जाने के बाद ... लघु रचना
गुज़र गयी
एक आंधी
तुम्हारे स्पर्शों की
मेरी देह की ख़ामोश राहों से
समेटती हूँ
आज तक
मोहब्बत की चादर पर
वो बिखरे हुए लम्हे
तुम्हारे
जाने के बाद
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on June 23, 2018 at 4:00pm — 12 Comments
Added by Sarthak on June 22, 2018 at 11:19pm — 7 Comments
है धुआँ-धक्कड़ और बवाल
चेहरे-चेहरे लिक्खे सवाल
कर नेकी दरिया में डाल
बाबा खेल-खिलांवे भइय्या
नाचे भक्तिन ताल-तलईय्या
चोर सियार सब होशियार
मूड़ी काटे भए चमार
ये सूअर हैं, हरामखोर हैं
इनकी लें हम उतार खाल
(उपरोक्त पंक्तियाँ ढोंगी बाबाओं के संदर्भ में हैं)
है धुआँ-धक्कड़ और बवाल
चेहरे-चेहरे लिक्खे सवाल
कर नेकी दरिया में डाल
जात अहीर, अहीरन के साथे
देश-मुल्क अब किसके…
ContinueAdded by SudhenduOjha on June 22, 2018 at 7:30pm — No Comments
“कितने हसीन थे वो दिन जब पूरे आसमान पर अकेले मेरा राज हुआ करता था।” अपनी पतंग को माँझे से बाँधते हुए छोटा सा वह लड़का अपने सुनहरे अतीत में खो गया।
अपने मोहल्ले में तब वो अकेले ही पतंग उड़ाने वाला हुआ करता था। न तो उसे कोई रोकने वाला था और न ही टोकने वाला। वह पूरी तरह से स्वतंत्र था। उस वक़्त उसकी बस एक ही हसरत होती, “एक दिन अपनी पतंग चाँद तक ले जाऊँगा।”
मगर यह ज़्यादा दिन चला नहीं। धीरे-धीरे उसके मोहल्ले में दूसरे पतंगबाज़ भी आने लगे। उनके आते ही आसमान में…
ContinueAdded by Mahendra Kumar on June 22, 2018 at 5:37pm — 8 Comments
मोबाइल पर मेल का नोटिफिकेशन देख मोहन की आँखें चमक उठीं।शायद पायल का मेल हो।जल्दी से मेल खोला..हाँ ,ठीक 17 दिन बाद पायल का मेल था।अक्सर मेल नोटिफिकेशन देख खिल जाता है मोहन लेकिन अक्सर मायूसी ही हाथ लगती।खैर देखूं तो सही क्या लिखा है...अपने चश्मे को ठीक करता हुआ मोहन मेल पढ़ने लगा।"56 को हो गईं हूँ मैं और आप भी 60-65 तो होंगे ही,अब तो बता दो क्या मायने रखती हूँ मैं?और क्यों?" पिछले 40 सालों से ये सवाल कई बार पूछा था पायल ने लेकिन "कुछ सवालों को लाजबाब रहने दो" कह कर हर बार टाल गया मोहन।पर…
ContinueAdded by बृजेश कुमार 'ब्रज' on June 22, 2018 at 5:30pm — 20 Comments
इक आवारा तितली सी मैं
उड़ती फिरती थी सड़कों पे...
दौड़ा करती थी राहों पे
इक चंचल हिरनी के जैसे ...
इक कदम यहाँ इक कदम वहाँ
बेपरवाह घूमा करती थी...
कर उछल कूद ऊँचे वृक्षों के
पत्ते चूमा करती थी...
चलते चलते यूँ ही लब पर
जो गीत मधुर आ जाता था...
बदरंग हवाओं में जैसे
सुख का मंजर छा जाता था...
बीते पल की यादों से फिर
मैं मन ही मन भरमाती थी...
इठलाती थी बलखाती थी
लहराती फिर…
Added by रक्षिता सिंह on June 21, 2018 at 11:30pm — 16 Comments
बहुत कुछ , बहुत हास्यास्पद है ,
फिर भी किसी को हंसी आती नहीं।
बहुत कुछ , बहुत दुखदायी है ,
फिर भी आंसू किसी को आते नहीं।… 1.
बाज़ार भी अजीब जगह है
जहां आप शाहंशाह होकर भी
रोज बिक तो सकते हैं , पर एक
दिन को भी अपनी पूरी हुकूमत में ,
पूरा बाज़ार खरीद नहीं सकते ………. 2 .
बहुत शिकायतें हैं हवा से
कि बुझा देती हैं चिरागों को ,
चलो एक चिराग ही बिना
हवा के जला के दिखा दो। ……….. 3…
Added by Dr. Vijai Shanker on June 21, 2018 at 8:30pm — 13 Comments
कुछ क्षणिकाएं :
1
शुष्क काष्ठ
अग्नि से नेह
असंगत आलिंगन
परिणति
मूक अवशेष
................
2
त्वचा हीन
नग्न वृक्ष
अवसन्न खड़े
अकाल अंत की
आहटों के मध्य
.............................
3
ईश्वर
किसी देवता का
सर्जन नहीं
गढ़त है वो
इंसान की
..........................
4
करता रहा
प्रतीक्षा
एक शंख
नाद के लिए
चिर निद्रा में सोये
मरघट में…
Added by Sushil Sarna on June 21, 2018 at 4:04pm — 14 Comments
बातें ...
लम्हों की आग़ोश में
नशीली सी रातों की
शीरीं से अल्फ़ाज़ की
महकती बातें
बे हिज़ाब रातों की
शोख़ी भरी शरारतों की
तन्हाई में भीगी
बरसाती बातें
आँखों के सागर में
जज़्बात की कश्ती में
यादों के साहिल पे
सुलगती बातें
जिस्म की पनाहों में
अनदेखी राहों में
दिल की गुफ़ाओं में
बहकती बातें
मोहब्बत के मौसम में
आँखों की शबनम में
ग़ज़ल की करवटों…
Added by Sushil Sarna on June 21, 2018 at 12:30pm — 14 Comments
गंगा सूख गयी - लघुकथा –
प्यारी "माँ"
तुम्हारी ऊँच नीच की तमाम नसीहतों को दरकिनार करते हुए, मैंने अपने परिवार से बड़े और धनवान खानदान के रवि से प्रेम विवाह किया था। हालांकि हम सब बहुत खुश थे। मेरे प्रति सब का व्यवहार बेहद आत्मीय था।
एक साल बाद गुड़िया ने जन्म लिया। अचानक से परिवार के लोगों का नज़रिया बदल गया। शायद सब को पुत्र की चाहत थी। गुड़िया को तो कोई भी गोद लेना तो दूर, छूता तक नहीं था। यहाँ तक कि रवि, उसका पिता होने के बावज़ूद , उसे प्यार नहीं करता था। मुझे यह सब बहुत…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on June 21, 2018 at 8:47am — 16 Comments
कश्मीर अभी ज़िंदा है आँसू गैस में
डल झील की बर्फ में फैले ख़ून में
जवान बेटे की मौत पर दहाड़े मारती माँ में
ईद की खुशियों में शामिल होते मातम में
जवान बेटों के अगवा होने में
आतंकियों के दुष्कर्म में
कश्मीर अभी ज़िंदा है सीज़फायर उल्लंघन में
बर्फ की वादियों में ख़ून के कोहरे में
डरी सहमी , सिसकती रंगीन कालीनों में
गलियों , चौराहों से रोज़ गुज़रते जनाज़ों में
बंद खिड़की , दरवाज़ों से झाँकते मासूमों में
देश विरोधी तकरीरों में
कश्मीर अभी ज़िंदा है जलती…
Added by Mohammed Arif on June 21, 2018 at 12:58am — 18 Comments
“तुम चिन्ता मत करो। मैं तुम्हें कल ही उस नर्क से दूर ले जाऊँगा।”
आज से कई दिन पहले। “ये आदमी नहीं जानवर है।” पाखी ने अपने पिता से एक बार फिर कहा। “मुझसे रोज शराब पी के मारपीट करता है। वो भी बिना किसी बात के। बस आप मुझे यहाँ से ले जाइए।”
“शादी के बाद ससुराल ही लड़की का असली घर होता है बेटी। थोड़ा सहन करो। समय सब ठीक कर देगा।” और पिता ने एक बार फिर वही जवाब दिया।
“माँ, तुम तो मुझे समझो। या तुम भी पिता जी की तरह?” पर माँ भी समझने से ज़्यादा समझाने पर…
ContinueAdded by Mahendra Kumar on June 20, 2018 at 6:14pm — 6 Comments
राह किसी की कहाँ रोकते,
हट जाते हैं पेड़
इसकी, उसकी, सबकी खातिर,
कट जाते हैं पेड़
तपन धूप की खुद सह लेते
देते सबको शीतल छाया.
पत्ते, छाल, तना, जड़, सब कुछ,…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on June 20, 2018 at 4:00pm — 16 Comments
अंबर अटा
रेगिस्तानी धूल से
जीना मुहाल
चढ़ती धूप
सुस्ताने भर ढूँढे
टुकड़ा छांव
खड़ी है धूप
छांव से सटकर
प्रतीक्षा सांझ
कटते पेड़
मौन रोता जंगल
सुनता कौन
… मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Neelam Upadhyaya on June 20, 2018 at 3:30pm — 12 Comments
धोबन ढेर सारे कपड़़े धोकर छत पर बंधे तार पर क्लिप लगा कर सूखने डाल गई थी। कुछ ही देर में तेज़ हवायें आंधी का रूप ले चुकीं थीं। घर में कोई कपड़ों की सुध नहीं ले रहा था। वे असहाय से कपड़़े अब हवा के रुख़ के संग फड़फड़ाने लगे थे।
"बड़ा मज़ा आ रहा है! अब मैं ज़ल्दी से सूख कर राहत पाऊंंगी।" तार में लगे क्लिप और आंधी के साथ अपना संतुलन बनाते हुए एक पोषाक ने कहा।
"मुझे तो कुछ समझ में नहीं आ रहा कि कैसे संभालूं अपने आप को!" एक छोटी सी आधुनिक फैशनेबल पोषाक ने क्लिप संग सब तरफ़ झूमते हुए…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 19, 2018 at 10:46pm — 7 Comments
जाहिल हैं कुछ लोग,
तुम्हें काफ़िर लिखते हैं।
अहले दीन की सुनो, तुम्हें ज़ाकिर लिखते हैं॥
वो जो इल्म के जानिब,
शमशीर ले कर निकला।
बाक़ी हैं कुछ लोग, उसे माहिर लिखते हैं॥
तड़पती प्यास लेकर आए
थे तुम जो सहरा से।
प्यार…
Added by SudhenduOjha on June 19, 2018 at 6:42pm — No Comments
चुनावी घोषणायें - लघुकथा –
मंच से नेताजी अपने चुनावी भाषण में आम जनता के लिये लंबी लंबी घोषणायें राशन की तरह बाँट रहे थे।
"अरे साहब यह सब घोषणायें तो घिसी पिटी हैं। हर चुनाव में दोहराई जाती हैं"। नीचे से एक गाँव का आदमी चिल्लाया।
नेताजी ने मुस्कुराते हुए अपनी दाढ़ी पर हाथ फ़िराते हुए कहा,"अब मैं ऐसी घोषणा करने जा रहा हूँ जो इस देश के इतिहास में पहली बार होगा"।
सारे श्रोता गण एकाग्र होकर साँस रोक कर नेताजी की अगली घोषणा का इंतज़ार करने लगे।
"हमारी सरकार एक…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on June 19, 2018 at 1:00pm — 16 Comments
(फाइलातुन _मफाइलुन_फेलुन)
कोई मुश्किल ज़रूर आनी है |
हो गई उनकी महरबानी है |
तिशनगी जो बुझाए लोगों की
तुझ में सागर कहाँ वो पानी है |
और मुझ से वो हो गए बद ज़न
बात यारों की जब से मानी है |
खा गई घर का चैन मँहगाई
उनकी जिस दिन से हुक्म रानी है |
ज़ख्म तू ने दिए हैं ले कर दिल
जुल की फितरत तेरी पुरानी है |
इंक़लाब आए क्यूँ न बस्ती में
उन पे आई गज़ब जवानी है…
Added by Tasdiq Ahmed Khan on June 19, 2018 at 9:30am — 17 Comments
उम्रभर।
मोतबर।।
मुश्किलें।
तू न डर।।
ताकती।
इक नज़र।।
धूप में।
है शज़र।।
वो तेरा।
फिक्र कर।।
रात थी।
अब सहर।।
इश्क़ ही।
शै अमर।।
मौलिक/अप्रकाशित
राम शिरोमणि पाठक
Added by ram shiromani pathak on June 19, 2018 at 8:29am — 10 Comments
तपती धूप,
जर्जर शरीर,
फुटपाथ का किनारा,
बदन पर पसीना,
किसी के आने के इन्तजार में...
पथराई सी आँखें,
घुटनों पर मुँह रखे-
एक टक, एक ही दिशा में देख रही थीं...
- ना जाने कब से?
यूँ तो सामने दो छतरी पड़ी थीं, पर
कड़ी धूप में जल-जल के,
बदन काला पड़ गया था ....
रंग बिरंगे रूमाल -
सजे तो बहुत थे, पर
जिस्म पसीने में लथपथ था....
सफेद बाल,
तजुर्बों की गबाही दे रहे थे....
जिस्म पर लटकती खाल…
Added by रक्षिता सिंह on June 19, 2018 at 6:30am — 11 Comments
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