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आधुनिक शिक्षा संस्थान

शिक्षा संस्थाओं के
हाल आज और हैं
छात्र यूनियनों में
लड़ाई  के दौर हैं

शिक्षालय आज 
राजनीति के अड्डे हैं
कमाई,चुनाव के
थ॓धों पर थंधे हैं

फैली अराजकता
अलग -अलग झंडे हैं
परिसर में घूमते
दलालों के पंडे हैं


मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Usha Awasthi on August 4, 2018 at 10:30am — No Comments

प्राचीन गुरुकुल

पूर्णतया शिक्षा को गुरू समर्पित थे

कंद,मूल,फल,बिना जोता अन्न खाते थे

पठन -पाठन को समय बचाते थे

तभी तो गुरुजन श्रृषि कहलाते थे



गुरुकुल के प्राँगण में व्यर्थ वाद वर्जित था

गुरू ज्ञान-धारा से हर छात्र सिंचित था

चरणों में उनके नतमस्तक हो जाते थे

तभी तो गुरुजन श्रृषि कहलाते थे



राजा उनसे मिलने गुरुगृह जब जाते थे

आयुध अपने बाहर रख अन्दर आते थे

उलझनें शासन की,उन स॔ग सुलझाते थे

तभी तो गुरुजन श्रृषि कहलाते थे



मौलिक एव॔…

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Added by Usha Awasthi on August 4, 2018 at 10:30am — 8 Comments

'किकी-डांस चैलेंज' (लघुकथा)

"हैल्लउ! हाउ आs..यू? कैसे हैं जनाब?"



"फाइन! रॉकिंग!".. और आप सब ! कैसा लगता है अब विदेश में?"



"क्वाइट गुड! बट बेटर देन इंडिया! कुछ एक बातें तो 'अनकॉमन और पॉज़िटिव' हैं, लेकिन हम जैसे भावुक भारतीयों के लिए अधिकतर बातें 'कॉमन और निगेटिव' ही हैं पैसे, स्वार्थों की होड़ और 'तकनीक व ग्लोबलाइज़ेशन' की दौड़ में !"



"मतलब तुम सब भी हमारी तरह विदेश में भी ज़माने के साथ नाच ही रहे हो न!"



"हां, यही कह लो! लेकिन अंतर तो है! हम यहां सेहत और सुव्यवस्था के साथ…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 4, 2018 at 12:30am — 6 Comments

नजरे झुकाये बैठे हैं- ग़ज़ल

आप महफिल में आये बैठे हैं

फिर भी नजरें  झुकाये बैठे हैं

मसअला ये कि मेरी बात से वो

अब  तलक़  खार  खाये  बैठे हैं

मुझको तो याद भी नहीं और वो

बात  दिल  से  लगाए  बैठे  हैं

हम तो करते नहीं कभी पर्दा

वो ही चिलमन गिराए बैठे हैं

हमने हर चीज याद रक्खी है

जाने  वो  क्यूँ  भुलाए बैठे हैं

हर तरफ दौर है ठहाकों का

और वो मुंह  फुलाए  बैठे हैं

बात दर अस्ल थी बहुत छोटी

वो  बड़ी  सी …

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Added by विनय कुमार on August 3, 2018 at 7:00pm — 7 Comments

मेरा घर - लघुकथा –

मेरा घर - लघुकथा –

"हद हो गयी, अभी तीन दिन पहले ही साफ किया था  जाला। फिर बना लिया"।

कमला झाड़ू लेकर मकड़ी के जाले को जैसे ही साफ करने लगी।

मकड़ी गिड़गिड़ाते हुये बोली,"क्या बिगाड़ा है मैंने तुम्हारा। क्यों मेरा घर संसार उजाड़ रही हो"?

"अरे वाह, मेरे ही घर में बसेरा कर लिया और मुझे ही ज्ञान दे रही हो"।

"हर कोई किसी ना किसी पर आश्रित है। संसार की यही रीति है"।

"होगी, पर मुझे तो नहीं पसंद। और यह तुम्हारा घर संसार। क्या है इसमें? जीवन भर की क़ैद। उम्र भर…

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Added by TEJ VEER SINGH on August 3, 2018 at 4:38pm — 8 Comments

नवगीत- यही सोचता रहा घड़ा

स्वर्ण-कलश हो गए लबालब,

क्यों हूँ अब तक रिक्त पड़ा.

जाने कब नंबर आयेगा,

यही सोचता रहा घड़ा.

 

नदिया सूखी, पोखर प्यासी,

तालाबों की वही कहानी.

झरने खूब बहे पर्वत से,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on August 3, 2018 at 4:33pm — 2 Comments

नवगीत- यही सोचता रहा घड़ा

स्वर्ण-कलश हो गए लबालब,

क्यों हूँ अब तक रिक्त पड़ा.

जाने कब नंबर आयेगा,

यही सोचता रहा घड़ा.

 

नदिया सूखी, पोखर प्यासी,

तालाबों की वही कहानी.

झरने खूब बहे पर्वत से,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on August 3, 2018 at 4:33pm — 2 Comments

कुछ मुक्तक

प्यार का सारांश कोई  छान कर लाये वहाँ से

पारदर्शी प्यार के सन्दर्भ   दिखते हों जहां से 

कृष्ण केवल राधिका का है दिवाना मान लूं तो

मोर का फिर पंख तेरी सेज पर आया कहाँ से 

  ( 2122 2122 2122  2122 )

जो सहारों के सहारे हैं,  सरसते वे नही

फाड़ देते जो धरा को हैं तरसते वे नही 

चापलूसों की हकीकत है मुझे बेशक पता 

जानता हूँ जो गरजते हैं,  बरसते वे नही

 …

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 3, 2018 at 3:30pm — 7 Comments

ग़ज़ल

ज़माने की जहालत कम नहीं थी,

इधर अपनी बग़ावत कम नही थी..

लिये ख़ंजर वो देखो ताक में हैं,

हमारी जिस को चाहत कम नहीं थी..

सभी की थी दिखावे की मुहब्बत,

दिलों में वैसे नफ़रत कम नहीं थी..

जहाँ पर ज़िन्दगी की खुशबुएं थी,

उसी महफ़िल में ग़ीबत कम नहीं थी..

हमारे पास रुसवाई की दौलत,

अरे उनकी बदौलत कम नहीं थी..…

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Added by Zohaib Ambar on August 3, 2018 at 3:30am — 5 Comments

ग़ज़ल

किसी ने तेरी सूरत देख ली है,

यही समझो क़यामत देख ली है..

अभी अंजाम-ए-दिल मालूम क्या है,

अजी तुमने तो आफत देख ली है..

कि ईजा हिज्र की देखी कहाँ थी,

फ़क़त तेरी बदौलत देख ली है..

चुराता है वो काफ़िर आँख मुझसे,

निगाह-ए-चश्म-ए-हसरत देख ली है..

शराफत आज हमने तर्क कर दी,

ज़माने की शराफत देख ली है..

ज़रा शिकवा किया था आज उनसे,

अरे उल्टी नदामत देख ली है..

संभल जाओ मियां ज़ोहेब तुम भी,…

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Added by Zohaib Ambar on August 3, 2018 at 3:30am — No Comments

"दिलवाली अब किस की? (लघुकथा)

"अपनी तो बहुत ख़ैर-ख़बर हो गई! चलो, अब सुनें, वो दिलवाली का कहिन?" बिहार ने एक-दूसरे के हालात-ए-हाज़रा सुनने-सुनाने के बाद यूपी से कहा।



"दिलवाली! ... अच्छा वोss ... जो अपने को दिलवाली कहती रही? अब कहां रही वैसी!" व्यंग्यात्मक लहज़े में यूपी ने अपना रंगीन गमछा लहरा कर कहा।



"अपन दोनों से तो बेहतर ही है! खलबली और हड़बड़ी तो सब जगह है!" मुल्क के नक्शे पर राजधानी पर दृष्टिपात करते हुए बिहार ने कहा - "दिल तो उसका वाकई पहले से भी बड़ा हो गया है! न जाने कितने किस्म के दवाब, अन्याय…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 3, 2018 at 12:00am — 3 Comments

ग़ज़ल

हमें ख़ुशियाँ नहीं क्यों ग़म मिला है
नहीं माँगा वही हरदम मिला है

अधूरी चाहतें लेकर जिये हैं
हमेशा चाहतोंसे कम मिला है

नहीं फ़रियाद बस सजदे किये हैं
कहो जन्नतमें’ क्यों मातम मिला है

सफ़र कांटोभरा क्या कम नहीं था
हमें बेज़ार क्यों मौसम मिला है

मनानेके सभी फ़न बेअसर हैं
बड़ा ही संगदिल हमदम मिला है


१२२२,१२२२,१२२ “अम” मिला है ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Kishorekant on August 2, 2018 at 7:12pm — 1 Comment

खोटा सिक्का (लघुकथा)

"ये लो! मैं बुध ग्रह को जीत गया।" उस सितारे की तीव्र तरंगदैर्ध्य वाली खुशी से भरपूर ध्वनि से आसपास की आकाशगंगाएं गुंजायमान हो उठीं।

 

सूदूर अंतरिक्ष में, जहाँ समय और विस्तार अनंत हैं, चार सितारे अपने ही प्रकार का जुआ खेल रहे थे। दांव पर लग रहे थे, उनके सौरमंडल के विभिन्न छोटे-बड़े ग्रह, उपग्रह, उल्कापिंड आदि। मनुष्यों से प्रेरित हो हमारा सूर्य भी उनमें से एक था। हालांकि उस समय उसका समय सही नहीं था। वह लगातार हार रहा था।

 

शनि के वलय, मंगल का सबसे ऊंचा पर्वत,…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on August 2, 2018 at 7:00pm — 3 Comments

रूह से भी यारी है - ग़ज़ल

जिस्म से रूह से भी यारी है

इश्क़ में इक सदी गुजारी है

उनसे मिलके भी दिल नहीं भरता

बढ़ रही फिर से बेकरारी है

उनकी बातें हैं जाम की बातें

फिर से चढ़ने लगी खुमारी है

सारी खुशियाँ उन्हें मुअस्सर हैं

सिर्फ अपनी ही गम से यारी है

उनके लब पे भी नाम हो अपना

ये  कवायद  हमारी  जारी  है

एक दिन वो मिलेंगे हमको ही

इश्क़  से  क़ायनात  हारी  है

मैं भी मिल पाऊँगा यक़ीन हुआ

उनके अपनों…

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Added by विनय कुमार on August 2, 2018 at 3:00pm — 3 Comments

ये क्या देखता हूँ

किसी बुरी शै का असर देखता हूं ।

जिधर देखता हूं जहर देखता हूं ।।

रोशनी तो खो गई अंधेरों में जाकर।

अंधेरा ही शामो शहर देखता हूं ।।

किसी को किसी की खबर ही नहीं है।

जिसे देखता हूं बेखबर देखता हूं ।।

ये मुर्दा से जिस्म जिंदगी ढो रहे हैं।

हर तरफ ही ऐसा मंजर देखता हूं ।।

लापता है मंजिल मगर चल रहे हैं।

एक ऐसा अनोखा सफर देखता हूँ।।

चिताएं चली हैं खुद रही हैं कब्रें।

मरघट में बदलते घर देखता हूं ।।

परेशां हूं दर्पण ये क्या देखता…

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Added by Pradeep Bahuguna Darpan on August 1, 2018 at 9:56pm — 4 Comments

नारी

​​​​​नारी

सबकुछ है नारीमें लेकिन एक कमी रहजाती है

उसकी सारी खूबियाँ केवल आँसूमें बहजाती है



वज्र के जैसा सीना उसका, अमीधार छलकाती है

सन्तानों के पालनमें ही,

अपना आप खपाती है

उससे ही परिवार पूर्ण फिर,आधी क्यों कहलाती है

सबकुछ है नारीमे लेकिन, एक कमी रहजाती है



हँसती है जब रोना होता, मौन रहे जब कहेना होता

परिणाम सबकी भूलोंका उसको ही क्यों सहेना होता

झूठी इक मुस्कान बस उसकी भेद सभी कहजाती है

सबकुछ है नारीमे लेकिन एक कमी रहजाती…

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Added by Kishorekant on August 1, 2018 at 7:11pm — 4 Comments

उम्मीदों की मशाल [लघु कथा ]

रामू की माँ तो अपने पति के शव पर पछाड़ खाकर गिरी जा रही थी.रामू कभी अपने छोटे भाई बहिन को संभाल रहा था ,तो कभी अपनी माँ को.अचानक पिता के चले जाने से उसके कंधों पर जिम्मेदारियों का बोझ आ पड़ा था.

पढ़ाई छोड़,घर में चूल्हा जलाने के वास्ते रामू काम की तलाश में सड़को की छान मारता।अंततःउसने घर-घर जाकर रद्दी बेचने का काम पकड़ लिया।रद्दी में मिलती किताबों को देख उसके अंदर का किताबी कीड़ा जाग उठा.किताबे बचाकर,बाकी रद्दी बेच देता।और रात में लालटेन में अपने पढ़ने की भूख को  तृप्त करता।

समय बीतता…

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Added by babitagupta on August 1, 2018 at 7:00pm — 4 Comments

याद तेरी - ग़ज़ल

याद तेरी कुछ इस कदर आए
तुझसे मिलने तेरे नगर आए

तुझको देखा करें हरेक लम्हा
वक़्त ऐसे ही अब ठहर जाए

अच्छी बातें ही बचें तेरे लिए
जो बुरा दौर हो गुजर जाए

बेकरारी है तुझको पाने की
हर तरफ तू ही तू नज़र आए

तेरी खुशबू हो हर तरफ मेरे
मेरी साँसों में ये असर आए

खार चुन लेंगे तेरी राहों से
राह में तेरे बस शजर आए !!

मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by विनय कुमार on August 1, 2018 at 2:00pm — 7 Comments

सैलाब - लघुकथा

पिता के बार बार आग्रह करने पर रोहन उनके मित्र की इकलौती बेटी चेतना से एक बार मिलने को राजी हो गया। हालाँकि वह पिता से स्पष्ट कह चुका था कि यदि आपको चेतना पसंद है तो मुझे शादी मंजूर है| इसके बावज़ूद पिता की इच्छा थी कि रोहन एक बार चेतना से अवश्य मिले। शायद वे अकेले निर्णय करने से बचना चाहते थे।

चेतना दिल्ली में एम बी ए कर रही थी अतः हॉस्टल में रहती थी। उन दोनों ने रेस्त्रां में मिलना तय किया। औपचारिक मुलाक़ात के बाद मुद्दे की बात शुरू हुई। पहल चेतना ने की,

"क्या तुम एक बलात्कार…

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Added by TEJ VEER SINGH on August 1, 2018 at 9:30am — 8 Comments

ग़ज़ल

सब समझ पातेहों ऐसे इल्म क्यों होते नहीं

सबको रक्खें साथ ऐसे बज्म क्यों होते नहीं

सिर्फ़ खँजरही नहीं कुछ लब्जभी घायल करें

दर्दसे महरूम कोइ ज़ख़्म क्यों होते नहीं

हर अंधेरी रातका रोशन सवेरा तो सुना

बदनसीबीके ये दिन फिर ख़त्म क्यों होते नहीं

आमलोगों केलिये बनते हैं सब क़ानून क्यों

ख़ासलोगों केलिये कोई हुक्म क्यों होते नहीं

सब सवालोंके तुम्हारे पास हैं गर हल तो फिर

पूछनेके सिलसिले ये ख़त्म क्यों होते नहीं…

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Added by Kishorekant on July 31, 2018 at 7:20pm — 2 Comments

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