Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on January 23, 2017 at 1:30pm — 7 Comments
‘रिमझिम के तराने लेके आई बरसात.. याद आये किसी की वो पहली मुलाक़ात’ ---गाना बज रहा था बिजनेसमैन आनंद सक्सेना साथ साथ गुनगुनाता जा रहा था रोमांटिक होते हुए बगल में बैठी हुई पत्नी सुरभि के हाथ को धीरे से दबाकर बोला- “सच में बरसात में लॉन्ग ड्राइव का अपना ही मजा होता है”.
“मिस्टर रोमांटिक, गाड़ी रोको रेड लाईट आ गई” कहते हुए सुरभि ने मुस्कुराकर हाथ छुड़ा लिया|
अचानक सड़क के बांयी और से बारिश से तरबतर दो बच्चे फटे पुराने कपड़ों में कीचड़ सने हुए नंगे पाँव से गाड़ी के पास आकर बोले…
ContinueAdded by rajesh kumari on January 23, 2017 at 10:56am — 31 Comments
Added by नाथ सोनांचली on January 23, 2017 at 9:13am — 10 Comments
अँगड़ाई ले रही प्रात है,
कुहरे की चादर को ताने।
ओढ़ रजाई पड़े रहो सब,
आया जाड़ा हाड़ कँपाने।।
तपन धरा की शान्त हो गयी,
धूप न जाने कहाँ खो गयी।
जिन रवि किरणों से डरते थे,
लपट देख आहें भरते थे।
भरी दुपहरी तन जलता था,
बड़ी मिन्नतों दिन ढलता था।
लेकिन देखो बदली ऋतु तो,
आज वही रवि लगा सुहाने।
आया जाड़ा हाड़ कँपाने।।
गमझा भूले मफ़लर लाये,
हाथों में दस्ताने आये।
स्वेटर टोपी जूता मोजा,
हर आँखों ने इनको…
Added by डॉ पवन मिश्र on January 22, 2017 at 8:30pm — 11 Comments
नियति चक्र में
परिवर्तन निश्चित अंकित है,
होना है, हो कर रहता है...
समय प्रबल है
जोड़-तोड़ से कब बंधता है
बहना है, प्रतिपल बहता है...
आँख मींचते
आवरणों को क्यों पकड़ा है ?
छोड़ो इनको, हट जाने दो,
धुंध सींचते
संबंधों के रिसते बादल
गर्जन करके छट जाने दो,
मकड़जाल में
अपने मन के फँसे रहे तो
फिर क्या होगा? कुछ तो सोचो !
भीतर-बाहर
परिवर्तन तो करना होगा
जमी सोच की परतें…
Added by Dr.Prachi Singh on January 22, 2017 at 8:00pm — 10 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on January 22, 2017 at 3:05pm — 14 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on January 21, 2017 at 7:04pm — 13 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 21, 2017 at 5:00pm — 9 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 21, 2017 at 9:30am — 16 Comments
फूलों को प्यार से सुनाती है प्रेम धुन
उन्हीं पर लुटाती अपना सर्वस्य जीवन
बदले में फूलों को देती है नया जीवन
निभाते हैं रिश्ता ये दोनों सारा जीवन ॥
जो फूल हमारे जीवन लाते हैं खुशियाँ
मिटा देते गम भर देते हैं सारी खुशियाँ
भौरें और तितलियाँ बजाती हैं तालियाँ
बदले में जीवन भर करते हैं रंगरेलियाँ ॥
हम इंसानों को नहीं है जरा भी शरम
हम इन फूलों के प्रति कितने बेरहम
फूल तो क्या !कलियों पर नहीं रहम
कहीं भगवान के नाम पर करते…
ContinueAdded by Ram Ashery on January 20, 2017 at 9:00pm — 6 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 20, 2017 at 8:37pm — 8 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 20, 2017 at 7:32pm — 8 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on January 20, 2017 at 5:30pm — 3 Comments
देर तक .....
देर तक
मैं मयंक को
देखती रही
वो वैसा ही था
जैसा तुम्हारे जाने से
पहले था
बस
झील की लहरों पे
वो उदास अकेला
तैर रहा था
देर तक
मैं उस शिला पर
बैठी रही
जहां हम दोनों के
स्पर्शों ने सांसें ली थीं
शिला अब भी वैसी ही थी
जैसी
तुम्हारे जाने से पहले थी
बस
मैं
और थे मेरी देह में
समाहित
तुम्हारे अबोले स्पर्श
देर तक …
Added by Sushil Sarna on January 20, 2017 at 1:30pm — 6 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on January 20, 2017 at 2:39am — 15 Comments
2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2 2
झिलमिल तारों सा सपनो के अम्बर में रहते हो क्यों ?
मलयानिल की मधु धारा सा मानस में बहते हो क्यों?
रेशम सी शर्मीली आँखे गाथा कहती है मन की
निर्ममता के अभिनय क्षण में अंतर्गत चहते हो क्यों?
अंतस में भावों की गंगा यदि पावन है पूजा सी
तो संकल्पों की वर्षा हो फिर पीड़ा सहते हो क्यों?
वृन्दावन की वीथी में तुमने ही झिटकी थी बाहें
फिर उन बाँहों को मंदिर की शाला में गहते हो…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 19, 2017 at 8:30pm — 21 Comments
212 1222 212 1222
वक्त मेरे हाथों से, यूँ फिसल गया चुपचाप
मेरी हर तमन्ना को, वो कुचल गया चुपचाप
चाक दिल, शिकस्ता पा, बेचराग़ गलियों से
भूल अपने ख्वाबों को, मैं निकल गया चुपचाप
एक आइना था…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on January 19, 2017 at 6:16pm — 7 Comments
गीत लिखो कोई ऐसा जो निर्धन का दुख-दर्द हरे।
सत्य नहीं क्या कविता में,
निर्धनता का व्यापार हुआ?
जलते खेत, तड़पते कृषकों को बिन देखे बिम्ब गढ़े।
आत्म-मुग्ध होकर बस निशदिन आप चने के पेड़ चढ़े।
जिन श्रमिकों की व्यथा देखकर क्रंदन के नवगीत लिखे।
हाथ बढ़ा कब बने सहायक, या कब उनके साथ दिखे?
इन बातों से श्रमजीवी का
बोलो कब उद्धार हुआ?
अपनी रचना के शब्दों को, पीड़ित की आवाज कहा।
स्वयं प्रचारित कर, अपने को धनिकों से…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 19, 2017 at 6:00pm — 26 Comments
व्यस्त है हवा
रुक जाए चिंगारी
दावानल से
बीमार पिता
बेटों का झगड़ना
इतना खर्च!
महानगर
भूल गये अपने
पुराने दिन
भूख ग़रीबी
क्या जाने, महलों में
पैदा हुआ जो.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on January 19, 2017 at 4:57pm — 8 Comments
हम मजा लूटते कितने सुख चैन से
कुछ तो सोचो, मजा पे क्या अधिकार है ?
जो शहादत दिए हैं हमारे लिए
याद उनको करो, ना तो धिक्कार है
अपना कर्तव्य क्या है धरा के लिए
फ़र्ज़ कितना चुकाया है हमने यहाँ
मैं कहानी सुनाता हूँ उस वीर की
खो गया आज है जो न जाने कहाँ
वीरता हरदम ही दुनिया में पूजी जाती है
बन के ज्वाला दुष्टों के हौसले जलाती है
ऐसे ही वीरता की गाथा आज गाता हूँ
वीर अब्दुल हमीद की कथा…
Added by आशीष यादव on January 19, 2017 at 2:30pm — 4 Comments
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