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भारत -मेरी कल्पना

सुबह हो हमारी अपनों के बीच रहकर हो 
हमारे ख्वाब और कोलाहल वाले नभचर हों 
चहचहाती चिड़ियों के आनंदित लम्हें हों 
सुगन्धित वायु से परिपूर्ण सब पुष्प सुनहरे हों 
हमारी जिद है ,भारत की सुबह बनाने की 
जिद है हमारे दिल में ,एक भारत बनाने की |
लहलहाते हुए सब खेत और खलिहान गाते हों 
न फ़िल्मी दुनिया के सब अपमान गाते हों 
एकसाथ मिलकर हमसब राष्ट्रगान गाते हों 
सुबह उठकर सभी अपने प्रभु गुणगान गाते…
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Added by maharshi tripathi on April 6, 2015 at 11:00pm — 9 Comments

"मास्टरी"

"मास्टरजी तुम्हारा काम बच्चो को पढ़ाना है, इन छोरो के साथ नेतागिरी करना नही।" चौधरी भान सिंह के बेटे की आवाज सुनकर नारेबाजी करते नौजवान कुछ क्षण के लिये शांत हो गये।

गाँव मे नशे के खिलाफ खड़े होने वाले कुछ नौजवानो के साथ आ मिले दो पीढ़ियों से गाँव में मास्टरी कर रहे काशीनाथजी ने उसे किनारे किया और पीछे खड़े भानसिह से मुस्कराकर बोले। "चौधरी साहब। नशाखोरी की लत गाँव के बच्चो को निक्कमा बना रही है, हमारा फर्ज बनता है कि हम इस जंग में इन नौजवानो का साथ दे।"

"मास्टरजी। अपना फर्ज तो तुम कभी… Continue

Added by VIRENDER VEER MEHTA on April 6, 2015 at 10:08pm — 12 Comments

कभी यूं भी-क्षणिकाएँ - 5 --- डॉo विजय शंकर

1. न कहीं जाना था

न जल्दी में थे हम

तुमने रोका नहीं

दूर हो गए हम………



2. जलने वाले

पीठ पीछे जलते हैं

जल के रौशनी भी

अपनों के लिए ही करते हैं ………



3. चले गये

मेरी जिंदगी से वो

किताबों के कमजोर कवर

जल्दी उत्तर जाते हैं

गुम हो जाते हैं ..............







4. अपनापन तो

कहीं भी होता है

वहां भी , जहां अपना

कोई भी नहीं होता है ………



5. ख़्वाब अधूरे नहीं ,

पूरे थे ,

अफ़सोस… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on April 6, 2015 at 12:00pm — 16 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -- चूल्हे वाली गुड़ की चाय लुभाती है ( गिरिराज भंडारी )

चूल्हे वाली गुड़ की चाय लुभाती है

22  22  22  22   22  2

***********************************

याद मुझे वो अक्सर ही आ जाती है

चूल्हे वाली गुड़ की चाय लुभाती है

 

आग चढ़ी वो दूध भरी काली मटकी

वो मिठास अब कहाँ कहीं मिल पाती है 

 

वो कुतिया जो संग आती थी खेतों तक

उसके हिस्से की रोटी बच जाती है

 

छुपा छुपव्वल वाली वो गलियाँ सँकरीं

दिल की धड़कन , यादों से बढ़ जाती है

 

डंडा पचरंगा खेले जिस बरगद…

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Added by गिरिराज भंडारी on April 6, 2015 at 11:44am — 27 Comments

ग़ज़ल -- मुसीबत में ही याद आते हैं राम

122-122-122-121

ये महँगाई जो बढ़ रही बेलगाम
हमारा तो जीना हुआ है हराम

तिज़ारत में हासिल महारत जिसे
उसे गुठलियों के भी मिलते हैं दाम

न जाने सभी की ये फितरत है क्यूँ
मुसीबत में ही याद आते हैं राम

रखे जो सदा हौसला और उमीद
उसी के ही दुनिया में बनते हैं काम

इसे सिर्फ़ वोटों से मतलब 'दिनेश'
सियासत कहाँ करती फ़िक्रे अवाम

मौलिक व अप्रकाशित

Added by दिनेश कुमार on April 6, 2015 at 8:20am — 23 Comments

दस दॊहॆ,,,,,(माँ)

दस दॊहॆ,,,,,(माँ)

===========

प्रथम खिलायॆ पुत्र कॊ,बचा हुआ जॊ खाय !

दॊ रॊटी कॊ आज वह, घर मॆं पड़ी ललाय !! (१)



दूध पिलाया जब उसॆ, सही वक्ष पर लात !

वही पुत्र अब डाँट कर, करता माँ सॆ बात !! (२)



सूखॆ वसन सुलाय सुत,रही शीत सिसियात !

चिथड़ॊं मॆं अँग अँग ढँकॆ, जागी सारी रात !! (३)



नज़ला खाँसी ताप या, गर्म हुआ जॊ गात !

एक छींक पर पुत्र की, जगतॆ हुआ प्रभात !! (४)



गहनॆ गिरवी धर दियॆ, जब जब सुत बीमार !

मज़दूरी कर कर भरा,…

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Added by कवि - राज बुन्दॆली on April 6, 2015 at 4:00am — 9 Comments

अब बसन्त नहीं आएगा: कविता :हरि प्रकाश दुबे

एक पतंग

भर रही थी

बहुत ऊँची उड़ान

विस्तृत गगन में

जैसे, जाना चाहती हो

आसमान को चीरती, अंतरिक्ष में

लहराती, बलखाती, स्वंय पर इठलाती

दे ढील दे ढील, सभी एक स्वर में चिल्ला रहे थे !

कई चरखियाँ

खत्म हो गयीं

सद्दीयों के गट्टू  

मान्झों  के गट्टू

गाँठ, बाँध-बाँध कर

एक के बाद एक ऐसे जोड़े गए

जैसे ये अटूट बंधन है ,कभी नहीं टूटेगा

वो काटा, वो काटा पेंच पर पेंच  लडाये जा रहे थे !

तालियाँ…

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Added by Hari Prakash Dubey on April 6, 2015 at 1:59am — 7 Comments

असर क्या करेंगी अलाये-बलाये /// गजल (एक प्रयास )

मुतकारिब मुसम्मन सालिम

१२२   १२२   १२२   १२२

तुम्हे आज प्रिय नीद ऐसी सुलायें

झरें इस जगत की सभी वेदनायें I  

 

नहीं है किया काम बरसो से अच्छा   

चलो नेह  का एक दीपक जलायें I

 

गरल प्यार में इस कदर जो भरा है  

असर  क्या  करेंगी अलायें-बलायें  I  

 

तुम्हारी  अदा है  धवल -रंग ऐसी   

कि शरमा गयी चंद्रमा की कलायें I

 

जगी आज ऐसी विरह की तड़प है

सहम सी गयी  है सभी चेतनायें…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 5, 2015 at 8:00pm — 34 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - मैं रैक बना हूँ...... (मिथिलेश वामनकर)

22—22—22—---22—22--22

 

मीलों  पीछे सच्चाई को छोड़ गया हूँ

हत्थे चढ़ जाने के भय से रोज दबा हूँ

 

दीवारों पर अरमानों के  ख़्वाब टंगे हैं…

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Added by मिथिलेश वामनकर on April 5, 2015 at 7:30pm — 37 Comments

रुकी हुई सी इक ज़िन्दगी

रुकी हुई सी एक ज़िन्दगी

फ़्लैट में जब दाखिल हुआ तो वो मेरे साथ बगल वाले सोफे पर बैठ गया |उसके रिटायर्ड पिताजी ने पहले पानी दिया और कुछ देर बाद चाय बनाकर ले आए |हाल-चाल की औपचारिकता के बाद मैंने कहा यहाँ घुटन सी है |बाहर पार्क में चलते हैं और हम बाहर निकल आए |ई.टी.ई ट्रेनिंग के 9 साल बाद आज मिलना हुआ था |छह माह पहले वो फेसबुक पर टकराया था |वहीं पर थोड़ा सा उसने अपने जीवन के उतार-चढ़ाव का हल्का-फुल्का जिक्र किया था और तभी से उससे मिलने का मन हो रहा था |

“आगे क्या सोचा है…

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Added by somesh kumar on April 5, 2015 at 12:27pm — 8 Comments

ग़ज़ल : जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

जैसे मछली की हड्डी खाने वाले को काँटा है

वैसे मज़लूमों का साहस पूँजीपथ का रोड़ा है

 

सारे झूट्ठे जान गए हैं धीरे धीरे ये मंतर

जिसकी नौटंकी अच्छी हो अब तो वो ही सच्चा है

 

चुँधियाई आँखों को पहले जैसा तो हो जाने दो  

देखोगे ख़ुद लाखों के कपड़ों में राजा नंगा है

 

खून हमारा कैसे खौलेगा पूँजी के आगे जब

इसमें घुला नमक है जो उसका उत्पादक टाटा है

 

छोड़ रवायत भेद सभी का खोल…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 5, 2015 at 12:21pm — 17 Comments

गीतिका

आते-आते मैंने भी ललना से लगन लगाई है

थोड़ी कह लो देर भले,मैंने भी बीबी पायी है

आयी,मन की कोई भी कली नहीं मुरझाई है

लगता सब हरा-हरा,ख़ुशी चतुर्दिक छाई है।

हूरों की मशहूर कथाएँ होंगी,मुझे भला क्या,

मुझको तो अपनीवाली सबसे आगे भायी है

खाते ठोकर रह गये, कुछ भी तो मिला नहीं,

मुझको तो अपनीवाली मीठी-सी खटाई है।

बूँद-बूँद पानी को तरसा,चलती रहीं हवाएँ,

बेमौसम बरसात हुई,रूप की बदली छाई है।

फूल-फूल भटका हूँ ,काँटों की ताकीद रही,

मधु का अक्षय कोष ले…

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Added by Manan Kumar singh on April 5, 2015 at 12:00pm — 5 Comments

है रावण नाम तेरा गर चरित को राम जैसा कर -लक्ष्मण धामी ’मुसाफिर’

1222 1222 1222 1222

*************************

नगर  भी  गाँव  जैसा  ही  मुहब्बत का  घराना हो

सभी के रोज  अधरों  पर  खुशी  का  ही  तराना हो

*****

बिछा  लेना  कहीं  भी   जाल   जब  चाहे  निषादों सा

मगर  जीवन  में  नफरत ही तुम्हारा बस निशाना हो

*****

है  भोलापन  बहुत अच्छा  मगर छल भी समझ पाए

रचो जग  तुम जहाँ बचपन  भी  इतना  तो सयाना हो

*****

खुशी हो  बाँटनी  जब भी  न  सोचो  गैर  अपनों की

मगर सौ बार तुम सोचो  किसी का दिल दुखाना हो

 *****

नई…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on April 5, 2015 at 10:41am — 11 Comments

अरसात सवैया छन्द

शिल्प = भगण X 7 + रगण
ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।। ऽ।।  ऽ।ऽ
 

ऊपर सींकि टँगाय धरी हति,झूलत ती लटकी नित जीत की !!
मॊहन खाइ गयॊ सगरॊ दधि, फॊरि गयॊ मटकी नवनीत की !!
भीतर आइ लखी गति मॊ पर,गाज गिरी टटकी अनरीत की !!
‘राज’ कहैं नहिं दॆंउ उलाहन,भीति हियॆ अटकी कछु प्रीत की !!

"राज बुन्दॆली"
मौलिक एवं अप्रकाशित,,,,,,,

Added by कवि - राज बुन्दॆली on April 5, 2015 at 4:00am — 5 Comments

रात पूछती नहीं

रात के कुएं में

क्या मैं हूँ कूपमंडूक की भांति

और मुझे भान नहीं

उजालों के अस्तित्व का.



या कि हूँ एक भागा हुआ आदमी -

उजालों के भय से.



कुछ भी सोचो, तय यही है,

मुझसे गप्पें मारतीं रातें

पूछतीं नहीं- 'तुम क्यों हो नंगे' .



दिखातीं नहीं मेरी दुरवस्था औरों को,

घर की बात समझतीं हैं.



कह रही थी वह-

एक भाई है मेरा,

मेरी प्रकृति के विपरीत,

सवाल करता है बहुत,

पटरी बैठती नहीं मेरी-उसकी.



मौलिक व…

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Added by shree suneel on April 5, 2015 at 1:30am — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
उठने लगा है दिल से मेरे ये सवाल क्यों- ग़ज़ल

221 2121 1221 212

उठने लगा है दिल से मेरे ये सवाल क्यों

इस तंगदिल जहाँ से करूँ अर्ज़े हाल क्यों

 

तुझसे रही न कोई शनासाई ऐ हयात

फिर बार-बार आये तेरा ही खयाल क्यों

 

हैं अश्क़बार और भी इस बज़्म में कई

ऐ दोस्त ये बता कि मेरी ही मिसाल क्यों

 

आयेंगे और लम्हे अभी तो बहार के

आखिर तुम्हें है शाखे शजर ये मलाल क्यों

 

कैसे बताये कोई मुकद्दर किसी का क्या

कल जो खिला चमन में वो अब पायमाल…

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Added by शिज्जु "शकूर" on April 4, 2015 at 2:53pm — 34 Comments

हॉकी खेलने जाती लड़कियां

पैरों में एक जोड़ी हवाई चप्पल,

और छोटी छोटी ख़्वाहिशों से चमकती आँखों  के साथ

हाथों में स्टिक लिए

कुछ लड़कियां हॉकी  खेलने जाती है

भागती है गेंद के पीछे

गेंद में छुपा बैठा है पेट भर खाने का सुख

पहाड़ के उस पार

जंगलों के बीचों बीच नंगे पाँव

एक वृद्ध आदिवासी दंपति

सखुआ के पत्तों को हटाकर

पौधों की जड़ें खोद

रात के खाने का इंतजाम करता है।

उसने कभी हॉकी का स्टिक नहीं देखा है

पर वह सपने देखता है

गेंद  से…

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Added by Neeraj Neer on April 4, 2015 at 1:30pm — 7 Comments

शिक्षा और अंगूठा -- डॉo विजय शंकर

द्रोणाचार्य

एक युग प्रवर्तक शिक्षक ,

राजकीय सरंक्षण के शिक्षक ,

सरकारी व्यवस्था के आधीन ,

शिक्षक और वह भी पराधीन ,

एकलव्य से अंगूठा मांगने को विवश ,

शिक्षा को सीमित करने को लाचार।

राज्य के राजकीय गुरु थे द्रोण ,

सरकारी अध्यापक से थे द्रोण ,

राजपुत्रों को पढ़ाते थे द्रोण

राजहित में पढ़ाते थे द्रोण ,

जनहित नहीं जानते थे द्रोण ,

राजहित में ही एकलव्य से अंगूठा

मांग बैठे थे बिचारे द्रोण ………



एक परम्परा छोड़ गए द्रोण… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on April 4, 2015 at 10:37am — 12 Comments

चकोर सवैया

चकोर सवैया

================

भगण X 7 + गुरु + लघु
================

फॊरत है मटकी नित मॊहन, नंद यशॊमति तॆ कहु आज !!
चीर चुरावत गॊपिन कॆ सुनु, वॊहि न आवत एकहु लाज !!
नाँवु धरैं नर नारि सबै नित, नाँवु धरै यदु वंश समाज !!
खीझत खीझत ‘राज’कहैं अलि,खूब सताइ रहा बृजराज !!

"राज बुन्दॆली"

मौलिक व अप्रकाशित

Added by कवि - राज बुन्दॆली on April 4, 2015 at 5:30am — 6 Comments

ग़ज़ल :-सभी कहते हैं अच्छा बोलता है

बह्र:- फ़ऊलुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन



सभी कहते हैं अच्छा बोलता है

जो हम बोलेंगे तोता बोलता है



हमारा काम क्या उन महफ़िलों में

जहाँ दौलत का नश्शा बोलता है



कोई लोरी सुनाओ,गीत गाओ

अधूरा एक सपना बोलता है



ज़रा महकी हुई ज़ुल्फों की ठंडक

कई रातों का जागा बोलता है



मैं सच्चाई की बातें कर रहा हूँ

समझते हैं दिवाना बोलता है



तिरी शक्ति है अपरम पार मौला

तिरे आगे तो गूंगा बोलता है



छुपाए से नहीं छुपती… Continue

Added by Samar kabeer on April 3, 2015 at 10:32pm — 40 Comments

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