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मुख़्तलिफ़ हमने यहाँ सोच के पहलू देखे (३३ )



मुख़्तलिफ़ हमने यहाँ सोच के पहलू देखे

अक़्ल हैरान है,ऐसे मियाँ जादू देखे

**

आदमी शह्र में हैरान परेशाँ देखा

जब कि जंगल में बिना ख़ौफ़ के आहू देखे

**

जब अमावस को गया चाँद मनाने छुट्टी

नूर फ़ैलाने को बेताब से जुगनू देखे

**

दिल में इंसान के अल्लाह नदारद देखा

और हैवान बने आज के साधू देखे

**

प्यार अहसास है,महसूस किया जाता है

कैसे मुमकिन है कोई चश्म से ख़ुशबू देखे

**

रोटियाँ थोक में मिलती हैं…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on March 1, 2019 at 7:00pm — 4 Comments

समाधान - लघुकथा -

समाधान - लघुकथा -

युद्ध,  युद्ध,  युद्ध करो,

हमें केवल युद्ध चाहिये। दुश्मन को मसल दो। उसे कुचल दो। बरबाद कर दो।

ऐसी आवाज़ों से आसमान गूंज रहा था।

इन आवाजों को सुनकर नेता जी का मस्तिष्क फटा जा रहा था। इन आवाजों का स्वर और प्रवाह इतना तेज और उत्तेजित करने वाला था कि नेताजी अपने दैनिक क्रिया कलापों पर एकाग्र नहीं कर पा रहे थे।

दूसरी ओर उनकी आँखों के आगे पिछले युद्ध की विभीषिका स्पष्ट झलक रही थी।घायल सैनिकों की चीत्कार भरी पुकार और कराहने के दर्द भरे स्वर। उनके…

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Added by TEJ VEER SINGH on March 1, 2019 at 5:00pm — 8 Comments

तरही ग़ज़ल फ़िराक़ साहब के मिसरे पर

थी यही फूल की किस्मत कि बिखर जाना था,

ये कहाँ तय था कि जुल्फों में ठहर जाना था।

मौज ने चाहा जिधर मोड़ दिया कश्ती को,

"मुझको ये भी न था मालूम किधर जाना था"।

जो थे साहिल पे तमाशाई यही कहते थे,

डूबने वाले को अब तक तो उभर जाना था।

बज़्मे अग्यार में है जलवा नुमाई तेरी ,

इस तग़ाफ़ुल पे तेरे मुझको तो मर जाना था।

गर्द हालात की चहरे पे है,लेकिन तुझको,

आईना बन के मैं आया तो सँवर जाना था।

सुब्ह का भूला…

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Added by Ravi Shukla on March 1, 2019 at 4:30pm — 8 Comments

अभिनन्दन

हर दिल से स्वागत वंदन है
अभिनन्दन का अभिनन्दन है ll
भारत की आँखों का तारा
जन जन का यह राजदुलारा
वीर पुत्र यह कुलनन्दन है
अभिनन्दन का अभिनन्दन है ll
सिंह गर्जना करने वाला
भारत का वन्दा मतवाला
कण कण का प्यारा कुंदन है
अभिनन्दन का अभिनन्दन है ll
खेद खेद दुश्मन को मारा
सीने पर चढ़कर ललकारा
मातृभूमि का यह चन्दन है
अभिनन्दन का अभिनन्दन है ll

डॉ. छोटेलाल सिंह

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by डॉ छोटेलाल सिंह on March 1, 2019 at 8:30am — 8 Comments

यादें - गजल ( लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )

२२२२/ २२२२/२२२२/ २२२२



खेतों खलिहानों तक  पसरी  नीम करेला बरगद यादें

खूब सजाकर बैठा करती फुरसत के पल संसद यादें।१।



आवारापन इनकी  फितरत  बंजारों सी चलती फिरती

कब रखती हैं यार बताओ खींच के अपनी सरहद यादें।२।



कतराती हैं भीड़ भाड़ से हम तो कहते शायद यादें

तनहाई में करती  हैं  जो  सबको बेढब गदगद यादें।३।



बचपन रखता यार न इनको और सहेजे खूब बुढ़ापा

होती हैं लेकिन विरहन को सबसे…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 28, 2019 at 8:00pm — 4 Comments

बेवफाई

प्‍यार की बात फिर वो सुनाने लगे।
जख्‍़म दिल पर नये वो लगाने लगे।।

मैं न पीता कभी,जाम फिर से मगर।
वो कसम दे मुझे खुद पिलाने लगे।।

छोड़ उन की गली, मैं चला तो वही।
बेवफा बेवफा कह बुलाने लगे।।

जो कसम थे दिये तुम न रोना कभी।
रोज सपनो में आ खुद रूलाने लगे।।

प्‍यार पाने के काबिल न है गहमरी।
ये हकीकत जहॉ को बताने लगे।।

अखंड गहमरी
मौलिक व अप्रकाशित

Added by Akhand Gahmari on February 28, 2019 at 5:19pm — 2 Comments

जाम का झाम

गोलम्बर पर वह खड़ा था। अपनी गाड़ी का इंजन बंद कर दिया। जब सामने को निगाह फैलाई तो देखता है कि आंख के आगे जो गाड़ी खड़ी है उससे आगे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा है। इसलिए उसके पास इंतजार करने के अलावा कोई चारा नहीं था। सामने से कुछ गाड़ियां आगे को बढीं लेकिन वह जस का तस ही था। उसकी बाध्यता थी कि वह आगे की गाड़़ी को हटाकर आगे को नहीं जा सकता था। पीछे की तरफ कुछ दूर पर एम्बुलैन्स के हार्न की आवाज सुनाई दे रही थी।

चैराहे पर जाम का दबाव कम हुआ। वह भी आगे बढ़ गया। लेकिन संयोग से उसे थोड़ी दूर जाने पर…

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Added by indravidyavachaspatitiwari on February 27, 2019 at 4:30pm — 2 Comments

ज़हरीली हवा (कविता)

 यह कैसी हवा ज़हरीली,

नफ़रत से भरी

विषकन्या क्या पुनः जीवित हो उठी है

आतंकी गलियारों में

वो वहाँ ख़ूनी होली खेली किसीने

संतुष्ट हुआ होगा  क्या वह

अपने कर्तव्य को पूर्ण कर

घर जाकर क्या सुकूँ से सोया होगा!

ये कैसे धर्म ?

कैसा आचरण ?

कैसी शिक्षा ?कैसा प्रण?

मृत्यु अटल सत्य है

क़त्ल-ए-आम!

यह कैसा कृत्य है?

क्या औलाद ऐसी होती है?

जो माँ की छाती छलनी करती है

और वे माताएँ जिनकी

ऐसी…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on February 26, 2019 at 10:49pm — 4 Comments

तरही ग़ज़ल (मुझको ये भी न था मालूम किधर जाना था)

अपने ही छाँव तले मुझ को गुज़र जाना था 

आग फैली थी हर इक सिम्त मगर जाना था 

 

कितनी रानाइयाँ सज धज थी तेरी महफ़िल में 

बेसरापा मुझे अनजान शहर जाना था

 

है नई रस्म यहाँ हाकिम ए दौरां की यूँ 

नातवां हो के तेरे दर से गुज़र जाना था 

 

राज़ क्या क्या थे निहाँ वक़्त के साये में मगर

छेड़ कर तान वही फिर से बिखर जाना था 

 

बैठ कर शीश महल से जो न देखा तुमने

आग का गोला था जिस को के शरर जाना था 

 

हाल अपना…

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Added by Tanweer on February 26, 2019 at 6:52pm — 8 Comments

प्यार का दंश या फर्ज

प्यार का दंश या फर्ज

तुलसीताई के स्वर्गवासी होने की खबर लगते ही,अड़ोसी-पड़ोसी,नाते-रिश्तेदारों का जमघट लग गया,सभी के शोकसंतप्त चेहरे म्रत्युशैय्या पर सोलह श्रंगार किए लाल साड़ी मे लिपटी,चेहरे ढका हुआ था,पास जाकर अंतिम विदाई दे रहे थे.तभी अर्थी को कंधा देने तुलसीताई के पति,गोपीचन्दसेठ का बढ़ा हाथ,उनके बेटों द्वारा रोकने पर सभी हतप्रद रह गए.पंडितजी के आग्रह करने पर भी,अपनी माँ की अंतिम इच्छा का मान रखते हुये, ना तो कंधा लगाने दिया,ना ही दाहसंस्कार में लकड़ी.यहाँ तक कि उनके चेहरे के अंतिम…

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Added by babitagupta on February 26, 2019 at 4:24pm — 3 Comments

-कह मुकरिंयाँ -

1-

उसके कारण तन में प्राण।

वही करे मेरा कल्याण।

खान गुणों की जैसे यक्ष।

क्या सखि साजन? ना सखि वृक्ष।।

2-

वह तो मेरा जीवन दाता।

हर धड़कन से उससे नाता।

है वह ईश्वर के समकक्ष।

क्या सखि साजन? ना सखि वृक्ष।।

3-

उसके कारण ही दिल धड़के।

सर्वाधिक प्रिय लगता तड़के।

जीवन का वह रक्षति रक्ष।

क्या सखि साजन? ना सखि वृक्ष।।

4-

बचपन से वह मेरे संग।

सुंदर है उसका हर अंग।

मनभावन वह लगे अधेड़।

क्या सखि साजन ? ना सखि…

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Added by Hariom Shrivastava on February 25, 2019 at 10:46am — 6 Comments

ग़ज़ल

अब शहादत को न जाया कीजिये ।

आइना उनको दिखाया कीजिये।।

मुल्क में है इन्तकामी हौसला ।

हौसलों को मत दबाया कीजिये ।।

आग उगलेगी सुख़नवर की कलम ।

अब न कोई सच छुपाया कीजिये ।।

ख़ाब जो देखें हमारे कत्ल की ।

हर सितम उनपे ही ढाया कीजिये ।।

उनके हमले से फ़जीहत हो गयी।

दिल यहाँ अपना जलाया कीजिये ।।

तफ़सरा कीजै नये हालात पर ।

आप अपना घर बचाया कीजिये…

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Added by Naveen Mani Tripathi on February 24, 2019 at 8:39pm — 4 Comments

ये दुआ है कि ख़ुशी आपके घर में आये (३२)

(२१२२ ११२२ ११२२ २२/११२ )

.

ये दुआ है कि ख़ुशी आपके घर में आये

हादिसा पेश न जीवन के सफ़र में आये

**

अश्क आँखों में अगर हों तो ख़ुशी के हों बस  

और सैलाब न अब दीदा-ए-तर में आये 

**

प्यार की राह को आसाँ न समझना कोई

हौसला हो वही इस राह-गुज़र में आये

**

कोशिशें लाख  करे तो भी नहीं है मुमकिन 

ताब-ए-ख़ुर्शीद तो हरगिज़ न क़मर में आये 

**

ग़ैर के ऐब को आसाँ है नज़र में रखना

ऐब ख़ुद का न किसी की भी नज़र में आये

**

अपने…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on February 24, 2019 at 7:00pm — 4 Comments

मुहब्बत अपनी लोगों ने सियासत से है कम कर ली - लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२



जमा पूँजी थी  बरसों  की  जरुरत  ने हजम कर ली

मुहब्बत अपनी लोगों ने सियासत से है कम कर ली।१।



जमाना  अब  तो  हँसने  का  हँसेंगे  सब  तबाही पर

किसी दूजे के गम से कब किसी ने आँख नम कर ली।२।



सदा से नाज था जिसके वचन की सादगी पर ढब

उसी ने आज हमसे भी  बड़ी  झूठी कसम कर ली।३।



मुहब्बत रास आती  क्या  जफाएँ हर तरफ उस में

हमीं ने यूँ हर इक रंजिश खुशी से हमकदम कर ली।४।



बिगड़ जाती थी जो छोटी बड़ी हर बात पर हमसे…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 23, 2019 at 6:36am — 3 Comments

- समान सवैया या सवाई छंद -

1-

हम विश्व शांन्ति के पोषक हैं, यह बात जगत में है जाहिर।

पर पाकिस्तान सदा से ही, आतंकवाद में है माहिर।।

पुलवामा में हमला करके, मारे हैं वीर बिना कारण।

इसलिए शांति अब और नहीं, हम भी कर पाऐंगे धारण।।

2-

हज करने की बातें करता, ये सौ-सौ चूहे भी खाकर।

अनजान बना बैठा रहता, जम्मू घाटी को दहलाकर।।

ये पाकिस्तान हमेशा से, भारत को है अति दुखदायक।

है अमन चैन के पथ में भी,अब बन बैठा ये खलनायक।।

3-

तीसरा नेत्र जब भारत ने, फड़काया भर ही है…

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Added by Hariom Shrivastava on February 22, 2019 at 5:17pm — 6 Comments

अनूठा इजहार [लघु कथा ]

अनूठा इजहार

नितिशा के बाबूजी के अंतिम श्रद्धांजलि दे रहे थे,तभी अंदर से शांत मुद्रा में नितिशा की दादी,सरल चिरनिद्रा में लीन बाबूजी के पार्थवशरीर के समक्ष बैठी,हाथ मे पकड़े नए सफेद रूमाल से मुंह पौछा,फिर कान के पास जाकर जो कहा,सभी उन्हें विस्मयद्रष्टि से देखने लगे,वो सिर पर हाथ फेरते हुये कह रही थी- ‘तुम आराम से रहना,मेरी चिंता मत करना. रामायण की चौपाई सुनाई,फिर बाबूजी का मनपसंद गीत गया,और सूखीआँखें चली गई.पूरे तेरह दिन सरला अपने ही कमरे मे ही रही. गरूढ़पुराण में शामिल होने को कहते तो…

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Added by babitagupta on February 22, 2019 at 3:33pm — 2 Comments

कविता -तुम्हें मेरी फ़िक्र कहाँ है



तुम्हें मेरी फिक्र कहाँ है

साँझ के आगोश में

दिन भर की थकान

राहत ले रही है

विश्वास की लौ धीरे-धीरे टिमटिमा रही है

ऐसे में अब तुम्हारी प्रतीक्षा शेष है

तुम्हें मेरा वादा कहाँ याद है

कह दो आज फिर मैं झूठ नहीं बोलूँगा

तुम्हारे झूठ पर मेरा विश्वास टिका है

शहर के कॉफी हाऊस से

बूढ़ों की टोलियाँ भी घर जा रही है

मस्जिद की मीनार और

मंदिर के कलश पर

दिन भर मंडराने वाले

कबूतरों का झुंड भी चला गया है

ऐसे में मेरे भरोसे की पतवार कहाँ…

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Added by Mohammed Arif on February 21, 2019 at 3:18pm — 1 Comment

कभी सदा-ए-दिल-ए-यार जो सुनी होती (३१)



कभी सदा-ए-दिल-ए-यार जो सुनी होती 

तो दास्ताँ न मेरी दर्द से भरी होती 

**

रक़ीब पर न कभी रहम गर किया होता 

मेरी ये ज़िंदगी सहरा न फिर बनी होती 

**

तुम्हारी ज़िंदगी में ग़म कभी न आते गर 

रिदा-ए-आरज़ू थोड़ी सिकुड़ गई होती 

**

गुहर हयात में तुमको नसीब हो जाते 

ज़रा सी वक़्त से तैराकी सीख ली होती …

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on February 21, 2019 at 11:00am — 7 Comments

जल रही दिलों में आग हम बुझाएँ किसलिए (३० )



जल रही दिलों में आग हम बुझाएँ किसलिए 

और सब्र बार बार आजमाएँ किसलिए 

**

तोड़ता सुकून-ओ-चैन की हदें अगर कोई 

लोग हिन्द देश के सितम उठाएँ किसलिए 

**

क़त्ल जो करे यक़ीन का हबीब भी अगर 

फिर यक़ीँ उसी पे आज हम दिखाएँ किसलिए 

**

बार बार हो चुके ग़लत वतन के फ़ैसले 

फिर अदू की चाल में हम आज आएँ…

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Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on February 21, 2019 at 1:30am — 8 Comments

ग़ज़ल

2122 2122 2122

जख्म हम अपने छिपाने में लगे है,

खुद को’ हम पत्थर बनाने में लगे है।

पूछ मत हमको हुआ क्या आजकल ये,

दर्द दिल का हम भुलाने में लगे है।

कौन देता है सहारा अब यहां पर,

बोझ अपना खुद उठाने में लगे है।

दिल जगत का बेरहम चट्टान जैसा,

फिर भी’ पत्थर को मनाने में लगे है।

देश हित की बात ‘‘मेठानी’’ करे क्या,

द्रोहियों को हम बचाने में लगे है।

( मौलिक एवं अप्रकाशित)

- दयाराम…

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Added by Dayaram Methani on February 19, 2019 at 10:00pm — 8 Comments

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