मेरे मुस्कुराने का कारण हो तुम
तन्हाई में गुनगुनाने का कारण हो
तपती दोपहर में बरसते सावन में
भीड़ में और दूर तलक
वीरान उदास राहों में
कभी फूलों भरी और
कभी छितराए हुए काँटों में
बेपरवाह चलते जाने का कारण हो
जब कभी तन्हाई मुझे सताती है
दिल को झकझोरती है और
आत्मा को जलाती है
लेकिन वो भूल जाती है
उसके साथ-साथ तुम्हारी याद
हर लम्हा मुझे सहलाती है
और अहसास ये होता
तुम मेरे साथ हो…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 15, 2017 at 5:30pm — 6 Comments
माटी का दिया ......
जलता रहा
इक दिया
अंधेरों में
रोशनी के लिए
तम
अधम
करता रहा प्रहार
निर्बल लौ पर
लगातार
आख़िर
हार गया वो
धीरे धीरे
कर लिया एकाकार
अंधकार से
रह गया शेष
बेजान
माटी का दिया
फिर जलने को
अन्धकार में
गैरों के लिए
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 15, 2017 at 4:24pm — 8 Comments
2122 2122 212
सुन हवाओं की जवाँ सरगोशियाँ
दूधिया चादर में लिपटी वादियाँ
देख भँवरे की नजर में शोखियाँ
चुपके चुपके हँस रही थीं तितलियाँ
नींद में सोये कँवल भी जग उठे
गुफ्तगू जब कर रही थी किश्तियाँ
छटपटाती कैद में थी चाँदनी
हुस्न को ढाँपे हुए थी बदलियाँ
मुट्ठियों में भींच के सिन्दूर को
मुन्तज़िर खुर्शीद की थी रश्मियाँ
फिक्र-ए-शाइर पे भी छाया नूर…
ContinueAdded by rajesh kumari on January 15, 2017 at 1:30pm — 18 Comments
"अरे! लड़कियों जल्दी से भीतर आओ बड़ी मालकिन बुला रही हैं।" हवेली की बुजुर्ग नौकरानी ने आंगन में गा-बजा रही लड़कियों को पुकारा तो सब उत्साहित हो झट से चल पड़ी।
मालकिन की तो ख़ुशी का कोई ठिकाना न था। आखिर इकलौते पोते की पसन्द को स्वीकारने के लिए उन्होंने अपने बहू-बेटे को मना जो लिया था। पर इसके लिए उन्होंने यह शर्त भी रखी थी कि विवाह उनके पारिवारिक रीति-रिवाज से होगा। भावी वधू के साथ-साथ घर की स्त्रियां भी चाव से गहने देखने लगी।
"अरे ! ये मांग टीका अब कौन पहनता है?" होने वाली बहू की छोटी…
Added by Seema Singh on January 14, 2017 at 11:00pm — 21 Comments
122 122 122 122
सियासत के जरिये हुआ है धमाका
जुबां बंद करिये हुआ है धमाका
किसे फ़िक्र है अब लहू फिर बहेगा
कि वहशत बजरिये हुआ है धमाका
कहाँ शांति रहती है सरहद पे यारों
ज़रा आँख भरिये हुआ है धमाका
है जाना जरूरी चले जाइयेगा
तनिक तो ठहरिये हुआ है धमाका
बड़ी देर से आप चश्मेकफस में
कि आहिस्ता ढरिये हुआ है धमाका
नहीं खून का खेल गर खेल सकते
तो…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 14, 2017 at 8:58pm — 13 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 14, 2017 at 8:26pm — 9 Comments
२२१/२१२१/१२२१/२१२
तू दूर हो तो मौत से कोई गिला नहीं।
हो पास गर तो कुछ भी यहाँ ज़ीस्त सा नहीं।
आएगी रौशनी यहाँ छोटी दरारों से,
है झौपड़ी में कोई दरीचा बड़ा नहीं।
आएगा कैसे घर पे कहो कोई नामाबर,
उनके किसी भी ख़त पे जब अपना पता नहीं।
मैं सोचता हूँ कह लूँ मुकम्मल ग़ज़ल मगर,
मेरे मिज़ाज का कोई भी क़ाफ़िया नहीं।
ढूँढोगे तुम तो चाँद से मिल जायेंगे, मगर,
"रोहित" सा इस जहाँ में कोई दूसरा नहीं।
रोहिताश्व…
Added by रोहिताश्व मिश्रा on January 14, 2017 at 5:00pm — 9 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 14, 2017 at 4:31pm — 8 Comments
कल हमारे समाज का सबसे श्रेष्ठ तबका ,
जो साक्षर कहलाते, आज निरक्षर हो गए ।
कूप मंडूप को ही जीवन का लक्ष्य समझा
आविष्कार कर न सके, वे गुलाम हो गए ।
समय की नजाकत को जिसने नहीं समझा,
ज्ञान का डंका बजाते, वे आज पीछे रह गए ।
इस बदलते जमाने में अपने को अलग रखा
विज्ञान के इस युग में वे अज्ञानी हो गए ।
खुद को सर्वश्रेष्ठ और दूसरों को मूर्ख समझा
वे दुनिया की इस दौड़ में सब पीछे रह गए ।
साथियों समय बदल रहा, नजाकत को समझो,
तुम…
ContinueAdded by Ram Ashery on January 14, 2017 at 12:00pm — 4 Comments
22 22 22 22
तिरछी हो जाती नजरें हैं
अश्कों की कटती फसलें हैं।1
धड़कन माफिक साँसें चलतीं
प्यास बनी ये दो पलकें हैं।2
लहराती बदली-बाला तू,
उड़ जाती, फिर सपने टें हैं।3
खूब जमाये रंग सभी ने
अल्फाजी उनकी फजलें हैं।4
लोग लिये हैं संग विधाएँ
अपने पास महज गजलें हैं।5
.
मौलिक व अप्रकाशित@
Added by Manan Kumar singh on January 14, 2017 at 10:30am — 13 Comments
Added by नाथ सोनांचली on January 14, 2017 at 7:42am — 21 Comments
२१२२ २१२२ २१२२ २१२२
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गुनगुनाकर देखिएगा आप भी यह गीत मेरा ।।
दोपहर की धूप में आभास होगा नव सवेरा ।।
गुनगुनाकर देखिएगा,,,,,,,
तप्त सूरज शीश पर जब अग्नि वर्षा कर रहा हो,
ऊष्णता के हृदविदारक तीर तरकस भर रहा हो,
तब प्रभाती गीत की तुम छाँव में करना बसेरा ।।(1)
दोपहर की धूप में,,,,,,,,,,,,,
गुनगुनाकर देखिएगा,,,,,,,
कोकिला के कण्ठ से माँ भारती का गान सुनना,
व्योम में प्रतिध्वनित होती सप्त सरगम…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 13, 2017 at 7:30pm — 7 Comments
शामिल हुआ
मौसम की दौड़ में
नव वर्ष भी।
चंचल नदी
उछली कहीं गिरी
बहती चली।
जीवन सांझ
यादों में डूबा मन
खुला झरोखा।
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on January 13, 2017 at 1:00pm — 11 Comments
Added by सुनील प्रसाद(शाहाबादी) on January 12, 2017 at 10:04pm — 9 Comments
स्मृति के आँगन में ...
तुम सवालों को
सवाल क्योँ नहीं रहने देती
अपनी मौनता से
तुम नैन व्योम में बसी
अतृप्त तृष्णा से
अपने कपोलों पर
क्योँ गीले काजल से श्रृंगार
कर अनुत्तरित प्रश्नों का
उत्तर चाहती हो
क्योँ सुरभित मधु पलों को
अपने गीले आँचल में लपेट कर
स्मृति अंकुरों को
प्रस्फुटित होने का अवसर
देना चाहती हो
क्योँ मृदु चांदनी में
उदास निशा से
टूटे तारे से माँगी इच्छा के…
Added by Sushil Sarna on January 12, 2017 at 1:00pm — 10 Comments
122 122 12 2 122
जिधर भी मैं जाऊँ डगर आपकी है
हवा मे फज़ा में ख़बर आपकी है
महज़ रात थी आपके हक़ में लेकिन
सुना है कि अब हर पहर आपकी है
हरिक पुत्र को मुफ़्त मिलती है ममता
तो, ममता भी अब उम्र भर आपकी है
रपट कौन लिक्खे सभी आपके हैं
कि सरकार भी मोतबर आपकी है
ज़ियारत करें ना करें आप लेकिन
सियासत पे टेढ़ी नज़र आपकी है
नज़ीर आपकी अब मैं दूँ भी तो कैसे
हरी-सावनी सी नज़र आपकी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 12, 2017 at 10:30am — 13 Comments
वज़्न : 1222 1222 1222 1222
मिलेंगी कुर्सियाँ लेकिन सियासी फ़न ज़रूरी है ।।
जुटाना है अगर बहुमत लचीलापन ज़रूरी है ।।(1)
कई पतझड़ यहाँ आके गये अफ़सोस मत करिये,
बहारों के लिए हर साल में सावन ज़रूरी है ।।(2)
हवाओं नें कसम खा ली जले दीपक बुझाने की,
उजाला ग़र बचाना है खुला दामन ज़रूरी है ।।(3)
वफ़ा की बात करते हो मियाँ इस दौर में तुम भी,
जहाँ शतरंज की बाज़ी बिछी हो धन ज़रूरी है ।।(4)
अगर कोई कहे तुमसे बताओ प्यार के मानी,…
Added by कवि - राज बुन्दॆली on January 11, 2017 at 11:30pm — 12 Comments
Added by Abhishek kumar singh on January 11, 2017 at 10:12pm — 12 Comments
उफ़! करो कोई न हलचल,
शांत सोया है यहाँ जल ।
नींद गहरी, स्वप्न बिखरे आ रहे जिसमें निरंतर।
लुप्त सी है चेतना, दोनों दृगों पर है पलस्तर।
वेदना, संत्रास क्या हैं? कब रही परिचित प्रजा यह?
क्या विधानों में, न चिंता, बस समझते हैं ध्वजा यह।
कौन, क्या, कैसे करे? जब,
हो स्वयं निरुपाय-कौशल।
पीर सहना आदतन, आनंद लेते हैं उसी में।
विष भरा जिस पात्र में मकरंद लेते हैं उसी में।
सूर्य के उगने का रूपक, क्या तनिक भी ज्ञात…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 11, 2017 at 3:00pm — 27 Comments
Added by नाथ सोनांचली on January 11, 2017 at 2:30pm — 14 Comments
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