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ग़ज़ल मनोज अहसास

1222 1222 1222 1222





कभी चंदा, कभी सूरज,कभी तारे संभाले हैं

सुखनवर के नसीबो में मगर पांवों के छाले हैं



हमारी बेगुनाही का यकीं उनको हुआ ऐसे

वो जिनको चाहते हैं अब उन्हीं के होने वाले हैं



मेरी भूखी निगाहों में शराफत ढूंढने वाले

तेरी सोने की थाली में मेरे हक़ के निवाले हैं



हमारी झोपडी का कद बहुत ऊंचा नहीं लेकिन

तेरे महलों के सब किस्से हमारे देखे भाले हैं



भरी महफ़िल में आके पूछते हैं हाल मेरा वो

तकल्लुफ भी निराला… Continue

Added by मनोज अहसास on April 2, 2017 at 3:17pm — 18 Comments

ग़ज़ल (मुहब्बत ही निभाई दोस्तों ) -

ग़ज़ल (मुहब्बत ही निभाई दोस्तों )

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2122 -2122 -2122 -212

आँख उसने जब भी नफ़रत की दिखाई दोस्तों |

मैं ने बदले में मुहब्बत ही निभाई दोस्तों |

रुख़ तअस्सुब की हवा का भी अचानक मुड़ गया

जिस घड़ी शमए वफ़ा हम ने जलाई दोस्तों |

गम है यह इल्ज़ाम साबित हो नहीं पाया मगर

आज़माइश फिर भी क़िस्मत में है आई दोस्तों |

बन गया दुश्मन अमीरे शह्र मेरा इस लिए

हक़ की खातिर ही क़लम मैं ने…

Continue

Added by Tasdiq Ahmed Khan on April 2, 2017 at 12:07pm — 15 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
इश्क में खुद जाँ लुटाने आ गए (ग़ज़ल 'राज')

हाजिरी वो ज्यों  लगाने आ गए

याद उनको फिर बहाने आ गए

 

मुट्ठियों में वो नमक रखते तो क्या 

जख्म हमको भी छुपाने आ गए

 

चल पड़े थे हम कलम को तोड़कर

लफ्ज़ हमको खुद बुलाने आ गए

 

जेब मेरी हो गई भारी जरा 

दोस्त मेरे आजमाने आ गए

 

रोज लिखना शायरी उनपर नई  

याद हमको वो फ़साने आ गए

 

शमअ इक है लाख परवाने यहाँ 

इश्क में खुद जाँ  लुटाने आ गए  

 

झील में अश्जार के धुलते …

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Added by rajesh kumari on April 2, 2017 at 11:00am — 24 Comments

अपने दिल की कहाँ सुनता हूँ

मैं अपनी कमीज़ गंदी करके पहनता हूँ।
मैं आज भी चाय ठंडी करके पीता हूँ।

सुबह की धूप से मेरी मौसिकी नहीं आज भी।
रात की यारी मैं आज भी पक्की करके जीता हूँ।

न सताया करो देखकर यूँ कभी-कभी।
मैं आज भी ज़ेहन में तुमसे कत्ल होकर मिलता हूँ।

खुश है कि नहीं कोई परिंदा दिल का।
कैसे हो पता मैं आज भी अपने दिल की कहाँ सुनता हूँ।


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मौलिक और अप्रकाशित

Added by ASHUTOSH JHA on April 2, 2017 at 12:06am — 6 Comments

ग़ज़ल रोज़ मुकरते किरदारों से क्या लेना

22 22 22 22 22 2



रंग बदलते रुख़सारों से क्या लेना ।

रोज मुकरते किरदारों से क्या लेना ।।



गंगा को मैली करती हैं सरकारें ।

उनको जग के उद्धारोँ से क्या लेना ।।



खूब कफ़स का जीवन जिसको भाया है ।

उस पंछी को अधिकारों से क्या लेना ।।



जंतर मंतर पर बैठा वह अनसन में ।

राजा को अब लाचारों से क्या लेना ।।



टूट चुका है उसका अंतर मन जब से ।

जग में दिखते मनुहारों से क्या लेना ।।



फुटपाथों पर जिस्म बिक रहा खबरों में…

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Added by Naveen Mani Tripathi on April 1, 2017 at 10:30pm — 5 Comments

ओबीओ की सातवीं सालगिरह का तोहफ़ा

फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन फ़ाइलुन

(एक शैर में तक़ाबुल-ए-रदीफ़ नज़र अंदाज़ कर दें)





जो कहूँ जो लिखूँ ओबीओ के लिये

यूँ समर्पित रहूँ ओबीओ के लिये



माँगता हूँ यही आजकल मैं दुआ

जब तलक भी जियूँ ओबीओ के लिये…



Continue

Added by Samar kabeer on April 1, 2017 at 2:30pm — 43 Comments

हम तुम, दो तट नदी के

हम तुम

दो तट नदी के

उद्गम से ही साथ रहें हैं

जलधारा के साथ बहे हैं

किन्तु हमारे किस्से कैसे, हिस्से कैसे

सबने देखा, सबने जाना,

रीति-कुरीति, रस्म-रिवाज, अपने-पराये

सब हमारे बीच आये

एक छोर तुम एक छोर मैं

इनकी बस हम दो ही सीमाएं

जब इनमे अलगाव हुआ दुराव हुआ

धर्म-जाति का भेदभाव हुआ

क्षेत्रवाद और ऊँच-नीच का पतितं आविर्भाव हुआ

तब हम तुम

इस जघन्य विस्तार से और दूर हुए

तब भी इन्हें हमने ही हदों…

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Added by आशीष यादव on April 1, 2017 at 1:30pm — 6 Comments

गज़ल इस्लाह के लिए (2122-2122-2122-212)

मेरी आँखों में नज़र ये ढूँढती क्या चीज़ है

कुछ तो बतला दे कि तेरी खो गई क्या चीज़ है ॥



रात दिन सीने की दीवारों पे ये पटके है सर

ऐ खुदा इस बुत में तूने डाल दी क्या चीज़ है ॥



हिज्र में जिस ने सुनी हों ग़ज़लें तन्हा बैठ कर

उससे जाकर पूछिए ये शायरी क्या चीज़ है ॥



तेरे ख्वाबों से उठा तुझ को न पाया सामने

अब समझ में आ रहा है तिश्नगी क्या चीज़ है ॥



यूँ तो जीने का तजुर्बाहै बहुत हम को मगर

अब तलक समझे नहीं हैं ज़िंदगी क्या चीज़ है…

Continue

Added by Gurpreet Singh jammu on April 1, 2017 at 10:00am — 13 Comments

कुछ मुक्तक (भाग-३)

मात्रा विन्यास-

१२२२ १२२२ १२२२ १२२२



अभी भी याद आती हैं, सुहानी शाम की बातें।

बड़े ही चाव से करना, बिना वो काम की बातें।

कहा तुमने बहुत हमसे, सुना हमने बहुत लेकिन।

अधूरी आज भी चुभती, बिना अंजाम की बातें।



घने बरगद तले अपना, भरी वो दोपहर मिलना।

पसीने से सने चेहरे, दुपट्टे से हवा करना।

किया वादा तो पूरी पर, अधूरी आस थी अब भी।

जुदाई की घड़ी आयी, हथेली खीझ कर मलना।



चले चर्चा कोई जब भी, तेरा ही नाम आता है।

भुलाता हूं तुझे लेकिन,… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on March 31, 2017 at 2:26pm — 4 Comments

तरही गजल : दिन सुहाने हो गये राते सुहीनी हा गईं

2122   2122   2122   212

दिन सुहाने हो गए राते सुहानी हो गईं,

उनके आते ही बहारें जाफ़रानी हो गईं।



रंग और खुशबू की बातें अब कहानी हो गईं,

मुश्किलें लगता है जैसे जाविदानी हो गईं।



आसमाँ ने जब उफ़क पर चूम धरती को लिया,

कमसिनी को छोड़कर ऋतुएं सुहानी हो गईं।



बेकरारी आज जितनी है कभी पहले न थी,

आदतें भी सब्र की जैसे कहानी हो गईं।



मिहनतों को जब मिला तेरा सहारा ए ख़ुदा,

मुश्किलें भी मेरी घट कर दरमियानी हो गईं।



रेत का इक सैल…

Continue

Added by Ravi Shukla on March 31, 2017 at 11:06am — 17 Comments

लघुकथा- समझौता- ये भी तो प्यार है-

एक स्टोर के अंदर हाथ में ब्लैक चेक्स शर्ट लेकर खड़ी ऋषिता अमन को दिखाकर पूछ रही थी- "ये रहा तुम्हारा मन पसंद कलर" ! अमन शर्ट को देखते हुए - "अरे इसकी क्या जरुरत थी ?, " हर बात की कोई जरुरत हो जरूरी भी नही "- अमन के चेहरे को देखकर मुस्कुराती हुई वो जवाब देती है! उसका अंतर्मन आज दुखी है परंतु अमन को कैसे बताये वो खुद को तोड़ देने वाली बात की "अब हमें बिछड़ना होगा", अब वक़्त आ गया है हमारे प्रेम को उसकी मंजिल तक पहुँचाने का"! प्रेम तो होता ही ऐसा  है या तो मिलकर मुस्कुराते है या बिछड़कर मुरझाते है!…

Continue

Added by Ravi Sharma on March 31, 2017 at 9:00am — 4 Comments

ग़ज़ल-नूर की - जैसी उस ने सौंपी थी वैसी मिले,

२१२२/२१२२/२१२ 

.

जैसी उस ने सौंपी थी वैसी मिले,

ये न हो चादर उसे मैली मिले.

.

इस सफ़र में रात जब गहरी मिले

शम’अ कोई या ख़ुदा जलती मिले.

.

याद रखने के लिये दुनिया रही

भूल जाने के लिये हम ही मिले. 

.

ये बग़ावत है तो हम बाग़ी सही,

सच कहेंगे, फिर सज़ा इस की मिले.


.

हाँ! शुरू में रोज़ मिलते थे.. मगर

बाद में कुछ यूँ हुआ कम ही मिले.

.

सर…

Continue

Added by Nilesh Shevgaonkar on March 31, 2017 at 8:35am — 16 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
लफ़्जों से दर्द की दवा करके

2122 1212 22/112



लफ़्जों से दर्द की दवा करके

देखा है यूँ भी तज़्रबा करके



तुम पे दहशत कोई मुसल्लत थी

करना क्या था तुम आए क्या करके



खींचता हूँ हयात को मैं फ़क़त

कट रही है खुदा खुदा करके



अपने माज़ी से है सवाल मेरा

क्या मिला उनसे राबिता करके



होश आ जाए नामुरादों को

देखिए मुहतरम दुआ करके



खिड़कियाँ खोल दी शबिस्ताँ की

दिल से सपनो को अब जुदा करके



दस्तबरदार तुमसे हो जाऊँ

सोचा था मैंने हौसला… Continue

Added by शिज्जु "शकूर" on March 30, 2017 at 1:30pm — 13 Comments

निकलना एक दिन है इस मकाँ से

बह्र 1222 1222 122



करो उम्मीद मत यूँ आसमाँ से ||

बिना मिहनत न कुछ मिलता वहाँ से||



उठाते साथ थे छप्पर सभी जब

हटा विश्वास क्यूँ फिर दरमियाँ से ||



कफ़न सर से कहाँ वो बाँधते हैं

मुहब्बत है जिन्हें अपनी ही जाँ से ||



जहन्नम से नही कम होती दुनिया

कोई भी गर नही जाता जहाँ से ||



कमी क्या रह गई इस ज़िन्दगी में?

दुआएँ मिल गई गर बाप माँ से ||



निकल कर अश्क वो कहते हैं अक्सर

जिसे कोई न कह पाये जुबाँ से… Continue

Added by नाथ सोनांचली on March 29, 2017 at 4:03pm — 21 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
मन में रोंपा है हमने तो केवल केसर ..... नवगीत //प्राची

सौंधा-सौंधा

चहका-चहका

मन में रोंपा है हमने तो

केवल केसर...



बन फुहार कुछ तुम भी बरसो

ख़ुद को आज तरल होने दो,

उहापोह अब छोड़ो सारी

ख़ुद को ज़रा सरल होने दो,



गुमसुम पल बस प्यार भरी इक

आहट से ही खिल जाएँगे,

प्रश्न सदा जो रहे निरुत्तर

उनके भी हल मिल जाएँगे,



कठिन कहाँ है

मन को छूना ?

छू लोगे तो, रंग न छूटेगा

जीवन भर...



सूखा भावों का दरिया तो

जीवन होगा मरुधर जैसा,

फिर बबूल औ' नगफनी… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on March 29, 2017 at 3:00pm — 3 Comments

गजल(जब हवा बदली हुई है)

2122 2122
जब हवा बदली हुई है
साँस उनकी क्यूँ थमी है?1

अश्क के थे रश्कजादे
अब नजर में क्यूँ नमी है?2

क्या हुआ अबतक पता सब
ढूँढ़ ली जाती कमी है।3

ओहदे सेवा की' सूरत
शोहदों का सच यही है।4

आसमां भर तार माफिक
आरजू होती रही है।5

जो किया जाता रहा तब
लग रहा था सच वही है।6

जो सँजोये धन चुराकर
खुल रही उनकी बही है।7
@मौलिक व अप्रकाशित

Added by Manan Kumar singh on March 29, 2017 at 7:31am — 13 Comments

ग़ज़ल

२२१२/२२१२/२२१२

बाजा़र मे दिल आज़माया कर कभी,
दिल बेचने भी यार आया कर कभी।

दिल टूटने का दर्द अब होगा नही,
इन पत्थरों से दिल लगाया कर कभी।

माना सितारों से बहुत हैं प्यार पर,
जुगनूओं को घर भी बुलाया कर कभी।

दुनिया अमीरों के मुआफ़िक हैं मगर,
कुछ घर ग़रीबी के सज़ाया कर कभी।

बे-शक ये रास्ते हैं तरक़्की़ के मगर,
पैमाना पर इनका बनाया कर कभी।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Hemant kumar on March 28, 2017 at 9:00pm — 7 Comments

मत्तगयन्द सवैया

समीक्षार्थ 

मत्तगयन्द सवैया...... (एक प्रयास)

..

मंगल हो नववर्ष खिले मन वैभव ज्ञान सगे हरषाए

शीतल वायु बहे नित वासर धान फलें नहिं रोग सताए
भाग्य बने अरु धर्म जगे नवरोज़ शुभ यश गान सुनाए
जीवन में नित प्रीत पले रिपु बैर तजें स सखा बन जाए

..

"मौलिक व अप्रकाशित" 

Added by अलका 'कृष्णांशी' on March 28, 2017 at 4:00pm — 7 Comments

गजल(दूर कहीं से कौड़ी आई)

22 22 22 22
दूर कहीं से कौड़ी आई-
आओ साथ बनाओ भाई।1

बाल बचे जो मुड़ जायें मत
डरता रहता टकलू नाई।2

जीत दिलाने में पिछड़ी हैं
बरबोलों की माई-जाई।3

सहमी जातीं समता-ममता
माया ने सब नाच नचाई।4

खेत चरे क्यूँ बतलायेंगे
चिल्लाते सब 'राम दुहाई'।5

माथा पीट रहे मुँहझौंसे
निज करनी ने लंका ढ़ाई।6

योग लगन ग्रह वार जुटे सब
किसको किसकी बाजी भाई?7
@मौलिक व अप्रकाशित

Added by Manan Kumar singh on March 28, 2017 at 1:30pm — 5 Comments

ग़ज़ल....रही माँ पूछती आँसू बहा कर

1222 1222 122


मिलेगा क्या तुम्हें परदेश जा कर
रही माँ पूछती आँसू बहा कर

तड़पता छोड़कर तन्हा शजर को
परिंदा उड़ गया पर फड़फड़ा कर

बहल जाये विकल मासूम बचपन
नजर भर देख ले माँ मुस्कुरा कर

है पल पल टूटती साँसों की माला
बिता लो चार पल ये हँस हँसा कर

न जाओ छोड़कर 'ब्रज' कुंज गलियाँ
दरख्तों ने कहा ये कसमसा कर

.
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on March 27, 2017 at 11:00pm — 10 Comments

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