“चलो भैया घर नहीं चलना है क्या?”
साथी के स्वर सुन,सोच में डूबा मदन, चौंक कर बोला, “हाँ हाँ चलो भाई निकलतें हैं”
सब अपनी-अपनी साईकिल लेकर बढ़ चले, तो साथ ही काम करने वाला राघव, अपनी साईकिल मदन के आगे लगाकर बोला,
“चलिए दद्दा हम भी चलते हैं”
“जिनसे नाता था वो तो कब का छोड़ गए... तू कौन से जन्म रिश्ता निभा रहा है, रे?” साईकिल पर बैठते हुए उसने कहा.
साईकिल बढ़ाते हुए राघव बोला, “दद्दा, उम्र में छोटा हूँ, आपसे कहने का हक तो नहीं है. मगर...”
“पता है तू क्या कहेगा... मगर…
Added by Seema Singh on August 22, 2016 at 9:00am — 26 Comments
अँखियों में अँखियाँ डूब गई,
अँखियों में बातें खूब हुई.
जो कह न सके थे अब तक वो,
दिल की ही बातें खूब हुई.
*
हमने न कभी कुछ चाहा था,
दुख हो, कब हमने चाहा था,
सुख में हम रंजिश होते थे,
दुख में भी साथ निबाहा था.
*
ऑंखें दर्पण सी होती है,
अन्दर क्या है कह देती है.
जब आँख मिली हम समझ गए,
बातें अमृत सी होती है.
*
आँखों में सपने होते हैं,
सपने अपने ही होते हैं,
आँखों में डूब जरा…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on August 22, 2016 at 7:00am — 16 Comments
ग़ज़ल ( क़लम तक न पहुंचे )
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१२२ --१२२ --१२२ --१२२
वो पहुंचे मगर चश्मे नम तक न पहुंचे ।
हंसी में छुपे मेरे गम तक न पहुंचे ।
इनायत है उनकी मगर खौफ भी है
कहीं सिलसिला यह सितम तक न पहुंचे ।
कई बार उनसे हुई बात लेकिन
मेरे जज़्बए दिल सनम तक न पहुंचे ।
यही रहबरों चाहती है रियाया
सियासत कभी भी धरम तक न पहुंचे ।
तसव्वुर नहीं बंदिशें हैं मिलन…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on August 21, 2016 at 5:33pm — 10 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 21, 2016 at 5:00pm — 6 Comments
Added by मनोज अहसास on August 21, 2016 at 3:53pm — 8 Comments
१२२२ १२२२ १२२२ १२२२
फिसलकर नींद से टूटे हुए सपने कहाँ रक्खूँ
ज़फ़ा की धूप में सूखे हुए गमले कहाँ रक्खूँ
इबादत में वजू करती मुक़द्दस नीर से जिसके
पुरानी उस सुराही के बचे टुकड़े कहाँ रक्खूँ
परिंदे उड़ गए अपनी अलग दुनिया बसाने को
बनी मैं ठूँठ अब उस नीड के तिनके कहाँ रक्खूँ
भरा है तल्खियों से दिल कोई कोना नही ख़ाली
तेरी यादों के वो बिखरे हुए लम्हे कहाँ रक्खूँ
तुझे चेह्रा दिखाने पर तेरे पत्थर ने जो…
ContinueAdded by rajesh kumari on August 21, 2016 at 11:30am — 13 Comments
ये तो ख़्वाब हैं ...
शब् के हों
या सहर के हों
सुकूं के हों
या कह्र के हों
ये तो ख़्वाब हैं
ये कभी मरते नहीं
ज़ज़्बातों के दिल हैं ये
ये किसी कफ़स में
कैद नहीं होते
ये नवा हैं (नवा=स्वर)
ये हवा हैं
ये ज़ुल्मों की आतिश से
तबाह नहीं होते
ये हर्फ़ हैं
ये नूर हैं
किसी सनाँ के वार से (सनाँ=भाला)
इन्हें अज़ल नहीं आती
पलकों की ज़िंदाँ में (ज़िंदाँ =कारागार)
ये सांस लेते हैं
ज़िस्म फ़ना होते हैं मगर…
Added by Sushil Sarna on August 20, 2016 at 9:02pm — 8 Comments
Added by Rahila on August 20, 2016 at 12:02pm — 5 Comments
Added by Manan Kumar singh on August 20, 2016 at 6:30am — 3 Comments
Added by दिनेश कुमार on August 20, 2016 at 4:52am — 5 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on August 19, 2016 at 10:51pm — 1 Comment
Added by रामबली गुप्ता on August 19, 2016 at 10:00pm — 9 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on August 18, 2016 at 10:02pm — 12 Comments
एक तू ही थी
जो बचपन में
अपने जोड़े पैसों से
मुझे खिलाती थी
मेरी मनपसंद चीज
और झूठ बोलकर मुझे
बचाती थी पिता के प्यार से
फिर एक दिन तू उड़ गयी
कही दूर किसी अजानी जगह
और फिर बनाया उसे
अपनी कर्म भूमि
आजीवन पूजती रही बट-वृक्ष
और सींचती रही अपने लगाये पौधे
बिताया अपना सारा जीवन
पत्रों से भेजती रही
मेरे लिए राखी
मैं बाँध लेता था उन्हें
आँखें नम हो जाती थे स्वतः
पर आज…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 18, 2016 at 3:32pm — 8 Comments
लघु कथा
राखी वाला नोट
जैसे ही चौराहे पर लाल रंग का सिगनल हुआ वह अपनी बहन लाली को गोदी में ले कर दौड़ पड़ा भीख माँगने के लिये। बन्द कारों के शीशों के पार उसकी आवाज पँहुच नहीं पा रही थी।
तभी एक कार का शीशा खुला और एक महिला ने पचास रूपये का नोट उसे पकड़ा दिया। लाली को उसने नीचे बिठाया और वह उस पचास रूपये के नोट को निहारने लगा। ’’ भैया वह देखो कितनी सुन्दर राखियाँ सामने दुकान पर टगीं हैं एक राखी मुझे भी चाहिये’’
भाई उठा और राखी लेने के लिये दौड़ पड़ा। अचानक चूूूू.......... की…
Added by Abha saxena Doonwi on August 18, 2016 at 2:00pm — 3 Comments
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on August 18, 2016 at 11:00am — 6 Comments
अंदाज कातिलों के बेहतरीन बहुत हैं ।
कुछ शख्स इस शहर में नामचीन बहुत हैं ।।
वो खैर मांगते रहे बुरहान की सदा।
उसकी दुआ में पेश हाज़रीन बहुत हैं ।।
आज़ाद मीडिया है अदावत का तर्जुमा ।
गुमराह हर खबर पे नाज़रीन बहुत हैं ।।
जब भी जला वतन तो जश्ने रात आ गयी ।
दैरो हरम के पास मजहबीन बहुत हैं ।।
मिटते हैं वही मुल्क बड़े जोर- शोर से ।
बैठे जहाँ घरों में फिदाईन बहुत हैं ।।
मेरी बलूच आसुओं पे जब नज़र गई ।
वो हुक्मरान देखिए…
Added by Naveen Mani Tripathi on August 18, 2016 at 11:00am — 6 Comments
Added by रामबली गुप्ता on August 18, 2016 at 6:34am — 4 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on August 17, 2016 at 8:31pm — 2 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on August 17, 2016 at 3:30pm — 4 Comments
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