जरा ज़ुल्फें हटाओ चाँद का दीदार मैं कर लूँ !
बस्ल की रात है तुमसे जरा सा प्यार मैं कर लूँ !!
बड़ी शोखी लिए बैठा हूँ यूँ तो अपने दामन में !
इजाजत हो अगरतो इनको हदके पार मैंकरलूँ!!
मुआलिज है तू दर्दे दिल का ये अग़यार कहते हैं!
हरीमे यार में खुद को जरा बीमार मैं कर लूँ !!
यूँ ही बैठे रहें इकदूजे के आगोश में शबभर !
जमाना देख ना पाये कोई दीवार मैं कर लूँ !!
तुझे लेकर के बाहों में लब-ए-शीरीं को मैं चूमूँ !
कि होके बेगरज़ अब इकनहीं…
Added by रक्षिता सिंह on June 28, 2018 at 3:16pm — 11 Comments
"इन दरख़्तों के टुकड़े हज़ार हुए कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा; कोई यहां गया, कोई वहां गया !" कटे हुए पेड़ों के शेष ठूंठों और उनकी कराहती जड़ों की ओर निहारते हुए पड़ोसी पेड़ अपनी शाखाओं का रुख़ ज़मीं की ओर करते हुए एक फ़िल्मी नग़में की तर्ज़ पर शोक-गीत गाने लगे।
"ये शहादत खाली नहीं जायेगी! दिल्ली की खिल्ली उड़वा रहे हैं दुनिया में शेख़ चिल्ली!" पास के एक ऊंचे से पेड़ ने अपना अंतिम अट्टाहास करते हुए कहा।
"नये दरख़्त कितने भी कहीं भी लगवा लें, न तो उनके बीज और जड़ों की वह गुणवत्ता…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 28, 2018 at 6:30am — 9 Comments
विषाक्त उजाले :
कितना लालायित था
बाहर की दुनिया से
मिलने के लिए
दम घुटने लगा था मेरा
अंदर ही अंदर
गर्भ के
घुप अँधेरे में
रोशनी से
आलिंगनबद्ध होने के लिए
जब से
गर्भ से निकला हूँ
जी रहा हूँ
अपनी ही अंतस में
चुपचाप सा
यही सोचते हुए
क्या इन्हीं
विषाक्त
उजालों के लिए
जीव
गर्भ के
अन्धकार का
त्याग करता है
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 27, 2018 at 6:18pm — 6 Comments
संवेदनाओं की पथरीली चोटी पर बैठकर
अपने रिसते हुए घावों को देखता हुआ
ये कौन है
जो कभी कुत्ते की तरह
जीभ से उन्हें चाटता है
तो कभी मुट्ठी में नमक भर कर
उनमें उड़ेल देता है
और फिर एक तपस्वी की तरह
ध्यान लगाकर सुनता है
अपनी आहों और कराहों को?
पत्थरों को उठा कर
अपने लहू में डुबा कर
भावनाओं की लहरों पर बैठे हुए
कौन लिख रहा है उनसे
अपना मृत्यु लेख?
किसी फन्दे पर लटक कर
एक पल में शान्ति से गुज़र जाने की अपेक्षा…
Added by Mahendra Kumar on June 27, 2018 at 9:03am — 4 Comments
विकास के नाम पर
व्यापार के दाम पर,
धनाढ्य, नेता, मंत्री,
बाबाजी सब काम पर!
इंसानियत होम कर,
अनुलोम-विलोम सा
हेर-फेर कर!
बच्चों, नारी,
ग़रीब, किसान
घेर कर!
पड़ोसियों से बैर कर,
रिश्ते-नातों को
तजकर, बेच कर!
या रिश्तों के नाम
जाम, दाम, नाम
लगाकर,
दूर के आभासी
अनजाने से
रिश्ते थाम कर,
मर्यादाओं को लांघ कर,
मानव-अंग उघाड़ कर,
येन-केन-प्रकारेण
अंग-निर्वस्त्रीकरण कर,
निज-स्वतंत्रता,…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 27, 2018 at 6:00am — 2 Comments
2122 1212 22
गुल जो सूखा किताब में देखा ।
आपको फिर से ख़्वाब में देखा ।।
बारहा चाँद की नज़ाक़त को ।
झाँक कर वह नकाब में देखा ।।
मैकदे में गया हूँ जब भी मैं ।
तेरा चेहरा शराब में देखा ।।
वस्ल जब भी लगा मुनासिब तो।
कोई हड्डी कबाब में देखा ।।
तोड़ पाता उसे भला कैसे ।
हुस्न उसका गुलाब में देखा ।।
डाल कर फूल राह में सबके ।
मैंने पत्थर जबाब में देखा ।।
लुट गईं रोटियां गरीबों…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on June 26, 2018 at 9:43pm — 16 Comments
क़लम लाचार है
विरोध की तेज़ धार है
घोषणाएँ जारी हैं
ग़रीब का भूखा पेट भी आभारी है
झोंपड़ियों के ऐब सारे ढँक गए
ग़रीब के घर बेबसी की बीमारी है
संसद में भूख का आँकड़ा गरमा रहा है
रहनुमा विकास का तराना गुनगुना रहा है
धर्म के ठेकेदारों की दबंगई है
ईमान की बोली सस्ती लगी है
दहशत में सबकुछ फलफूल रहा है
मदारी ख़ुद झूठ के बाँस पर चल रहा है
बहुत तरक़्की हो चुकी है
चैन की बाँसुरी भी सुर खो चुकी है
सरकार का चरित्र साफ़-साफ़ नज़र आ रहा है…
Added by Mohammed Arif on June 26, 2018 at 8:30am — 17 Comments
दुर्मिल सवैया
अबला नहिं आज रही महिला, सबला बन राज करे जगती।
मुहताज नहीं सब काज करे, मन ओज अदम्य सदा भरती ।।
धरती नभ नाप रही पल में, प्रतिमान नये नित है गढ़ती।
यह बात सभी जन मान गये, अब नार नहीं अबला फबती।१।
परिधान हरा तन धार खुशी, ललना गल धीरज हार गहा।
सिर बाँध दुकूल उमंग नया, मन केशरिया रँग आज लहा।।
शुभ कंगन साहस हाथ भरा, मुख आस सुहास विराज रहा।
पथ उन्नति एक चुना उसने, बिसरे सब पंथ विराग…
ContinueAdded by Satyanarayan Singh on June 25, 2018 at 8:26pm — 13 Comments
दुकान के चबूतरे पर चारों मित्र एकदम चौंकते हुए खड़े होकर अपने-अपने धर्म के सिखाये मुताबिक़ कुछ उच्चारण करते हुए अर्थी में ले जाये रहे मृतक को नमन कर श्रद्धांजलि देने लगे।
"ओह, इनके घरवालों को यह सदमा बरदाश्त करने की शक्ति दे! इन्हें स्वर्ग में स्थान दे!" अशरफ़ ने आसमान की ओर देखते हुए कुछ ऐसा ही उच्चारित किया।
"अबे, तू तो हमेशा उर्दू-अरबी में कुछ बोलता है न मय्यत पर! जन्नतनशीं और तौफ़ीक़ जैसे लफ़्ज़ों में!" रामलाल ने उसे टोक ही दिया।
"दरअसल तुम्हारे 'स्वर्ग' और…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 25, 2018 at 7:25pm — 6 Comments
फाइलातुन फाइलातुन फाइलातुन
दर्द अपना यूँ सर-ए-बाज़ार कर के
क्या मिलेगा वक़्त से तक़रार कर के
कुछ नहीं हासिल,समझते क्यों नहीं हो
गम उठाना आह भरना प्यार कर के
सामने उस मोड़ पर कुछ अनमना सा
शख़्स इक बैठा है सब न्योछार कर के
बन्दगी उल्फत है मैं था इस गुमां में
वो नहीं आया अना को पार कर के
दिल जला के रौशनी होती नहीं है
ये भी 'ब्रज' ने देखा है सौ बार कर के
(मौलिक एवं अप्रकाशित)…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 25, 2018 at 6:00pm — 23 Comments
क्या है कविता?
भाव-प्रवण शब्दों का
मोहक जाल
डम-डम, डिम-डिम
ध्वनियों का कमाल
प्रकृति में गुंजायमान,
अनहत नाद?
स्यात, प्रणय का…
ContinueAdded by SudhenduOjha on June 25, 2018 at 5:14pm — No Comments
संसद भवन के बाहर भूख हड़ताल पर बैठे हुए उन युवाओं को दो महीनों से अधिक का समय हो गया था पर न तो किसी अख़बार में इसकी कोई ख़बर थी और न ही न्यूज़ चैनल्स पर चर्चा।
“इन बेरोज़गार लौंडों के पास अब कोई काम नहीं रह गया है।” बड़ी-बड़ी मूँछों वाले उस स्थानीय बुज़ुर्ग ने अपने पास खड़े अधेड़ से कहा। “कुछ नहीं मिला तो सरकार को ही बदनाम करने में लग गए।”
“कह क्या रहे हैं ये लोग?” अधेड़ ने जिज्ञासा व्यक्त की।
“कह रहे हैं कि जब देश की जनता भूखों मर रही है तो कोई…
ContinueAdded by Mahendra Kumar on June 25, 2018 at 4:30pm — 9 Comments
अरण्य घन
सुन स्वर लहरी
मादल थाप
पवन मंद
बिखरे मकरंद
नव अंकुर
ढीठ हवाएँ
पत्ते बुहार रहीं
पतझड़ में
पर्वत नाले
पार करती चली
चंचल नदी
मेघ ढिठौना
तपते आकाश में
बरसेगा क्या
… मौलिक एवं अप्रकाशित
(मादल की थाप का प्रसंग आशापूर्ण देवी जी की कहानी से )
Added by Neelam Upadhyaya on June 25, 2018 at 3:00pm — No Comments
सुबह जरूर आयेगी - लघुकथा –
वह रात सूरज और संध्या के जीवन की ऐसी रात थी कि दोनों की ही अग्नि परीक्षा की घड़ी आगयी थी। कौन खरा उतरेगा , यह तो ऊपर वाला ही तय करेगा ।
दोनों की शादी को जुम्मे जुम्मे आठ दिन भी नहीं हुए थे कि दोनों ने अकेले पिक्चर देखने, वह भी नाइट शो, का प्रोग्राम बना लिया। शहर के बिगड़े माहौल को देखते हुए घर में कोई भी उनके इस फ़ैसले से खुश नहीं था। मगर सूरज की ज़िद और अति आत्मविश्वास के आगे सब चुप थे। क्योंकि वह एक फ़ौज़ी अफ़सर जो था।
फ़िल्म देखकर निकले तो सूरज…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on June 25, 2018 at 12:40pm — 12 Comments
अदेह रूप ...
सर्वविदित है
देह का शून्यता में
विलीन होना
निश्चित है
मगर
अदेह चेतना
सृष्टि में व्याप्त
चैतन्य कणों से
निर्मित
आदि अंत से मुक्त
अनंत
अभिश्रुति की
अभिव्यंजना है
मुझे तुमसे मिलने के लिए
उन अदृश्य कणों से निर्मित
धागों की अदेह को
अपने चेतन में
अवतरित करना होगा
मैं
मेरी देह सी
अतृप्त नहीं रह सकती
मैं
तुमसे
अवश्य मिलूंगी
अपने
अदेह रूप…
ContinueAdded by Sushil Sarna on June 25, 2018 at 11:59am — 10 Comments
अकस्मात मीनू के जीवन में कैसी दुविधा आन पड़ी????जिन्दगी में अजीब सा सन्नाटा छा गया.मीनू ने जेठ-जिठानी के कहने पर ही उनकी झोली में खुशियाँ डालने के लिए यह कदम उठाया था लेकिन...पहले से इस तरह का अंदेशा भी होता तो शायद....चंद दिनों पूर्व जिन ख्यावों में डूबी हुई थी,वो आज दिवास्वप्न सा लग रहा था....
तेरे पर्दापर्ण की खबर सुन किलकारी सुनने को व्याकुल थे.....तब तेरे अस्तित्व से वो अपरिचित थे तो जिठानी जी की दुःख…
ContinueAdded by babitagupta on June 24, 2018 at 3:00pm — 8 Comments
अमर हो गयी .. (लघु रचना )
स्मृति गर्भ में
एक शिला
साकार हो उठी
भाव अस्तित्व
उदित हुआ
शिला की दरारों से
आसक्ति
अदृश्यता की घाटियों से
प्रवाहित हो
स्मृतियों वीचियों पर
अक्षय पल सी
सुवासित हो
अमर हो गयी
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 24, 2018 at 1:27pm — 8 Comments
2122 2122 2122 212
दूरियां नजदीकियां बन तो गयी हैं आजकल
पास रहते लोग से हम दूर कितने हो गए
माँ पिता सारे मरासिम गुम हुए इस दौर में
रोटियों के फेर में मजबूर कितने हो गए
भूल जाओगे मुझे तुम एक दिन मालूम था
इश्क में मेरे मगर मशहूर कितने हो गए
पत्थरों पर सर पटककर फायदा कोई नहीं
उसके दर पर ख्वाब चकनाचूर कितने हो गए
रात काली नागिनों सी डस रही है आजकल
हमनशीं थे कल तलक मगरूर…
ContinueAdded by Neeraj Neer on June 24, 2018 at 11:35am — 20 Comments
काल कोठरी
निस्तब्धता
अँधेरे का फैलाव
दिशा से दिशा तक काला आकाश
रात भी है मानो ठोस अँधेरे की
एक बहुत बड़ी कोठरी
सोचता हूँ तुम भी कहीं …
ContinueAdded by vijay nikore on June 24, 2018 at 1:22am — 37 Comments
2122 2122 212
जख्म देकर मुस्कुराना आ गया ।
आपको तो दिल जलाना आ गया ।।
काफिरों की ख़्वाहिशें तो देखिये ।
मस्जिदों में सर झुकाना आ गया ।।
दे गयी बस इल्म इतना मुफलिसी ।
दोस्तों को आजमाना आ गया ।।
एक आवारा सा बादल देखकर ।
आज मौसम आशिकाना आ गया ।।
क्या उन्हें तन्हाइयां डसने लगीं ।
बा अदब वादा…
Added by Naveen Mani Tripathi on June 23, 2018 at 4:24pm — 19 Comments
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