अस्तित्व को ....
जगाते हैं
सारी सारी रात
तेरे प्रेम में भीगे
वो शब्द
जो तेरे उँगलियों ने
अपने स्पर्श से
मेरे ज़िस्म पर
छोड़े थे
ढूंढती हूँ
तब से आज तक
तेरे बाहुपाश में
विलीन हुए
अपने
अस्तित्व को
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on February 28, 2017 at 5:50pm — 6 Comments
Added by Dr Ashutosh Mishra on February 28, 2017 at 11:40am — 12 Comments
1212 1122 1212 22 /122
सुनें वो गर नहीं,तो बार बार कह दूँ क्या
है बोलने का मुझे इख़्तियार, कह दूँ क्या
शज़र उदास है , पत्ते हैं ज़र्द रू , सूखे
निजाम ए बाग़ है पूछे , बहार कह दूँ क्या
कहाँ तलाश करूँ रूह के मरासिम मैं
लिपट रहे हैं महज़ जिस्म, प्यार कह दूँ क्या
यूँ तो मैं जीत गया मामला अदालत में
शिकश्ता घर मुझे पूछे है, हार कह दूँ क्या
यूँ मुश्तहर तो हुआ पैरहन ज़माने में
हुआ है ज़िस्म का…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 27, 2017 at 7:30am — 25 Comments
समझता था ख़ुद को ज़र्रे से भी कमतर मगर
मिला वज़ूद से तो सैलाब निकला...
ज़ेहन में पड़े हैं अब भी बहुत से किर्च मगर
बहुतों के हिसाब से आफ़ताब निकला...
ढूंढा चाँद को सबने फ़क़त मगर
आँखवाला नहीं कोई भी जनाब निकला...
जाते हैं रस्ते से सब ही इसी तरह
कुछ के पैरों से रस्ता बेहिसाब निकला...
निकला न करो छुप कर हमसे मेरे नसीब
तुमसे भी कभी मेरा इख़्तियार निकला...
फ़ुरसत के पल न ढूंढा करो मिलने के
जब जब रहा ज़ेहन में तेरा दीदार…
Added by ASHUTOSH JHA on February 27, 2017 at 12:00am — 4 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 26, 2017 at 9:00pm — 9 Comments
बीस साल बाद आज जोखन लौटा था गाँव, कितनी बार घरवालों ने बुलाया, कितने प्रयोजन पड़े, लेकिन जोखन ने कभी भी गाँव की तरफ जाने का नाम नहीं लिया था| कितनी बार लोगों ने पूछा, लेकिन कभी उसने वजह नहीं बताया| आज गाँव में आकर उसे सब कुछ बदला बदला लग रहा था, कुछ भी पहचाना नहीं लग रहा था| पिताजी से हाल चाल करके वह गाँव में घूमने निकला और कुछ ही देर में गाँव के बाहर खेतों में खड़ा था| खेत भी अब खेत कम, प्लाट ज्यादा लग रहे थे| खेतों को पार करता हुआ वह बगल के गाँव के रास्ते पर चल पड़ा| कभी पगडण्डी जैसा रास्ता…
ContinueAdded by विनय कुमार on February 26, 2017 at 9:00pm — 2 Comments
बहरे मुतदारिक मुसम्मन अहज़ज़ु आखिर
२१२/२१२/२१२/२
रहनुमाई की बरसात है क्या।
फिर चुनाओं के हालात हैं क्या।
झुठ भी बोलो अगर तो सही है,
ये सियासत के शहरात है क्या।
शह्र मे आग है फिर पुरानी ,
दंगो से फिर ये हालात है क्या।
चीखें फिर से सुनाई दे कोई,
बहनों के लूटे अस्मात है क्या।
लोग कितने मजे से यहाँ हैं,
शह्र के ये हवालात हैं क्या।
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Hemant kumar on February 26, 2017 at 8:00pm — 6 Comments
देर तक .....
जब तुम
जब अंतर तट पर
अपने समर्पण की सुनामी
लेकर आये थे
मेरी देह
कंपकपाई थी
देर तक
जब तुम ने
रक्ताभ अधरों को
तृषा का
सन्देश दिया था
मेरे अधर की
हर रेख
मुस्कुराई थी
देर तक
जब तुम ने
अपनी बंजारी नज़रों से
मुझे निहारा था
मेरी निशा
तुम्हारी बंजारन बन
थरथराई थी
देर तक
जब तुम
मेरी प्रतीक्षा की
प्रथम आहट बने थे
मेरी…
Added by Sushil Sarna on February 26, 2017 at 12:30pm — 2 Comments
#गजल#
***
22 22 22 22
जैसे-तैसे आगे आता
मैं भी जनसेवक हो जाता!1
सेवा के आयाम बहुत हैं
अपनी सब करतूत गिनाता!2
नकली आँसू के छींटे दे
मन के माफिक मेवे खाता!3
पाँच बरस मुझको मिल जाते
चार पहर रोते फिर दाता!4
भाषा को हथियार बनाकर
जोर लगा मैं शोर मचाता!5
जात-धरम के पेड़ फफनते
थोड़े बिरवे और बढ़ाता!6
मेरी खातिर भींग कहें…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on February 26, 2017 at 11:08am — 4 Comments
अब नारों से डरते हम,
ख़ामोशी से मरते हम।
ख़ौफ बढ़े जब उसका तो,
तब फिर कहाँ उभरते हम।
ये जीना कैसा जीना,
ग़र्बत में ही मरते हम।
सपने देखे तो कैसे,
जीने से ही डरते हम।
याद करे दुनिया 'आरिफ़',
काम सदा वो करते हम।
.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Mohammed Arif on February 26, 2017 at 10:30am — 2 Comments
श्रद्धा - लघुकथा –
शिव रात्रि के मौके पर गाँव में शिव जी की रथ यात्रा निकाली जा रही थी। गाँव के हर घर के आगे रथ यात्रा रुक जाती थी । रथ यात्रा के साथ जो स्वंय सेवक लोग जुलूस के रूप में चल रहे होते थे वह घर के लोगों को आग्रह करते थे कि भोले नाथ जी के दर्शन का लाभ लें। घर के सभी लोग, स्त्रियाँ और बच्चे दर्शन करते और दान पात्र में कुछ दान पुन्य भी करते। बदले में उन्हें कुछ प्रसाद भी मिलता |
रथ यात्रा का जुलूस अभी गाँव के बीच हरिजन टोला में ही था कि दो दस बारह वर्ष के लड़के एक…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on February 26, 2017 at 10:18am — 14 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 26, 2017 at 8:16am — 3 Comments
Added by रामबली गुप्ता on February 26, 2017 at 7:00am — 18 Comments
गले में झूलते बाँहों के नर्म हार की बात।
ये बात है मेरे मौला हसीं हिसार की बात।
रखोगे आग पे माखन तो वो पिघल ही जायेगा।
भला टली है कभी , है ये होनहार की बात।
ये इंकलाब की बातें है जोश वालों की।
कहीं पढ़ी थी जो मैंने वो बुर्दबार की बात।
कहूँ किसी से भला क्यों , छुपा के रखे हैं।
उन्हीं की आँखों के किस्से उन्ही के प्यार की बात।
बड़ी कठिन है ये शेरो-सुखन नवाजी जनाब।
बेइख़्तियार से हालात , क़ि बारदार की बात।
ख़याल ही जब हिन्दोस्ताँ का हो न तो…
ContinueAdded by Ganga Dhar Sharma 'Hindustan' on February 26, 2017 at 12:39am — 3 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 25, 2017 at 5:30pm — 7 Comments
कुछ फ़र्द मंच की नज़्र :
न सही तेरी नज़रों को मुहब्बत की तमन्ना मगर !
तेरी नज़रें , नज़रों की हमराज़ तो बन सकती थीं !!1!!
माना करीबी दिल को ख़ुशगवार लगती है !
मगर दूरी में भी कम दिलकशी नहीं होती !!2!!
जाने क्यूँ आ गयी शर्म घटाओं को आज !
शायद किसी ने रुख़ पे ज़ुल्फें बिखेर दीं !!3!!
क्यूँ अँधेरे भी उजले से लगने लगे !
शायद, प्यार रूठा लौट आया है !!4!!
आये न थे तो चश्म तर-बतर थी !
गए पलट के तो कयामत ढा गए…
Added by Sushil Sarna on February 25, 2017 at 2:00pm — 2 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on February 25, 2017 at 12:04am — 1 Comment
खुशियों की चाबी - लघुकथा –
कालूराम फ़ुट्पाथ पर जूते मरम्मत करता था। उसके पास में ही रहमान तालों की चाबियाँ बनाता था।
"कालू भैया, कई दिन से देख रहा हूं कि आप कुछ दुखी हो। आजकल घर से खाना भी नहीं लाते। खाली चाय और डबल रोटी से काम चलाते हो"।
"हाँ रहमान भाई, तुमने सही कहा। मेरा घर बिखर रहा है।जब से बेटे की शादी हुई है, घर का माहौल बिगड़ गया है"।
"ऐसी क्या वज़ह हुई है"।
"बेटे की बहू अलग होना चाहती है"।
"तो हो जाने दो अलग"।
"वह चाहती है कि हम लोग इस घर…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on February 24, 2017 at 10:30am — 6 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 24, 2017 at 3:40am — 4 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on February 24, 2017 at 2:59am — 5 Comments
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