122 122 122 122
गम-ए-दिल उठाऊँ,अज़ीमत नहीं है
मगर बच निकलने की सूरत नहीं है
सुनो बख़्श दो मुझको वादों वफ़ा से
यहाँ अब किसी की जरुरत नहीं है
परेशां रहा हूँ मैं अहल-ए-सितम से
तुम्हारी भी क़ुर्बत की नीयत नहीं है
ओ महताब तू है तो ग़ज़लें हैं रौशन
वगरना सुख़नवर की अज़्मत नहीं है
सरेआम 'ब्रज' की ग़ज़ल गुनगुनाना
ये है और क्या गर मुहब्बत नहीं है
अज़ीमत-इरादा
अहल-ए-सितम-तानाशाह…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on April 8, 2018 at 1:30pm — 20 Comments
"कितनी बार कहा कि ऐसी पवित्र धार्मिक जगहों पर मंद-मंद मुस्कराया मत करो!" रामदीन को कोहनी मारते हुए उसके दोस्त ने कहा - " यहां चलते-फिरते सीसीटीवी कैमरे भी हैं! स्टिंग ऑपरेशन तक हो सकते हैं, समझे!"
"कितने दर्शन और करने होंगे! इस सदी में भी यहां ये कस्टम-सिस्टम! .. और कहां-कहां जाना पड़ेगा!" बड़ी बेचैनी के साथ धार्मिक औपचारिकताएं निभाते हुए रामदीन ने धीरे से कहा।
"आदत डाल ही लो! बड़े नेता के बेटे हो! अब जीवन में यही करना होगा!" - रामदीन के माथे से पसीने की बूंदें अपने…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 8, 2018 at 10:17am — 11 Comments
121 22 121 22
...
ज़ुदा हुआ पर सज़ा नहीं है,
न ये समझना ख़ुदा नहीं है ।
ज़रा सा नादाँ है इश्क़ में वो,
सबक़ वफ़ा का पढ़ा नहीं है'
दिखाऊँ कैसे वो दिल के अरमाँ ,
चराग दिल का जला नहीं है ।
है दर्द गम का सफर में अब तक,
कि अश्क़ अब तक गिरा नहीं है ।
न वो ही भूले ये दिल दुखाना,
यहाँ अना भी खुदा नहीं है ।
न देना मुझको ये ज़ह्र कोई,
हुनर तो है पर नया नहीं है ।
लिपट जा…
ContinueAdded by Harash Mahajan on April 8, 2018 at 9:30am — 16 Comments
अनकही ख़ामोशियाँ
बहुत कुछ कहती है
उनका शोर बहुत दूर तक सुनाई देता है
उन ख़ामोशियों की ज़मीन पे
बीज अंकुरित होते हैं
बहुत कुछ कहने के
मगर अनकही ख़ामोशियाँ
ख़ामोश बनकर रह जाती है
जैसे हड़ताल की अधूरी रह जाती है माँगें
जो कभी पूरी नहीं होती है
और माँगें हड़ताल को चलाती है
अतीत की स्मृतियों को भी
दबाती है अनकही ख़ामोशियाँ
धीरे-धीरे अनकही ख़ामोशियाँ
कब भीतर की तपिश बन जाती है
पता ही नहीं चलता है
यह तपिश
लावा बनकर फूट पड़ती है…
Added by Mohammed Arif on April 8, 2018 at 9:06am — 12 Comments
आलमे खयाल
(अतुकांत)
शाम बैठी रही हो कर तैयार वह दुलहन-सी
उदास.. मुन्तज़िर थी वह आज भी इश्क की
ज़रूर निराला ही होगा यह आलमे तसव्वुर
दर पर हाँ एक हल्की-सी दस्तक तो हुई थी…
ContinueAdded by vijay nikore on April 8, 2018 at 7:59am — 11 Comments
बह्र:- 2122-2122-2122-212
एक तरफ़ा हो नहीं सकता कोई भी फैसला।।
दर्द दोनों ओर देगा ये सफर ये रास्ता।।
अब रकीबत का असर आया है रिस्ते में मेरे।
दरमियाँ अब दिख रहा है दूरियां और फासला।
बीज रिश्ता ,फासले के आज कल बोने लगा ।
अब फसल नफरत की पैदा खेत में वो कर रहा।।
लाख समझाया मगर उनको समझ आया नहीं।
दम मुहब्बत तोड़ देगी, गर नहीं होंगे फ़ना।।
बस जरा सा मुस्कुराकर कर दिया हल मुश्किलें।
फर्क अब पड़ता नहीं ,मैं…
Added by amod shrivastav (bindouri) on April 7, 2018 at 10:53pm — 10 Comments
"लगता है कि अभी भी यह उड़ना नहीं सीख पायी।"
"अरे नहीं! दरअसल वह उड़ना भूल चुकी है बुरे तज़ुर्बों से !" - नई सदी की हैरान, परेशान नवयौवना को घर की छत पर अनिर्णय की स्थिति में देख उसके इर्द-गिर्द हवा में उड़ते एक गिद्ध ने अपने साथी कौवे से कहा। कौवा उस गिद्ध को घूरने सा लगा।
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 7, 2018 at 10:07pm — 16 Comments
हो सके तो वन बचा लो
दे रहे जीवन सभी को,
खेत, वन, उपवन सजा लो.
हैं जरूरी जिन्दगी को,
हो सके तो वन बचा लो.
हो चुके हैं, मत करो इन,
पर्वतों को और…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on April 7, 2018 at 8:30pm — 18 Comments
२१२२ /११२२ /११२२ /२२
.
पार करने हैं समुन्दर ये दिलो-जाँ वाले
और आसार नज़र आते हैं तूफाँ वाले.
.
फ़ितरतन मुश्किलें; मुश्किल मुझे लगती हीं नहीं
पर डराते हैं सवाल आप के आसाँ वाले.
.
तितलियाँ फूल चमन सारे कशाकश में हैं
एक ही रँग के गुल चाहें गुलिस्ताँ वाले.
.
ये न कहते कि रखो एक ही रब पर ईमाँ
इश्क़ करते जो अगर गीता-ओ-कुरआँ वाले.
.
जानवर हैं कई, इंसान की सूरत में यहाँ
शह्र में रह के भी हैं तौर बयाबाँ वाले.…
Added by Nilesh Shevgaonkar on April 7, 2018 at 1:02pm — 20 Comments
221 2121 1221 212
अन्याय के विरोध में जाने से डर लगा ।।
भारत का संविधान बताने से डर लगा ।।
यूँ ही बिखर न जाये कहीं मुल्क आपका ।
कोटे पे आज बात चलाने से डर लगा ।।
घोला है ज़ह्र अपने गुलशन में इस तरह ।
अब जिंदगी को और बचाने से डर लगा ।।
फर्जी रपट लिखा के वो अंदर करा गया ।
मैं बे गुनाह था ये बताने से डर लगा ।।
शोषित हुआ सवर्ण करे भी तो क्या करे ।
उसको तो अपना ज़ख्म दिखाने से डर लगा…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on April 7, 2018 at 1:04am — 8 Comments
मिर्ज़ा मासाब कई बार मांसाहार छोड़ने की नाक़ामयाब कोशिशें कर चुके थे। लेकिन उनके घर में बेगम साहिबा के रिवाज़ के मुताबिक़ हर छोटी-बड़ी ख़ुशी के मौक़े पर या तो चिकन पकता या मछली। कभी छोटे या बड़े की जुगाड़ होती या बाज़ार के कबाबों की! मिर्ज़ा जी के शाकाहारी बनने के ख़्वाब इस बार भी चकनाचूर हो गये। रात के ख़ाने के वक़्त दस्तरख़्वान पर बकरे का लज़ीज़ गोश्त पहले से कोई बातचीत किये बिना ही पेश कर दिया गया। उन्होंने बुरा सा मुंह बनाते हुए बेगम की तरफ़ देखा।
"ख़ुशी का मौक़ा था न! आज…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 6, 2018 at 9:36pm — 6 Comments
212 1212 1212 1212
...
बसती है मुहब्बतों की बस्तियाँ कभी-कभी,
रौंदती उन्हें ग़मों की तल्खियाँ कभी-कभी ।
ज़िन्दगी हूई जो बे-वफ़ा ये छोड़ा सोचकर,
डूबती समंदरों में कश्तियाँ कभी-कभी ।
गर सफर में हमसफ़र मिले तो फिर ये सोचना,
ज़िंदगी में लगती हैं ये अर्जियाँ कभी-कभी ।
उठ गए जो मुझको देख उम्र का लिहाज़ कर,
मुस्कराता देख अपनी झुर्रियाँ कभी-कभी ।
इश्क़ में यकीन होना लाजिमी तो है मगर,
दूर-दूर दिखती हैं…
Added by Harash Mahajan on April 6, 2018 at 9:30pm — 19 Comments
चंद हायकू ....
आँखों की भाषा
अतृप्त अभिलाषा
सूनी चादर
सूनी आँखें
वेदना का सागर
बहते आंसू
साँसों की माया
मरघट की छाया
जर्जर काया
टूटे बंधन
देह अभिनन्दन
व्यर्थ क्रंदन
बाहों का घेरा
विलय का मंज़र
चुप अँधेरा
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on April 6, 2018 at 9:08pm — 6 Comments
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फेलुन/फ़इलुन
इसलिये आने से कतराते हैं ईमाँ वाले
तेरे कूचे में उधम करते हैं शैताँ वाले
.
ये किसी ख़तरे की आमद का इशारा तो नहीं
ख़्वाब क्यों मुझको दिखाता है वो तूफ़ाँ वाले
.
और सब कुछ यहाँ तब्दील हुआ है लेकिन
घर में दस्तूर हैं अब तक वही अम्माँ वाले
.
बाग़बाँ ने वो सितम तोड़े हैं इनपर देखो
कितने सहमे हुए रहते हैं गुलिस्ताँ वाले
.
रह्म करना किसी बिस्मिल पे गवारा ही…
ContinueAdded by Samar kabeer on April 6, 2018 at 3:00pm — 27 Comments
रेगिस्तान में ......
तृषा
अतृप्त
तपन का
तांडव
पानी
मरीचिका सा
क्या जीवन
रेगिस्तान में
ऐसा ही होता है ?
हरियाली
गौण
बचपन
मौन
माँ
बेबस
न चूल्हा , न आटा ,न दूध
भूख़
लाचार
क्या जीवन
रेगिस्तान में
ऐसा ही होता है ?
पेट की आग
भूख का राग
मिटी अभिलाषा
व्यथित अनुराग
पीर ही पीर
नयनों में नीर
सूखी नदिया
सूने तीर
खाली मटके…
Added by Sushil Sarna on April 6, 2018 at 1:22pm — 11 Comments
बह्र- फाइलातुन मफाइलुन फैलुन
2122 1212 22
मार कर पेट में कटारी खुद।
मर गया एक दिन मदारी खुद।
अपने कर्मों से वो जुआरी खुद।
हो न जाये कभी भिखारी खुद।
पड़ गये दाँव पेंच सब उल्टे,
फँस गया जाल में शिकारी खुद।
आगये दिन हुजूर अब अच्छे
दान देने लगे भिखारी खुद।
हैं नशामुक्ति के अलम्बरदार,
पर चलाते हैं वो कलारी खुद।
खानदानी हुनर है बच्चों में,
सीख लेते हैं दस्तकारी…
Added by Ram Awadh VIshwakarma on April 6, 2018 at 5:39am — 17 Comments
212 212 212 212
स्वार्थ नें राष्ट्र की है सजाई चिता
जाति की अग्नि से चिट चिटाई चिता
भारती माँ तड़प कर कराहे सुनो
पूछती जीते जी क्यूँ सजाई चिता?
प्रीत के व्योम पर द्वेष धूम्राक्ष है
लोभियों नें वतन की जलाई चिता
राजगद्दी के लोभी हैं शामिल सभी
पूछिए मत कि किसनें लगाई चिता?
आग है जो लगी आप जल जाएंगे
बढ़ के आगे न यदि जो बुझाई चिता
मौलिक अप्रकाशित
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 4, 2018 at 11:30pm — 14 Comments
एक गाँव में कुछ लोग ऐसे थे जो देख नहीं पाते थे, कुछ ऐसे थे जो सुन नहीं पाते थे, कुछ ऐसे थे जो बोल नहीं पाते थे और कुछ ऐसे भी थे जो चल नहीं पाते थे। उस गाँव में केवल एक ऐसा आदमी था जो देखने, सुनने, बोलने के अलावा दौड़ भी लेता था। एक दिन ग्रामवासियों ने अपना नेता चुनने का निर्णय लिया। ऐसा नेता जो उनकी समस्याओं को जिलाधिकारी तक सही ढंग से पहुँचा कर उनका समाधान करवा सके।
जब चुनाव हुआ तो अंधों ने अंधे को, बहरों ने बहरे को, गूँगों ने गूँगे को और लँगड़ों ने एक लँगड़े को वोट दिया। जो…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on April 4, 2018 at 9:11pm — 14 Comments
वृद्धाश्रम के द्वार पर विधवा माँ को छोड़कर जाते समय बेटे ने उसका मोबाइल अपने कब्जे में किया और जाते हुए बोला, ‘तुम यहाँ आराम से रहना. इसकी अब तुम्हें जरूरत ही क्या. मैं आकर हाल लेता रहूँगा ‘
बेटा चला गया तब माँ की आँखों के रुके आंसू बाहर निकलने को बेताब हुए .
’तुम्हारी कोई बेटी नही है क्या ?’- अचानक व्यवस्थापिका ने आकर उससे पूछा .
‘नही, पर क्यों ?’- उसने धीरे से कहा.
‘इसलिए कि आज तक कोई बेटी अपनी माँ को वृद्धाश्रम छोड़ने नही आयी’
‘सच कहती हो बहन, मैंने दो…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 4, 2018 at 9:05pm — 8 Comments
कुम्ह्लाइए मत खिल-खिल रहिये !
खुश-खुश रहिये , हिलमिल रहिये !
बीत गया मनमोहक सपना
खो गया दिलबर आपका अपना
कतराइये मत, शामिल रहिये
हंसमुख रहिये, चुलबुल रहिये !…
Added by नन्दकिशोर दुबे on April 4, 2018 at 5:00pm — 3 Comments
2025
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2025 Created by Admin.
Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |