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ग़ज़ल नूर की -तू जहाँ कह रहा है वहीं देखना

तू जहाँ कह रहा है वहीं देखना

शर्त ये है तो फिर.. जा नहीं देखना.

.

जीतना हो अगर जंग तो सीखिये

हो निशाना कहीं औ कहीं देखना.

.

खो दिया गर मुझे तो झटक लेना दिल

धडकनों में मिलूँगा..... वहीँ देखना.

.

देखता ही रहा... इश्क़ भी ढीठ है

हुस्न कहता रहा अब नहीं देखना.

.

कितना आसाँ है कहना किया कुछ नहीं

मुश्किलें हमने क्या क्या सहीं देखना.

.

एक पल जा मिली “नूर” से जब नज़र

मुझ को आया नहीं फिर कहीं देखना.

.

निलेश…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 6, 2018 at 8:30pm — 11 Comments

हास्य, जीवन की एक पूंजी. .....(कविता, अंतर्राष्ट्रीय हास्य दिवस पर)

कुदरत की सबसे बडी नेमत है हंसी, 

ईश्वरीय प्रदत्त वरदान है हंसी, 

मानव में समभाव रखती हैं हंसी, 

जिन्दगी को पूरा स्वाद देती हैं हंसी, 

बिना माल के मालामाल करने वाली पूंजी है हास्य, 

साहित्य के नव रसो में एक रस  होता हैं हास्य,

मायूसी छाई जीवन में जादू सा काम करती हैं हंसी,

तेज भागती दुनियां में मेडिटेशन का काम करती हैं हंसी, 

नीरसता, मायूसी हटा, मन मस्तिष्क को दुरुस्त करती हैं हंसी, 

पलों को यादगार बना, जीने की एक नई दिशा देती हैं…

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Added by babitagupta on May 6, 2018 at 5:30pm — 4 Comments

हमारा घर कोई सहरा नहीं था

उजाले का वहाँ पहरा नहीं था ।

कभी सूरज जहाँ ढलता नहीं था ।।1

बहा ले जाए तुमको साथ अपने ।

वो सावन का कोई दरिया नहींथा।।2

मेरे महबूब की महफ़िल सजी थी ।

मगर मेरा कोई चर्चा नहीं था ।।3

मैं देता दिल भला कैसे बताएं ।

सही कुछ आपका लहज़ा नहीं था ।।4

जरा सा ही बरस जाते ऐ बादल ।

हमारा घर कोई सहरा नहीं था ।।5

जले हैं ख्वाब कैसे आपके सब ।

धुंआ घर से कभी उठता नहीं था ।।6

तुम्हारी हरकतें कहने…

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Added by Naveen Mani Tripathi on May 6, 2018 at 4:12pm — 5 Comments

नेता जी - दोहे -लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर'



बढ़ते ही नित जा रहे, खादी पर अब दाग

नेता जी तो सो रहे, जनता तू तो जाग।१।



जन सेवा की भावना, आज बनी व्यापार

चाहे केवल लाभ को, कुर्सी पर अधिकार।२।



मालिक जैसा ठाठ ले, सेवक रखकर नाम

देश तरक्की का भला, कैसे हो फिर काम।३।



नेता जी की चाकरी, तन्त्र करे नित खूब

किस्मत में यूँ देश की, आज जमी है दूब।४।



मुखर हुए निज स्वार्थ हैं, गौंण हो गया देश

नेता खुद  में  मस्त  हैं, क्या  बदले परिवेश।५।



जाति धर्म तक हो गये, सीमित नेता…

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on May 6, 2018 at 3:30pm — 10 Comments

एक उखड़ा-दुखता रास्ता

एक उखड़ा-दुखता रास्ता

(अतुकांत)

कभी बढ़ती, कम न होती दूरी का दुख शामिल

कभी कम होती नज़दीकी का नामंज़ूर आभास

निस्तब्ध हूँ, फड़क रही हैं नाड़ियाँ

देखता हूँ तकलीफ़ भरा बेचैन रास्ता ...

खाली सूनी नज़र से देख रहा है जो कब से

मेरा आना ... मेरा जाना

घूमते-रुकते हताश लौट जाना

कुछ ही देर में फिर चले आना यहाँ

ढूँढने…

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Added by vijay nikore on May 6, 2018 at 11:43am — 14 Comments

ग़ज़ल --- कठिन, सरल का कोई मसअला नहीं होता // दिनेश कुमार

1212---1122--1212--22

.

कठिन, सरल का कोई मसअला नहीं होता

अगर तू ठान ले दिल में तो क्या नहीं होता

.

अगर हो अज़्म तो पत्थर में छेद होता है

हुनर मगर ये सभी को अता नहीं होता

.

हमारे कर्म से प्रारब्ध भी बदलता है

नसीब अपना कभी तयशुदा नहीं होता

.

ये तज्रिबा है हमारा मुशाहिदा भी है

अमीर-ए-शह्र किसी का सगा नहीं होता

.

सितमगरों के इशारों पे खेल होता है

अदालतों में कोई फ़ैसला नहीं होता

.

जुड़ा ही रहता है ममता…

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Added by दिनेश कुमार on May 6, 2018 at 9:00am — 8 Comments

कमाई (लघुकथा)

छुटपुट अंधेरा फैलने लगा था । दलन ने बाहर साइकिल खड़ी और आकर अम्मा के पैर छुए "कार्ड छप गया भौजी तो भगवान के बाद सबसे पहला आपको अर्पण करने आया हूं । "

"जय हो , बाल बच्चा सुखी रहे। अरे हाँ बिटिया ने झुमके के लिए कहा था। बनवा लाये हैं, ले जाओ दिखा देना । एकदम डिट्टो सेम डिजाइन है जैसा रमेश की बहू के लिए बनवाया था। "

अम्मा कार्ड को निहारती हर्ष ने भर गई "अरे बहू आलमारी में जेवरवाला बटुआ होगा नया सा, वो लाकर देना जरा। "

दलन वही जमीन पर पालथी मार के बैठ गया।

अम्मा की बतकही शुरू हो… Continue

Added by Kumar Gourav on May 5, 2018 at 11:04pm — 6 Comments

जमकर नींद सताये रे

इम्तहान के दिन में काहे ,

जमकर नींद सताये रे.

पुस्तक पर जब नजर पड़े ,

तो दुविधा से मन काँप उठे ,

काश,कहीं मिल जाती सुविधा,                                     नइया पार कराये रे .

हर पन्ना पर्वत सा लागे ,

लगे पंक्तियां भी भारी ,

प्रश्नों की तलवार दुधारी ,

रह रह आँख दिखाये रे.

चार दिनों में होना ही है ,

दो दो हाथ पुस्तिका से ,

क्या लिक्खूंगा उत्तर उस पर ,

मन मेरा भरमाये रे…

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Added by Ajay Kumar Sharma on May 5, 2018 at 4:54pm — 3 Comments

अपने भीतर ...

अपने भीतर ...





थक गया था

बरसों तक

अपने भीतर के एकांत को

जीते जीते

इसीलिये

एक दिन

अपने भीतर की दीवार को तोड़

मैं अदृश्य अदेह में

चला गया



अब जब मैं

स्वयं से बहुत दूर जा चुका हूँ

भूल चुका हूँ

भीतर लौटने की

तमाम राहें

तो अब मुझे

उद्वेलित कर रही हैं

अपने भीतर की

तमाम सुखद स्मृतियाँ

जो कभी गुजारी थी

मैंने

अपने भीतर के एकांत में



अब

सम्पूर्ण सृष्टि की भटकन

मेरा… Continue

Added by Sushil Sarna on May 5, 2018 at 4:39pm — 5 Comments

चरित्र - लघुकथा –

चरित्र - लघुकथा –

 "वर्मा साहब, अपना सामान समेट लीजिये। आज और अभी आपको वृद्धाश्रम में जाना है”।

इतना कह कर वह युवक गुस्से में तेजी से निकल गया।

वर्मा जी का मस्तिष्क संज्ञा शून्य हो गया। वह सोचने पर विवश होगये कि आज उनका इकलौता पुत्र किस तरह व्यवहार कर रहा है।

कमिशनर जैसे बड़े पद से सेवा निवृत हुये करीब बारह साल हो गये। इस बीच पत्नी का भी स्वर्गवास हो गया।

"आपने अभी तक पैकिंग नहीं की"? वही युवक पुनः बड़बड़ाते हुये आया|

"अचानक यह फ़ैसला, वह भी बिना मेरी…

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Added by TEJ VEER SINGH on May 5, 2018 at 10:05am — 12 Comments

अस्थिशेष

अस्थिशेष (अतुकांत)



श्रम में तन्मय

अस्थिशेष

बस एक लक्ष्य

बस एक ध्येय

अपना काम

स्वप्न वैभव से दूर

मन तरंग पर हो सवार

कर्म को कर अवधार्य

लघुता का नहीं भार l

कहने को गगनचुंबी अट्टालीकाएँ

अनमोल झरोखे

रंग रोगन रूवाब

झिलमिलाती बत्तियां

मीठे ख्वाब

कंचन सी चमक दमक

ऐसो आराम

बेफिक्र मन प्रमन l

क्या पता ?

सुदूर विजन में

अम्बर तले

एक अदना सा

बेरूप बेनाम

सुखाता चाम

तापता घाम… Continue

Added by डॉ छोटेलाल सिंह on May 5, 2018 at 7:44am — 8 Comments

तस्वीर (लघुकथा)

छोटे के मन में यह बात घर कर गयी थी कि अम्माँ और बाबूजी उसका नहीं बड़े का अधिक ख़याल रखते हैं.

दोनों भाइयों की शादी होने के बाद यह भावना और बलवती हो गयी क्यूँ कि छोटे की बीवी को अपने तरीक़े से जीवन जीने की चाह थी. ऐसे में घर का बँटवारा अवश्यम्भावी था. बाबूजी ने छोटे को समझाने की बहुत कोशिश की , बड़े का हक़ मारकर भी वो दोनों को एक देखने पर राज़ी थे. बड़ा भी कुछ कुर्बानियों के लिए तैयार था अपने भाई के लिये लेकिन छोटे की ज़िद के आगे सब बेकार रहा.

आख़िरकार घर दो हिस्सों में बँट गया और एक हिस्से…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 5, 2018 at 7:30am — 18 Comments

पिघलती हुई मोम

पिघलती हुई मोम

(अतुकांत)

हम दोनों .... दो छायाएँ

अन्धकारमय एकान्त में

फूटे हुए बुलबुलों-सी

सुन्न हो रही भावनाएँ

कितनी नदियों का संगम…

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Added by vijay nikore on May 5, 2018 at 6:00am — 9 Comments

ग़ज़ल -- ये क्या हो गया है भले आदमी को // दिनेश कुमार

122----122----122----122

.

जो आँखों से दिखती नहीं है सभी को

मैं क्यों ढूँढ़ता हूँ उसी रौशनी को

.

जो समझे मेरे दिल की सब अन-कही को

मैं क्या नाम दूँ ऐसे इक अजनबी को

.

सुधारेगा कौन आपके बिन मुझे अब

मुझे डाँटने का था हक़ आप ही को

.

भले रोज़मर्रा में हों मुश्किलें ख़ूब

बहुत प्यार करता हूँ मैं ज़िंदगी को

.

कसौटी पे परखे जो किरदार अपना

भला इतनी फ़ुर्सत कहाँ है किसी को

.

तुम्हें नूरे-जाँ भी दिखेगा इसी में

कभी…

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Added by दिनेश कुमार on May 5, 2018 at 4:46am — 11 Comments

अधूरा रिश्ता (लघुकथा)

वार्ड के बिस्तर पर वह निढ़ाल पड़ा है, डॉक्टर कह रहे हैं कि ये नीला पड़ गया है, उन्होंने पुलिस को भी बुला लिया है |

“नीला तो पैदा होते समय ही था, अब क्या होगा ?”, किसी पास खड़े ने कहा | 

बात निकलती हुई इस पर आ कर रुक गई, सुबह तो नए कपड़े पहन और चौर बाज़ार से खरीदी काली एनक लगा कि गया था 

काले चश्में का एक फायदा तो ये था कि आंख का टीर भी नजर नही आता था |

अभी कुछ दिन हुए घर वाली रब को प्यारी हो गई थी | 

कुछ…

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Added by मोहन बेगोवाल on May 4, 2018 at 10:30pm — 5 Comments

ग़ज़ल

122 122 122 122



मैं जब भी चला छोड़ने मैकशी को ।

अदाएं जगाने लगीं तिश्नगी को ।।1

लिए साथ मैं जी रहा बेखुदी को ।

सजाता रहा होंठ पर बाँसुरी को ।।2

अमीरों की महफ़िल में सज धज के जाना ।

वो देते नहीं अहमियत सादगी को ।।3

है मिलता उसे ही जो रो करके माँगे ।

बिना रोये कब हक़ मिला आदमी को ।।4

पकड़ कर उँगलियों को चलना था सीखा।

दिखाते हैं जो रास्ता अब हमी को ।।5

मुहब्बत हुई इस तरह आप से क्यूँ ।

अभी…

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Added by Naveen Mani Tripathi on May 4, 2018 at 9:58pm — 3 Comments

यहाँ जिंदा की है खबर नहीं यहाँ फोटो पे ही वबाल है

11212 11212 11212 11212 

यहाँ जिंदा की है खबर नहीं यहाँ फोटो पे ही वबाल है

जो टंगी कहीं थी जमाने से खड़ा अब उसी पे सवाल है

 

कई जानवर रहे घूमते बिना फिक्र के बिना खौफ के

हुए क़त्ल जब कोई समझा था बड़े काम वाली ये खाल है

 

कई हुक्मरान हुए  यहाँ सभी आँखे बंद किये रहे

कोई खोल बैठा जो आँख है सभी कह उठे ये तो चाल है

 

ये सियासतों का समुद्र है यहाँ मछलियों सी हैं कुर्सियां

सभी हुक्मरान सधी नजर सभी ने बिछाया जाल…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on May 4, 2018 at 6:00pm — 10 Comments

मजदूर ...

मजदूर ...

अनमोल है वो

जिसे दुनिया

मजदूर कहती है

इसी के बल से

धरातल पर

ऊंचाई रहती है

कहने को

मेरुदंड है वो

धरा के विकास का

आसमानों को छूती

अट्टालिकाएं बनाने वाला

जो

तिनकों की झोपड़ी में रहता है

वो

सृजनकर्ता

मजदूर कहलाता है

हर आज के बाद

जो

कल की चिंता में डूबा रहता है

कल का चूल्हा

जिसकी आँखों में

सदा धधकता रहता है

कम होती…

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Added by Sushil Sarna on May 4, 2018 at 3:49pm — 6 Comments

ग़ज़ल नूर की- पड़ गयी जब से आपकी आदत

पड़ गयी जब से आपकी आदत,

फिर लगी कब मुझे नई आदत. 

.

ज़ाया कर दी गयीं कई क़समें

ज्यूँ की त्यूं ही मगर रही आदत.

.

मुझ को तन्हा जो छोड़ जाती है

शाम की है बहुत बुरी आदत.

.

पैरहन और कितने बदलेगी? 

रूह को जिस्म की पड़ी आदत.   

.

चन्द साथी जो बेवफ़ा न हुए,  

अश्क, ग़म, याद, बेबसी, आदत.

.

ज़िन्दगी यूँ न तू लिपट मुझ से

पड़ न जाए तुझे मेरी आदत.

.

आदतन याद जब तेरी आई

रात भर आँखों से बही आदत.

.

ये…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on May 4, 2018 at 3:19pm — 16 Comments

काल चले ऐसी ही चाल |

एक  एक  कर  काटे   डाली  , ठूंठ खड़ा  मन  करे  विचार |
बीत  गए  दिन   हरियाली  के  ,  निर्जन  बना  पेड़ फलदार |
दिन भर  चहल पहल रहती थी ,  जब  होता था    छायादार | 
पास   नहीं   अब    आये  कोई , सूखा   तब   से  है  लाचार |
भरा  रहा जब  फल फूलों  से ,  लोग  आते तब  सुबह शाम |
कोई  खाये   मीठे  फल को  ,  कोई   पौध   लगा   ले दाम  | 
रंग…
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Added by Shyam Narain Verma on May 4, 2018 at 2:30pm — 8 Comments

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