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लघुकथा--बासंती उमंग

                      बासंती उमंग

आज सुबह से ही बहुत भागमभाग रही|भगवानजी को पीले वस्त्रों से सुसज्जित किया ,तोरण, बंदनवार मीठे चावल ,केसरिया खीर बनाकर सरस्वतीजी को भोग लगाया |बच्चों को कई बार याद किया क्योंकि सजावट के ये सारे काम उन्हीं के सुपुर्द  थे ,और वे भी बड़े उत्साह से सारी तैयारी कराते थे | ड्राइंग क्लास ,संगीत क्लास व घर की पूजा |तीनों जगह की पूजा करते करते न तो दम फूलता था ,न ही कोई परेशानी होती थी पर आज तो सुबह से ही थकान लग रही है |काम सब हो रहे हैं पर न तो कोई उमंग है न ही…

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Added by Manisha Saxena on February 10, 2017 at 1:09pm — 9 Comments

ग़ज़ल -कर गया हुस्न को आँखों से इशारा किसने

2122 1122 1122 22

मुद्दतों बाद तुझे हद से गुज़ारा किसने ।

कर गया हुस्न को आँखों से इशारा किसने ।।



खास मकसद को लिए लोग यहां मिलते हैं ।

फिर किया आज मुहब्बत से किनारा किसने ।।



आज महबूब के आने की खबर है शायद ।

जुल्फ रह रह के कई बार संवारा किसने ।।



ऐ जमीं दिल की निशानी को सलामत रखना ।

मेरी ताबूत पे लिक्खा है ये नारा किसने ।।



हो गया था मैं फ़ना वस्ल की ख्वाहिश लेकर ।

चैन आया ही नहीं दिल से पुकारा किसने ।।



चोट गहरी थी… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on February 9, 2017 at 9:50pm — 6 Comments

ग़ज़ल -- ज़रा सा भी मेरे जैसा नहीं वो ( दिनेश कुमार )

ग़ज़ल की कोशिश

1222--1222--122



ज़रा सा भी मेरे जैसा नहीं वो

मैं इक आईना हूँ पर्दा-नशीं वो



नदी के दो किनारे कब मिले हैं

फ़लक का चाँद हूँ मैं औ'र ज़मीं वो



इसी दो-राहे की अब ख़ाक हूँ मैं

मेरी बाहों से छूटा था यहीं वो



बग़ैर उसके हुआ बे-जान सा मैं

बदन की रूह था दिल का मकीं वो



मैं जिसकी आँख का तारा रहा हूँ

कहाँ गुम हो गई है दूर-बीं वो



अजल से जिस ख़ुदा की जुस्तजू थी

मिला तुझ को 'दिनेश' अब तक कहीं… Continue

Added by दिनेश कुमार on February 9, 2017 at 8:59pm — 11 Comments

बसन्त गीत

देखो देखो री सखी
किया कैसा है श्रृंगार
बसन्ती हवा है चली
ऋतु राजा है तैयार ।

मीठी कोयल की बोली
झूली अम्बुवा की डार ।

ऋतु राजा है बोला
पिया करलो थोडा प्यार ।

गाओ मन भावन ये राग
हो ये बसन्त बहार ।

मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on February 9, 2017 at 8:49pm — 2 Comments

ग़ुब्बारों और यथार्थ के बीच (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

सब उड़ान भर रहे थे अपने-अपने 'ग़ुब्बारों' में सवार होकर। कुछ 'धार्मिक कट्टरता' के, कुछ 'अत्याधुनिकता' के कुछ किसी 'राजनीतिक दल' के, कुछ 'उद्योगों' के ग़ुब्बारों में उड़ रहे थे, तो कुछ 'उच्च शिक्षा' और 'उच्च तकनीक' के। जबकि कुछ लोग 'अंधविश्वास' या 'कुरीतियों' या 'भ्रष्टाचार' के ग़ुब्बारों में उड़ रहे थे। कुछ ऐसे भी थे, जो 'दिवास्वप्न' या 'कोरी कल्पनाओं' के ग़ुब्बारों में अनजानी दिशाओं में उड़ते हुए कभी ख़ुश हो रहे थे, कभी उलझ रहे थे।



"तेरा ग़ुब्बारा कौन सा है, तुम क्यों नहीं उड़ते इस… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 9, 2017 at 5:24pm — 5 Comments

बिना तुम्हारे, हे मेरी तुम, सब आधा है (नवगीत)

बिना तुम्हारे

हे मेरी तुम

सब आधा है

 

सूरज आधा, चाँद अधूरा

आधे हैं ग्रह सारे

दिन हैं आधे, रातें आधी

आधे हैं सब तारे

 

जीवन आधा

दुनिया आधी

रब आधा है

 

आधा नगर, डगर है आधी

आधे हैं घर, आँगन

कलम अधूरी, आधा काग़ज़

आधा मेरा तन-मन

 

भाव अधूरे

कविता का

मतलब आधा है

 

फागुन आधा, मधुऋतु आधी

आया आधा सावन

आधी साँसें, आधा है दिल

आधी है…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 9, 2017 at 9:39am — 10 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
हैपी चौकलेट डे ....//डॉ० प्राची

Happy Chocolate Day

एक चौकलेटी गीत के साथ



बंद करो इस लुका-छिपी को

दिल का हर इक राज बताओ,

चौकलेट्स लिये तोहफ़े में

आओ पास अभी आ जाओ।



कुछ मुस्काकर कुछ इतराकर

परतें चलो सुनहरी खोलें,

इक दूजे का मीठापन रख

आज जुबाँ में मिसरी घोलें,



छोड़ो मन की भूल-भुलैया

आओ जल्दी हाथ मिलाओ। चौकलेट्स...



जो मैं बोलूँ वो तुम समझो

मैं भी समझूँ जो तुम बोलो,

पास बैठ कर, हँस कर रो कर

दिल की सारी गाँठें खोलो,



कितना… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on February 9, 2017 at 8:52am — 5 Comments

नामुमकिन है- गजल

22 22 22 22 22 22 22 2

(बह्र ए मीर)



वो आएं मैं चहक न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है

उन्हें देख कर चमक न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है



तन पाटल चन्दन मन सुरभित वाणी ज्यों कचनार झरे

उनसे मिल कर महक न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है



गेंहुवन रंग लटें नागिन सी हृदय पे सीधे वार करें

फिर भी उनके निकट न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है



सुर सरिता अधरों से बहती, इधर राग स्नेहिल पंछी

कोकिल स्वर संग कुहक न जाऊँ, ऐसा तो नामुमकिन है



भाव भंगिमाओं का उत्तर,… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 8, 2017 at 10:48pm — 13 Comments

साझा कौम (लघुकथा)

छोटा सा कस्बाई शहर जो बड़ी सिटी बनने की होड़ में अपनी तरुणाई छोड़ व्यस्क होने लगा था । जिसकी छाती पर स्वहस्ताक्षरित ठप्पा ये झुग्गी बस्ती थी जो अमूमन अब हर बड़े शहर की पहचान बन चुकी है ।

कुल जमा ढ़ाई सौ बीपीएल कार्डधारियों की बसाहट जिनकी हर सुबह भूख को जीतने की अथक कोशिश , शाम को एक उम्मीद के साथ ढल जाया करती थीं । इधर पिछले कुछ दिनों से इस शहर मे भी खूब जलसा - जुलूस होने लगें थे । एक अस्थायी रोजगार का सुनहरा अवसर ....

" हाफिज , रहमान , सलीम, केशव और मुन्ना ! जल्दी करो , समय हो गया । हमे… Continue

Added by Aparajita on February 8, 2017 at 3:00pm — 15 Comments

गीत

ओ मेरे जीवन के सृंगार, मेरे पहले पहले प्यार,

तुम आओ तो हो जाये, मेरा हर सपना साकार

खेतों में सरसों लहराई, चलने लगी बैरन पुरवाई,

तन - मन में है आग लगाये, सुने न मेरी वो हरजाई,

तुम बिन सूना - सूना लागे, मुझको ये संसार।।

तुम आओ तो हो जाये, मेरा हर सपना साकार। ....

फागुन ने है पंख पसारे, रस्ता देखे नैन तिहारे,

चूड़ी, काजल, बिंदिया, पायल,…

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Added by Anita Maurya on February 8, 2017 at 4:48am — 7 Comments

कल भी था और आज भी है (ग़ज़ल)

22 22 22 22 22 22 22 2



इन बन्ज़र आँखों में समंदर कल भी था और आज भी है

प्यास से मरना मेरा मुक़द्दर कल भी था और आज भी है



कोई इलाज-ए-ज़ख्म-ए-दिल वो ढूँढ न पाया आज तलक

बेबस का बेबस चारागर कल भी था और आज भी है



उसी राह से कितने मुसाफ़िर मंज़िल तक जा पहुँचे, मगर

उसी जगह पर राह का पत्थर कल भी था और आज भी है



अजल से लेकर आज तलक जाने कितनों की नींदें ठगीं

बदनामी का दाग़ चाँद पर कल भी था और आज भी है



दैर-ओ-हरम,दश्त-ओ-सहरा में मिलता भी कैसे… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on February 7, 2017 at 11:30pm — 16 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मेरी तरह से तुम्हारा ये हाल हो के न हो(ग़ज़ल 'राज')

१२१२  ११२२   १२१२  ११२

मेरी वफा का तुम्हें  कुछ ख़याल हो के न हो

इनायतों का खुदा की कमाल हो के न हो

 

मैं हो गई हूँ मुहब्बत में क्या से क्या ए सनम   

मेरी तरह से तुम्हारा ये हाल हो के न हो

 

बिना पढ़े ही निगाहों से दे दिया है जबाब

लिखा जो खत में वो मेरा सवाल हो के न हो

 

गुलाब  से ही मुहब्बत करे ज़माना यहाँ

शबाब उसमे है पूरा जमाल हो के न हो

 

कमाँ से कितने उछाले  हैं तीर भँवरे यहाँ

ये हाथ में है…

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Added by rajesh kumari on February 7, 2017 at 10:00pm — 16 Comments

आइए बस चले आइये

212 212 212

इस तरह रूठ मत जाइए ।

आइये बस चले आइये ।।



आज तो जश्न की रात है ।

घुंघरुओं की सदा लाइए ।।



टूट जाए न दिल ही मेरा ।

जुल्म इतना नहीं ढाइये ।।



बेगुनाही पे चर्चा बहुत ।

कुछ सबूतों से भरमाइये ।।



जो तरन्नुम में था मैं सुना ।

गीत फिर से वही गाइये ।।



हम गिरफ्तार पहले से हैं ।

मत रपट कोई लिखवाइये।।



है ग़ज़ल में मेरे तू ही तू ।

एक मिसरा तो पढ़वाइये ।।



हूँ तेरे हुस्न का आइना… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on February 7, 2017 at 9:00pm — 8 Comments

गजल //// हैसियत सरकार रखते हैं

 1222 1222 1222 1222

           

कहो तो घोल दें मिसरी ये हम अधिकार रखते हैं  

सिराओं में जहर भर दे वो हम फुफकार रखते हैं

 

बहुत से बेशरम आते हैं छुप –छुप कर हमारे घर  

उन्ही के दम से हम भी हैसियत सरकार रखते हैं

 

दिखाते है हमें वे शान-शौकत से झनक अपनी

तो उनसे कम नहीं घुँघरू की हम झनकार रखते हैं  

 

छिपे होते है आस्तीनों में अक्सर सांप जहरीले

इधर हम बज्म में उनसे बड़े फनकार रखते…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 7, 2017 at 8:13pm — 12 Comments

गजल(गीत कौवे गा रहे हैं आजकल)

2122 2122 212

*****************

गीत कौवे गा रहे हैं आजकल

कंठ कोयल के भरे हैं आजकल।1



दुश्मनी सारी भुलाकर मसखरे

फिर गले से मिल रहे हैं आजकल।2



गालियाँ देते परस्पर जो रहे

प्रीत के सागर बने हैं आजकल।3



आज दुबके हैं सभी गिरगिट यहाँ

रंग बदलू आ गये हैं आजकल।4



कुर्सियों का ताव इतना बढ़ गया

धुर विरोधी भा गये हैं…

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Added by Manan Kumar singh on February 7, 2017 at 7:00pm — 12 Comments

स्लो मोशन या उल्टी गिनती (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"भगवान समय-समय पर मनुष्य को उसकी औक़ात से वाक़िफ़ करवाता रहता है !" टेलीविजन पर भूकम्प की ख़बरें देखते हुए जोशी जी ने अपने मित्र से कहा।



"सच कहा तुमने ! वक़्त और हालात के साथ इन्सान इतना स्वार्थी हो गया कि प्रकृति, पर्यावरण और भगवान से भी रिश्ते बिगाड़ बैठा !"



मित्र की इस बात पर जोशी जी बोले- "वक्त और हालात सदा बदलते रहते हैं, लेकिन अच्छे रिश्ते और सच्चे दोस्त कभी नहीं बदलते ? बिगड़ते तब हैं, जब सोच बिगड़ जाती है ! सोच ही तो पहले प्रदूषित हुई है, पर्यावरण बाद में!… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 7, 2017 at 6:51pm — 7 Comments

***एक उलझन*** (लघुकथा)राहिला

"किस दुनियाँ में विचर रही हो।सोचती हो अपने बूते पर आसमान छू लोगी।यहाँ स्थापित लोगों की कृपा दृष्टि के बगैर कोई टिका है आज तक।"अंदाज में उपहास था। जिसे उसने खूब समझा।

"पता नहीं सर! सच क्या है ?बड़ी उलझन में हूँ ।एक तरफ आपकी अनुभवी सोच और दूसरी तरफ मेरी आपबीती।"

"मतलब मेरी बात पर शक है ।इतने सालों में हासिल किया है कुछ ?अब एक बार वह करो जो इन्होने किया ।"मेले में सजी नये लेखकों की पुस्तकों की ओर इशारा करते हुए ,उन्होंने अपना हाथ उसकी ओर बढ़ाया।

"कहने का तात्पर्य आपका हाथ मेरे सिर पर… Continue

Added by Rahila on February 6, 2017 at 10:08pm — 21 Comments

कुछ हाइकू

मन की बात
करते, कभी जाना
मन की बात

समझौते हैं
समझ का फेर, जो
समझ सको


रिश्ते नाते तो
ज्यों पतंग की डोर
उलझे जाते

मौलिक एवं अप्रकाशित.

Added by Neelam Upadhyaya on February 6, 2017 at 5:02pm — 3 Comments

तरही गजल-सतविन्द्र राणा

22 22 22 2

भले ही' मैं अंजाना हूँ

सारी बात समझता हूँ



कड़वा चाहे लगता हूँ

सच की रो में बहता हूँ।



सुख दुख के हर पहलू को

चुपके-चुपके सहता हूँ।



बोल रहा उनके आगे

जिनको सुनता आया हूँ।



काम बहुत करना मुझको

लेकिन मैं अलसाया हूँ।



जख्म नहीं हूँ दे सकता

जब मरहम के जैसा हूँ



देख भुलाकर रंजो गम

गुल बनकर फिर महका हूँ।



जिससे धारा फ़ूट पड़े

टूटा वही किनारा हूँ।



आँखों में क्या ढूँढ… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on February 5, 2017 at 9:00pm — 9 Comments

ग़ज़ल- नवजीवन की आशा हूँ

22 22 22 2


नवजीवन की आशा हूँ।
दीप शिखा सा जलता हूँ।।

रक्त स्वेद सम्मिश्रण से।
लक्ष्य सुहाने गढ़ता हूँ।।

जीवन के दुर्गम पथ पर।
अनथक चलता रहता हूँ।।

प्रभु पर रख विश्वास अटल।
बाधाओं से लड़ता हूँ।।

घोर तिमिर के मस्तक पर।
अरुणोदय की आभा हूँ।।

भावों का सम्प्रेषण मैं।
शंखनाद हूँ कविता हूँ।।

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by डॉ पवन मिश्र on February 5, 2017 at 6:58pm — 12 Comments

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