उसकी उम्मीद अब छूटने लगी थी, लगभग आधा घंटा होने को आया था. कोई अपनी गाड़ी रोकने को तैयार नहीं था और पिताजी लगभग बेहोश सड़क के किनारे पड़े हुए थे. एकदम से सामने एक जानवर आया और उसको बचाने के चक्कर में बाइक असंतुलित होकर उलट गयी.
सड़क काफी खाली थी और शाम हो चली थी. तभी एक गाड़ी दूर से आती दिखी और वह उसे रोकने का प्रयास करने लगा. उस कार वाले ने गाड़ी रोकी, उतर कर उसके पास आया और तुरंत पिताजी को हाथ लगाकर अपने कार में डाला.
नजदीक के हस्पताल में पहुंचकर गाड़ी वाले ने इमरजेंसी तक पिताजी को…
Added by विनय कुमार on September 7, 2018 at 4:21pm — 10 Comments
भ्रम ... (दो क्षणिकाएं )
लूट कर
नारी की
अस्मत
पुरुष ने
कर लिया
स्वयं को
नग्न
तोड़ दिया
उसकी नज़र में
पुरुषत्व का
भ्रम
2.
कोहराम मच गया
जब दम्भी
पुरुषत्व के प्रत्युत्तर में
हया
बेहया
हो गयी
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on September 7, 2018 at 3:43pm — 10 Comments
छुट्टी का दिन था तो विवेक सुबह से ही लैपटॉप में व्यस्त था| कुछ बैंक और इंश्योरेंश के जरूरी काम थे, वही निपटा रहा था| बीच में एक दो बार चाय भी पी| विवेक सुबह से देख रहा था कि आज वसुधा का चेहरा बेहद तनाव पूर्ण था। आँखें भी लाल और कुछ सूजी हुई सी लग रहीं थीं। जैसा कि अकसर रोने से हो जाता है|
घर के सारे काम निपटाकर जैसे ही वसुधा कमरे में आकर अपने बिस्तर पर लेटने लगी।
"क्या हुआ वसुधा, तबियत तो ठीक है ना"?
"मुझे क्या होगा, मैं तो पत्थर की बनी हुई हूँ"।
"अरे यह कैसी…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on September 7, 2018 at 2:00pm — 10 Comments
"हमने कहा था न कि थक जाने पर तलब होने पर वह आयेगा ही! हमें रेस्क्यू की उम्मीद नहीं छोड़नी चाहिए!"
"हां, ग़रीब हो या अमीर, पर है तो चाय का आदी ही! यह चाय फेंकेगा नहीं! 'मनी माइंडिड' होगा, तो यह पियेगा और पिलायेगा!" चाय के डंके में दो-तीन घंटों से पड़ी शेष चाय में गोते लगाते एक चीटे ने डंके की दीवारों पर चढ़ते, गिरते-डूबते हुए उस चीटे की बात सुनकर कहा। चाय में डूबे और डंके में भटकते संघर्षरत चींटे भी बड़ी उम्मीद के साथ सजग हो जीवन-रक्षा की कल्पना करने लगे।
"ज़रा फुर्ती…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 7, 2018 at 5:00am — 7 Comments
इक ज़माने से गुलिस्ताँ में है बहार कहाँ ।
जान करता है गुलों पर कोई निसार कहाँ ।।
बारहा पूछ न मुझसे मेरी कहानी तू ।
अब तुझे मेरी सदाक़त पे ऐतबार कहाँ ।।
एक मुद्दत से कज़ा का हूँ मुन्तजिर साहब ।
मौत पर मेरा अभी तक है इख़्तियार कहाँ ।।
आपकी थी ये बड़ी भूल मान जाते हम ।
दिख रहे आप…
Added by Naveen Mani Tripathi on September 7, 2018 at 12:20am — 7 Comments
ज़माने को मेरी ज़रूरत नहीं है
मुझे तो किसी से शिकायत नहीं है ।
.
अकेले में रहने की आदत है मुझको
किसी से भी मेरी अदावत नहीं है ।
.
नई पीढ़ी का ये चलन आज देखो
ज़रा सी भी इनमें लियाक़त नहीं है ।
.
है कितना यहाँ झूट महफ़ूज़ यारो
कि सच्चों की कोई अदालत नहीं है ।
.
सरे आम लुटती है इज़्ज़त यहाँ पर
किसी की यहाँ अब हिफ़ाज़त नहीं है ।
.
लगा मुझको झूटों के बाज़ार में यूँ
कि सच बोलने की इजाज़त नहीं है ।
.
मौलिक…
ContinueAdded by Mohammed Arif on September 5, 2018 at 11:30pm — 18 Comments
जी हाँ ! युद्ध के विरुद्ध हूँ मैं-
इस लिए नहीं की नहीं देश से प्यार मुझे
अथवा की अपनों के लिए मन नहीं डोलता है
मेरी धमनियों में भी रक्त है वो भी खौलता है
अपनों की शहादत पर बहुत क्रोध जागता है
मन जोश में सीमा की और भागता है
बदले की आग जलाती है
लेकिन
एक बात यह भी समझ में आती है
कि
धरित्री जननी है रक्त नहीं पचाती
गगन जनक है रणभेरी नहीं सुहाती
और ये भी
कि इधर रमेश गिरे अथवा उधर रहमान
मरती तो दोनों और…
Added by amita tiwari on September 5, 2018 at 10:30pm — 9 Comments
शान्ति ....
वर्तमान के पृष्ठों पर
विध्वंसकारी स्याही से
भविष्य का सृजन करने वालो
होश में आओ
विनाश की कालिख़ से
कहीं आने वाले कल का
दम न घुट जाए
तुम
नए युग के निर्माण के लिए
संगीनों को
खून की स्याही में डुबोकर
आने वाले कल का
शृंगार करते हो
और हम
पवन के पृष्ठों पर
ॐ शान्ति ॐ शान्ति ॐ शान्ति
के सुवासित सन्देश से
नव युग के निर्माण का
आह्वान करते हैं
विपरीत…
ContinueAdded by Sushil Sarna on September 5, 2018 at 7:02pm — 7 Comments
बगल में आ बैठे मौलाना को देखकर उसका मन तल्ख़ हो गया. वैसे उन्होंने कुछ किया नहीं था, बस सर पर एक जालीदार टोपी लगा रखी थी. और मूंछ नहीं रख के एक लम्बी सफ़ेद दाढ़ी रखी हुई थी. उसने अपने आप को उस भीड़ में भी यथासंभव उनसे दूर रखने की कोशिश की.
जैसे ही उसका स्टॉप आया, वह मौलाना पर एक वक्र दृष्टि डाल कर उतर गया. "जाहिलपना तो इनके रग रग में भरा रहता है, जहाँ देखो वहीँ यह टोपी और दाढ़ी", वापस जाते समय उसके दिमाग में यही चल रहा था. अपने मोहल्ले के पास पहुंचा तो मंदिर में पूजा हो रही थी. वह जूते उतारकर…
Added by विनय कुमार on September 5, 2018 at 5:30pm — 9 Comments
सब तिजारत में समझदार बहुत होते हैं
दाम कम हों तो ख़रीदार बहुत होते हैं
हुस्न में इतनी कशिश है कि इसी कारण से
उनकी नज़रों के गिरफ़्तार बहुत होते हैं
कौन कहता है क़दरदान नहीं हैं उनके
नेकदिल हो तो तलबगार बहुत होते हैं
दोस्ती होती है मज़बूत अगर जीवन में
आड़े मौकों पे मददगार बहुत होते हैं
ये तरीक़ा है अजब मुल्क में अपने देखो
बेगुनह कम हैं गुनहगार बहुत होते हैं !!
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by विनय कुमार on September 5, 2018 at 4:00pm — 12 Comments
शिक्षक दिवस के दोहे
बनते शिष्य महान तब, शिक्षक अगर महान
शिक्षक बिन हर इक रहा, अधकचरा इन्सान।१।
जिसने जीवन भर किया, शिक्षक का सम्मान
जग ने उसका है किया, इत उत बड़ा बखान।२।
शिक्षक थोड़ा सा अगर, दे दे जो उत्साह
भटका बालक चल पड़े, सदा सत्य की राह।३।
पथ की बाधा नित हरी, जिसने राह बुहार
दे थोड़ा सा मान कर, शिक्षक का आभार।४।…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on September 4, 2018 at 9:00pm — 9 Comments
Added by SudhenduOjha on September 4, 2018 at 5:00pm — 1 Comment
पूछ रहा मुझसे हिमालय,
पूछ रहा वैभव अशेष
पूछ रहा क्रांत गौरव भारत का,
पूछ रहा तपा भग्नावशेष
अनंत निधियाँ कहाँ गयी,
क्यों आज जल रहा तपोभूमि अवशेष;
कैसे लूटी महान सभ्यता प्राचीन,
क्यों लुप्तप्राय वीरोचित मंगल उपदेश !
कितने कलियों का अन्त हुआ भयावह,
कितने द्रोपदियों के खुले केश,
बता,कवि! कितनी मणियाँ लुटी,
कितनों के लुटे संसृति-चीर विशेष !
चढ़ तुंग शैल शिखरों से देख!
नहीं सौंदर्य बोध,विघटन के विविध क्लेश;
कहाँ…
Added by आलोक पाण्डेय on September 4, 2018 at 5:00pm — 4 Comments
मैं
एक पंख
बिना उद्देश्य से उड़ता
भाग्य की हवा की चोटी पर अनियंत्रित
हवा की धाराओं पर
मुझे
कृपया प्रेरित करे
शायद एक दिन
भाग्य एक यादृच्छिक हवा
मुझे ले जाये
जहां मैं कभी नहीं उड़ा
उस दिशा में
जो अंततः
मुझे पहुचाये
आपके करीब
अमोलिक अप्रकाषित
Added by narendrasinh chauhan on September 4, 2018 at 12:28pm — 3 Comments
जन्म :
अंत के गर्भ में
निहित है
जन्म
या
जन्म के गर्भ में
निहित है अंत
अनसुलझा सा
प्रश्न है
सुलझा न सके
कभी
ऋषि मुनि और
संत
योनि रूप है
देह
मुक्ति रूप
अदेह
किस रूप को
जन्म कहें
किसे रूप को
अंत
अनसुलझा सा ये
प्रश्न है
सुलझा न सके
कभी
ऋषि ,मुनि और
संत
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on September 3, 2018 at 3:04pm — 4 Comments
दिन- रविवार। शाम का समय। आसमान में छाये काले बादल। कभी हल्की, कभी तेज़ बरसात। आलीशान बंगले के एक अध्ययन-कक्ष में टेबल पर ग्लोब, एटलस, लैपटॉप, प्रिंटर, कुछ पुस्तकें और स्टेशनरी। कुर्सियों पर क्रमशः बारहवीं कक्षा के मित्र सहपाठी। पहला, कसी हुई जीन्स पहने, कसी हुई स्लीवलैस टी-शर्ट से हृष्ट-पुष्टता दर्शाता स्टाइलिश और दूसरी अत्याधुनिक शॉर्ट्स पहने जवानी की दहलीज़ के सौंदर्य को उभारती चंचल बातूनी सहेली, जिसकी 'मॉम' बड़ी प्रसन्न हैं अपनी बिटिया को स्कूल-प्रोजेक्ट-वर्क हेतु उसके प्रिय मित्र के साथ…
ContinueAdded by Sheikh Shahzad Usmani on September 3, 2018 at 11:12am — 3 Comments
डियर डायरी,
आज दिल बहुत अधिक व्यथित है। क्यों न आज अपनी भड़ास को यहीं शाब्दिक कर दूं! माता-पिता, पालक-परिवारजन, रिश्तेदार, शिक्षक, विद्यालय परिवार ही नहीं, ... नियोक्ता, सहकर्मी, अफ़सर, राजनेता और मंत्रियों से लेकर देशभक्त कहलाने का दंभ भरते औपचारिकतायें करते तथाकथित लगभग सभी नागरिक-सेवक मुझे कहीं न कहीं, कभी न कभी अपराधी, हत्यारे से सिद्ध होते प्रतीत होते हैं। आसमान छूने की चाहत रखने वालों के 'भ्रूण' रूपी सपनों, कौशल-प्रतिभाओं, स्ट्रेटजीज़, रणनीतियों को समझने-परखने के बजाय, सार्थक…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on September 2, 2018 at 6:30pm — 4 Comments
मिश्रित दोहे -2
आसमान में चाँद का, बड़ा अजब है खेल।
भानु सँग होता नहीं, कभी चाँद का मेल।।
नैन मिलें जब नैन से, जागे मन में प्रीत।
दो पल में सदियाँ मिटें, बने हार भी जीत।।
बंजारी सी प्यास ने, व्यथित किया शृंगार।
अवगुंठन में प्रीत के, शेष रहे अँगार।।
आखों से रिसने लगा, बेआवाज़ अज़ाब।
अश्कों के सैलाब में, डूब गए सब ख्वाब।।
रिश्तों से आती नहीं, अपनेपन की गंध।
विकृत सोच ने कर दिए, दुर्गन्धित…
Added by Sushil Sarna on September 2, 2018 at 3:00pm — 10 Comments
वज़्न 221 1221 1221 122
दिल लूट के’ कह दे कि खतावार नहीं था
वो इश्क में इतना भी समझदार नहीं था
आँखों से’ उड़ी नींद बताती है’ सभी कुछ
कैसे वो’ कहेगा कि उसे प्यार नहीं था
क्यों फेंक दिया उसने कबाड़े में मुझे…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on September 2, 2018 at 9:06am — 13 Comments
यूँ ही..........
चाहता मैं नहीं था गीत गाना कोई भी।
तुमने मेरे अधर पर क्यों शब्द लाकर रख दिये।।
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चाहता मैं नहीं था
गीत गाना कोई भी।
तुमने मेरे अधर पर क्यों
शब्द लाकर रख दिये।।
मैं मुदित था पक्षियों को
नभ में विचरता देख कर।
तुमने आकर आंख में क्यूँ
नीड़ उनके रख दिये।।
चंद्रमा हो साथ मेरे
यह कभी सोचा नहीं था।
सूर्य पथ में साथ होगा…
Added by SudhenduOjha on September 2, 2018 at 7:30am — No Comments
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