२१२२,२१२२, २१२२, २१२
.
सोचने लगता हूँ अक्सर मैं कि क्या है ज़िन्दगी,
आग पानी आसमां धरती हवा है ज़िन्दगी.
.
मौत जो मंज़िल है उसका रास्ता है ज़िन्दगी,
या कि अपने ही गुनाहों की सज़ा है ज़िन्दगी.
.
बिन तुम्हारे इक मुसलसल हादसा है ज़िन्दगी,
सच कहूँ! ज़िन्दा हूँ लेकिन बेमज़ा है ज़िन्दगी.
.
ज़िन्दगी की हर अलामत यूँ तो आती है नज़र,
शोर है शहरों में फिर भी लापता है ज़िन्दगी.
.…
Added by Nilesh Shevgaonkar on March 4, 2017 at 2:37pm — 10 Comments
Added by Rahila on March 4, 2017 at 11:38am — 9 Comments
Added by Dr Ashutosh Mishra on March 4, 2017 at 11:33am — 9 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on March 3, 2017 at 7:50pm — 9 Comments
दर्द के निशाँ ....
दर
खुला रहा
तमाम शब
किसी के
इंतज़ार में
पलकें
खुली रहीं
तमाम शब्
किसी के
इंतज़ार में
कान
बैचैन रहे
तमाम शब्
तारीकियों में ग़ुम
किसी की
आहटों के
इंतज़ार में
शब्
करती रही
इंतज़ार
तमाम शब्
वस्ले-सहर का
मगर
वाह रे ऊपर वाले
वस्ल से पहले ही
तू
ज़ीस्त को
इंतज़ार का हासिल
बता देता है
मंज़िल से पहले…
Added by Sushil Sarna on March 3, 2017 at 1:39pm — 6 Comments
2122 2122 2122 212
पग सियासी आँच पर मधु भी जहर होने को है।
बच गया ईमान जो कुछ दर-ब-दर होने को है।।
मुफलिसों को छोड़कर गायों गधों पर आ गई।
यह सियासत आप पर हम पर कहर होने को है।।
उड़ रहा है जो हकीकत की धरा को छोड़ कर।
बेखबर वो जल्द ही अब बाखबर होने को है।।
वो जो बल खा के चलें इतरा के घूमें कू-ब-कू।
खत्म उनके हुस्न की भी दोपहर होने को है।।
जुल्म से घबरा के थक के हार के बैठो न तुम।
"हो भयावह रात कितनी भी सहर होने…
ContinueAdded by आशीष यादव on March 3, 2017 at 12:00pm — 18 Comments
Added by amod shrivastav (bindouri) on March 3, 2017 at 9:30am — 8 Comments
1.
आया फागुन
भँवरों की गुंँजार
छाई बहार ।
.
2.
मन मयूर
पलाश हुआ मस्त
भँवरें व्यस्त ।
.
3.
रंगों की छटा
मस्ती भरी उमंग
थिरके अंग ।
4.
आम बौराए
उड़ा गुलाबी रंग
है हुड़दंग ।
5.
दिशा बेहाल
फूलों उड़ी सुगंध
बने संबंध ।
.
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Mohammed Arif on March 1, 2017 at 7:00pm — 12 Comments
22. 22. 22. 22. 22. 22. 2
तन्हा शाम बिताते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?
मंज़र में खो जाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?
.
बारिश से पहले बादल पर अपनी आँखों से,
कोई अक्स बनाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?
.
ज़िक्र किसी का आये तो फूलों से खिलते हो,
शर्माते सकुचाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?
.
होटों पर मुस्कान बिना कारण आ जाती है,
बेकारण झुँझलाते हो तुम, इश्क़ हुआ है क्या?-…
Added by Nilesh Shevgaonkar on March 1, 2017 at 7:00pm — 12 Comments
अनबहा समंदर ....
थी
गीली
तुम्हारी भी
आंखें
थी
गीली
हमारी भी
आंखें
बस
फ़र्क ये रहा
कि तुमने कह दी
अपने दिल की बात
हम पर गिरा के
जज़्बातों से लबरेज़
लावे सा गर्म
एक आंसू
और
हमें
न मिल सका
वक़्ते रुख़सत से
एक लम्हा
अपने जज़्बात
चश्म से
बयाँ करने का
चल दिए
अफ़सुर्दा सी आँखों में समेटे
जज़्बातों का
अनबहा
समंदर
सुशील सरना…
ContinueAdded by Sushil Sarna on March 1, 2017 at 1:05pm — 8 Comments
२१२२ २१२२ २१२२ २१२
कितने रिश्ते तोड़ आई तल्ख़ मनमानी मेरी
क्यूँ गवारा हो किसी को अब परेशानी मेरी
शमअ के पहलू में रख कर जान परवाना कहे
इक कहानी खुद लिखेगी अब ये कुर्बानी मेरी
रूबरू आये तो धोका दे गया मेरा नकाब
चुगलियाँ कर बैठी आँखें और हैरानी मेरी
टांक दो दिलकश सितारे कहकशाँ से तोड़कर
बोलती है अब्र से देखो चुनर धानी मेरी
शह्र भर में कू ब कू तक हो गई रुस्वाइयाँ
कर गई बर्बाद मुझको…
ContinueAdded by rajesh kumari on March 1, 2017 at 11:30am — 24 Comments
221 2121 1221 212
.
जो अपने ख्वाब के लिए जाँ से गुज़र गए
खुद ख़्वाब बनके सबके दिलों में उतर गए
थोड़ा असर था वक्त का थोड़ी मेरी शिकस्त
जो ज़ीस्त से जु़ड़े थे वो अहसास मर गए
रिश्तों पे चढ़ गया है मुलम्मा फ़रेब का
अब जाने रंग कुदरती सारे किधर गए
ये सोच ही रहा था कि मैं क्या नया लिखूँ
फिर से वही चराग़ वरक़ पर उभर गए
बिखरे हुए थे दर्द तुम्हारी किताब में
दिल से गुज़र के वो मेरी आँखों…
ContinueAdded by शिज्जु "शकूर" on March 1, 2017 at 10:30am — 8 Comments
अस्तित्व को ....
जगाते हैं
सारी सारी रात
तेरे प्रेम में भीगे
वो शब्द
जो तेरे उँगलियों ने
अपने स्पर्श से
मेरे ज़िस्म पर
छोड़े थे
ढूंढती हूँ
तब से आज तक
तेरे बाहुपाश में
विलीन हुए
अपने
अस्तित्व को
सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on February 28, 2017 at 5:50pm — 6 Comments
Added by Dr Ashutosh Mishra on February 28, 2017 at 11:40am — 12 Comments
1212 1122 1212 22 /122
सुनें वो गर नहीं,तो बार बार कह दूँ क्या
है बोलने का मुझे इख़्तियार, कह दूँ क्या
शज़र उदास है , पत्ते हैं ज़र्द रू , सूखे
निजाम ए बाग़ है पूछे , बहार कह दूँ क्या
कहाँ तलाश करूँ रूह के मरासिम मैं
लिपट रहे हैं महज़ जिस्म, प्यार कह दूँ क्या
यूँ तो मैं जीत गया मामला अदालत में
शिकश्ता घर मुझे पूछे है, हार कह दूँ क्या
यूँ मुश्तहर तो हुआ पैरहन ज़माने में
हुआ है ज़िस्म का…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 27, 2017 at 7:30am — 25 Comments
समझता था ख़ुद को ज़र्रे से भी कमतर मगर
मिला वज़ूद से तो सैलाब निकला...
ज़ेहन में पड़े हैं अब भी बहुत से किर्च मगर
बहुतों के हिसाब से आफ़ताब निकला...
ढूंढा चाँद को सबने फ़क़त मगर
आँखवाला नहीं कोई भी जनाब निकला...
जाते हैं रस्ते से सब ही इसी तरह
कुछ के पैरों से रस्ता बेहिसाब निकला...
निकला न करो छुप कर हमसे मेरे नसीब
तुमसे भी कभी मेरा इख़्तियार निकला...
फ़ुरसत के पल न ढूंढा करो मिलने के
जब जब रहा ज़ेहन में तेरा दीदार…
Added by ASHUTOSH JHA on February 27, 2017 at 12:00am — 4 Comments
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 26, 2017 at 9:00pm — 9 Comments
बीस साल बाद आज जोखन लौटा था गाँव, कितनी बार घरवालों ने बुलाया, कितने प्रयोजन पड़े, लेकिन जोखन ने कभी भी गाँव की तरफ जाने का नाम नहीं लिया था| कितनी बार लोगों ने पूछा, लेकिन कभी उसने वजह नहीं बताया| आज गाँव में आकर उसे सब कुछ बदला बदला लग रहा था, कुछ भी पहचाना नहीं लग रहा था| पिताजी से हाल चाल करके वह गाँव में घूमने निकला और कुछ ही देर में गाँव के बाहर खेतों में खड़ा था| खेत भी अब खेत कम, प्लाट ज्यादा लग रहे थे| खेतों को पार करता हुआ वह बगल के गाँव के रास्ते पर चल पड़ा| कभी पगडण्डी जैसा रास्ता…
ContinueAdded by विनय कुमार on February 26, 2017 at 9:00pm — 2 Comments
बहरे मुतदारिक मुसम्मन अहज़ज़ु आखिर
२१२/२१२/२१२/२
रहनुमाई की बरसात है क्या।
फिर चुनाओं के हालात हैं क्या।
झुठ भी बोलो अगर तो सही है,
ये सियासत के शहरात है क्या।
शह्र मे आग है फिर पुरानी ,
दंगो से फिर ये हालात है क्या।
चीखें फिर से सुनाई दे कोई,
बहनों के लूटे अस्मात है क्या।
लोग कितने मजे से यहाँ हैं,
शह्र के ये हवालात हैं क्या।
मौलिक व अप्रकाशित
Added by Hemant kumar on February 26, 2017 at 8:00pm — 6 Comments
देर तक .....
जब तुम
जब अंतर तट पर
अपने समर्पण की सुनामी
लेकर आये थे
मेरी देह
कंपकपाई थी
देर तक
जब तुम ने
रक्ताभ अधरों को
तृषा का
सन्देश दिया था
मेरे अधर की
हर रेख
मुस्कुराई थी
देर तक
जब तुम ने
अपनी बंजारी नज़रों से
मुझे निहारा था
मेरी निशा
तुम्हारी बंजारन बन
थरथराई थी
देर तक
जब तुम
मेरी प्रतीक्षा की
प्रथम आहट बने थे
मेरी…
Added by Sushil Sarna on February 26, 2017 at 12:30pm — 2 Comments
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