For any Query/Feedback/Suggestion related to OBO, please contact:- admin@openbooksonline.com & contact2obo@gmail.com, you may also call on 09872568228(योगराज प्रभाकर)/09431288405(गणेश जी "बागी")

All Blog Posts (18,988)

दिल ये कैसे बदल गया

अरकान:'फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ेलुन फ़ा'

दिल ये कैसे बदल गया
यादों से ही बहल गया

देखी जो तस्वीर तेरी
मेरा दिल फिर मचल गया

ज़ालिम हैं सब लोग यहाँ
दिल ये सुनकर दहल गया

डूबा था मैं यादों में
दिन तेज़ी से निकल गया

मेरा क़िस्सा सुनते ही
पत्थर का बुत पिघल गया

#संतोष
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by santosh khirwadkar on September 12, 2017 at 4:30pm — 8 Comments

ग़ज़ल - जो मुद्दत से मुझे पहचानता है

1222 1222 122

मेरी पहचान को खारिज़ किया है ।

जो मुद्दत से मुझे पहचानता है ।।



खुशामद का हुनर बख्सा है रब ने ।

खुशामद से वो आगे बढ़ रहा है ।।



जतन कितना करोगे आप साहब ।

ये भ्रष्टाचार अब तक फल रहा है ।।



यकीं होता नही जिसको खुदा पर ।

वही इंसां खुदा से माँगता है ।।



उन्हें ही डस रहें हैं सांप अक्सर ।

जो सापों को घरों में पालता है ।।



गया मगरिब में देखो आज सूरज ।

पता वह चाँद का भी ढूढता है ।।



मदारी के लिए… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on September 12, 2017 at 1:58pm — 13 Comments

कविता कपुतली

औरत की जिन्दगी बन गई एक कठपुतली

जिन्दगी डोर कभी इस हाथ में, तो कभी उस हाथ में

नही रहा कुछ अपने हाथ में

बचपन की डोर मॉ बाप के हाथ में

यौवन की डोर बंधी पति के हाथ में

इधर नाचती उधर नाचती

पहुची जब आखिरी पडाव में

जा पहुची बच्चों के हाथ में

औरत की जिन्दगी बन गई एक कठपुतली

सारी उमर बीत गई सोचते सोचते

क्या रहा अपने हाथ में

समझती रही सबके इशारे

करके हर अपने अरमान किनारे

औरत की जिन्दगी बन गई एक कठपुतली

सबको अपनाया सबको दुलराया

जब… Continue

Added by Sweet Panday on September 11, 2017 at 5:07pm — 5 Comments

*अनुवांशिक गुण*(लघुकथा)राहिला

पिताजी हमेशा के लिए शांत हो चुके थे ।और अपने पीछे छोड़ गए थे अपने ग़ुस्सैल स्वभाव ,बुरी आदतों और थोपे गए फैसलों के अनगिनत किस्से ।साथ ही बड़े और मंझले भाई के रूप में अपनी छाया।लेकिन अपने गिरेवान में झांकने की जुर्रत कौन करता ।भूल से यदि कोई उन्हें आईना दिखा देता, तो झट अनुवांशिक लक्षणों की आड़ में ठीकरा, पिता के सिर पर फूटता ।आज पिताजी के फूल थे।और घर की बैठक में घरु लोगों की बैठक जमी थी।

"अब बुआ !मुझे कोई क्यों दोष दे,गुस्सा तो पिताजी की ही देन है ।स्वभाव और व्यक्तित्व एक दिन में थोड़ी ना बन… Continue

Added by Rahila on September 11, 2017 at 1:30pm — 10 Comments

कविता - भावी गान

मै लिख दूंगा कोई गा देगा,

मेरा गीत अमर हो जायेगा।

अधरोँ पर शब्द मेरे होंगे

जिह्वा पर शब्द मेरे होंगे,

कण्ठो के उच्छवासोँ मे भी,

श्रवणोँ मे शब्द मेरे होंगे।

संगीत मे कोई सजा देगा,

मेरा गीत अमर हो जायेगा।

मै लिख...............

स्पन्दन मे; अजवन्दन मे,

परिहास और अभिनन्दन मे;

उत्साह और अभिलाषा मे,

करुणा मे निर्जन कानन मे।

शब्दो कि वायु बहा देगा,

मेरा गीत अमर हो जायेगा।

मै…

Continue

Added by ARUNESH KUMAR 'Arun' on September 10, 2017 at 4:00pm — 6 Comments

वो तुम थी....

मेरे घर, मेरे शहर, मेरे लफ्जों को

एक आहट सी लगी,

कि कोई उन्हें छूकर चला गया.. 



वो ठंडी सी छुवन, 

एक भंवर सी कम्पन... 

लगा पहाड़ों से कोई 

मंदाकिनी आ गयी.. 

लगा मेरे लफ्जों को, 

एक आवाज सी मिल गयी.. 

जैसे मेरे गीतों को, 

कोई छूकर चला गया... 



उन्हें कहें भी,

क्या कहें..

किस हक़ से कहें ?

कि दीदार तो जरूरी था..

इन्तजार तो जरूरी था,

या वो ऐतबार भी जरूरी था.. 

जैसे मेरा कोई अपना हो,

जो छूकर चला…

Continue

Added by BS Gauniya on September 10, 2017 at 2:00pm — 5 Comments

रोशनी में सिसकियां (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

रोशनी की किरण के रास्ते को जब उस युवती ने अपनी हथेली से बाधित किया तो उसकी चारों उंगलियां लालिमा पाकर उसे भाव संसार में ले गईं।

"लोकतंत्र के चारों स्तंभों में नारी भी सक्रिय है, नारी का महान योगदान है!" यही तो उसकी मां ने उसे बताया, समझाया और फिर इस लायक बनाया कि वह आज इन सभी के संपर्क में है बतौर मीडियाकर्मी। मां की मधुर स्मृतियां उसे भाव संसार में ले गईं। कुछ पल ही गुज़रे कि उसकी आंखों से आंसू लाल गालों को गर्माहट सी देने लगे।

"परिपक्व कहलाने वाले हमारे इस लोकतंत्र के चारों स्तंभ आज… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 9, 2017 at 11:23pm — 12 Comments

मै एक पेड़ होता और तुम होती गिलहरी

काश,

मै एक पेड़ होता

और तुम होती

गिलहरी

जो अपनी बटन सी

चमकती आँखों से

इधर - उधर देखती

ऊपर चढ़ती और कभी उतरती

तुम्हे देखता

चुक -चुक करते हुए हरी पत्तियों को

अपने मुहे में दबाये हुए फुदकते हुए

और फिर ज़रा सी आवाज़ या

आहट से भाग के मेरे तने की खोह में छुप जाना

जैसे, तुम दुपुक जाती थी

मेरी बाँहों में,

उन दिनों जब हम तुम दोनों थे

एक दूजे के गहन प्रेम में

(हलाकि मै तो आज भी हूँ

तुम्हारे प्रेम में, तुम्हारा पता नहीं… Continue

Added by MUKESH SRIVASTAVA on September 9, 2017 at 11:06pm — 8 Comments

सूरजमुखी - लघुकथा

"मणिधर, ये 'गिफ्ट पैक' 222 नंबर में मैडम को दे आओ।" सिक्योरटी इंचार्ज का आदेश मिलते ही उसके मन में एक विचार कौंध गया था और कुछ क्षण बाद ही वह एक हाथ में 'गिफ्ट' और दूसरे हाथ में चटक लाल रंग का गुब्बारा लिये मैडम के दरवाजे पर था।

बहुत ज्यादा दिन नही हुए थे उसे, इस मल्टीस्टोरी फ्लैटों से सुसज्जित सुंदर सोसायटी में सुरक्षा गार्ड की ड्यूटी पर आये हुए। आते-जाते लोगों की निगरानी के बीच खाली समय में वह अक्सर फ्लैटों पर अपनी नजरें घुमाया करता था। और इसी बीच सातवें माले के उस कार्नर फ्लैट की बड़ी…

Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on September 9, 2017 at 8:30pm — 23 Comments

गीत बन कर मिलो.....

गीत बन कर मिलो, गुनगुनाऊँगा मैं,

मेरी जाने ग़ज़ल, तुमको गाऊँगा मैं...

दूरियां दरमियां, और कब तक रहें,

ग़म जुदाई के हम, बोलो कब तक सहें,

और कब तक भला, आजमाऊँगा मैं,

मेरी जाने ग़ज़ल....

एक दस्तक हुई, आज दिल पे मेरे,

मेरी उम्मीद है, ये करम हो तेरे,

और कब तक यूँ ही, दिल जलाऊँगा मैं...

मेरी जाने ग़ज़ल....

दिन ये ख़ामोश हैं, रात में करवटें,

आरजू है धुआँ, याद में सिलवटें,

तुमको कैसे भला, भूल पाऊँगा मैं,

मेरी जाने…

Continue

Added by Ravindra Pandey on September 9, 2017 at 2:30pm — 4 Comments

गजल(तंज कसे...)

22 22 22 22

तंज कसे फिर हाथ हिलाये।

लगता खुद पर ही पछताये।1



हाथ मिलाना,ख़ंजर लेकर,

यह चीनी लहजा कहलाये।2



बेमतलब का घुसपैठी बन

अरुणाचल पर आँख गड़ाये।3



बासठ बासठ करता रहता

सतरह में वह पीठ दिखाये।4



भारत के अंदर वह अपने

देश बने सामां बिकवाये।5



'आतंकी सब ढ़ेर करेंगे',

कह लेता,फिर फिर सहलाये।6



पाँच दिशा के दोस्त बुलाकर(ब्रिक देश)

अपना ही बाजा बजवाये।7



भूल गया सब चाल-बिसातें

पाँच… Continue

Added by Manan Kumar singh on September 9, 2017 at 12:03pm — 10 Comments

मेघदूत (उत्तर मेघ) के ४३ एवं ४४ वें छंद का काव्यानुवाद

प्रिये, स्वप्न दर्शन में जब तुम किसी भाँति हो मिल जाती

निष्ठुर भुजपाशों में भरने की ज्यों ही बेला आती

आतुर हो जब महा शून्य में अपना भुज मैं फैलाता   

 मेरी करुणा पर वन देवी  का दृग-अंचल भर आता 

 मोटे-मोटे मुक्ताहल से अश्रु कपोलों पर आते 

और पादपों के पल्लव पर  सहसा बरस बिखर जाते   (४३)

                

देवदार तरु के नैसर्गिक मुड़े हुए मृदु पातों को 

सहज खोल दक्षिण से आती हिमपर्वत की वातो को

जो उन पल्लव के फुटाव से बहते पय-निर्यासों…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 9, 2017 at 11:30am — 5 Comments

सियाह ज़ुल्फ़ के साये में शाम हो जाये

1212 1122 1212 22*

ये ख्वाहिशें हैं कि दिल तक मुकाम हो जाये ।

सियाह ज़ुल्फ़ के साये में शाम हो जाये ।।



हैं मुन्तज़िर सी ये आंखे कभी तू मिल तो सही।

नए रसूख़ पे मेरा कलाम हो जाये ।।





बड़े गुरुर से उसने उठाई है बोतल ।

ये मैकदा न कहीं फिर हराम हो जाये ।।



फिदा है आज तलक वो भी उस की सूरत पर ।

कहीं न वो भी सनम का गुलाम हो जाये ।।



अदा में तेज हुकूमत की ख्वाहिशें लेकर ।

खुदा करे कि वो दिल का निजाम हो जाए ।।





किसी… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on September 9, 2017 at 1:30am — 9 Comments

मिरा दिल ये कैसे ....संतोष

मिरा दिल ये कैसे बदल गया,
फिर तिरी यादों से बहल गया ।

मैंने देखी जो फिर तस्वीर तिरी,
मिरा दिल फिर से मचल गया ।

लोग ज़ालिम हैं सब कुछ जाने है,
क़िस्सा फिर दुनियाँ में उछल गया ।

तिरी यादों में खोया मैं इस क़दर,
सुबह का सूरज शाम में ढल गया ।

दास्ताँ मिरी जो इक बुत को सुनाई,
वो पत्थर भी मोम सा पिघल गया ।
#संतोष
{मौलिक एवं अप्रकाशित}

Added by santosh khirwadkar on September 8, 2017 at 10:30pm — 7 Comments

काश!

दूर गगन को मैं छू पाऊँ,

काश! कभी ऐसा हो सकता

पाखी बन कर मैं उड़ जाऊँ,

काश! कभी ऐसा हो सकता ?



सारा अंबर घर हो मेरा ।

सदा धरा पर रहे बसेरा ।

इंद्र्धनुष भी मैं बन जाऊँ,

काश! कभी ऐसा हो सकता ?



फूलों की ख़ुशबू बन महकूँ ।

चिड़ियों की जैसी मैं चहकूँ ।

सारा गुलशन मैं महकाऊँ,

काश! कभी ऐसा हो सकता ?



चंदा की मैं ओढ़ चुनरिया।

तारों के संग छैयाँ छैयाँ ।

रोज़ चाँदनी सी झर जाऊँ,

काश! कभी ऐसा हो सकता ?



मौलिक… Continue

Added by Uma Vishwakarma on September 8, 2017 at 10:10pm — 3 Comments

ग़ज़ल - दिलबर तुम कब आओगे " सलीम रज़ा

22 22 22 22 22 22 22 2

...........................................

दिलबर तुम कब आओगे सबआस लगाए बैठे हैं "

देखो  फूलों  से  अपना  घर - बार सजाए बैठे हैं "

.

हम तो उनके प्यार का दीपक दिल में जलाए बैठे हैं " 

जाने  क्यों  वो  हमको  अपने  दिल से भुलाए बैठे हैं "

.

किसको ख़बर थी भूलेंगे वो बचपन की सब यादों को "

उनकी  चाहत आज तलक हम दिल में बसाए बैठे हैं "…

Continue

Added by SALIM RAZA REWA on September 8, 2017 at 10:00pm — 5 Comments

लघु कथा

चिंता



"चलो जल्दी । सब बाहर निकलो । बाँध टूट चुका है। पानी बहुत तेज़ी से इधर की ओर आ रहा है ।" बाहर से कई आवाज़ें आ रही थी । आवाज़ सुनते ही शन्नो रसोई में घुस गई । पूरे घर में घुटने तक पानी भर चुका था । रसोई से दाल,चावल,आटा,नमक जितना कुछ उसके दुपट्टे में बँध सका, उसने बाँध लिया । ऊपर रखे डिब्बे में से गुड़मुड़ाए नोटों को निकलना कैसे भूल सकती थी ? निकालने को वो उचकी ही थी कि तभी "अरे! शन्नो जल्दी चल । सब छोड़ दे।" बाहर रफ़ीक चिल्ला रहे थे। "कहाँ मर गई ? जाने कौन सी कचौड़ी पका रही है… Continue

Added by Uma Vishwakarma on September 8, 2017 at 5:48pm — 6 Comments

घरोंदों को जलाया है किसी ने दोस्ती करके

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२

घरोंदों को जलाया है किसी ने दोस्ती करके 

चिरागों को बुझाया है किसी ने दोस्ती करके 

सुकूं था जिसके जीवन में जिसे आती थी मीठी नींद 

उसे शब् भर जगाया है किसी ने दोस्ती करके 

जो दुश्मन था जमाने से जो प्यासा था लहू का ही 

उसी को अब बचाया है किसी ने दोस्ती करके 

अँधेरे में मेरा साया हुआ कुछ इस तरह से गुम

ज्यूँ रिश्ता हर भुलाया है किसी ने दोस्ती करके 

फकीरों की तरह जीता, था खुश तन्हाई…

Continue

Added by Dr Ashutosh Mishra on September 8, 2017 at 5:27pm — 5 Comments

मुझे भी कुछ कहना है – लघुकथा -

 मुझे भी कुछ कहना है –  लघुकथा -

 "माँ, मुझे कुछ पल अकेला छोड़ दो। मुझे एकांत चाहिये"।

"ठीक है नीरू, पर तू अंधेरे में क्या कर रही है? तेरे दिमाग में कुछ ऐसा वैसा तो नहीं चल रहा"।

"माँ, आपकी बेटी इतनी कमजोर नहीं है"।

"मैं जानती हूँ। इसीलिये तो डर लगता है। तू यह लिखना छोड़ क्यों नहीं देती"?

"माँ, आप कैसी बात कर रहे हो? वह मेरी गुरू थी। मेरी आदर्श थी। उसे गोलियों से उड़ा दिया।  और मैं चुप हो कर बैठ जाऊँ। असंभव"।

"बेटी, मुझे तेरी जान की चिंता है। जिस काम…

Continue

Added by TEJ VEER SINGH on September 8, 2017 at 11:06am — 10 Comments

है शिकायत दिल को ऐसा क्यूँ नहीं.....{.ग़ज़ल } संतोष

 अरकान : फ़ाइलातून   फ़ाइलातून  फ़ाइलुन  

है शिकायत दिल को ऐसा क्यूँ नहीं

जब तू मेरा है तो लगता क्यूँ नहीं



जब नज़र से मिल नहीं पाती नज़र

ख़्वाब से बाहर निकलता क्यूँ नहीं



लग रही है क्यूँ थमी दुनिया मुझे

तू भी मौसम सा बदलता क्यूँ नहीं



है ज़बाँ चुप और धड़कन तेज़ है

तू इशारों को समझता क्यूँ नहीं



जिस्म ठण्डा पड़ गया'संतोष'…

Continue

Added by santosh khirwadkar on September 7, 2017 at 6:58pm — 14 Comments

Monthly Archives

2024

2023

2022

2021

2020

2019

2018

2017

2016

2015

2014

2013

2012

2011

2010

1999

1970

कृपया ध्यान दे...

आवश्यक सूचना:-

1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे

2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |

3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |

4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)

5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |

6-Download OBO Android App Here

हिन्दी टाइप

New  देवनागरी (हिंदी) टाइप करने हेतु दो साधन...

साधन - 1

साधन - 2

Latest Activity

Shyam Narain Verma commented on लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर''s blog post करते तभी तुरंग से, आज गधे भी होड़
"नमस्ते जी, बहुत ही सुंदर और उम्दा प्रस्तुति, हार्दिक बधाई l सादर"
Saturday
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"आदाब।‌ बहुत-बहुत शुक्रिया मुहतरम जनाब तेजवीर सिंह साहिब।"
Oct 1
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"हार्दिक बधाई आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब जी।"
Sep 30
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"हार्दिक आभार आदरणीय शेख शहज़ाद उस्मानी साहब जी। आपकी सार गर्भित टिप्पणी मेरे लेखन को उत्साहित करती…"
Sep 30
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"नमस्कार। अधूरे ख़्वाब को एक अहम कोण से लेते हुए समय-चक्र की विडम्बना पिरोती 'टॉफी से सिगरेट तक…"
Sep 29
TEJ VEER SINGH replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"काल चक्र - लघुकथा -  "आइये रमेश बाबू, आज कैसे हमारी दुकान का रास्ता भूल गये? बचपन में तो…"
Sep 29
Sheikh Shahzad Usmani replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"ख़्वाबों के मुकाम (लघुकथा) : "क्यूॅं री सम्मो, तू झाड़ू लगाने में इतना टाइम क्यों लगा देती है?…"
Sep 29
Admin replied to Admin's discussion "ओबीओ लाइव लघुकथा गोष्ठी" अंक-114
"स्वागतम"
Sep 29
अमीरुद्दीन 'अमीर' बाग़पतवी replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"//5वें शेर — हुक्म भी था और इल्तिजा भी थी — इसमें 2122 के बजाय आपने 21222 कर दिया है या…"
Sep 28
Dayaram Methani replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"आदरणीय संजय शुक्ला जी, बहुत अच्छी ग़ज़ल है आपकी। इस हेतु बधाई स्वीकार करे। एक शंका है मेरी —…"
Sep 28
Nilesh Shevgaonkar replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"धन्यवाद आ. चेतन जी"
Sep 28
Aazi Tamaam replied to Admin's discussion "ओ बी ओ लाइव तरही मुशायरा" अंक-171
"आदरणीय ग़ज़ल पर बधाई स्वीकारें गुणीजनों की इस्लाह से और बेहतर हो जायेगी"
Sep 28

© 2024   Created by Admin.   Powered by

Badges  |  Report an Issue  |  Terms of Service