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आस्था (लघु कथा)

संतों तक को झूठी रिपोर्ट के आधार पर गिरफ्तार कर सरकार अच्छा नहीं कर रही | देश विदेश में लाखों अनुयायी किसी के ऐसे ही बनते | मेरे घर से अपनी बहन के साथ इनके आश्रम में 15 दिन रहकर आई है | चेलों का बड़ा ख्याल रखा जाता है | नियमित व्याखान और पूजा पाठ चलता रहता है | बहुत पहुँचे हुए संत है, मैंने भी पुष्कर में इनके प्रवचन सुने है |

पाठक जी बोले - ये सब तो ठीक है ओझा जी, पर इनके खिलाफ अश्लील कारनामे और महिलाओं के साथ लिप्त पाए जाने के पुख्ता सबूत के आधार पर ही गिरफ्तार किया है | कई शहरों में…

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Added by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on February 21, 2017 at 12:22pm — 10 Comments

ग़ज़ल नूर की : ये नहीं है कि हमें उन से मुहब्बत न रही,

२१२२, ११२२, ११२२, २२



ये नहीं है कि हमें उन से मुहब्बत न रही,

बस!! मुहब्बत में मुहब्बत भरी लज्ज़त न रही. 

.

रब्त टूटा था ज़माने से मेरा पहले-पहल,

रफ़्ता-रफ़्ता ये हुआ ख़ुद से भी निस्बत न रही.

.

ज़ह’न में कोई ख़याल और न दिल में हलचल,

ज़िन्दगी!! मुझ में तेरी कोई अलामत न रही.

.

उन से नज़रें जो मिलीं मुझ पे क़यामत टूटी,

वो क़यामत!! कि क़यामत भी क़यामत न रही.

.

याद गर कीजै मुझे, यूँ न…

Continue

Added by Nilesh Shevgaonkar on February 21, 2017 at 12:00pm — 17 Comments

नज़्र ....

नज़्र ....

सहर हुई
तो ख़बर हुई
शब्
सिर्फ
बातों को
नज़्र हुई
रहते ख़ामोश
नज़रों को
जुबां देते
रात यूँ ही
नज़रों के
दरमियाँ गुज़ार देते
लम्स करते बयाँ
सफर निगाहों का
फिर

न सहर की
खबर होती
न शब्
लफ़्ज़ों को
नज़्र होती

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on February 20, 2017 at 1:34pm — 12 Comments

ऐसा लगा जमी पे आसमा उतर गया

*221 2121 2121 212*



‌मेरी गली के पास से वो यूँ गुजर गया ।

ऐसा लगा जमीं पे आसमा उतर गया ।।



माना मुहब्बतों का फ़लसफ़ा अजीब है ।

शायद नज़र खराब थी वो भी उधर गया ।।



मैं रात भर सवाल पूछता रहा मगर ।

उसका जबाब हौसलों के पर क़तर गया ।।



‌तुमने दिए जो जख़्म आज तक न भर सके ।

‌जब जब किया है याद दर्द फिर उभर गया ।





इस तर्ह उस हसीन की तू पैरवी न कर ।

मतलब निकलने पर जो रब्त से मुकर गया ।।



‌तू मेरी आजमाइशों की कोशिशें… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on February 20, 2017 at 12:53am — 16 Comments

ग़ज़ल (बह्र-22/22/22/2)

उसने मुझको देखा है,
शायद कुछ तो सोचा है।
मंज़र कुछ ऐसा है जो,
उसकी आँखों देखा है।
मुश्क़िल राहों पे अब वो,
धीरे-धीरे चलता है।
कहता है वो सच को सच
सबको कड़वा लगता है।
उस पे शक़ करना कैसा,
वह तो जाँचा परखा है।
सुख-दुख के मौसम को, वह
ख़ामोशी से सहता है।
बारिश हो जाने से अब,
मौसम बदला-बदला है।

.
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Mohammed Arif on February 19, 2017 at 3:30pm — 15 Comments

मैं भी गलती करता हूँ (तरही गजल)

बह्र 22 22 22 2

हाड़ मास का पुतला हूँ
मैं भी गलती करता हूँ ||

बच्चों को फुसलाने में
दिल रोये पर हँसता हूँ ||

जाति धर्म के बीच फँसी
लोक तंत्र की जनता हूँ||

सीख न पाया मैं लहजा
यूँ तो ग़ज़लें कहता हूँ ||

जीवन नश्वर है फिर भी
आशाओं पर जीता हूँ ||

अंक गणित सा जीवन है
गुणा भाग में उलझा हूँ ||

साथ लिए  इक ख़ालीपन
"अपनी धुन में रहता हूँ ||"


(मौलिक व अप्रकाशित)'₹

Added by नाथ सोनांचली on February 19, 2017 at 2:53pm — 26 Comments

मेरे प्यारे-प्यारे वैज्ञानिकों

सीलन भरी छत पर बैठकर

चाँद की ख़ूबसूरती को निहारने वाले

मेरे प्यारे-प्यारे वैज्ञानिकों

यदि संभव हो

तो अगली बार

भूख़, ग़रीबी, शोषण

और अत्याचार के साथ

इस नफ़रत भरी

विषैली बेल को भी

अपने उपग्रहों में लपेट कर

इस पृथ्वी से दूर

बहुत दूर

सुदूर अन्तरिक्ष में

छोड़ देना तुम

जहाँ से फिर कभी लौटना

संभव न हो

और हाँ

अगर तुम्हारे यान में

थोड़ी सी जगह और बचे

तो बिठा लेना मुझे भी

और फेंक देना रास्ते में

जहाँ कहीं… Continue

Added by Mahendra Kumar on February 19, 2017 at 11:30am — 23 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -इक अधूरी नज़्म मेरी ज़िन्दगी थी - ( गिरिराज )

2122   2122    2122 

हर हथेली, क़ातिलों की जान ए जाँ  है

ज़ह्र उस पे, मुंसिफों सा हर बयाँ है     

 

बाइस ए हाल  ए तबाही हैं, उन्हें भी    --

बाइस ए तामीर होने का गुमाँ है  

 

एक अंधा एक लंगड़ा हैं सफर में

प्रश्न ये है, कौन किसपे मेह्रबाँ है

 

किस तरह कोई मुख़ालिफ़ तब रहेगा

जब कि हर इक, दूसरे का राज दाँ है

 

जिन चराग़ों ने पिया ख़ुर्शीद सारा  

उन चराग़ों में भला अब क्यूँ धुआँ है

 

जब…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on February 19, 2017 at 9:30am — 20 Comments

गजल(खबरी)

#गजल#(खबरी)

***

22 22 22 22

बात कहूँ मैं मिर्च मिला के

सुन लेता हूँ कान लगा के।1



दूर कहीं से लाता कौड़ी

चिपका देता खूब सटा के।2



मेरी कथनी हरदम साबित

बढ़ जाता हूँ बात बढ़ा के।3



शास्त्र-पुराण उखड़ जाते हैं

मैं रहता हूँ पाँव जमा के।4



मेरा मौसम हरदम रहता

क्या कर सकते मुँह बिचका के।5



जूतम पैजार हुई सबकी,

जूझ रहे फिर कुर्सी पा के।6



चाहत की बलिहारी कितनी!

रखता मैं हर बार जगा… Continue

Added by Manan Kumar singh on February 19, 2017 at 9:00am — 17 Comments

आर टी ओ बिभाग की हकीकत

कविता 3

परिवहन बिभाग

एक दिन होकर तैयार

अपनी नयी नवेली कार पर सवार

मैंने बनाया लखनऊ शहर घूमने का बिचार

लाजवन्ती नव् बिवाहिता के हौले हौले हटते घूंघट की तरह

हौले हौले गाड़ी को आगे बढ़ाया

गोमती नगर से ज्यों ही गाड़ी आगे बढ़ाई

पोलिश चौकी नजर आयी

सिपाही से होते ही नजरें चार

सिपाही बोला आईये सरकार

हमने कहा फरमाईये

उसने कहा

आर सी और बीमा के कागज़ दिखाईये

मैंने बड़े आत्म बिश्वास से दिखाए

सिपाही ने जब जांचा तो सही पाये

सिपाही ने… Continue

Added by Dr Ashutosh Mishra on February 19, 2017 at 7:38am — 8 Comments

भूखे पेट (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

'भूखे पेट' (लघुकथा) :



सफ़र की थकान दूर करते हुए अगले गंतव्य हेतु रेलगाड़ी की प्रतीक्षा करते-करते एक युवक अब भूख भी बर्दाश्त नहीं कर पा रहा था। अपने झोले में से टिफिन निकाल कर उसने अचार के साथ पूरी खाना शुरू किया ही था कि फटेे-चिथे कपड़े पहने एक दाढ़ी वाला बुज़ुर्ग कांपता लड़खड़ाता हुआ सा उसके बगल में आकर बैठ गया। वह कभी उस युवक को देखता, तो कभी उस साँड़ को जो साफ-सुथरे प्लेटफार्म पर खड़ी रेलगाड़ी की खिड़की से यात्रियों से स्वल्पाहार ग्रहण कर रहा था और कुछ अंग्रेज़ यात्री अपने कैमरों… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 18, 2017 at 7:18pm — 9 Comments

बे-आवाज़ ....

बे-आवाज़ ....

कहां होती है
रिश्ते के
टूटने की
आवाज़
बस
सिसकता है
देर तक
रुखसारों की ढलानों पर
खारी लकीरों पर
सोया
सोज़ में डूबा
बीते लम्हों का
इक साज़
बे-आवाज़

सुशील सरना

मौलिक एवम अप्रकाशित 

Added by Sushil Sarna on February 17, 2017 at 9:10pm — 10 Comments

शिक्षा के पंख

शिक्षा के पंख लगे जब मानव तन में

रंक बने राजा हमारे देश के शासन में

झूमता हृदय सबका खुशी से उमंग में

संभव है सब कुछ आज इस जगत में

धरती को नापे डाले मात्र एक क्षण में

सागर को कैद करले अपनी मुट्ठी में

हिमालय जीत का स्वप्न रखे मन में

अपने यश की पताका गाड़दे अंबर में

भ्रम सारे टूट जाएँ जो फैले समाज में

नफरत मिट जाएँ आपसी व्यवहार में

विकास की नदी बहा दे अपने देश में

समता की फसल खूब लहरे समाज में

आज ममता, भाईचारा दिखे समाज…

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Added by Ram Ashery on February 17, 2017 at 2:30pm — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
बदनाम यूँ करते न कभी शम्अ वफ़ा को (तरही ग़ज़ल 'राज')

221  1221 1221  122

अपनाया मुहब्बत में पतिंगो  ने क़जा को

बदनाम यूँ करते न कभी शम्अ वफ़ा को  

 

है जह्र पियाले में ये मीरा को पता था

बे खौफ़ मगर दिल से लगाया था  सजा को

 

जो लोग  सदाकत से करें पाक मुहब्बत

वो बीच में लाते न कभी अपनी अना को

 

आँधी का नहीं खौफ़ चरागों को भला फिर   

समझेंगे उसे क्या जरा ये कह दो हवा को 

 

देखी वो जवाँ झील लिए नूर की गागर

लो चाँद दीवाना चला अब छोड़ हया…

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Added by rajesh kumari on February 17, 2017 at 10:30am — 16 Comments

अंधकार में सोयी तेरी रूह जगाने आया हूँ

क्या थे कल तुम आज हुए क्या यही बताने आया हूँ |

अंधकार में सोयी तेरी रूह जगाने आया हूँ ||

याद अतीत करो अपना जब तुम तूफान उठाते थे |

सुनकर बस इक तेरी आहट अरिदल हिय थर्राते थे ||1||



पत्थर भी साक्षी हैं तेरे, उन सच्चे बलिदानों के |

मातृभूमि पर मरने वाले, बांका वीर जवानों के ||

पूर्वज मुट्ठी भर थे लेकिन लाखों पर वे भारी थे |

पलभर में दुश्मन नष्ट किये जो बने महामारी थे ||2||



इसी धरा पर कोई बाला अग्नि चिता पर लेटी थी |

वक़्त पड़ा तब शीश कटाने…

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Added by नाथ सोनांचली on February 17, 2017 at 7:30am — 6 Comments

बन्दर और मदारी (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

उसका निरंतर विकास हो रहा है। वह बन्दर ही है, लेकिन बन्दर ही कहलाना नहीं चाहता है। उसने अपनी आँखों पर या कानों पर या मुख पर हथेलियां रखना छोड़कर आदर्शों पर न चलने का फैसला भी कर लिया है। वह अब किसी मदारी के इशारे पर भी नहीं चलना चाहता है। वह अब खुद मदारी बनना चाह रहा है। अब उसके अपने फैसले होते हैं, कब-कितना नाचना है? किसको-कितना नचाना है? लेकिन उसे यह पता नहीं है कि 'फैसले' अब उसके 'मदारी' माफ़िक हो गये हैं। 'फैसले' उसे नचाते रहे हैं! 'फैसले' के जवाब में 'फैसले' हो रहे हैं। 'फैसले' की… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 17, 2017 at 1:29am — 6 Comments

गजल //// और फहर और फहर

 2112   2112   2112   2112

रात ढली मुझे पिला और जहर और जहर

इश्क ही ढाता है सदा और कहर और कहर

                      

गाँव से भी दूर हुयी सुरमई माटी की गमक

दीखता हर ओर जिला और शहर और शहर

 

मौसम अब यार मुझे खुशनुमा लगते है सभी

दिल में उठती है लहर और लहर और लहर

 

रात ये बचपन की बड़ी सादगी में बीत गयी

अब है जवानी की सहर और सहर और सहर 

 

जोश में सागर तू मचल आज है पूनम की कला  

बीच लहर चाँद खिला…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 16, 2017 at 10:16pm — 7 Comments

कुछ हाइकू

सहमी सर्दी

कारागृह में अब

फागुन आया

 

सड़क संग

चलती ही रहती

पगडंडी भी

 

टंगे रहते

सोने के झूमर से

अमलतास

 …

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Added by Neelam Upadhyaya on February 16, 2017 at 4:00pm — 4 Comments

अब की बार दिल की सुन लो

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Added by amita tiwari on February 16, 2017 at 8:30am — 3 Comments

गजल

 221 2121 1221 212

 

बदनाम है जरूर मगर नाम तो हुआ 

अफसाना जिदगी का सरे आम तो हुआ

 

आँखों में बंद था कभी सागर शराब का  

वह तज्रिबे आशिक से लबे जाम तो हुआ

 

महफिल थी जम गयी उनके खयाल की  

था जश्न थोड़ी देर पर दिल-थाम तो हुआ

 

उतरा था एक बार मुहब्बत की जंग में

नाकाम जंग होना था नाकाम तो हुआ   

 

कहते है यार इश्क है अंजाम-बद बहुत

होना था जो अंजाम वो अंजाम तो…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 15, 2017 at 8:39pm — 13 Comments

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