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वो जाग रहे हैं

वो जाग रहे हैं

दिन है फिर भी जाग रहे हैं

अक्सर वो रात में जागते है

अँधेरी और खामोश रात में

अब वो दिन में भी जाग रहे हैं

रात रौशन जो हो रही है

उन्हें एतराज़ है इस बात पर

रात रौशन क्यों है

वो बहुत गुस्से में है

वो बहुत गुस्से में है

वो साबित करना चाहते है

वो भी प्रहरी है

सूखी हुई खेती के

और उसको काटने नहीं देगे

और अपने मुलायम आसान से उतर आये है

वो अनशन भी कर सकते है

उन्हें डायबटीज़ है मानसिक

मीठा नहीं खा… Continue

Added by मनोज अहसास on October 21, 2015 at 8:21pm — 10 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
तेरा सिर्फ़ है आना बाक़ी--(ग़ज़ल)-- मिथिलेश वामनकर

2122—1122—1122—22

 

दिल तो है पास, तेरा सिर्फ़ है आना बाक़ी

और ये बात जमाने से छुपाना बाक़ी

 

ज़िंदगी इतनी-सी मुहलत की गुज़ारिश सुन लो…

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Added by मिथिलेश वामनकर on January 20, 2016 at 8:41pm — 30 Comments

एक फ़ौज़ी की मौत – ( लघुकथा ) –

एक फ़ौज़ी की मौत – ( लघुकथा ) –

 "क्या हुआ नत्थी राम, किस बात पर कर ली आत्म हत्या तुम्हारे लडके ने,कोई चिट्ठी छोडी क्या"!

"थानेदार साब,वह आत्म हत्या नहीं कर सकता,वह तो एक फ़ौज़ी था,उसे मारा गया है"!

"पर उसका शरीर तो गॉव के बाहर पेड पर लटका मिला था"!

"यह सब साज़िश है,उसे मार कर लटका दिया गया"!

" ऐसा कैसे कह रहे हो, क्या तुम्हारी  दुश्मनी थी किसी से "!

"दरोगा जी, मैं तो सीधा सादा आदमी हूं!  मेरा बेटा शादी के लिये तीस दिन की छुट्टी ले कर आया था!जिस दिन वह…

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Added by TEJ VEER SINGH on January 21, 2016 at 6:39pm — 10 Comments

ग़ज़ल-मुझे फिर लगे आज तानों के पत्थर।

१२२ १२२ १२२ १२२



मुझे फिर लगे आज तानों के पत्थर।

कई बद से बदतर जुबानों के पत्थर।



ग़ज़ल के ये लहजे नये है, जवां है।

न समझो इन्हें तुम ढलानों के पत्थर।



जिन्हें कब्र पर शाह की रख गये तुम।

वे पत्थर है मुफलिस मकानों के पत्थर।



खता आज ऐसी हुई है कि मुझको।

लगेंगे हजारों जमानों के पत्थर।



समझता नहीं चाल उसकी कभी वो।

पडे है जहन पर गुमानों के पत्थर।



बहुत दर्द था रात आहों में उनकी।

उठा ले गये वो दुकानों के… Continue

Added by Rahul Dangi Panchal on January 24, 2016 at 10:30pm — 14 Comments

मैं राजपथ हूँ [ गणतंत्र दिवस पर ]

मैं राजपथ हूँ 

भारी बूटों की ठक ठक

बच्चों की टोली की लक दक  

 अपने सीने पर महसूसने को 

हूँ फिर से आतुरI

सर्द सुबह को जब 

जोश का सैलाब 

उमड़ता है मेरे आस पास 

सुर ताल में चलती टोलियाँ 

रोंद्ती हैं मेरे सीने को 

कितना आराम पाता हूँ 

सच कहूं ,तभी आती है साँस में साँस

इतराता हूँ अपने आप पर I

पर आज कुछ डरा हुआ हूँ 

भविष्य को लेकर चिंतित भी 

शायद बूढा हो रहा हूँ…

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Added by pratibha pande on January 25, 2016 at 4:52pm — 8 Comments

महज इक आदमी है तू - ग़ज़ल-(लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' )

1222    1222    1222    1222

**********************************

भला तू देखता क्यों है महज इस आदमी का रंग

दिखाई क्यों न देता  है धवल  जो दोस्ती  का रंग /1



सुना  है  खूब  भाता है  तुझे  तो  रंग भड़कीला

मगर जादा बिखेरे है  छटा सुन सादगी का रंग/2



किसी को जाम भाता है किसी को शबनमी बँूदें

किसे मालूम है कैसा भला इस तिश्नगी का रंग/3



महज इक आदमी है तू न ही हिंदू न ही मुस्लिम

करे बदरंग क्यों बतला तू बँटकर जिंदगी का रंग/4



अगर बँटना ही है तुझको…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 26, 2016 at 10:41am — 16 Comments

कवच और कुण्डल

152
कवच और कुण्डल
---------------------- 
संसार  के जीर्णतम प्राणी से भी भयाक्रान्त वह,
जीवन सम्हाले है क्यों कि ,
उसके वक्षस्थल पर दुर्भाग्य का कवच 
और कानों में विपन्नता के बाले हैं।
तिरस्कार ,घृणा और उपहास का,
जन्मजात.....
साम्राज्य पाकर भी,
अपनत्व की , कुछ  साॅंसों की आस पाले है।
ग्रीष्म, वर्षा और शीत का मनमीत
अंतहीन अंबर है घर का छत…
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Added by Dr T R Sukul on January 27, 2016 at 10:19am — 12 Comments

हो जाते हैं हाथ दूर- गीत

(आदरणीय सौरभ पाण्डेय के पितृ-शोक  पर एक हार्दिक  संवेदना )

पहले संदर्भ प्रसंग सहित इस जगती में परिभाषित कर 

फिर हो जाते हैं हाथ दूर जीवन का दीप प्रकाशित कर

.

देते  हैं  वे  सन्देश  हमें

हर दीपक को बुझ जाना है

पर ज्योति-शेष रहते-रहते

शत-शत नव दीप जलाना है

फैलायी जो रेशमी रश्मि उसको अब रंग-विलासित कर

पहले संदर्भ प्रसंग सहित......

.

है  सहज  रोप  देना पादप

तप है उसको जीवित रखना

करना…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on January 21, 2016 at 10:00pm — 4 Comments

स्वप्न को समर्पित (लघुकथा)

लेखक उसके हर रूप पर मोहित था, इसलिये प्रतिदिन उसका पीछा कर उस पर एक पुस्तक लिख रहा था| आज वो पुस्तक पूरी करने जा रहा था, उसने पहला पन्ना खोला, जिस पर लिखा था, "आज मैनें उसे कछुए के रूप में देखा, वो अपने खोल में घुस कर सो रहा था"

फिर उसने अगला पन्ना खोला, उस पर लिखा था, "आज वो सियार के रूप में था, एक के पीछे एक सभी आँखें बंद कर चिल्ला रहे थे"

और तीसरे पन्ने पर लिखा था, "आज…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on January 13, 2016 at 5:46pm — 6 Comments

ग़ज़ल -नूर-शायरों सा मिजाज़ रखता है.

२१२२/१२१२/२२ 



अपने दिल में वो राज़ रखता है,

शायरों सा मिजाज़ रखता है.

.

अब सियासत में आ गया है तो 

हर किसी को नवाज़ रखता है.

.

बात करता है गर्क़ होने की,

और कितने जहाज़ रखता है.

.

दिल से देता है वो दुआएँ जब

उन पे थोड़ी नमाज़ रखता है.

.

जानें कितनों से दिल लगा होगा

दिल में ढेरों दराज़ रखता है.     

.

ये सदी और ये  वफ़ादारी

जाहिलों से  रिवाज़ रखता है.

.

हर्फ़ उसके तो हैं ज़मीनी, पर

वो तख़य्युल…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on January 17, 2016 at 11:00am — 10 Comments

सदी 16 वें साल में आ गयी है- नव वर्ष विशेष ग़ज़ल (पंकज के मानसरोवर से)

शब्दों की माला सुमन भाव निर्मित।

सभी प्रियजनों को मैं करता समर्पित।



नव वर्ष के आगमन की घड़ी में।

हृदय से शुभेच्छाएँ करता हूँ अर्पित।।



सदी 16वें साल में आ गयी है

ये यौवन हाँ जीवन में सबके अपेक्षित।।



खुशियाँ सदा द्वार पर आपके हों।

कलम से यही कामनाएँ हैं प्रेषित।।



कि धन-धान्य, सुख-शांति से घर भरा हो।

हर कामना आप सबकी हो पूरित।।



न मन न हीं तन न ही धरती गगन ये।

किसी हाल "पंकज" नहीं हो… Continue

Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on January 2, 2016 at 8:40am — 7 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गज़ल - ग़म किसी का किसी की राहत है - गिरिराज भंडारी

2122  1212   22  /112

क्या नहीं ये अजीब हसरत है ?

ग़म किसी का किसी की राहत है

 

ख़ाक में हम मिलाना चाहें जिसे

उनको ही सारी बादशाहत है

 

रोटी कपड़ा मकान में फँसकर

बुजदिली, हो चुकी शराफत है

 

हर्फ करते हैं प्यार की बातें

आँखें कहतीं हैं, तुमसे नफरत है

 

मुज़रिमों को मिले कई इनआम

आज मजलूम की ये क़िस्मत है

 

बेरहम क़ातिलों को मौत मिली

सेक्युलर कह रहे , शहादत है

 

हाँ,…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on December 24, 2015 at 10:30am — 30 Comments


मुख्य प्रबंधक
अतुकांत कविता : प्रतिनिधि (गणेश जी बागी)

मैं सड़क हूँ

मुझे तैयार किया गया है

रोड रोलरों से कुचल कर.



मुझे रोज रौंदते हैं 

लाखों वाहन

अक्सर....

विरोध प्रदर्शन का दंश

झेलती हूँ

अपने कलेजे पर

होता रहता हैं

पुतला दहन भी

मेरे ही सीने पर

विपरीत परिस्थितियों में

मैं ही बन जाती हूँ

आश्रय स्थल

कई कई बार तो

प्राकृतिक बुलावे का निपटान भी

हो जाता है

मेरी ही गोद में



फिर भी.....

मैं सहिष्णु…

Continue

Added by Er. Ganesh Jee "Bagi" on November 29, 2015 at 1:00pm — 32 Comments

नस्री नज़्म :- "तीसरा विश्व युद्ध"

आत्म ग्लानी से

मेरी गर्दन झुक जाती है

जब मैं यह देखता हूँ

कि इंसान ,तरक़्क़ी करते करते

इन हदों पर पहुँच चुका है

कि उसने,

पिशाच का रूप ले लिया है,

आज हम तीसरे विश्व युद्ध के

दहाने पर खड़े हैं,

इसी पिशाचता के कारण,

ताक़त की भूक

बहुत बढ़ गई है,

अब सिर्फ़,एक चिंगारी की आवश्यकता है,

और युद्ध शुरू,

परिणाम ?

तबाही ,बर्बादी

नरसंहार ,ख़ून के दरिया

लाशों के अंबार

भूक,लाचारी,

इंसानी जान की कोई क़ीमत नहीं,

सब… Continue

Added by Samar kabeer on December 2, 2015 at 4:08pm — 14 Comments

ज़िंदगी का रंग फीका था मगर इतना न था

ज़िंदगी का रंग फीका था मगर इतना न था

इश्क़ में पहले भी उलझा था मगर इतना न था

 

क्या पता था लौटकर वापस नहीं आएगा वो

इससे पहले भी तो रूठा था मगर इतना न था

 

दिन में दिन को रात कहने का सलीका देखिये

आदमी पहले भी झूठा था मगर इतना न था

 

अब तो मुश्किल हो गया दीदार भी करना तिरा

पहले भी मिलने पे पहरा था मगर इतना न था

 

उसकी यादों के सहारे कट रही है ज़िंदगी

भीड़ में पहले भी तन्हा था मगर इतना न…

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Added by डॉ. सूर्या बाली "सूरज" on November 15, 2015 at 2:00pm — 19 Comments

कैसे अपने मधु पलों को .... (१००वी रचना )

कैसे अपने मधु पलों को शूल शैय्या पे छोड़   आऊँ

स्मृति घटों पर विरहपाश के कैसे बंधन तोड़ आऊं

विगत पलों के अवगुंठन में

इक दीप अधूरा जलता रहा

अधरों पर   लज्जा शेष रही

नैनों में स्वप्न मचलता रहा

एकांत पलों में तृप्ति भाव को किस आँगन मैं छोड़ आऊँ

प्रिय स्मृति घटों पर विरहपाश के कैसे बंधन तोड़ आऊँ

अधरों से मिलना अधरों का

तिमिर का मौन शृंगार हुआ

तृषित देह का देह मिलन से

अंगार पलों  का संचार हुआ

किस पल को मैं बना के जुगनू तिमिर…

Continue

Added by Sushil Sarna on November 4, 2015 at 7:30pm — 27 Comments

आलोचना के स्वर // आबिद अली मंसूरी!

कौन सुनता है

कौन सुनना चाहता है
किसे पसन्द है आलोचना अपनी
एक कड़वा सच
छिपा होता है
आलोचना के शब्दों में
जिसे
नहीं चहते हम
स्वीकार करना,
जानते हैं
अपने अन्दर फ़ैले
खरपतवारों को सभी
पर नहीं चाहते
उखाड़ना
उनकी जड़ों को,
कभी-कभी
अकारण ही
करना पड़ता है
सामना
आलोचनाओं के बबंडर…
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Added by Abid ali mansoori on November 3, 2015 at 8:30pm — 18 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ऐ सुखनवर साथ चल -- (ग़ज़ल) -- मिथिलेश वामनकर

2122---2122---2122---212

 

दौर बदला है, बदल जा,   ऐ सुखनवर साथ चल 

सोचता है जिस जबां में, उस जबां में लिख ग़ज़ल

 

जिंदगी बदलाव है...... गर थम गए…

Continue

Added by मिथिलेश वामनकर on October 29, 2015 at 2:44pm — 36 Comments

शोधन मन का बहुत जरूरी!

शोधन मन का बहुत जरूरी,
क्यों खलता है खालीपन ?
**
बैठो कभी सरित के तट पर
गाते हैं मधुवन
बजते स्वर सुधियों के मद्धिम 
मधुरिम सा गुंजन
 …
Continue

Added by kalpna mishra bajpai on October 11, 2015 at 9:00am — 11 Comments

स्वेटर (लघुकथा)

जनवरी की हड्डी कंपा देने वाली ठंड..मैं ऊपर से नीचे तक गर्म कपड़ों के बावजूद कांप रही थी ।कक्षा में पहुंच कर एक नजर, मेरे सम्मान में खड़े सभी बच्चों पर डाली और बैठने का इशारा किया । तभी मेरी नजर उन बच्चों पर पड़ी जिनके बदन पर कपड़ों के नाम पर बस कपड़ों का नाम था।मैंने उन सभी बच्चों को खड़ा कर दिया ।

"क्यों!स्वेटर कहां है तुम्हारे?स्कूल से स्वेटर के लिये पैसा मिला ना तुम लोगों को फिर..?"लहजा सख्त था । बच्चे सहम गये ।फिर सामने जो कहानी आई बेशक अलग-अलग थी लेकिन नतीजा एक,कि उनके अभिभावक सारा…

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Added by Rahila on October 18, 2015 at 9:30pm — 39 Comments

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