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लघु रचना : यथार्थ ...

लघु रचना : यथार्थ ...

एक मैं
चल दिया
एक मैं को
छोड़कर


एक यथार्थ
आभास हो गया
एक आभास
यथार्थ हो गया


जिसका वो अंश था
उस अंश में
उस यथार्थ का
वास हो गया

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on August 5, 2018 at 11:05am — 13 Comments

'बेटी फंसाओ या बचाओ?' (लघुकथा)

"अरे रुको! तुम हमारी मिहनत को यूं बरबाद नहीं कर सकते! हटाओ अपनी ये झाड़ू! रोको अपना खोखला मिशन!" अपने माथे की ओर की अपनी डोर में टपकती मकड़ी की चुनौती सुनकर भय्यन के हाथ से मकड़जाल की ओर जाती झाड़ू डंडे सहित नीचे गिर पड़ी।



"न तो तुम जैसे आम आदमी हमारे शिकारों को बचा सकते हो, न ही तुम्हारे तथाकथित सेवक और सरकारी या प्राइवेट रक्षक! सबको भक्षक और ग्राहक बनाना हमें बाख़ूबी आता है, समझे!" उस बड़ी सी मकड़ी ने मकड़जाल में फंसे और तड़पते 'बड़े से कीड़े' को देखते हुए भय्यन से कहा - "हमारी पहुंच और…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 5, 2018 at 9:05am — 4 Comments

ग़ज़ल

2122 1122 1122 22

कुछ धुंआ घर के दरीचों से उठा हो जैसे ।

फिर कोई शख्स रकीबों से जला हो जैसे ।।

खुशबू ए ख़ास बताती है पता फिर तेरा ।

तेरे गुलशन से निकलती ये सबा हो जैसे ।।

बादलों में वो छुपाता ही रहा दामन को ।

रात भर चाँद सितारों से ख़फ़ा हो जैसे ।।

जुल्म मजबूरियों के नाम लिखा जायेगा ।

बन के सुकरात कोई ज़ह्र पिया हो जैसे ।।

खैरियत पूँछ के होठों पे तबस्सुम आना ।

हाल ए दिल मेरा तुझे खूब पता हो जैसे…

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Added by Naveen Mani Tripathi on August 4, 2018 at 9:03pm — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
नसीहत को गिनिए नहीं धमकियों में - अरुण कुमार निगम

एक ग़ज़ल.......


122 122 122 122


नजर है तो पढ़िए गजल झुर्रियों में
ये चेहरा कभी है रहा सुर्खियों में।


वतन को सजाने के वादे किए थे
सदा आप उलझे रहे कुर्सियों में।


मसीहा समझ के था अगुवा बनाया
मगर आप भी ढल गए मूर्तियों में।


चढ़ाया हमीं ने उतारेंगे हम ही
पलक के झपकते, यूँ ही चुटकियों में।


अरुण के इशारे समझ लें समय है
नसीहत को गिनिए नहीं धमकियों में।।

(मौलिक व अप्रकाशित)☺

Added by अरुण कुमार निगम on August 4, 2018 at 8:00pm — 5 Comments

दिख रहा इंसान है- ग़ज़ल

हर तरफ बस दिख रहा इंसान है

हाँ, मगर अपनों से वो अंजान है



थे कभी रिश्ते भी नाते भी मगर

आजतो यह सिर्फ इक सामान है



जिसको कहते थे कभी काबिल सभी

सबकी नज़रों में वो अब नादान है 



जिसको सौंपी थी हिफाज़त बाग़ की

बिक रहा उसका ही अब ईमान है 



हर तरफ बैठे शिकारी घात में

चंद लम्हों का वो अब मेहमान है



था कभी गुलज़ार जो शाम-ओ-सहर 

अब वही दिखने लगा शमशान है



जिसने देखे अम्न के सपने कभी

अब उसी का टूटता अरमान है …



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Added by विनय कुमार on August 4, 2018 at 6:30pm — 11 Comments

ग़ज़ल

1222,1222, 1222, 1222

चलो ये बोझ भी दिलपर उठाकर देख लेते हैं

किसीको हम ज़रा दिलमें बसाकर देख लेते हैं

जियेगें किस तरह तन्हाँ यहाँ साथी अगर छूटा

यहाँ जो बेवजह रूठा मनाकर देख लेते हैं .....

कहाँतक हार है अपनी ज़रा इसका पता करलें

यहाँ भी ईक नयी बाज़ी लगाकर देख लेते है....

कहो कैसे यक़ीं तुमको दिलायें आशनाई का.

लगेहैं जख्म जो दिल पर दिखाकर देख लेते हैं

जमींपर जो नहीं मिलते वो मिलते आसमानों पर

चलो…

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Added by Kishorekant on August 4, 2018 at 5:30pm — 5 Comments

" टूटन का पुष्पण" - कविता/ अर्पणा शर्मा, भोपाल

हँस पड़ती हूँ ,

अक्सर मैं,

मुझे तोड़ने में

मशगूल,

अपनी अमोल ऊर्जा,

व्यर्थ करते उन,

मिथ्या हितैषियों को

देखकर,



टूटन को नित,

यूँ पान करती

आई हूँ कि,

ये गरल तो मेरी

हर श्वांस में

घुला-मिला है,

इसे नित जीकर....



कि इसके बिना,

हल्की-हल्की सी,

श्वांसों पर यकीं

ना होना

लाजिमी है,



तिल भर भी तो,

 नहीं बची है,

कोई जगह

जहाँ किसी को

अवसर मिले,

मुझे…

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Added by Arpana Sharma on August 4, 2018 at 3:40pm — 6 Comments

आधुनिक शिक्षा संस्थान

शिक्षा संस्थाओं के
हाल आज और हैं
छात्र यूनियनों में
लड़ाई  के दौर हैं

शिक्षालय आज 
राजनीति के अड्डे हैं
कमाई,चुनाव के
थ॓धों पर थंधे हैं

फैली अराजकता
अलग -अलग झंडे हैं
परिसर में घूमते
दलालों के पंडे हैं


मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Usha Awasthi on August 4, 2018 at 10:30am — No Comments

प्राचीन गुरुकुल

पूर्णतया शिक्षा को गुरू समर्पित थे

कंद,मूल,फल,बिना जोता अन्न खाते थे

पठन -पाठन को समय बचाते थे

तभी तो गुरुजन श्रृषि कहलाते थे



गुरुकुल के प्राँगण में व्यर्थ वाद वर्जित था

गुरू ज्ञान-धारा से हर छात्र सिंचित था

चरणों में उनके नतमस्तक हो जाते थे

तभी तो गुरुजन श्रृषि कहलाते थे



राजा उनसे मिलने गुरुगृह जब जाते थे

आयुध अपने बाहर रख अन्दर आते थे

उलझनें शासन की,उन स॔ग सुलझाते थे

तभी तो गुरुजन श्रृषि कहलाते थे



मौलिक एव॔…

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Added by Usha Awasthi on August 4, 2018 at 10:30am — 8 Comments

'किकी-डांस चैलेंज' (लघुकथा)

"हैल्लउ! हाउ आs..यू? कैसे हैं जनाब?"



"फाइन! रॉकिंग!".. और आप सब ! कैसा लगता है अब विदेश में?"



"क्वाइट गुड! बट बेटर देन इंडिया! कुछ एक बातें तो 'अनकॉमन और पॉज़िटिव' हैं, लेकिन हम जैसे भावुक भारतीयों के लिए अधिकतर बातें 'कॉमन और निगेटिव' ही हैं पैसे, स्वार्थों की होड़ और 'तकनीक व ग्लोबलाइज़ेशन' की दौड़ में !"



"मतलब तुम सब भी हमारी तरह विदेश में भी ज़माने के साथ नाच ही रहे हो न!"



"हां, यही कह लो! लेकिन अंतर तो है! हम यहां सेहत और सुव्यवस्था के साथ…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 4, 2018 at 12:30am — 6 Comments

नजरे झुकाये बैठे हैं- ग़ज़ल

आप महफिल में आये बैठे हैं

फिर भी नजरें  झुकाये बैठे हैं

मसअला ये कि मेरी बात से वो

अब  तलक़  खार  खाये  बैठे हैं

मुझको तो याद भी नहीं और वो

बात  दिल  से  लगाए  बैठे  हैं

हम तो करते नहीं कभी पर्दा

वो ही चिलमन गिराए बैठे हैं

हमने हर चीज याद रक्खी है

जाने  वो  क्यूँ  भुलाए बैठे हैं

हर तरफ दौर है ठहाकों का

और वो मुंह  फुलाए  बैठे हैं

बात दर अस्ल थी बहुत छोटी

वो  बड़ी  सी …

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Added by विनय कुमार on August 3, 2018 at 7:00pm — 7 Comments

मेरा घर - लघुकथा –

मेरा घर - लघुकथा –

"हद हो गयी, अभी तीन दिन पहले ही साफ किया था  जाला। फिर बना लिया"।

कमला झाड़ू लेकर मकड़ी के जाले को जैसे ही साफ करने लगी।

मकड़ी गिड़गिड़ाते हुये बोली,"क्या बिगाड़ा है मैंने तुम्हारा। क्यों मेरा घर संसार उजाड़ रही हो"?

"अरे वाह, मेरे ही घर में बसेरा कर लिया और मुझे ही ज्ञान दे रही हो"।

"हर कोई किसी ना किसी पर आश्रित है। संसार की यही रीति है"।

"होगी, पर मुझे तो नहीं पसंद। और यह तुम्हारा घर संसार। क्या है इसमें? जीवन भर की क़ैद। उम्र भर…

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Added by TEJ VEER SINGH on August 3, 2018 at 4:38pm — 8 Comments

नवगीत- यही सोचता रहा घड़ा

स्वर्ण-कलश हो गए लबालब,

क्यों हूँ अब तक रिक्त पड़ा.

जाने कब नंबर आयेगा,

यही सोचता रहा घड़ा.

 

नदिया सूखी, पोखर प्यासी,

तालाबों की वही कहानी.

झरने खूब बहे पर्वत से,…

Continue

Added by बसंत कुमार शर्मा on August 3, 2018 at 4:33pm — 2 Comments

नवगीत- यही सोचता रहा घड़ा

स्वर्ण-कलश हो गए लबालब,

क्यों हूँ अब तक रिक्त पड़ा.

जाने कब नंबर आयेगा,

यही सोचता रहा घड़ा.

 

नदिया सूखी, पोखर प्यासी,

तालाबों की वही कहानी.

झरने खूब बहे पर्वत से,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on August 3, 2018 at 4:33pm — 2 Comments

कुछ मुक्तक

प्यार का सारांश कोई  छान कर लाये वहाँ से

पारदर्शी प्यार के सन्दर्भ   दिखते हों जहां से 

कृष्ण केवल राधिका का है दिवाना मान लूं तो

मोर का फिर पंख तेरी सेज पर आया कहाँ से 

  ( 2122 2122 2122  2122 )

जो सहारों के सहारे हैं,  सरसते वे नही

फाड़ देते जो धरा को हैं तरसते वे नही 

चापलूसों की हकीकत है मुझे बेशक पता 

जानता हूँ जो गरजते हैं,  बरसते वे नही

 …

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 3, 2018 at 3:30pm — 7 Comments

ग़ज़ल

ज़माने की जहालत कम नहीं थी,

इधर अपनी बग़ावत कम नही थी..

लिये ख़ंजर वो देखो ताक में हैं,

हमारी जिस को चाहत कम नहीं थी..

सभी की थी दिखावे की मुहब्बत,

दिलों में वैसे नफ़रत कम नहीं थी..

जहाँ पर ज़िन्दगी की खुशबुएं थी,

उसी महफ़िल में ग़ीबत कम नहीं थी..

हमारे पास रुसवाई की दौलत,

अरे उनकी बदौलत कम नहीं थी..…

Continue

Added by Zohaib Ambar on August 3, 2018 at 3:30am — 5 Comments

ग़ज़ल

किसी ने तेरी सूरत देख ली है,

यही समझो क़यामत देख ली है..

अभी अंजाम-ए-दिल मालूम क्या है,

अजी तुमने तो आफत देख ली है..

कि ईजा हिज्र की देखी कहाँ थी,

फ़क़त तेरी बदौलत देख ली है..

चुराता है वो काफ़िर आँख मुझसे,

निगाह-ए-चश्म-ए-हसरत देख ली है..

शराफत आज हमने तर्क कर दी,

ज़माने की शराफत देख ली है..

ज़रा शिकवा किया था आज उनसे,

अरे उल्टी नदामत देख ली है..

संभल जाओ मियां ज़ोहेब तुम भी,…

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Added by Zohaib Ambar on August 3, 2018 at 3:30am — No Comments

"दिलवाली अब किस की? (लघुकथा)

"अपनी तो बहुत ख़ैर-ख़बर हो गई! चलो, अब सुनें, वो दिलवाली का कहिन?" बिहार ने एक-दूसरे के हालात-ए-हाज़रा सुनने-सुनाने के बाद यूपी से कहा।



"दिलवाली! ... अच्छा वोss ... जो अपने को दिलवाली कहती रही? अब कहां रही वैसी!" व्यंग्यात्मक लहज़े में यूपी ने अपना रंगीन गमछा लहरा कर कहा।



"अपन दोनों से तो बेहतर ही है! खलबली और हड़बड़ी तो सब जगह है!" मुल्क के नक्शे पर राजधानी पर दृष्टिपात करते हुए बिहार ने कहा - "दिल तो उसका वाकई पहले से भी बड़ा हो गया है! न जाने कितने किस्म के दवाब, अन्याय…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 3, 2018 at 12:00am — 3 Comments

ग़ज़ल

हमें ख़ुशियाँ नहीं क्यों ग़म मिला है
नहीं माँगा वही हरदम मिला है

अधूरी चाहतें लेकर जिये हैं
हमेशा चाहतोंसे कम मिला है

नहीं फ़रियाद बस सजदे किये हैं
कहो जन्नतमें’ क्यों मातम मिला है

सफ़र कांटोभरा क्या कम नहीं था
हमें बेज़ार क्यों मौसम मिला है

मनानेके सभी फ़न बेअसर हैं
बड़ा ही संगदिल हमदम मिला है


१२२२,१२२२,१२२ “अम” मिला है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Kishorekant on August 2, 2018 at 7:12pm — 1 Comment

खोटा सिक्का (लघुकथा)

"ये लो! मैं बुध ग्रह को जीत गया।" उस सितारे की तीव्र तरंगदैर्ध्य वाली खुशी से भरपूर ध्वनि से आसपास की आकाशगंगाएं गुंजायमान हो उठीं।

 

सूदूर अंतरिक्ष में, जहाँ समय और विस्तार अनंत हैं, चार सितारे अपने ही प्रकार का जुआ खेल रहे थे। दांव पर लग रहे थे, उनके सौरमंडल के विभिन्न छोटे-बड़े ग्रह, उपग्रह, उल्कापिंड आदि। मनुष्यों से प्रेरित हो हमारा सूर्य भी उनमें से एक था। हालांकि उस समय उसका समय सही नहीं था। वह लगातार हार रहा था।

 

शनि के वलय, मंगल का सबसे ऊंचा पर्वत,…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on August 2, 2018 at 7:00pm — 3 Comments

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