2122 2122 2122 212
अश्क़ ऊपर जब उठा, उठ कर सितारा हो गया
जा मिला जब अश्क़ सागर से, वो खारा हो गया
चन्द मुस्कानें तुम्हारी शक़्ल में जो पा लिये
आज दिन भर के लिये अपना ग़ुजारा हो गया
चाहतें जब इक हुईं , तो दुश्मनी भूले सभी
कल पराया जो लगा था, आज प्यारा हो गया
ढूँढ कर तनहाइयाँ हम यादों में मश्गूल थे
रू ब रू आये तो यादों का खसारा हो गया
…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on December 24, 2014 at 6:00pm — 40 Comments
अपनी ही परछाई से डर लगता है
मुझको इस तन्हाई से डर लगता है
साथ देखकर भाईयों का जग डरता
भाई को अब भाई से डर लगता है
मनमोहक है भोलापन उसका इतना
दुनिया की चतुराई से डर लगता है
मौन रहूं या झूठ कहूं उलझन में हूं
लोगों को सच्चाई से डर लगता है
सारा जीवन सहराओं में भटका हूं
मुझको अब अमराई से डर लगता है
कानों में इक सिसकी सीसा घोल गई
मुझको अब शहनाई से डर लगता है
ग़म…
ContinueAdded by khursheed khairadi on December 24, 2014 at 3:30pm — 10 Comments
Added by seemahari sharma on December 24, 2014 at 12:43pm — 18 Comments
“ मास्टर जी ,अपने दोस्त से पूछिए अगर मेरे लिए कोई जगह हो तो थोड़ी सिफारिश कर दे |” जब विजय मुझसे ये बात कहता है तो मेरे मन में उसके लिए नैसर्गिक साहनभूति फूटती है |मैं पहले से उसकी नौकरी को लेकर फिक्रमंद हूँ और पहले ही कई दोस्तों से उसके बारे में बात कर चुका हूँ |
कुछ लोग होते हैं जो चुम्बक की तरह अपनी तरफ खींचते हैं |विजय में मुझे वही चुम्बकत्व महसूस होता है | गोरा वर्ण ,5”6’ का कद सुघड़ अंडाकार चेहरा ,घुंघराले काले बालों के बीच में कहीं-कहीं सफ़ेद हो गए बाल ,आत्मीयता और उचित मिठास से…
ContinueAdded by somesh kumar on December 24, 2014 at 11:30am — 4 Comments
ग़ज़ल श्री गिरिराज भंडारी जी की नज्र ...
गुज़ारिश थी, कि तुम ठोकर न खाना अब
चलो दिल ने, कहा इतना तो माना अब
न काम आया है उनका मुस्कुराना अब
यकीनन चाल तो थी कातिलाना .... अब ?
ये दिल तो उन पे अब फिसला के तब फिसला
ये तय जानो, नहीं इसका ठिकाना अब
जो दानिशवर थे सब नादान ठहरे हैं
ये किसका दर है, तुमको क्या बताना अब
ये मौसम खूबसूरत था ये माना पर
वो आये तो हुआ है शायराना अब …
Added by वीनस केसरी on December 24, 2014 at 5:00am — 18 Comments
1222-1222-122
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अदावत क्या करे कोई किसी से
परेशां हर कोई जब ज़िन्दगी से
अकीदत आपकी सूरज से लेकिन
हमारी बेरुखी है रौशनी से
पसीना लफ्ज़ बनकर बह रहा है
किसी खामोश बैठी शायरी से
अता जिसको कभी शोहरत नहीं है
कहाँ मिलते है ऐसे आदमी से
सदा सूरज के आगे क्यों सिमटती
किसी ने प्रश्न पूछा चांदनी से
हुकूमत जुल्म किस पर कर रही है
सभी खामोश अपनी बेबसी से…
Added by मिथिलेश वामनकर on December 24, 2014 at 1:00am — 36 Comments
जिसे उम्र भर मैं सुना किया ,
जिसे चुपके-चुपके पढा किया ,
मैं समझ सका न जिसे कभी ,
मेरी हाथ की वो किताब हो ।।
एक बाल था मिरी पलक का ,
जो छुपा रहा मिरी आँख में ,
मुझे जिसकी फिक्र न थी कभी ,
मेरी जिन्दगी का वो ख्वाब हो ।।
जो ठहर गयी मेरी फिक्र थी ,
जो सॅवर गया तेरा ख्याल था ,
जो उतर गयी मेरे दिल के आँगन में ,
वो ठण्डी छॉव हो ।।
तेरे इन्तजार का सिलसिला ,
कभी टूूटता तो मैं जानता ,
मुझे मिला…
Added by ajay sharma on December 23, 2014 at 10:30pm — 9 Comments
एक धरा है एक गगन है
किंतु विभाजित अपना मन है
मीत किसी का ख़ाक बनेगा
उसकी ख़ुद से ही अनबन है
याद तुम्हारी महकाये मन
इस सहरा में इक गुलशन है
स्वर्ग तिहारे चरणों की रज
मातृधरा तुझको वंदन है
चौक बड़ा सा एक चबूतर
यादों में कच्चा आँगन है
नहीं बहलता खुशियों से मन
ग़म से अपना अपनापन है
आँसू बाती आँखें दीपक
दुख की लौ में सुख रोशन है
घाव दिये…
ContinueAdded by khursheed khairadi on December 23, 2014 at 12:30pm — 22 Comments
Added by Anurag Singh "rishi" on December 23, 2014 at 10:06am — 10 Comments
11212 x 4 ( बह्र-ए-क़ामिल में पहला प्रयास)
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न वो रात है, न वो बात है, कहीं ज़िन्दगी की सदा नहीं
न उसे पता, न मुझे पता, ये सिफत किसी को अता नहीं
वो खुशी कभी तो मिली नहीं, मेरी किस्मतों में रही कहाँ
कोई दश्त जिसमे नदी न हो, हूँ शज़र कभी जो फला…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 23, 2014 at 1:30am — 48 Comments
प्रभाव-क्षेत्र
अलग होना ही पर्याप्त नहीं है
मुखर होना भी जरूरी है
प्रखर होना और भी जरूरी है
इसी से बनती है पहचान
लोग यूँ ही नहीं सौपते अपनी कमान |
तीर सिर्फ विरोध के…
ContinueAdded by somesh kumar on December 22, 2014 at 11:00pm — 11 Comments
२१२२ २१२२ २१२
तुमने पुरखों की हवेली बेच दी
शान दुःख सुख की सहेली बेच दी
भूख दौलत की मिटाने के लिए
मौत को दुल्हन नवेली बेच दी
जिस्म के बाजार ऊंचे दाम थे
गाँव की राधा चमेली बेच दी
बस्ता बचपन और कागज़ छीनकर
तुमने बच्चों की हथेली बेच दी
गाँव में दिखने लगा बाज़ार पन
प्यार सी वो गुड की भेली बेच दी
मौलिक व अप्रकाशित
गुमनाम पिथौरागढ़ी
Added by gumnaam pithoragarhi on December 22, 2014 at 5:57pm — 19 Comments
विभु से मांगो मित्र तुम, अब ऐसा वरदान
नये वर्ष में शांत हो, मानव का शैतान
हो न धरा अब लाल फिर, महके मनस प्रसून
किसी अबोध अजान का, नाहक बहे न खून
सबके जीवन में खुशी, छा जाए भरपूर
अच्छे दिन ज्यादा नहीं, भारत से अब दूर
कवि गाओ वह गीत अब, जिससे सदा विकास
तन में हो उत्साह प्रिय, मन में हो उल्लास
आपस में सद्भाव हो, सभी बने मन-मीत
ओज भरे स्वर में कवे, महकाओ कुछ गीत
ऐसा जिससे नग…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on December 22, 2014 at 3:00pm — 44 Comments
फटी भींट में चौखट ठोकी,
खोली नयी किवरिया.
चश्मा जूना फ्रेम नया है,
ये है नया नजरिया.
गंगा में स्नान सबेरे,
दान पूण्य कर देंगे.
रात क्लब में डिस्को धुन पर,
अधनंगे थिरकेंगे.
देशी पी अंग्रेजी बोलीं,
मैडम बनीं गुजरिया.
अपने नीड़ों से गायब हैं,
फड़की सोन चिरैया.
ताल विदेशी में नाचेंगी,
रजनी और रुकैया.
घूंघट गया ओढनी गायब,
उड़ती जाए चुनरिया.
चूल्हा चक्की कौन करे…
ContinueAdded by harivallabh sharma on December 22, 2014 at 1:55pm — 24 Comments
हुकूमत हाथ में आते, नशा तो छा ही जाता है,
अगर भाषा नहीं बदली, तो कैसे याद रक्खोगे.
किये थे वादे हमने जो, मुझे भी याद है वो सब,
मनाया जश्न जो कुछ दिन, उसे तो याद रक्खोगे.
मुझे दिल्ली नहीं दिखती, समूचा देश दिखता है,
बिके हैं लोग…
ContinueAdded by JAWAHAR LAL SINGH on December 22, 2014 at 1:30pm — 17 Comments
छंद : घनाक्षरी
झट छायी चिंता-रेखा,
नीला-नीला पाँव देखा,
पहुँचे करीम चच्चा, शफ़ाख़ाना आस में.
देखते हकीम बोला,
पाँव में ज़हर फैला,
दोनों पाँव काट डाले, ज़िन्दग़ी की आस में.
बात हुई ज़ल्द साफ़,
कट गये पर पाँव,
डरता हकीम आया, चच्चा जी के पास में.
सुनो जी करीम भाई,
बात ये समझ आई,
लुंगी रंग छोड़ रही, बोला एक साँस में.…
Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on December 22, 2014 at 12:00pm — 33 Comments
मेरा मन दरपन है।
देखी छब तेरी,
आँखों में सावन है।
वो पागल लडकी है।
ऐसी बिछडन में.
वो कितना हँसती है।
क्यूँ उलटा चलते हो।
वक़्त सरीखे तुम,
हाथों से फिसलते हो।
जब शाम पिघलती है।
ऐसे आलम में,
क्यूं रात मचलती है।
सूरज को मत देखों ।
उसका क्या होगा,
चाहे पत्थर फेंकों ।
सूरज ने पाला है।
हँसता रातों में,
ये चाँद निराला…
ContinueAdded by मिथिलेश वामनकर on December 22, 2014 at 9:03am — 25 Comments
बदल रहा समाज बदल रहा कल आज
बीच चौराहे आ जाती अक्सर घर को लाज
सामान्य से हो रहे विवाहेत्तर सम्बन्ध
धुंधले से पड़ गये, दिल के सब अनुबंध
हर किसी को चाहिए जरुरत से ज्यादा "मोर"
भौतिकता जागी है सारे बंधन तोड़
जितना मिले उतना जगे, ज्यादा पाने की आस
कम हो गयी सहनशीलता बढ़ गयी है प्यास
हर किसी को चाहिए अस्तित्व की खोज
कमजोर हो रहे है रिश्ते, दरक रहे है रोज
आया नया ज़माना है कुछ खोकर कुछ पाना…
ContinueAdded by sarita panthi on December 21, 2014 at 8:02pm — 13 Comments
इश्क की हद से गुज़र कर देखा,
जीते जी हमने तो मर कर देखा।
राह में तेरा वो बिछड़ जाना,
कितना तनहा सा वो सफ़र देखा।
छोड़कर तुझको जब हुए रुखसत,
हमने कई बार पलटकर देखा।
काश तू फिर कहीं पे मिल जाए,
हर गली हमने ढूँढकर देखा।
ख्वाब में भी कभी तो तू आये,
हमने नींदों में जागकर देखा।
होके तनहा सदा न देता हो,
आहटों पे भी गौर कर देखा।
ऊषा पाण्डेय.
अप्रकाशित व…
ContinueAdded by Usha Pandey on December 21, 2014 at 8:00pm — 9 Comments
अपने वज़ूद की ख़बर इस तरह हम देते हैं
मुट्ठी में रेत उठाकर हम हवा में उड़ा देते हैं
क्या हुआ जो इस उम्र में हम बे-समर हो गए
ये शज़र आज भी गुज़री बहारों की हवा देते हैं
अब हंसी भी लबों पे पैबंद सी नज़र आती हैं
जाने लोग आँखों में कैसे नमी को छुपा लेते हैं
रुख से चिलमन उठते ही नज़रें भी बहकने लगी
हम भी बेजुबानों की तरह पैमाने को उठा लेते हैं
जागते रहे तमाम शब् हम उसके इंतज़ार में
बार बार चरागों…
Added by Sushil Sarna on December 21, 2014 at 7:00pm — 16 Comments
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