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ग़ज़ल

2122 2122 212

लोग कब दिल से यहाँ बेहतर मिले ।

जब मिले तब फ़ासला रखकर मिले ।।

है अजब बस्ती अमीरों की यहां ।

हर मकाँ में लोग तो बेघर मिले ।।

तज्रिबा मुझको है सापों का बहुत ।

डस गये जो नाग सब झुककर मिले ।।

कर गए खारिज़ मेरी पहचान को ।

जो तसव्वुर में मुझे शबभर मिले ।।

मैं शराफ़त की डगर पर जब चला ।

हर कदम पर उम्र भर पत्थर मिले ।।

मौत से डरना मुनासिब है नहीं…

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Added by Naveen Mani Tripathi on June 6, 2018 at 3:38pm — 20 Comments

ग़ज़ल _मेरे हबीब सिर्फ तू क़ुरबत की बात कर

मफ ऊल _फाइलात_ मफाईल _फाइलुन

उलफत की गर नहीं तो अदावत की बात कर |

मेरे हबीब सिर्फ़ तू क़ुरबत की बात कर |

दीदार कर के आया हूँ मैं एक हसीन का

मुझ से न यार आज क़यामत की बात कर |

लोगों के बीच होने लगीं ख़त्म उलफतें

मज़हब के नाम पर न सियासत की बात कर |

तदबीर पर है सिर्फ नजूमी मुझे यकीं

तू देख कर लकीर न क़िस्मत की बात कर |

ईमान बेचता नहीं मैं हूँ सुखन सरा

मुझ से मेरे अज़ीज़ न दौलत की बात कर…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on June 6, 2018 at 3:30pm — 19 Comments

आ भी जा...

इन आँसुओं का कर्ज चुकाने आजा,

बिखरी हूँ मैं यूँ टूटकर उठाने आजा...



दिल से लगाके मुझको, यूँ न दूर कर तू

इक बार फिर तू मुझको सताने आजा....



अब लौट आ तू फिर से, इश्क की गली में

करके गया जो वादे निभाने आजा...



जो वेबजह है दर्मियाँ, उसको भुला दे

इक बार फिर से दिल को चुराने आजा...



सोती नहीं अब रात भर, तेरी फिकर में

इक चैन की तू नींद सुलाने आजा...



थमने लगीं साँसे मेरी, तेरे बिना अब

अरमान है तू दिल से लगाने…

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Added by रक्षिता सिंह on June 6, 2018 at 12:39pm — 8 Comments

सारी उम्र खटे - एक नवगीत

अंतर्मन में जाने कितने,

ज्वालामुखी फटे.

दूरी रही सुखों से अपनी,

दुख ही रहे सटे.

 

झोंपड़ियों में बुलडोजर के,

जब-तब घाव सहे.

अरमानों की जली चिताएँ,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 6, 2018 at 9:29am — 9 Comments

ग़ज़ल : बहुत दिनों था मुन्तज़िर

मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन मुफ़ाइलुन

बहुत दिनों था मुन्तज़िर फिर इन्तिज़ार जल गया।

मेरे तवील हिज्र में विसाल-ए-यार जल गया।

मेरी शिकस्त की ख़बर नफ़स नफ़स में रच गई,

था जिसमें ज़िक्र फ़तह का वो इश्तेहार जल गया।

मैं इंतिख़ाब-ए-शमअ में ज़रा सा मुख़्तलिफ़ सा हूँ,

मेरे ज़रा से नुक़्स से मेरा दयार जल गया।

मुझे ये पैकर-ए-शरर दिया था कैसे चाक ने,

मुझे तो सोज़ ही मिला मेरा कुम्हार जल गया।

पनाह दी थी जिसने कितने रहरवों को…

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Added by रोहिताश्व मिश्रा on June 5, 2018 at 1:00pm — 10 Comments

जूठन - लघुकथा –

जूठन - लघुकथा –

 रघुबीर लगभग चालीस का होने जा रहा था  पर अभी तक कुँआरा था। इकलौता बेटा था इसलिये माँ को शादी की बहुत चिंता रहती थी। बाप दो साल पहले मर चुका था| माँ अपने स्तर पर बहुत कोशिश कर चुकी थी लेकिन बेटे की छोटी सी नौकरी के कारण बात नहीं बनती थी।

उसकी पड़ोसन ने बताया कि आज अपनी जाति वालों का सामूहिक विवाह सम्मेलन हो रहा है, अतः बेटे को बुला लो,शायद बात बन जाये।

माँ बेटा समय पर तैयार होकर सम्मेलन में शामिल हो गये। रघुबीर देखने में गोरा चिट्टा स्मार्ट बंदा था। इसलिये…

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Added by TEJ VEER SINGH on June 5, 2018 at 11:33am — 22 Comments

मैं  इस देश का नेता हूँ

मैं  इस देश का नेता हूँ, आपसे कुछ ना लेता हूं।

ख्वाब चाँद के दिखलाता हूँ, विभु स्वप्न भेंट कर देता हूं

मैं इस देश का नेता हूँ, आपसे कुछ ना लेता हूं।

पंचवर्ष सेवा में रहकर, सौ वर्ष के ख्वाब दिखाता हूँ  

मैं इस देश का नेता हूँ, आपसे कुछ ना लेता हूं।…

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Added by Rohit Dubey "योद्धा " on June 5, 2018 at 11:00am — 4 Comments

ग़ज़ल

2122 2122 2122 212

मुद्दतों के बाद उल्फ़त में इज़ाफ़त सी लगी

। आज फिर उसकी अदा मुझको इनायत सी लगी ।।

हुस्न में बसता है रब यह बात राहत सी लगी ।

आप पर ठहरी नज़र कुछ तो इबादत सी लगी ।।

क़त्ल का तंजीम से जारी हुआ फ़तवा मगर

। हौसलों से जिंदगी अब तक सलामत सी लगी ।।

बारहा लिखता रहा जो ख़त में सारी तुहमतें ।

उम्र भर की आशिक़ी उसको शिक़ायत सी लगी ।।

मुस्कुरा कर और फिर परदे में जाना आपका ।

बस यही हरकत…

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Added by Naveen Mani Tripathi on June 4, 2018 at 11:03pm — 8 Comments

अच्छे दिन

क्या बरखा जब कृषि सुखानी।

ना जाने कब धरती हिल जानी।।

सूख न जाए आंखों का पानी।,

सपने हो गए अच्छे दिन,

याद आ रही नानी.

 

अबहूँ न आए, कब आएंगे

या करते प्रतीक्षा खप जाएँगे?

इन्तजार करते करते, हो गई कितनी देर

कब आएँगे पता नहीं, कैसे दिनन के फेर?

 

रामराज सपना हुआ, वादे अभी हैं बाकी

कह अमृत अब पानी भी, नहीं पिलावे साकी!

अब तक तो रखी सब ने, इस सिक्के की टेक

चलनी जितनी चली चवन्नी, फेंक…

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Added by डा॰ सुरेन्द्र कुमार वर्मा on June 4, 2018 at 5:00pm — No Comments

भविष्य के जनक [कविता]

जल्दी चलो माँ,जल्दी चलो बावा,

देर होती हैं,चलो ना,बुआ-चाचा,

बन ठनकर हंसते-मुस्कराते जाते,

परीक्षा फल सुनने को अकुलाते,

मैदान में परिजन संग बच्चों का तांता कतार बद्ध थे,

विराजमान शिक्षकों के माथे पर बल पड़े हुए  थे,…

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Added by babitagupta on June 3, 2018 at 7:33pm — 5 Comments

पराई मछलियाँ

कलावती से आज मैं पहली बार अकेले नेहरु पार्क में मिल रहा था |इससे पहले उससे विज्ञान मेले में मिला था |वहीं पर उससे मुलकात हुई थी |उसका माडल मेरे माडल के साथ ही था |वह हमेशा खोई-खोई और उदास लगती थी |मैंने ही उससे बात शुरू की और पत्नी द्वारा बनाया गया टिफ़िन शेयर किया |लाख कोशिशों के बाद वह ज़्यादा नहीं खुली पर बात-बात में पता चला की वह अपने पति से अलग अपने बेटे को लेकर मायके में रहती है |उसकी नौकरी पक्की नहीं है और वह अपने और बेटे के भविष्य को लेकर काफ़ी परेशान है |विज्ञान मेले के आखिरी दिन मैंने…

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Added by somesh kumar on June 3, 2018 at 5:30pm — No Comments

क्या सबब था...संतोष

अरकान फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन

क्या सबब था,किसलिये दुनिया से मैं डरता रहा

सर झुका कर जिसने जो भी कह दिया करता रहा



सी दिया था मेरे होटों को ज़माने ने मगर

ज़िक्र सुब्ह-ओ-शाम तेरा फिर भी मैं करता रहा



ज़िन्दगी के रास्ते में ज़ख़्म जो मुझको मिले

चुपके चुपके प्यार के मरहम से वो भरता रहा



जाते जाते वो मुझे कह कर गये थे इसलिये

लम्हा लम्हा ज़िन्दगी जीता रहा मरता रहा



सादगी की मैंने ये क़ीमत चुकाई उम्र…

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Added by santosh khirwadkar on June 3, 2018 at 4:34pm — 12 Comments

अधूरी जिंदगी(लघु कथा)

कुछ लोग दार जी के पास चुपचाप बैठे,अफ़सोस जता रहे थे। छोटी बहू हर आने वाले को चाय पानी प्रदान कर रही थी। इस मोहल्ले में दार जी ही पुराने रहने वाले हैं,बाकी लोग यहाँ दंगों के बाद आ कर अस्थाई तौर से रह रहे हैं। मगर मानवता के रिश्ते से अब ये लोग यहाँ आ कर बैठे हैं।

"बाऊ जी अब कैसा महसूस कर रहे हो" राम प्रकाश ने पास बैठते हुए कहा।

“किस के बारे”, दार जी ने कहा।…

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Added by Mohan Begowal on June 3, 2018 at 12:00am — 4 Comments

एलियंस /लघुकथा

पहाड़ की चोटी पर बैठा हुआ वह युवक अभी भी एंटीने से जूझ रहा था।

आज से कई साल पहले जब गाँव का सबसे ज़्यादा पढ़ा-लिखा युवक शहर से पहली बार टीवी लेकर आया था तो सब लोग बेहद ख़ुश थे। नारियल, अगरबत्ती और फूल-माला से स्वागत किया था सबने उसका। मगर जल्द ही, ‘‘ये टीवी ख़राब है क्या? इसमें हमारी ख़बर तो आती ही नहीं।’’ बुज़ुर्ग की बात से उस युवक के साथ-साथ बाकी गाँव वालों का भी माथा ठनका। ‘‘अरे हाँ! इसमें तो सिर्फ़ शहरों की ही ख़बरें आती हैं, गाँव का तो कहीं कोई नाम ही नहीं।’’ सबने तय किया कि शहर…

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Added by Mahendra Kumar on June 2, 2018 at 6:00pm — 6 Comments

एक गजल- अगर रात है रात कहूँगा

चाहत की परवाज अलग है

उसका हर अंदाज अलग है

ताजमहल की क्या है’ जरूरत  

अपनी ये मुमताज अलग है

 

सुन पाते हैं केवल हम ही

अपने दिल का साज अलग है

 

मन की बातें मन में…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 2, 2018 at 4:00pm — 9 Comments

अँधेरे का डर (लघुकथा )



जब भी सुरेन्द्र बात करता हौसला उसकी बातों से अकसर झलकता, काम करवाने के लिए जब भी कोई उसके दफ्तर में आता उसी का हो कर रह जाता |

मुश्किल पलों में भी वह मजाक को साथ नहीं छोड़ने देता, और जिन्दगी का हिस्सा बना लिया |

जब सुरेन्द्र सफर में होता तो ऐसा कभी न होता कि सफर करते हुए कोई आकह्त महसूस होती हो उसे, वह तो साथ बैठे से ऐसी बात शुरू करता कि सफर खत्म होने तक वह  शख्स उसी का हो जाता |

मगर आज ऐसा नहीं था, बस उस के लिए अनजान सफर में जा रही थी, जिस पर वह सवार था |

जो कुछ…

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Added by Mohan Begowal on June 1, 2018 at 8:00pm — 2 Comments

अम्बर को पाती भिजवाई -एक गीत

अम्बर को पाती भिजवाई,

व्याकुल होकर धरती ने.

 

सभी जरूरी संसाधन दे,

नर को जीना सिखलाया.

मर्यादा का पालन लेकिन,

कभी कहाँ वह कर पाया.

 

अपने मन की बात बताई,…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on June 1, 2018 at 4:01pm — 14 Comments

आख़िर कब तक?

श्री लता को अचानक ऑय सी यू में भर्ती कराने की ख़बर सुन रानी अपने दफ़्तर से निकल, आनन् फ़ानन में कुछ इस तरह गाड़ी चलाते हुए अस्पताल की तरफ लपकी, जैसे वो अपनी बहन को आखिरी बार देखने जा रही हो। श्री लता कमरा नंबर १० जो की ऑय सी यू वार्ड था में भर्ती थी। दर और घबराहट के साथ रीना रिसेप्शन पर पहुंची और पहुँचते ही उसने डॉक्टर की सुध ली।

मैडम, डॉक्टर साहेब तो जा चुके हैं, आप कल आइएगा। 

ये सुनना था कि रानी का कलेजा मुँह को आ गया। मेरी बहन अभी कुछ समय पहले ही ऑय सी यू में भर्ती हुई है, श्री…

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Added by Usha on June 1, 2018 at 9:34am — 8 Comments

ग़ज़ल

2122 1212 22

यूँ    दुपट्टा    बहुत    उड़ा   कोई ।

जाने   कैसी   चली   हवा   कोई ।।

उम्र  भर  हुस्न  की सियासत से ।

बे   मुरव्वत   छला  गया   कोई ।।

याद उसकी चुभा  गयी  नस्तर ।

दर्द   से   रात भर  जगा  कोई।।

ख़्वाहिशें इस क़दर थीं बेक़ाबू ।

फिर  नज़र  से उतर  गया  कोई ।।

वो सँवर कर गली से निकला है ।…

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Added by Naveen Mani Tripathi on May 31, 2018 at 8:20pm — 4 Comments

गुंजन या हुंकार (लघुकथा)

... और अब वे वहां भी पहुंच गये! भव्य आदर-सत्कार के बाद उन्हें उनकी पसंद की जगह पहुंचाने पर एक वरिष्ठ मेजबान ने कहा - "सुना है ... टीवी पर देखा भी है कि जिस मुल्क में आप जाते हैं, कोई न कोई वाद्य-यंत्र ज़रूर बजाते हैंं!"



"क्या कहा? कौन सा तंत्र?"



"लोकतंत्र नहीं कहा मैंने! वाद्ययंत्र कहा .. वा..द्ययंत्र!"



"हे हे हे! दोनों अय..कही.. बात हय! यंत्र में मंत्र और तंत्र हय! वाद्ययंत्र कह लो या लोकतंत्र; बजाने में ग़ज़ब की अनुभूति होती है, हे हे हे! बताइए इसे भी बजा…

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Added by Sheikh Shahzad Usmani on May 31, 2018 at 6:06pm — 4 Comments

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