!!! प्यारी बेटी !!!
बेटी, सुनहरी धूप सी.....!
बेटी, नीम की छांव सी....!
बेटी, धन सी कामना...!
बेटी, कुल को तारना....!
बेटी, जीवन की आदि.अन्त....!
बेटी, मंदिर की साधु-संत....!
बेटी, गृहस्थ की पहली कड़ी.....!
बेटी, आनन्द की बेल चढ़ी......!
बेटी, दो कुटुम्ब की आधार-शान....!
बेटी, मधु-अमृत और सम्मान......!
बेटी सुख-दुःख की छाया.....!
बेटी, श्रृंगार की पेटी-माया...!
बेटी, सतरंगी इन्द्रधनुष...!
बेटी, सास की साजिश......!
बेटी,…
Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 5, 2013 at 2:13pm — 14 Comments
मानव समाज में पारिवारिक इकाई के अंतर्गत बच्चे युवा एवं बुजुर्ग तीन पीढ़ियों के लोग आते हैं। इन तीनों पीढ़ियों में आयु के अंतर के कारण सोंच में भी अंतर होता है। अक्सर सोंच का यह अंतर आपसी टकराव का कारण बन जाता है।
सोंच में अंतर स्वाभाविक है। हर समय का…
ContinueAdded by ASHISH KUMAAR TRIVEDI on May 5, 2013 at 11:00am — 11 Comments
क्षणिका : नीम चढ़ा करेला
नीम चढ़ा करेला
सेहत के लिए सबसे अच्छा होता है
लेकिन चर्बी को सेहत मानने वाले समाज में
ये कहीं नहीं बिकता
क्षणिका : हवा की तरह
मुझसे प्रेम करो हवा की तरह
ताकि तुम्हारा हर एक अणु
मेरे जिस्म के हर बिन्दु से टकराये
और तुमसे दूर होते ही
मेरी नसों में बह रहा लहू
मुझे फाड़कर रख दे
क्षणिका : विकास
चिकित्सा कम कर देती है…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 5, 2013 at 9:06am — 8 Comments
प्रथम प्रयास .....वीर छंद
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सास बहू से कहे प्रेम से देर भयी सो जाओ 'प्लीज़'
बहू सास से यह कहती है फौरन लाओ आँटा पीस
रणभूमी मे कागा कहता बोटी आज मिली बखशीस
बोटी कहती बच गये शत्रू बस इतनी है मन मे कीस
चोर कहे किसका मुहँ देखा खाली बटुआ लिया चुराय
मूँछ ऐंठ कर कहे सिपाही चुपके हफ्ता दो सरकाय
नेता कहता कसम आपकी सब डारेंगे काम बनाय
वोटर कहता क्षमा कीजिये बहकावे मे आँवै नाय
चापलूस अतिथी ये कहता बच्चे कितने हैं मासूम
गुनगुन…
Added by manoj shukla on May 5, 2013 at 6:30am — 12 Comments
वीर छन्द,,,(आल्हा छन्द)
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सदा न यॊद्धा रण मॆं जीतॆ, रहॆं न सदा हाँथ हथियार ।
जीना मरना वहीं पड़ॆगा,जिसका जहां लिखा करतार ॥
कई साल तक रहा ज़ॆल मॆं, बाँका सरबजीत सरदार ।
उसॆ छुड़ा ना पायॆ अब तक,सॊतॆ रह गयॆ पाँव पसार ॥
हाय हमारॆ मौनी बाबा, करतॆ रहॆ नॆह- सत्कार ।
लूटा खाया इस भारत कॊ,गूँगी …
ContinueAdded by कवि - राज बुन्दॆली on May 5, 2013 at 5:00am — 28 Comments
हम वो नही जो आपकी
चुटकी में मसल जाएँ
हम वो नहीं जो आपके
पैरों से कुचल जाएँ
हम वो नहीं जो आपके
डर से रण छोड़ जाएँ
हम वो नहीं जो आपकी
भभकी से सिहर जाएँ
जुल्मो-सितम की आंधी
यातनाओं के तूफ़ान में भी
देखो तने खड़े हम
किसी पहाड़ की तरह
खुद्दारी और खुद-मुख्तारी
यही तो है पूंजी हमारी...
उन जालिमों के गुर्गे
टट्टू निरे भाड़े के
हथियार छीन लो तो
रण छोड़ भाग…
ContinueAdded by anwar suhail on May 4, 2013 at 8:21pm — 5 Comments
देवता ! मुझे शरण दो !
अस्सी साल की बुढ़िया ,
लाठी टेकती आयी ,
गुहार करने
मंदिर आंगन द्वार .
हाथ उठाकर ,
घण्टी भी बजा न सकी .
जर्जर काया जीवन से त्रस्त ,
और दुखित -
अपनों से सतायी हुई, उपेक्षित .
माँग रही थी मृत्यु का वरदान ,
पर – देवता सोये थे निश्चिंत .
कम्पित कर जोड़े ,
साथ न दे रही थी
थर्राती वाणी.
‘’ मैया ! घर जाओ ‘’ बोले पुजारी
‘’ कहाँ जाऊँ बेटा, कहीं नहीं कोई ‘’.
जो कुछ था लूट लिया…
Added by coontee mukerji on May 4, 2013 at 7:13pm — 8 Comments
वाह रे खुदा!
हैरान हूँ तेरी खुदाई देखकर;
तेरी मेरी भावना से
मानव की पाटी खाई देखकर|
ना उसे मिला कुछ
ना ही कुछ इसे मिला;
फिर क्या बकवास नहीं
दुश्मनी का ऐसा सिला?
चिराग जला करे घर रोशन
अपने घर की मुंडेरों से;
तो क्या खता, गर रहबर कोई
बचाए खुद को ठोकरों से?
पर नहीं, बिलकुल नहीं
मानव को यह सुहाता नहीं;
अपना घर रोशन भले ना हो
दूसरे को रास्ता दिखाना भाता…
ContinueAdded by Usha Taneja on May 4, 2013 at 5:50pm — 13 Comments
दोस्तों इस मंच पर अपनी पहली रचना पोस्ट कर रहा हूँ........
गिन रहे हैं जिस तरह से आती-जाती सांस को हम......
उस तरह तुमने कभी क्या अपनी साँसों को गिना है ?…
ContinueAdded by KAVI DEEPENDRA on May 4, 2013 at 1:01pm — 10 Comments
मृत्युंजयी
रणभेरी बज उठी प्रिय!,
मैं मस्तक तिलक लगाऊॅ।
भारत मां को स्वतंत्र कराया,
मिलकर सोलह श्रृंगार किया।
प्यारी सद्भावना देवी को,
मैं श्रध्दा सुमन चढ़ाऊॅ।।--- रणभेरी....
देश की खातिर जिये अभी तक,
क्षमा-दान सब उत्सर्ग किया।
आ गई परीक्षा की घड़ी,
मैं शौर्य गीत ही गाऊॅ ।।--- रणभेरी...
दुनियां में अमन चैन रखने को,
सीटीबीटी बहिष्कार किया ।
परमाणु सम्पन्न देशों…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on May 3, 2013 at 9:54pm — 10 Comments
कैसे बन जाता कोई नपुंसक
कैसे हो जाती खामोश जुबान
कैसे हज़ारों सिर झुक जाते
कैसे बढते क़दम रुक जाते
कुंद कर दिया गया दिमाग
पथरा गई हैं संवेदनाएं
किसी साज़िश के तहत
खत्म कर दी गई हैं संभावनाएं
मैंने कहा साथी!
क्या हुआ कि बंद हैं राहें
गूँज रही हर-सू आहें-कराहें
क्या हुआ कि खो गई दिशाएँ
क्या हुआ कि रुक गई हवाएं
याद करो,
हमने खाई थी शपथ
विपरीत परिस्थितियों में
हम झुकेंगे…
ContinueAdded by anwar suhail on May 3, 2013 at 7:57pm — 9 Comments
बिंदु में लंबाई, चौड़ाई और मोटाई नहीं होती
बना दो इससे गदा को गंदा, चपत को चंपत, जग को जंग, दगा को दंगा
मद को मंद, मदिर को मंदिर, रज को रंज, वश को वंश, बजर को बंजर
कोई सवाल करे तो कह देना
ये बिंदु नहीं हैं
ये तो डॉट हैं जो हाथ हिलने से गलत जगह लग गए
केवल लंबाई होती है रेखा में
चौड़ाई और मोटाई नहीं होती
खींच दो गरीबी रेखा जहाँ तुम्हारी मर्जी हो
कोई उँगली उठाये तो कह देना ये गरीबी…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on May 3, 2013 at 7:55pm — 12 Comments
सरबजीत शहीद हुए, सत्ता करे न काम
छोड़ गया दो बेटियाँ, जो देगी अंजाम |
याद करो इतिहास को, और इंदिरा नाम,…
ContinueAdded by लक्ष्मण रामानुज लडीवाला on May 3, 2013 at 5:30pm — 22 Comments
तब से मेरी भारत माँ, बदहाल बहूत हैं.
मजबूर खामोशियों के तह में भूचाल बहूत…
Added by Noorain Ansari on May 3, 2013 at 4:00pm — 14 Comments
क्या है
Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 3, 2013 at 10:00am — 14 Comments
Added by rajesh kumari on May 3, 2013 at 10:00am — 35 Comments
सुनो स्त्री !
पुरुष स्पर्श की भाषा सुनो !
और तुम देखोगी आत्मा को देह बनते !
तेज हुई सांसों की लय पर थिरकती छातियाँ
प्रेम कहेंगी तुमसे -
संगीत और नृत्य के संतुलन को !
सामंजस्य जीवन कहलाता है !
(ये तुम्हे स्वतः ज्ञात होगा)
सम्मोहन टूटते है अक्सर -
बर्तन फेकने की आवाजों से !
आँगन और छत के लिए आयातित धुप
पसार दी जाती है ,
शयनकक्ष की मेज पर !
रंगीन मेजपोश आत्ममुग्धता का कारण हो सकते है…
ContinueAdded by Arun Sri on May 3, 2013 at 9:49am — 21 Comments
कारगिल के बाद
वीरों ने दिया प्राणों का, बलिदान व्यर्थ न हो जाए।
हर बार घात को मात भी दी। टेढ़ी चालें कर दी सीधी।
पर हारें कूटनीतिक बाजी। करते युद्धविराम राजी राजी।।
आगे बढ़ते विजयी-कदम, वापिस कभी न हो पाएं।
वीरों ने दिया प्राणों का, बलिदान व्यर्थ न हो जाए।।
लालों के खून की जो लाली। करती सीमाओं की…
ContinueAdded by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on May 3, 2013 at 6:00am — 5 Comments
गीत वो गा रहे // कुशवाहा //
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गीत वो गा रहे
प्रचार देखते रहे
पुष्प झरें मुखार से
तलवार देखते रहे
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मंच था सजा हुआ
चमचों से अटा हुआ
गाल सब बजा रहे
भिन्न राग थे गा रहे
सुन जरा ठहर गया
भाव लहर में बह गया
चुनाव है था विषय
आतुर सुनने हर शय
शब्द जाल फेंक वे
जन जन फंसा रहे
गीत वो गा रहे
प्रचार देखते रहे
पुष्प…
ContinueAdded by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on May 2, 2013 at 9:01pm — 10 Comments
तुमने जो भी बात कही थी
सबको माना तेरे बाद
हो गई अपनी पीर पराई
हँस के जाना, तेरे बाद
बोझिल राते खुल के बोलीं
दिन बतियाया तेरे बाद
तेरे रहते था मैं बूढ़ा
खिली जवानी तेरे बाद
तुझे देख जो बादल गरजे
जमकर बरसे तेरे बाद
हो गई सारी दरिया खारी
रो-रो जाना, तेरे बाद
तेरे रहते दर-दर भटका
मंजिल पाई तेरे बाद
हाथों की वो चंद लकीरें
बनीं मुकद्दर तेरे बाद
यह भी तेरी…
ContinueAdded by राजेश 'मृदु' on May 2, 2013 at 4:46pm — 15 Comments
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