ग़ज़ल(दीप जला कर रखना)
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फाइलातुन -फइलातुन-फइलातुन-फेलुन
इसको दुनिया की नज़र बद से बचा कर रखना |
अपने दिल में ही मुहब्बत को छुपा कर रखना |
नीम शब आऊंगा मैं कैसे तुम्हारे घर पर
जाने मन बाम पे इक दीप जला कर रखना |
क्या खबर ख्वाब की ताबीर बदल जाए कब
मेरी तस्वीर को सीने से लगा कर रखना |
डर है बद ज़न कहीं अह्बाब न कर दें उनको
अपने जज़्बात को दिल में ही दबा कर रखना…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on January 6, 2017 at 10:50pm — 15 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 6, 2017 at 4:43pm — 9 Comments
Added by Mahendra Kumar on January 6, 2017 at 3:30pm — 7 Comments
सच ,लगने लगा पराया ...
न मेरा
आना झूठ था
न तेरा
जाना झूठ था
दूर जाने का मुझसे
बस बहाना
झूठ था
जीती रही
जिस शब् को
हकीकत मानकर
सहर की शरर पे सोया
वो
अफ़साना झूठ था
बादे सबा
में लिपटी
सदायें
यूँ तो आयी थीं
तेरे बाम से मगर
उसमें छुपा
हिज़्रे ग़म को
बहलाने का
तराना झूठ था
इक झूठ
तूने जिया
इक झूठ
मैंने जिया
न सच
तुझे भाया…
Added by Sushil Sarna on January 6, 2017 at 2:00pm — 16 Comments
फाइलातुन मुफाइलुन फेलुन/फइलुन
पिछली यादों में लौट आए हैं
हम बहारों में लौट आए हैं
जाग जाओ उदास ताबीरों
ख़्वाब आँखों में लौट आए हैं
हम मिले भी यहीं, यहीं बिछड़े
किन ख़यालों में लौट आए हैं
चेहरे पे नूर लौट आएगा
अश्क आँखों में लौट आए हैं
जो मकानों से जा चुके थे मकीं
वो मकानों में लौट आए हैं
मौलिक और अप्रकाशित
...दीपक कुमार
Added by दीपक कुमार on January 6, 2017 at 10:30am — 10 Comments
Added by Mohammed Arif on January 5, 2017 at 11:23pm — 13 Comments
भटकन में संकेत मिले तब अंतर्मन से तनिक डरो।
सब साधन निष्फल हो जाएँ, निस्संकोच कृपाण धरो।
व्यर्थ छिपाये मानव वह भय और स्वयं की दुबर्लता।
भ्रष्ट जनों की कट्टरता से सदा पराजित मानवता ।
सब हैं एक समान जगत में, फिर क्या कोई श्रेष्ठ अनुज?
मानव-धर्म समाज सुरक्षा बस जीवन का ध्येय मनुज।
प्रण-रण में दुर्बलता त्यागो, संयत हो मन विजय वरो।
शुद्ध पंथ मन-वचन-कर्म से, सृजन करो जनमानस में।
भेदभाव का तम चीरे जो, दीप जलाओ अंतस में…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 5, 2017 at 10:30pm — 25 Comments
बुलबुल ने छोड़ा पंखों पर
अब बोझा ढोना,
नई सुबह की आहट अब
तुम भी पहचानो ना....
अंतर्मन में गूँजी जबसे
सपनों की सरगम,
अपने रिसते ज़ख्मों पर रख
हिम्मत का मरहम,
झूठे बंधन तोड़ निकलना
सीख चुकी है वो,
बाहों में भर लेगी अम्बर
चाहे जो भी हो,
रहने देगी नहीं अनछुआ
कोई भी कोना....
नई सुबह की आहट अब
तुम भी पहचानो ना....
क्यों बाँधे उसके पल्लू में
बस भीगे सावन,
भर लेना है हर मौसम से
अब उसको…
Added by Dr.Prachi Singh on January 5, 2017 at 2:00pm — 14 Comments
ख़्वाब का माहताब ....
तुम्हारे
अंधेरों में
मेरे हिस्से के
उजाले
तुम्हारी मुहब्बत की
गिरफ़्त में
बे-आवाज़
सिसकते रहे
और तुम
मेरी चश्म से
शीरीं शहद से
लम्हों को
कतरों में समेटे
बहते रहे
मेरा ज़िस्म
तुम्हारे लम्स
की हज़ारों
खुशबुओं के
कफ़स में
सांस लेता रहा
आफ़ताब की शरर ने
उम्मीद की दहलीज़ को
हक़ीक़त की
आतिश से
ख़ाक में…
Added by Sushil Sarna on January 5, 2017 at 1:30pm — 17 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 5, 2017 at 9:30am — 23 Comments
मुझे याद है
जानबूझ कर वो मेरा सामान भूल जाना....
ज़ोर देकर तुमने
जिसे कहा बार बार कि ले जाना ...
कि इसी बहाने
चोरी से तुम उसे रख दोगी...
और मुझे फिर
एक बहाना मिल जाएगा
इस तरह मुस्कुराने का....
मौलिक और अप्रकाशित।
Added by ASHUTOSH JHA on January 4, 2017 at 8:00pm — 14 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on January 4, 2017 at 4:03pm — 17 Comments
Added by नाथ सोनांचली on January 4, 2017 at 2:00pm — 16 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 3, 2017 at 11:30pm — 27 Comments
Added by दिनेश कुमार on January 3, 2017 at 10:00pm — 13 Comments
चांदनी ... (क्षणिका)
तमाम शब्
माहताब
अर्श पर
मुझे
घूरता रहा
रकीबों सा
निचोड़ता रहा
मन की झील पर
मैं
उसकी
चांदनी
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on January 3, 2017 at 5:40pm — 23 Comments
पिया खड़े है सामने,
घूंघट के पट खोल।
चुप रहने से हो सका, आखिर किसका लाभ,
आज समय की मांग है, नैनो में रक्ताभ।
आधी ताकत लोक की,
अपनी पीड़ा बोल।
पौरुषता का वो करें, अहम् हजारों बार,
लेकिन तेरे बिन सखी, बिलकुल है लाचार।
वो आयेंगे लौटकर,
सारी धरती गोल।
जननी से बढ़कर भला, ताकत किसके पास,
आज संजोना है तुम्हें, बस अपना विश्वास।
हिम्मत से मिटना सहज,
जीवन का ये झोल।
अपने…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on January 3, 2017 at 10:00am — 31 Comments
2122 2122 2122
बात कहने का सही लहज़ा नहीं है
या जो रिश्ता था कभी, वैसा नहीं है
वो ये कह लें, उनमें तो धोखा नहीं है
पर हक़ीकत है, उन्हें मौक़ा नहीं है
गर दशानन आज भी है आदमी में
औरतों में क्या कहीं सुरसा नहीं है ?
जो न चल पाया कभी इक गाम अब तक
उसका दावा है कि वो भटका नहीं है
ज़ुर्म की गंगा सियासत से है निकली
लाख कह लें, वो कि सच ऐसा नहीं है
योजनायें उच्च –निम्नों…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on January 3, 2017 at 9:30am — 30 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on January 2, 2017 at 10:03pm — 14 Comments
तुम्हारे स्नेह की रंगीन रश्मि
मैं उद्दीप्त
गंभीर-तन्मय ध्यानमग्न
कहीं ऊँचा खड़ा था
और तुम
मुझसे भी ऊँची ...
वह कहकहे
प्रदीप्त स्फुलिंगों-से
हमारी वार्ताएँ मीठी
चमकती दमकती
आँखों में रोशनी की लहर-सी
तुम्हारी बेकाबू दुरंत आसमानी मजबूरी
बरसों पहले की बात
अचानक चाँटे-सी पड़ी
ताज़ी है आज भी
गुंथी तुमसे
उतनी ही मुझसे
बिंध-बिंध जाती है
वेदना की छाती को…
ContinueAdded by vijay nikore on January 2, 2017 at 8:40pm — 22 Comments
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