सीखना सिखाना जरुरी है
दिल को मिलाना जरुरी है
मिलने का वक़्त हो न हो
यादों में आना जरुरी है
जो गलतियां करे कोई
आईना दिखाना जरुरी है
जुबाँ भले न कह पाए
एहसास जताना जरुरी है
भूलना इंसानी फितरत है
याद तो दिलाना जरुरी है !!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on July 24, 2018 at 3:00pm — 12 Comments
परछाईयाँ (२ क्षणिकाएं ) ....
1.
एक अंत
मृतिका पात्र में
कैद हो गया
जीवन के धुंधलके में
अर्थहीन परछाईयों का
पीछा करते करते
..............................
2.
बीते कल की
क्षत-विक्षत अभीप्सा का
शृंगार व्यर्थ है
अन्धकार को भेदो
सूरज वहीं कहीं मिलेगा
दुबका हुआ
नई अभीप्सा का
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on July 24, 2018 at 12:50pm — 11 Comments
फ़ाइलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फेलुन/फ़इलुन
दिल के नज़दीक से गुज़रो तो बता कर जाना
ये भी चाहत की है इक रस्म निभा कर…
ContinueAdded by santosh khirwadkar on July 23, 2018 at 7:08pm — 10 Comments
श्रद्धांजलि
हिन्दी का जग सूना सूना,कवि नीरज के जाने से
मर्माहत साहित्य जगत है, यह हीरा खो जाने से
भूल नहीं पाएंगे हम सब,नीरज की कविताओं को
गीतों में ढाला है जिसने,नित मदमस्त फिजाओं को ll
देदीप्यमान अम्बरादित्य, बिन काव्यजगत ये रीता है
नीरज अब नीर विलीन हुआ, मन भ्रमर गमों को पीता है
मुखरित होता था प्रेम रुदन,सौंदर्य वेदना गीतों में
इक रूह झंकरित होती थी, उनके हर संगीतों में ll
कविता कानन का मन मयूर, ढूंढ…
ContinueAdded by डॉ छोटेलाल सिंह on July 23, 2018 at 2:51pm — 6 Comments
साँझा चूल्हा - लघुकथा –
"रज्जो, यह तेरा देवर रोज रोज हमारी रसोई में थाली लिये बैठा क्यों दिखता है"?
"क्योंजी, क्या वह आपका भाई नहीं है "?
"मेरी बात का सीधा जवाब दे? बात को घुमा मत"?
"आप भी ना, दो रोटी खा जाता है और क्या करते हैं रसोई में"?
"वह तो मुझे भी पता है। पर हमारी रसोई में क्यों"?
"उसके दो रोटी खाने से हम कंगाल हो जायेंगे क्या"?
"बात रोटी की नहीं है , बात उसूल की है"?
"वह कहता है कि उसकी घरवाली के हाथ में स्वाद नहीं…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on July 23, 2018 at 1:17pm — 16 Comments
दर्द फिर उठा है। दर्द बहुत तेज़ है। कहते हैं, दर्द का हद से गुज़र जाना दवा है। ऐ दर्द गुज़र जा आज अपनी हदों से तू। ज़रा मैं भी तो देखूँ तेरा दवा हो जाना।
दर्द सचमुच बड़ा बेदर्द है। वह सचमुच बढ़ता जाता है; अपनी हदों को पार करता हुआ। अब नही, अब नही.......। अब बर्दाश्त नही होता। लेकिन दर्द तो बेदर्द है। बढ़ता ही जा रहा है; बर्दाश्त की हदों को पार करता हुआ। अब लगता है, जैसे सिमट आया है एक ही जगह।
दिल!
आह, दर्द-ए-दिल। सिमट आता है एक ही मुकाम पर। लगता है जैसे दिल किसी शिकंजे में कसा…
ContinueAdded by Mirza Hafiz Baig on July 23, 2018 at 1:00pm — 7 Comments
डायरी का अंतिम पृष्ठ
एक अरसे बाद, आज मेरे आवरण ने किसी के हाथों की छुअन महसूस की, जो मेरे लिए अजनबी थे। कुछ सख्त और उम्रदराज़ हाथ। मेरे पृष्ठों को उनके द्वारा पलटा जा रहा था। दो आँखें गौर से हर शब्द के बोल सुन रही थीं। मेरे अंतिम लिखित पृष्ठ पर आते ही ये ठिठक गईं। पृष्ठ पर लिखे शब्दों में से आकाश का चेहरा उभर आया। सहमा-सा चेहरा। उसने भारी आवाज़ में बोलना शुरू किया, "एक रिटायर्ड फ़ौजी, मेरे पापा। चेहरे पर हमेशा रौब, मगर दिल के नरम। आज उनकी बहुत याद आ रही है। जानता…
ContinueAdded by सतविन्द्र कुमार राणा on July 22, 2018 at 9:51pm — 10 Comments
काव्य मंचों के अपरिहार्य ,नैसर्गिक प्रतिभा के धनी,प्रख्यात गीतकार ,पद्मभूषण से सम्मानित,जीवन दर्शन के रचनाकार,साहित्य की लम्बी यात्रा के पथिक रहे,नीरज जी का जन्म उत्तर प्रदेश के जिला इटावा के पुरावली गांव में श्री ब्रज किशोर सक्सेना जी के घर ४ जनवरी,१९२५ को हुआ था.गरीब परिवार में जन्मे नीरज जी की जिंदगी का संघर्ष उनके गीतों में झलकता हैं.युग के महान कवि नीरज जी को राष्ट्र कवि दिनकर जी 'हिंदी की वीणा' कहते थे. मुनब्बर राना जी कहते हैं-हिंदी और उर्दू के बीच एक पल की तरह काम करने वाले नीरज जी…
ContinueAdded by babitagupta on July 22, 2018 at 9:20pm — 7 Comments
सुबह से ठंडे चूल्हे को देख आहें भरती वह अपनी छः वर्षीय बेटी और तीन वर्षीय बेटे को पास बिठाए गहरे मातम में ड़ूबी थी। उसे लकवा सा मार गया था। उसका मस्तिष्क मानो सोचने-विचारने की क्षमता खो बैठा था। पूरी रात उसने वहीं जमीन पर बैठे गुज़ार दी थी। दोनों बच्चे भी वहीं उसकी गोदी में पड़े- पड़े कब सो गये थे उसे कोई होश ही नहीं था। पड़ोस की बूढ़ी अम्मा ही बच्चों के लिए खाना ले आई थी।
" आह..! अब ऐसे घिनौने पाप का साया मेरे और इन बच्चों के सिर पर हमेशा मँड़राता रहेगा।"
उसकी दुःखभरी कराहें निकल…
ContinueAdded by Arpana Sharma on July 22, 2018 at 3:30pm — 6 Comments
सबको तो
डस रहे हैं, फंस रहे हैं
असरदार या बेअसर?
नकली या असली?
देशी, विदेशी या एनआरआई?
मुंह में सांप
हाथों में सांप
बदन में सांप
गले पड़े सांप
सिर पर सांप
सांपों के तालाबों से!
मानव समाज में
शब्दों, जुमलों, नारों,
फैशन, गहने या हथियार रूपेण!
या प्रतिशोध लक्षित
मानव-बम सम!
पर कितना असर
जनता पर, सरकार पर?
केवल घायल लोकतंत्र
सपेरों के मंत्र
यंत्र, इंटरनेट
और सोशल मीडिया!
पनीले या…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on July 22, 2018 at 12:00pm — 2 Comments
इनआर्बिट माल से सागर ने आफिस के लिए फॉर्मल ड्रेसेस तो खरीद लीं थीं। अभी और ज़रूरी परचेसिंग बाकी थी। तभी अनायास उसकी नज़र एक टॉय सेन्टर पर पड़ी। बड़े से हाल में, एक रिमोट कंट्रोल्ड एयरोप्लेन गोल- गोल चक्कर लगा रहा था। उसे देखते ही सागर को अपना बचपन याद आ गया। अपने होमटाउन के सिटिमार्केट से गुज़रते वक़्त ऐसे ही एक खिलौने की दुकान से उसने चाबी से चलने वाले हवाई जहाज़ को खरीदने की ज़िद की थी और अपनी ज़िद पूरी करवाने के लिए…
ContinueAdded by MUZAFFAR IQBAL SIDDIQUI on July 21, 2018 at 11:30pm — 5 Comments
"मां, मुझे क्षमा कर दो और घर चलो!"
"क्षमा क्यों? तुमने भी वही किया जो सभी मर्द ऐसे हालात में करते हैं! ... यह बात और है कि तुम इतनी कम उम्र में पूरे पुरूष बन गये और एक विधवा पर वैसे ही बोलों के पत्थर फैंकने लगे!"
"लेकिन मेरे बड़े भाई ने हमेशा तुम्हारा ख़्याल रखा, तुम्हारा ही बचाव किया न!"…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on July 21, 2018 at 11:30pm — 8 Comments
बचके चलना सीख लिया है
हमने संभलना सीख लिया है
वक़्त सदा होता ना अच्छा
हमने बदलना सीख लिया है
देख समंदर की लहरों को
हमने मचलना सीख लिया है
दर्द अगर हद से बढ़ जाए
हमने पिघलना सीख लिया है
भाग रही अपनी दुनिया में
हमने ठहरना सीख लिया है
आसमाँ की ख़्वाहिश सबकी
हमने उतरना सीख लिया है !!
Added by विनय कुमार on July 21, 2018 at 4:07pm — 10 Comments
बचके चलना सीख लिया है
हमने संभलना सीख लिया है
वक़्त सदा होता ना अच्छा
हमने बदलना सीख लिया है
देख समंदर की लहरों को
हमने मचलना सीख लिया है
दर्द अगर हद से बढ़ जाए
हमने पिघलना सीख लिया है
भाग रही अपनी दुनिया में
हमने ठहरना सीख लिया है
आसमान की ख़्वाहिश सबकी
हमने उतरना सीख लिया है !!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on July 21, 2018 at 4:00pm — 4 Comments
सम्मान - लघुकथा –
एक माँ के चार बेटे थे। बाप का साया बचपन में ही उठ गया था। अतः माँ ने उनके पालन पोषण में कुछ ज्यादा ही प्यार दिखाया और अतिरिक्त सावधानी बरती। इसका नतीजा यह हुआ कि बच्चे उदंड और शरारती हो गये।
माँ काम काज के लिये घर से बाहर रहती थी। और बच्चे सारे दिन मुहल्ले में हुल्लड़बाजी और दबंगयी दिखाते रहते थे। कभी किसी का काँच तोड़ देना या कभी किसी का सिर फोड़ देना। किसी का सामान उठा लाना। किसी स्त्री को छेड़ देना। यह उनका रोज़मर्रा का काम था।
आज दिन भर हंगामा करके…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on July 21, 2018 at 11:52am — 12 Comments
गीतों की लय
है ड़गमगाई,
सुरों की सरगम
स्तब्ध हो आई,
भाव खो बैठे,
हैं धीरज,
कैसे कह दें
अलविदा
आपको कविवर
हे नीरज,
शब्द-लय सुर-गीत
अप्रतिम -अद्वितीय ,
युगों- युगों रहेंगे
गुँजायमान,
है धन्य-धन्य,
यह भारत भूमि,
पाकर आपसा अनन्य,
कलम का धनी...!!
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by Arpana Sharma on July 20, 2018 at 11:00pm — 7 Comments
विश्वास-अविश्वास की बहस
जगहंसाई के रहस्य
फ़िल्मी रस
लोकतंत्र को डस
संस्कार तहस-नहस
रो ले , सो ले या बस हंस!
जनता जस-की-तस!
*
अचरज ही अचरज
वर्षों पुराना मरज़
डीलें संवेदनशील
अपनों को बस लील
ग़रीबों पर तरस
धन अमीरों पर बरस
फ़िल्मी रस
व्यवस्था तहस-नहस!
मतदाता जस-का-तस!
*
राज़ों का संत्रास
हिलते स्तंभों के आभास
धर्म-गुरुओं के दास
बदले राजनीति के अंदाज़
जनता पर ग़ाज़
गप्पों की झप्पी
विवादों की…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on July 20, 2018 at 7:58pm — 8 Comments
मैं तृषित धरा ,
आकुल ह्रदया,
रचती हूँ ये पाती,
मेरे बदरा,
तुम खोए कहाँ,
मुझसे रूठे क्यों,
हे जल के थाती,
दूर-दूर तलक,
ना पाऊँ तुम्हें,
कब और कैसे,
मनाऊँ तुम्हें,
नित यही मैं ,
जुगत लगाती,
साँझ- सबेरे,
राह निहारे ,
मैं अनवरत ,
थकती जाती,
आओ जलधर,
जीवन लेकर,
बिखेरो सतरंग,
सब ओर मुझपर,
तड़ित चपला की,
शुभ्र चमक में,
श्रृंगारित हो,
सुसज्जित हो,
हरी चूनर मैं,…
Added by Arpana Sharma on July 20, 2018 at 4:30pm — 9 Comments
"अरे ... ये तुम्हारा नेटवर्क कभी भी आता - जाता रहता है। मैं तो परेशान हो गया। पुराना बदल कर, ये तुम्हारी कम्पनी का नया वाला ब्रॉडबेंड लिया। उसका भी यही हाल है।
Added by MUZAFFAR IQBAL SIDDIQUI on July 19, 2018 at 8:00pm — 6 Comments
लुट गयी कैसे रियासत सोचिये ।
हर तरफ़ होती फ़ज़ीहत सोचिये ।।
कुछ यकीं कर चुन लिया था आपको ।
क्यों हुई इतनी अदावत सोचिये ।।
नोट बंदी पर बहुत हल्ला रहा ।
अब कमीशन में तिज़ारत सोचिये ।।
उम्र भर पढ़कर पकौड़ा बेचना ।
दे गए कैसी नसीहत सोचिये ।।
गैर मज़हब को मिटा दें मुल्क से ।
आपकी बढ़ती हिमाक़त सोचिये ।
दाम पर बिकने लगी है मीडिया ।
आ गयी है सच पे आफत सोचिये ।।
आज गंगा फिर यहां रोती मिली ।
आप भी अपनी लियाक़त सोचिये…
Added by Naveen Mani Tripathi on July 19, 2018 at 7:51pm — 9 Comments
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