ताप घृणा का शीतल करदे सीला माँ
इस ज्वाला को तू जल करदे सीला माँ
इस मन में मद दावानल सा फैला है
करुणा-नद की कलकल करदे सीला माँ
सूख गया है नेह ह्रदय का ईर्ष्या से
इस काँटे को कोंपल करदे सीला माँ
प्यास लबों पर अंगारे सी दहके है
हर पत्थर को छागल करदे सीला माँ
सूरज सर पर तपता है दोपहरी में
सर पर अपना करतल करदे सीला माँ
दूध दही हो जाता है शीतलता से
भाप जमा कर बादल करदे सीला…
ContinueAdded by khursheed khairadi on March 13, 2015 at 11:13am — 15 Comments
मैं तो शब्द पिरो रही थी यूँ ही
सोच रही थी ख्यालों में खोकर
क्या ऐसे ही चलती है ज़िन्दगी
जैसे अनजाने बनती हैं कवितायें
झरने की तरह प्रवाह सी बहती
बस हर शब्द बरसता है बूँद सा
टपकता है मन के बादलों से कही
और जुड़ जुड़ कर बनता जाता है
एक मिसरा..एक शेर..एक मतला
कभी दर्द में डूबा हुआ सियाह लफ्ज़
कभी खुशी की चाशनी में डूबा हुआ.
कभी मिलन की आस में शरमाया हुआ
कभी विरह की तड़प में टूटता हुआ शब्द
एहसासों की चादर में…
ContinueAdded by Nidhi Agrawal on March 13, 2015 at 9:30am — 10 Comments
सपनो को बेच रहा वादों की मंडी में
शोर बहुत है बस्ती में सुनता नहीं कोई
वो वहीँ खड़ा चल चित्र दिखा रहा
रंगीन चश्मे की दुनियां समझता नहीं कोई
बाहँ थाम कर जिसे उसने आगे बढ़ाया
कन्धों पर चढ़ गया वो देखता नहीं कोई
मशाल लेकर भीड़ में आगे चला था जो
वो अब बदल गया टोकता नहीं कोई
चार दीवारें खड़ी कर बन गया मकां
आपस में लड़ते रहे,मोहब्बत जगाता नहीं कोई
झंडे किताब के चर्चे यों ही होते…
ContinueAdded by Shyam Mathpal on March 13, 2015 at 9:07am — 10 Comments
मैं तो प्रेम रस से
बादलों की तरह
भरा हुआ
बेचैन था
तुम पर बरसने को
मगर
तुमने पुकारा ही नहीं मुझको
सूखी
प्यासी
व्याकुल
दरकती हुयी जमीन बनकर
मेरा बरस जाना
जरूरी थी
क्योंकि
मैं भरा चुका था
अन्दर से
पूरी तरह
मेरी हदों से बाहर
निकला प्रेम रस
आँखों की कोरों से फूटकर
अश्रुधार बनकर
और बरसता रहा
उम्र भर
उमेश कटारा
मौलिक व अप्रकाशित
Added by umesh katara on March 13, 2015 at 7:24am — 19 Comments
“ यह कुकिंग गैस के, यह राशन वाले के, यह बच्चों की स्कूल फी और अभी तो बिजली का बिल आने वाला है. न जाने इस बार....” सुनीता माह का बजट बना ही रही थी कि, तपाक से घर में झाडू-पौंछा कर रही लक्ष्मीबाई पूछ बैठी..
“ बीबी जी.. आप हर माह बिजली के बिल को लेकर क्यूँ परेशान हो जाती हो..?”
“अरे!! बिजली का बिल ही तो झटके मार देता है, पूरे महीने के बजट पर. क्यूँ तुम लोग भी तो खूब टी.व्ही. पंखे चलाते हो, तुम्हे फर्क नहीं पड़ता क्या..?”
“ अरे!! बीबी जी.. टी.व्ही. पंखा ही क्या. हम तो खाना भी…
ContinueAdded by जितेन्द्र पस्टारिया on March 12, 2015 at 6:22pm — 36 Comments
बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२
वक़्त कसाई के हाथों मैं इतनी बार कटा हूँ
जाने कितने टुकड़ों में किस किस के साथ गया हूँ
हल्के आघातों से भी मैं टूट बिखर जाता हूँ
इतनी बार हुआ हुँ ठंडा इतनी बार तपा हूँ
जाने क्या आकर्षण, क्या जादू होता है इनमें
झूठे वादों की कीमत पर मैं हर बार बिका हूँ
अब दोनों में कोई अन्तर समझ नहीं आता है
सुख में दुख में आँसू बनकर इतनी बार बहा हूँ
मुझमें ही शैतान कहीं है और…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on March 12, 2015 at 4:40pm — 24 Comments
ना हाथों में कंगन,
न पैरों में पायल,
ना कानो में बाली,
न माथे पे बिंदियाँ
कुदरत ने सजाया है उसे!!
न बनावट,ना सजावट
न दिखावट,ना मिलावट
गाँव की मिट्टी ने सवारा है उसे!!
ये बांकपन ,ये लड़कपन
चंचल अदाओं में भोलापन,
जवानी के चेहरे में हय!....
हँसता हुआ बचपन!!
वख्त ने जैसे....संजोया है उसे!!
उसकी बातें सुनती हैं तितलियाँ
उसीके गीत गाती हैं खामोशियाँ
हँसी पे जिसकी फ़सल लेती है…
Added by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on March 12, 2015 at 3:38pm — 20 Comments
अपने कोकून को
तोड़ दिया है मैंने अब
जिसमे कैद था, मैं एक वक़्त से
और समेट लिया था अपने आप को
इस काराग्रह में ,एक बंदी की तरह !
निकल आया हूँ बाहर , उड़ने की चाह लिए
अब बस कुछ ही दिनों में, पंख भी निकल आयेंगे
उड़ जाऊंगा दूर गगन में कहीं , इससे पहले की लोग
मुझे फिर से ना उबाल डालें , एक रेशम का धागा बनाने के लिए
और उस धागे से अपनी , सतरंगी साड़ियाँ और धोतियाँ बनाने के लिए !!
© हरि प्रकाश दुबे
“मौलिक व अप्रकाशित…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on March 12, 2015 at 3:30pm — 26 Comments
जिंदगी की कहानी सुनाता रहा
दर्द दिल के सभी मै छिपाता रहा
प्यार था या नहीं ये पता ही नहीं
बात क्या थी जिगर में दबाता रहा
जज़्ब होते रहे अश्क भीगे अधर
मुसकुरा कर निगाहें चुराता रहा
तोड़कर वो चली पारसा दिल मेरा
आइना कांच…
ContinueAdded by Nidhi Agrawal on March 12, 2015 at 1:00pm — 22 Comments
बरगद पीपल पनघट छूटे
बालसखा सब नटखट छूटे
गोपालों की शोख़ ठिठोली
चौपालों के जमघट छूटे
बालू के वो दुर्ग महल सब
तालाबों के वो तट छूटे
झालर संझा वो चरणामृत
मंदिर के चौड़े पट छूटे
मॉलों में क्या कूके कोयल
अमराई के झुरमुट छूटे
धूम कहाँ वो बचपन वाली
टोली के सब मर्कट छूटे
हमसे छूटा गाँव हमारा
जीने का अब जीवट छूटे
मौलिक व अप्रकाशित
Added by khursheed khairadi on March 12, 2015 at 12:32pm — 22 Comments
महिला दिवस पर रचित -
घनाक्षरी – 16-15 वर्ण
कंधें से कंधा मिला काम करे जो खेत में,
भोर में उठ, देर रात तक जगती है |
खुद का वजूद भूल मान रखे आदमी का,
सर्वस्व समर्पण को तैयार रहती है |
शादी कर अनजान घर बसाने, कोख में,
नौ माह तक पीड़ा भी सहती रहती है |
फिर भी स्वयं का नही कोई वजूद मानती,
नाम बच्चें को भी वह बाप का ही देती है |
सर्दी गर्मी वर्षा सहती अंग भी झुलसाती,
दूजे…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on March 12, 2015 at 12:30pm — 18 Comments
1222 1222 1222 1222
************************
बनाता खेत की रश्में चला जो हल नहीं सकता
लगाता दौड़ की शर्तें यहाँ जो चल नहीं सकता
***
पता तो है सियासत को मगर तकरीर करती है
कभी तकरीर की गर्मी से चूल्हा जल नही सकता
*****
भरोसा आँख वालों से अधिक अंधों को जो कहते
तुम्हें धोखा हुआ होगा कि सूरज ढल नहीं सकता
****
असर कुछ छोड़ जाएगी मुहब्बत की झमाझम ही
किसी के शुष्क हृदय को भिगा बादल नहीं…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 12, 2015 at 12:03pm — 26 Comments
गंगा माँ की गोद में,बसा कानपुर धाम
सरसैया के घाट पर, उगती सहर तमाम ॥
महा आरती मात की, कर लो हृदय लगाय
कट जायें संकट सभी ,सुंदर सरल उपाय ॥
हिमगिर के उर से बही,पसरी वसुधा गोद
लहराती वो चल पड़ी,भरती मन आमोद ॥
मोक्षदायनी याद में , कहाँ भागीरथ आज
उनका तप बल याद कर,सफल बना लो काज ॥
गंगा गीता गाय को , प्यार करें भगवान
मानव इसको भूल…
Added by kalpna mishra bajpai on March 12, 2015 at 11:30am — 20 Comments
यह है
विचित्रदूनिया
जहाँ सच को मिलती सज़ा
झूठ लेता है मज़ा
यहाँ काटा जाता है
बर्बरिक का सर
ईशा ही चढ़ता है
सूली पर
सुकरातऔर मीरा को
पिलाते है जहर
मारा जाता है
जूलियस सीज़र.
हर पाक दामन को
गंदा करते हैं
कीचड़ डाल कर
जब टूटते है
सामाजिक रिश्ते
बदनाम होते है
फरिश्ते.
मौलिक वा अप्रकाशित
Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on March 12, 2015 at 11:25am — 9 Comments
दीवारों में दरारें-1
दीवारे और दरारें-1
“कभी सोचा था कि ऐसे भी दिन आएँगे |हम लोग इनके फंक्शन में शामिल होंगे !”मि.सुरेश ने कोलड्रिंक का सिप लेते हुए पूरे ग्रुप की तरफ प्रश्न उछाला |
“मुझे लग रहा है इस वाटिका की सिचाईं नाले के गंदे पानी से करते हैं |कैसी अज़ीब सी बदबू आ रही है !”नाक पे हाथ रखते हुए राजेश डबराल बोले |
“पैसे आ जाने से संस्कार नहीं बदलते जनाब !इन्हें तो गंदगी में रहने की आदत है|” मि.सुरेश ने जोड़ा |
“सी S S ई |किसी ने सुन लिया…
ContinueAdded by somesh kumar on March 12, 2015 at 10:30am — 11 Comments
2122- 2122- 212
ख़्वाब से डरने लगा हूँ इन दिनों
नींद से मैं भागता हूँ इन दिनों
धड़कनें हैं तेज़ राहें पुरख़तर
मैं सँभलकर चल रहा हूँ इन दिनों
वुसअते शब बेबसी तन्हाइयाँ
इन अज़ाबों से घिरा हूँ इन दिनों
मुझपे भारी है हर इक लम्हा बहुत
फिक्र की तह में दबा हूँ इन दिनों
आइना हटकर परे मुझसे कहे
पत्थरों सा हो गया हूँ इन दिनों
कोई बतलाये मुझे मैं कौन हूँ
पहले क्या था और क्या…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on March 12, 2015 at 9:54am — 21 Comments
ऐ ज़िन्दगी !
सांसे चल रहीं है मेरी , इसलिये
मरा हुआ तो नहीं कह सकता खुद को
जी ही रहा होऊँगा ज़रूर, किसी तरह , ये मैं जानता हूँ
पर एक सवाल पूछूँगा ज़रूर
क्या सच में तू मेरे अंदर कहीं जी रही है ?
जैसे ज़िन्दगी जिया करती है
इस तरह कि , मै भी कह सकूँ जीना जिसे
उत्साहों से भरी
उत्सवों से भरी
उमंगों से सराबोर सोच के साथ , निर्बन्ध
चमक दार आईने की तरह साफ मन
प्रतिबिम्बित हो सके जिसमें शक्ल आपकी , खुद की भी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on March 12, 2015 at 7:40am — 26 Comments
बहुत लगाव था अपने ज़मीन के इस टुकड़े से रघू को , ये आखिरी जो था | पत्नी की बीमारी में एक एक करके सभी जमीनें गिरवी रखता गया था , इस उम्मीद में की जब वो ठीक हो जाएगी तो दोनों मियां बीबी मिलकर , पसीना बहाकर , छुड़ा लेंगें उन्हें | लेकिन जैसे जैसे ज़मीन के टुकड़े कम होते गए , पत्नी की सांसें भी कम होती गयीं |
आखिरी वक़्त में पत्नी ने वचन लिया था कि अब वो किसी भी सूरत में ज़मीन के इस आखिरी टुकड़े को नहीं बेचेगा | जिंदगी किसी तरह गुजर रही थी लेकिन उसकी ज़मीन पर एक उद्योगपति की नज़र पड़ गयी | वहाँ…
Added by विनय कुमार on March 12, 2015 at 2:14am — 14 Comments
फिर चल पड़ी है
दिन मे तेज अंधड़
चिलचिलाती धूप
और उसमे गुलमोहर के फूल
लंबी सड़कों के दोनों और
इकठ्ठा होता पत्तियों का मलबा
और हवा से उड़ते हुये
उनका सरसराना ....
पलाश का फूल भी खिल रहा है
ओ-हो मौसम बदल रहा है ....
सुनो ...
मेरी यादों की रजईयों
को थोड़ी धूप दिखा देना
और फिर सहेज कर रख देना
जब ठंड आएगी
रिश्तों की गर्माहट के लिए
निकाल लेना फिर से .... रज़ाई
लक्ष्मण…
ContinueAdded by Amod Kumar Srivastava on March 11, 2015 at 9:07pm — 9 Comments
‘सुना है औलिया से आपका बड़ा याराना है ?’
विजय के उन्माद में झूमते हुए सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक ने अमीर खुसरो से कहा I बादशाह की फ़ौज युद्ध में विजयी होकर दिल्ली की ओर वापस हो रही थी I सुल्तान तुगलक एक लखनौती हाथी पर सवार था I अमीर् खुसरो बादशाह के बगलगीर होकर दूसरे हाथी पर चल रहे थे I
‘तौबा हुजुर ---‘ खुसरो ने चौंक कर कहा “आप भी लोगो के बहकावे में आ गए सुल्तान I वह मेरे पीर-ओ-मुर्शिद हैं I मै उनका अदना सा शागिर्द हूँ I ’
‘तो क्या सचमुच तुम दोनों में बस यही सम्बन्ध…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on March 11, 2015 at 6:30pm — 21 Comments
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