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September 2015 Blog Posts (160)


सदस्य कार्यकारिणी
ज़रा सी बात पे फिर आज मुँह फुला आया-- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

 

1212--- 1122---1212---22

 

अगर नहीं था यकीं क्यों हलफ उठा आया

ज़रा सी बात पे फिर आज मुँह फुला आया

 

पहाड़ कौन सा टूटा, जो तेरी बातों…

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Added by मिथिलेश वामनकर on September 10, 2015 at 9:30am — 26 Comments

बंजारा

एक मुसाफ़िर नगर नगर में देखो घूमता, है बंजारा।

हर बस्ती की सरहद को बस छूके लौटता, है बंजारा।।  

रमें कहाँ पर बसे कहाँ पर स्थिर खुद को करे कहाँ पर।

डेरा अपना कहाँ जमाये ठौर ढूँढता, है बंजारा।।  

प्यासा प्यासा बादल बरखा को दर दर बस ढूँढ़ रहा है।

पानी पानी अपने जीवन का रस खोजता, है बंजारा।।  

सोच रहा है अपना नसीबा अपने करम से कहाँ बिगाड़ा।

रफ़ के पन्नों जैसी पुस्तक खुद ही बाँचता, है बंजारा।।

 

किस पर क्रोध करेगा…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 10, 2015 at 5:15am — 7 Comments

आती है याद

जलते तो है सभी

पर जलने का भी होता है

एक ढंग, एक कायदा,

एक सलीका

जब मै किसी दिए को

किसी निर्जन में

जलते देखता हूँ निर्वात   

तब समझ पात़ा हूँ

कि क्या होता है

तिल–तिल कर जलना,

टिम-टिम करना 

घुट-घुट मरना

और तब मुझे याद आती है

मुझे मेरी माँ

जीवनदायिनी माँ 

सब को संवारती

खुद को मिटाती माँ !

(अप्रकाशित व् मौलिक )

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on September 9, 2015 at 8:30pm — 15 Comments

हम सब एक हैं

जात पात पंथ काज
विषमतायें हजार
भाषा बोली हैं अलग
हम सब एक हैं ।

वीर भोग्या वसुंधरा
किसान सींचे स्वेद से
लहलहाती बालियां
हम सब एक हैं ।

मची क्यूँ है मारकाट
खामोश क्यूँ हवा हुई
चिराग दिलों के बुझे
हम क्यूँ ना एक हैं ।

आतंकवाद दूर हो
मनु मनु में प्रेम हो
अनेकता में एकता
लगे सब एक हैं ।।

मौलिक व अप्रकाशित ।

Added by Pankaj Joshi on September 9, 2015 at 6:10pm — 3 Comments

धर्मान्धों की नगरी में (ग़ज़ल)

बह्र : २२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २

 

इंसाँ दुत्कारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

पर पत्थर पूजे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

 

शब्दों से नारी की पूजा होती है लेकिन उस पर

ज़ुल्म सभी ढाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

 

नफ़रत फैलाने वाले बन जाते हैं नेता, मंत्री

पर प्रेमी मारे जाते हैं धर्मान्धों की नगरी में

 

दिन भर मेहनत करने वाले मुश्किल से खाना पाते

ढोंगी सब खाये जाते हैं धर्मान्धों की नगरी…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 9, 2015 at 5:50pm — 18 Comments

ग़ज़ल इस्लाह के लिए (मनोज कुमार अहसास)

2212 2212 2212 12





सज़दो का मेरा इश्क़ के ईनाम लिख दिया

साकी ने मेरे आंसुओं को जाम लिख दिया



सारे जहां की दौलते मुठ्ठी में आ गयीं

बेटी ने मेरे हाथ पर जब नाम लिख दिया



खुद को मिला के आ गया दुनिया की भीड़ में

उसने उदासियां का मेरी दाम लिख दिया



इस ज़िन्दगी के घाव कितने कम लगे मुझे

मैंने तड़फती सोच मे जब राम लिख दिया



हाथों के ज़ख्मो पेट की सिलवट को देखकर

घबरा के चारागर ने भी आराम लिख दिय



लपटों मे घिर न जाये कहीं… Continue

Added by मनोज अहसास on September 9, 2015 at 4:00pm — 7 Comments

अस्तित्व

छलछलाई आँखों से 

मुस्कराई आँखों से 

विदा दी देहरी ने 

चल पड़ी मैं......

छलछलाई आँखों से 

मुस्कराई आँखों से 

स्वागत किया देहरी ने 

हंस पड़ी मैं.........

रंगोली सजाने लगी 

वंदनवार लगाने लगी

सज गयी देहरी 

रम गयी मैं........

प्रीत ने बहका दिया 

मीत ने महका दिया

लहरा गया आँचल 

संवर गयी मैं........

ममता ने निखार दिया 

आँचल भी संवार…

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Added by Abha Chandra on September 9, 2015 at 4:00pm — 14 Comments

वनवास

भूमिजा सुता जनक
चली आज पति संग
त्याग राज वेश सभी
वन  को   विदाई    है ।

वन  भयंकर      पशु
जंगली  आदम  खोर
हड्डियों के ढेर देख 

सीते    घबराई    है ।

प्रभु  राम  सीते  मन
पढ़ मन मुस्कियायें
माया रचने की घडी
कैसी  अब   आई  है ।

देह  धारण     मनुष्य
मिलता बड़े भाग्य से
माया  तेरे  कंधे  बड़ी
जिम्मेदारी  आई    है ।

मौलिक व अप्रकाशित ।

Added by Pankaj Joshi on September 9, 2015 at 1:30pm — 5 Comments

गीत - "बूँदें मचल रही हैं"

घन स्याम नभ में’ छाया , बूदें मचल रही हैं |
है जोर अब हवा का, ये बन सँवर रही हैं |
सूरज छुपा है’ बैठा , रूठा है रश्मियों से,
धरती मगन हुई है , चाहत उबल रही है |
.....घन स्याम नभ में’ छाया , बूदें मचल रही हैं…
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Added by Chhaya Shukla on September 9, 2015 at 10:30am — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
हमको तो खुल्द से भी मुहब्बत नहीं रही --- (ग़ज़ल) --- मिथिलेश वामनकर

221—2121—1221-212

 

हमको तो खुल्द से भी मुहब्बत नहीं रही

या यूं कहें कि पाक अकीदत नहीं रही

 

जाते कहाँ हरेक तरफ यार ही…

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Added by मिथिलेश वामनकर on September 9, 2015 at 9:30am — 18 Comments

रोबोट (कविता)

रोबोट घंटों लगातार काम करता है

और कुछ ही समय में फिर से रीचार्ज हो जाता है

 

कारखाने से कबाड़खाने तक

रोबोट कहीं नियम नहीं तोड़ता

 

रोबोट चुपचाप सुनता है उच्चाधिकारियों की सारी बातें

और इजाज़त मिलने पर ही बोलता है

 

रोबोट बिना किसी विरोध के उन सारी बातों में यकीन कर लेता है

जो उसकी मेमोरी में भरी जाती हैं

 

रोबोट अपने मालिकों के लिए ढेर सारा पैसा कमाता है

और बदले में उसे सिर्फ़…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on September 8, 2015 at 6:36pm — 10 Comments

तू ग़ज़ल लिखे चाहे जो बह्र, अशआर में वो ज़ुरूर है।।(ग़ज़ल इस्लाह के लिये)

कोई हर्फ़ लब पे न हो भले, इज़हार में वो ज़ुरूर है।

तू ग़ज़ल लिखे चाहे जो बह्र, अशआर में वो ज़ुरूर है।।



ये भी खूब है हाँ खूब है, मुरझा रहे हो तुम यहाँ।

जिस हुश्ने उपवन की तलब, हाँ बहार में वो ज़ुरूर है।।



जो कभी गले से मिला नहीं, सर वो ही शानों पे ढूँढता।

तू गज़ब सितम खुद पर करे, तेरी हार में वो ज़ुरूर है।।



यहाँ रात का पल जल रहा, वहाँ ख़्वाब नैनों में पल रहा।

जो पिघल रहा तेरी आँखों से, मिला प्यार में वो ज़ुरूर है।।



ये खुली पलक दहलीज़ पर, यूँ ही… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on September 8, 2015 at 6:30pm — 16 Comments

ग़ज़ल -- कोई रास्ता मिले ...( बराए इस्लाह ) .... दिनेश कुमार

221-2121-1221-212



मंज़िल मिले न मुझको कोई रास्ता मिले

सहरा-ए-ज़िन्दगी में फ़क़त नक्शे पा मिले



मरने से भी ग़ुरेज़ न मुझ जैसे रिन्द को

लेकिन ये हो कि मर के मुझे मयकदा मिले



क़ैद-ए-नफ़स से रूह जो आज़ाद हो मिरी

फिर उसको पैरहन न कोई दूसरा मिले



बेचैन हूँ मैं गर्मी-ए-अहसास-ए-हिज्र से

अब तो तुम्हारे प्यार की ताज़ा हवा मिले



पुरपेंच पुरख़तर है ये जीवन की रहगुज़र

अच्छा हो रहनुमा जो अगर आप सा मिले



तूफाँ की ज़द में आ गयी कश्ती… Continue

Added by दिनेश कुमार on September 8, 2015 at 4:38pm — 18 Comments

टूटे सपने … (लघुकथा)...

टूटे सपने … (लघुकथा)

"राधिका ! आओ बेटी , अविनाश जाने की जल्दी कर रहा है। " माँ ने राधिका को आवाज़ लगाते हुई कहा।

''अभी आयी माँ, बस दो मिनट में आती हूँ। '' राधिका ने आईने के सामने बैठे बैठे ही जवाब दिया। आज अविनाश कितने समय के बाद विदेश से आया है। आज मैं उसे अपने मन की बात कह ही डालूंगी ,राधिका मन ही मन बुदबुदाई। जल्दी से आँखों में काजल की धार बना वो ड्राईंग रूम में आई।

''हाय अविनाश कैसे हो ? विदेश में कभी हमारी याद भी आती थी या गोरी मेमों में ग़ुम रहते थे। ''

''अरे नहीं…

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Added by Sushil Sarna on September 8, 2015 at 2:30pm — 6 Comments

आतंकवाद

कैसी तेरी यह दशा
माँ भारती हुई आज
दुश्मनों का रचा कैसा
ये प्रपञ्च खेल है ।

शेर की मांद भीतर
हाथ देने को तैय्यार
किसने अपने प्राणों
का मोह दिया ठेल है ।

देश के लाल बहुत
सदा हुए हैं तत्पर
करने प्राण उत्सर्ग
उत्सव खेल हैं ।

शत्रु मुण्डमाल आज
हाथों में खडग लिये
माँ भवानी को चढ़ाने
जन गण मेल हैं ।

मौलिक व अप्रकाशित  ।

Added by Pankaj Joshi on September 8, 2015 at 1:25pm — 2 Comments

प्यार/लघुकथा /कान्ता राॅय

पति को आॅफिस के लिये विदा करके ,सुबह की भाग - दौड़ निपटा पढने को अखबार उठाया , कि दरवाजे की डोर बेल बज उठी ।

"इस वक्त कौन हो सकता है !" सोचते हुए दरवाजा खोला। उसे मानों साँप सूँघ गया । पल भर के लिये जैसे पूरी धरती ही हिल गई थी । सामने प्रतीक खड़ा था ।

"यहाँ कैसे ?" खुद को संयत करते हुए बस इतने ही शब्द उसके काँपते हुए होठों पर आकर ठहरे थे ।

"बनारस से हैदराबाद तुमको  ढूंढते हुए बामुश्किल पहुँचा हूँ ।" वह बेतरतीब सा हो रहा था । सजीला सा प्रतीक जैसे कहीं खो गया था ।

"आओ…

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Added by kanta roy on September 8, 2015 at 10:30am — 2 Comments

मेरे शानों पे .....

मेरे शानों पे .....

साँझ होते ही मेरे तसव्वुर में

तेरी बेपनाह यादें

अपने हाथों में तूलिका लिए

मेरी ख़ल्वत के कैनवास पर

तैरती शून्यता में

अपना रंग भरने आ जाती हैं

रक्स करती

तेरी यादों के पाँव में

घुंघरू बाँध

अपने अस्तित्व का

अहसास करा जाती हैं

मेरी रूह की तिश्नगी को 

अपनी दूरी से

और बढ़ा जाती हैं

मेरे अश्क

मेरी पलकों की दहलीज़ पे

चहलकदमी करने लगते हैं

न जाने कब

सियाह…

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Added by Sushil Sarna on September 7, 2015 at 10:22pm — 16 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मसरूफ है दुआ करने-- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

1212--- 1122---1212---22

 

जरा खंरोच जो आई लगे सदा करने

कलम जो धड़ से है, जाएँ कहाँ दवा करने

 

उसे भरम है अदालत से फैसला…

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Added by मिथिलेश वामनकर on September 7, 2015 at 9:30pm — 36 Comments

गजल

2122 2122 2122

लग गये दिल चाँद अब धरती उतारें।

ठान ली है आ यहीं सरसी उतारें।

खूब मचली हैं घटायें झूमती- सी

आ अभी उनको जली परती उतारें।

सूखती जो दूब भी अब चाहती है

जिंदगी कुछ पल अभी मरती उतारें।

आरजू तब की हमारी माँगती कुछ

अब तलक घातें रहीं ठगती उतारें।

हो चुकी बातें बहुत बोलूँ कहूँ क्या

हो गयी जो बात अब जगती उतारें।

मौन आँखों से भिंगोने थी चली वह

रह गयी जाने कहाँ चरती उतारें।

ख्वाहिशें अबतक थमी थीं नामुरादें

रे नहीं फिर वे… Continue

Added by Manan Kumar singh on September 7, 2015 at 8:26pm — 5 Comments

कृष्ण जन्माष्टमी पर चार कुण्डलिया छंद

1)

लगी कहन माँ देवकी….सुनलो तारनहार

सफल कोख मेरी करो…..मानूँगी उपकार

मानूँगी उपकार ……. रहूँ ममता में भूली

हृदय भरें उद्गार…...भावना जाये झूली

स्वारथ हो ये जन्म...जाऊँ बन तेरी सगी

हे करुणा के धाम,लगन मनसा ये लगी॥

***************************************

 2)

कारा गृह में अवतरित......दीनबंधु भगवान

मातु-पिता हर्षित हुए, लख शिशु की मुस्कान

लख शिशु की मुस्कान, व्यथा बिसरी तत्क्षण…

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Added by kalpna mishra bajpai on September 7, 2015 at 8:00pm — 10 Comments

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