितने कंटक बोये,इस जीवन में चुनने हैं
इक मजहब की दीवार मिले
या वर्ण वर्ग की रार मिले
तेरे मेरे की खाई हो
या द्वेष जलन का हार मिले
हमको तो रिश्तों के मानक ,खामोशी से गुनने…
ContinueAdded by rajesh kumari on December 2, 2017 at 7:00pm — 11 Comments
Added by Ram Awadh VIshwakarma on December 2, 2017 at 6:48pm — 30 Comments
लघुकथा -– आँखें -
"सुबोध, यह क्या हिमाक़त है। मुझे पता चला है कि तुमने एक अंधी लड़की से शादी करने का फ़ैसला किया है"?
"जी पिताजी, आपने बिलकुल सही सुना है"।
"तुम्हारा दिमाग तो नहीं खराब हो गया। तुम एक अरबपति व्यापारी की इकलौती संतान हो। साथ ही जाने माने डाक्टर भी हो। तुम्हारे लिये कितने बड़े घरानों से रिश्ते आ रहे हैं, कुछ पता है"?
"मगर मेरा फ़ैसला अटल है"।
"ऐसी क्या वज़ह है जो तुम परिवार के मान सम्मान और प्रतिष्ठा को दॉव पर लगा कर उस मामूली से परिवार की लड़की से…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on December 2, 2017 at 6:16pm — 10 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on December 2, 2017 at 1:04pm — 9 Comments
2122 2122 2122
एक क़तरा था समंदर हो गया हूँ।
मैं समय के साथ बेहतर हो गया हूँ।।
कल तलक अपना समझते थे मुझे जो।
उनकी ख़ातिर आज नश्तर हो गया हूँ।।
मैं बयां करता नहीं हूँ दर्द अपना।
सब समझते हैं कि पत्थर हो गया हूँ।।
ज़िन्दगी में हादसे ऐसे हुए कुछ।
मैं जरा सा तल्ख़ तेवर हो गया हूँ।।
जख़्म दिल के तो नहीं अब तक भरे हैं।
हां मगर पहले से बेहतर हो गया हूँ।।
सुरेन्द्र इंसान
मौलिक व अप्रकाशित
Added by surender insan on December 2, 2017 at 1:00pm — 23 Comments
Added by Manoj kumar shrivastava on December 2, 2017 at 8:41am — 8 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on December 2, 2017 at 8:23am — 5 Comments
बेखब़र क्यों हो गया तू? हो गया अनजान क्यों?
ज़िंदगी तुझ पर ये दिल भी, कर गया कुरबान क्यों?
बेबसी कुछ भी नहीं थी, जिंदगी के दरमियाँ,
चार दिन का बन गया फिर, तू मिरा महमान क्यों?
पूछती है हाल …
ContinueAdded by प्रदीप कुमार पाण्डेय 'दीप' on December 1, 2017 at 8:30pm — 4 Comments
तुम शब्द हो
और मैं अर्थ
तुम हो तो मैं हुं
शब्द बिन अर्थ बेकार
निशब्द संसार
तुम प्रीत हो
और मैं जोगन…
ContinueAdded by जयति जैन "नूतन" on December 1, 2017 at 7:30pm — 3 Comments
Added by Mohammed Arif on December 1, 2017 at 12:35am — 18 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 30, 2017 at 11:42pm — 16 Comments
Added by Manoj kumar shrivastava on November 30, 2017 at 11:07pm — 5 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on November 30, 2017 at 5:30pm — 4 Comments
Added by Rahila on November 29, 2017 at 11:49am — 7 Comments
समय के साँचे में कुछ भभका सहसा
गुन्थन-उलझाव व भार वह भीतर का
चिन्ताग्रस्त, तुमने जो किया सो किया
वह प्रासंगिक कदाचित नहीं था
न था वह स्वार्थ न अह्म से उपजा
किसी नए रिश्ते की मोह-निद्रा से प्रसूत
ज़रूर वह तुम्हारी मजबूरी ही होगी
वरना कैसे सह सकती हो तुम
मेरी अकुलाती फैलती पीड़ा का अनुताप
तुम जो मेरे कँधे पर सिर टिकाए
आँखें बन्द, क्षण भर को भी
मेरा उच्छवास तक न सह सकती थी
और अब…
ContinueAdded by vijay nikore on November 29, 2017 at 7:51am — 15 Comments
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