2122 2122 2122 212
हर दुआ पर आपके आमीन कह देने के बाद
चींटियाँ उड़ने लगीं, शाहीन कह देने के बाद
आपने तो ख़ून का भी दाम दुगना कर दिया
यूँ लहू का ज़ायका नमकीन कह देने के बाद
फिर अदालत ने भी ख़ामोशी की चादर ओढ़ ली
मसअले को वाक़ई संगीन कह देने के बाद
ये करिश्मा भी कहाँ कम था सियासतदान का
बिछ गईं दस्तार सब कालीन कह देने के…
Added by Balram Dhakar on October 24, 2018 at 12:00am — 20 Comments
'अनौपचारिक आकस्मिक शिखर-वार्ता' :
प्रतिभागी : लोह कलपुर्जे, मशीनें और औज़ार।
अनौपचारिक परिचर्चा जारी गोलमेज पर :
"एक समय था, जब लोग हमारा लोहा मानते थे!"
"हां, बिल्कुल सही! लोहे पर कुछ मुहावरे, कहावतें और लोकोक्तियां भी कहा करते थे बातचीत में!"
"कील, हंसिया, खुरपी, छैनी, हथौड़े से लेकर बड़ी-बड़ी मशीनों और उनके कलपुर्जों तक हमारी ही धूम थी! अपना लोहा मनवाते थे; दुश्मनों को लोहे के चने चबाने पड़ते थे!"
"चर्मकार, कारीगर, किसान, मज़दूर, इंजीनियर,…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on October 23, 2018 at 9:30pm — 4 Comments
मानव छंद में प्रयास :
मेरे मन को जान गयी ।
फिर भी वो अनजान भयी।।
शीत रैन में पवन चले।
प्रेम अगन में बदन जले।।
..................................
देह श्वास की दासी है।
अंतर्घट तक प्यासी है।।
मौत एक सच्चाई है।
जीवन तो अनुयायी है ।।
................................
रैना तुम सँग बीत गई।
मैं समझी मैं जीत गई।।
अब अधरों की बारी है।
तृप्ति तृषा से हारी है।।
सुशील सरना
मौलिक एवं…
Added by Sushil Sarna on October 23, 2018 at 8:30pm — 6 Comments
मुझ को कहा था राह में रुकना नहीं कहीं
सदियों को नाप कर भी मैं पहुँचा नहीं कहीं.
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ज़ुल्फ़ें पलक दरख़्त सभी इक तिलिस्म हैं
इस रेग़ज़ार-ए-ज़ीस्त में साया नहीं कहीं.
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तुम क्या गए तमाम नगर अजनबी हुआ
मुद्दत हुई है घर से मैं निकला नहीं कहीं.
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अँधेर कैसा मच गया सूरज के राज में
जुगनू, चराग़ कोई सितारा नहीं कहीं.
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खेतों को आस थी कि मिटा देगा तिश्नगी
गरजा फ़क़त जो अब्र वो बरसा नहीं कहीं.
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ये और बात है कि अदू को चुना गया…
Added by Nilesh Shevgaonkar on October 23, 2018 at 12:00pm — 18 Comments
जुल्म की ये इंतेहा भी कब तलक।
ज़िंदगी के इम्तेहा भी कब तलक॥
आज़ या कल बिखर ही जाऊंगा।
वक़्त होगा मेहरबाँ भी कब तलक॥
ऐब ही जब ऐब तुझमें हैं भरे मैं ।
तुझमें ढूँडू ख़ूबियाँ भी कब तलक॥…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 23, 2018 at 11:30am — 1 Comment
मुआवज़ा - लघुकथा -
देश भक्त पार्टी के एक नामी नेता रेल हादसे पर विरोध जताने अपने समर्थकों की भारी भीड़ लेकर डी एम साहब के दफ़्तर पहुंच गये और जम कर नारेबाज़ी शुरू कर दी। थोड़ी देर में साहब ने नेताजी को दफ़्तर में बुला लिया।
"क्या हुआ भैया जी, इतना शोरगुल किसलिये। हम लोग तो खुद ही रात दिन इसी काम में लगे हुए हैं।"
"जनाब, हम जन प्रतिनिधि हैं।लोगों को सब जानकारी देनी पड़ती है कि प्रशासन क्या कर रहा है। इतना समय हो गया, आप लोगों की ओर से कोई पुख्ता खबर नहीं आई मीडिया…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on October 23, 2018 at 10:59am — 8 Comments
2122 2122 2122 212
था कभी कितना नरम वह! हर कदर आखर हुआ
जब हवाओं ने छुआ तब पात वह जर्जर हुआ।1
सूख जाती है सियाही आजकल जल्दी यहाँ
ख्वाहिशों के फ़लसफों पे आदमी निर्झर हुआ।2
मिट्टियों की कौन करता है यहाँ पड़ताल भी
हर शज़र गमला सजा आकाश पर निर्भर हुआ।3
जो उड़ाता था वहाँ बेपर घटाओं को कभी
देखते ही देखते वह आजकल बेपर हुआ।4
वक्त की मदहोशियाँ क्या-क्या करा देतीं यहाँ
गर्द के बस ढ़ेर जैसा एक दिन अकबर हुआ।5
"मौलिक व अप्रकाशित"
Added by Manan Kumar singh on October 23, 2018 at 10:00am — 5 Comments
2122 1122 1122 22
शायरी फख्र से महफ़िल में जुबानी आई ।
आप आये तो ग़ज़ल में भी रवानी आई ।।
लौट आयीं हैं तुझे छू के हमारी नजरें ।
जब दरीचे पे तेरे धूप सुहानी आई ।।
पूँछ लेता है वो हर दर्द पुराना मुझसे ।
अब तलक मुझको कहाँ बात छुपानी आई ।।
तीर नजरों से चला कर के यहां छुप जाना ।
नींद मेरी भी तुझे खूब चुरानी आई ।।
मुद्दतों बाद जो गुजरा था गली से इकदिन ।
याद मुझको तेरी हर एक निशानी आई…
Added by Naveen Mani Tripathi on October 22, 2018 at 8:00pm — 6 Comments
नए आयाम ....
मुझे
नहीं सुननी
कोई आवाज़
मैंने अपने अन्तस् से
हर आवाज़ के साथ जुड़े हुए
अपनेपन की अनुभूति को
तम की काली कोठरी में
दफ़्न कर दिया है
अपनेपन का बोध
कब का मिटा दिया है
अपनेपन की सारी निधियाँ
लुटा चुका हूँ
अब तो मैं
किसी स्मृति का अवशेष हूँ
आवाज़ों के मोह बंधन में
मुझे मत बाँधो
हम दोनों के मन
एक दूसरे की अनुभूतियों के
अव्यक्त स्वरों से
गुंजित हैं
आवाज़ों को चिल्लाने दो…
Added by Sushil Sarna on October 22, 2018 at 7:42pm — 6 Comments
हर घर में एक राम है रहता।
हर घर में एक रावण भी॥
जैसी जिसकी सोच है रहती।
उसको दिखता वो वैसा ही॥
टूट शिला से छोटा टुकड़ा।
लुढ़क रहा मंदिर की ओर॥
कोई देखता उसको पत्थर।
कोई देखता भगवन को॥
आस्था और विश्वास जहां हो।
तर्क नहीं देते कुछ काम॥
मानो या न मानो लेकिन।
बनते सबके बिगड़े काम॥
धर्म-अधर्म सब अंदर अपने।
पीर पड़े लगे राम को जपने॥
वर्षो से यही रीत चल रही।
इच्छाओं की गति…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 22, 2018 at 5:30pm — 1 Comment
(1). मेरा जिस्म
एक बड़ी रेल दुर्घटना में वह भी मारा गया था। पटरियों से उठा कर उसकी लाश को एक चादर में समेट दिया गया। पास ही रखे हाथ-पैरों के जोड़े को भी उसी चादर में डाल दिया गया। दो मिनट बाद लाश बोली, "ये मेरे हाथ-पैर नहीं हैं। पैर किसी और के - हाथ किसी और के हैं।
"तो क्या हुआ, तेरे साथ जल जाएंगे। लाश को क्या फर्क पड़ता है?" एक संवेदनहीन आवाज़ आई।
"वो तो ठीक है… लेकिन ये ज़रूर देख लेना कि मेरे हाथ-पैर किसी ऐसे के पास नहीं चले जाएँ, जिसे मेरी जाति से घिन आये और वे…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on October 22, 2018 at 9:00am — 6 Comments
नवरात्रि की 'एक झांकी' के समानांतर एक और झांकी! नहीं, एक नहीं 'तीन' झांकियां! मां दुर्गा की 'स्थायी झांकी' में चलित झांकियां! चलित? हां, 'चलित' झांकियां! उस अद्भुत संदेशवाहिनी झांकी से प्रतिबिंबित अतीत की झांकियां; उसके समक्ष खड़ी हुई सुंदर युवा मां के सुंदर कटीले बड़े से नयनों में! उसके मन-मस्तिष्क में! दुर्गा सी बन गई थी वह उस जवां मर्द के शिकंजे से छूट कर और कुल्हाड़ी दे मारी थी उस वहशी के बढ़ते हाथों पर! दूसरे धर्म का था वह दुष्ट! जाति-बिरादरी के मर्दों के हाथों बेमौत मारा जाता वह! उसके पहले…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on October 21, 2018 at 9:00pm — 3 Comments
दर्द सारे ज़ख्म बन कर ख़ुद-नुमा हो ही गये,
राज़-ए-पोशीदा थे आख़िर बरमला हो ही गये..
तू ना समझेगा हमें थी कौन सी मजबूरियाँ,
तेरी नज़रों में तो अब हम बे-वफ़ा हो ही गये..
इश्क़ क्या है, क्या हवस है और क्या है नफ़्स ये,
उठते उठते ये सवाल अब मुद्द'आ हो ही गये..
एक मुददत बाद उस का शहर में आना हुआ,
बे-वफ़ा को फिर से देखा औ फ़िदा हो ही गये..
फिर सुख़न में रंग आया उस ख़्याल-ए-ख़ास का,
फिर ग़ज़ल के शेर सारे मरसिया हो ही…
Added by Zohaib Ambar on October 21, 2018 at 2:45am — 1 Comment
सुन कर ये तिरी ज़ुल्फ़ के मुबहम से फ़साने,
दश्ते जुनुं में फिरते हैं कितने ही दीवाने..
कब साथ दिया उसका दुआ ने या दवा ने,
आशिक़ को कहाँ मिलते हैं जीने के बहाने..
मुमकिन है तुम्हें दर्स मिले इनसे वफ़ा का,
पढ़ते कुँ नहीं तुम ये वफ़ाओं के फ़साने..
इस दौर के गीतों में नहीं कोई हरारत,
पुर-सोज़ जो नग़में हैं वो नग़में हैं पुराने..
इस इश्क़ मुहब्बत में फ़क़त उन की बदौलत,
ज़ोहेब तुम्हें मिल तो गये ग़म के…
Added by Zohaib Ambar on October 21, 2018 at 2:30am — 3 Comments
2122 1212 22/112
हो खुदा पर यकीं अगर यारो
फिर न पैदा हो कोई डर यारो।
जिंदगी ये मिली हमें जिनसे
हों न देखो वे दर-ब-दर यारो।
ख़ार से जो भरी रहे हर दम
इश्क है ऐसी ही डगर यारो।
दर्द लगता दवा के जैसा अब
ये मुहब्बत का है असर यारो।
जो न मंजिल भी दे सके शायद
वो ख़ुशी दे रहा सफ़र यारो।
मौलिक अप्रकाशित
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 20, 2018 at 5:56pm — 8 Comments
मुश्किलों में मुस्कुराना सीख लो।
ज़िंदगी से दिल लगाना सीख लो ॥
शौक़ पीने का तुम्हें माना मगर।
दूसरों को भी पिलाना सीख लो॥
ढूँढने हैं मायने गर जीस्त के।
तो राग तुम कोई पुराना सीख लो॥…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on October 20, 2018 at 5:30pm — 2 Comments
Added by V.M.''vrishty'' on October 20, 2018 at 1:06pm — No Comments
माँ - लघुकथा -
"माँ, बापू ने तुम्हें क्यों छोड़ दिया था ?"
"गुड्डो , जब छोटी पेट में थी। तेरे बापू गर्भ गिरवाना चाहते थे। मैंने मना किया तो मुझे धक्के मार कर घर से निकाल दिया ।"
"मैंने तो सुना कि वे तो माँ दुर्गा के कट्टर भक्त थे।फिर एक देवी उपासक भ्रूण हत्या जैसा पाप और एक औरत का ऐसा अपमान कैसे कर सकता है?"
"अधिकतर अंध भक्त दोगली ज़िंदगी जीते हैं। इनकी कथनी और करनी में बहुत फर्क होता है।"
"माँ, मौसी तो कह रही थी कि तुम काली थीं और सुंदर भी नहीं थी।इसलिये…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on October 20, 2018 at 11:13am — 5 Comments
रावण :
एक रावण
जला दिया
राम ने
एक रावण
ज़िंदा रहा
मन में
किसी
राम के इंतज़ार में
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on October 19, 2018 at 9:24pm — 1 Comment
देश के एक राजमार्ग पर एक ढाबे पर देर रात भोजन हेतु डेरा जमाये हुए यात्रियों में कोई किसान, मज़दूर, व्यापारी, शिक्षक आदि था, तो कोई बस या ट्रक का स्टाफ। भोजन करते हुए वे बड़े से डिजिटल टीवी पर समाचार भी सुन रहे थे।
"देखो रे! मेरा देश बदल रहा है!" एक शराबी ज़ोर से चिल्लाया।
"अबे! बदल नहीं रहा! बदला जा रहा है! पगला जा रहा है!" दूसरे साथी ने देसी दारू का घूंट गुटकने के बाद कहा।
"दरअसल देश बदल नहीं रहा; न ही बदला जा रहा है! शादी-विवाह में शिरक़त माफ़िक दुनिया के जश्न-ए-तरक़्क़ी में…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 18, 2018 at 11:57pm — 3 Comments
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