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याद मेरी दिला रही होगी (गजल)/सतविन्द्र कुमार राणा

2122 1212 22
उनको हिचकी सता रही होगी
याद मेरी दिला रही होगी

चैन दिल का खो गया होगा
आँसुओं को बहा रही होगी

फ्रेम कस के पकड़ लिया होगा
प्यार तस्वीर पा रही होगी

हौंसला काम कर गया होगा
पास मंजिल अब आ रही होगी

वक्त के साथ सब बदलते हैं
रुत यही तो सिखा रही होगी

भूख ने दूर कर दिए बच्चे
कैसे माँ मन लगा रही होगी ?

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on April 7, 2017 at 7:00am — 19 Comments

ग़ज़ल

2122 1122 1122 22

अब दुवाओं के लिए हाथ उठाया जाए ।

तेरे सर से न् कभी इश्क़ का साया जाए ।।



हुस्न मगरूर हुआ है ये सही है यारों ।

आइनॉ को न् उसे और दिखाया जाए ।।



होश खोना भी जरूरी है मुहब्बत के लिए ।

सुर्ख होठों पे कोई जाम सजाया जाए ।।



पूछ मत दर्द से रिश्तों की कहानी मेरी ।

ज़ह्र देना है तो बेख़ौफ़ पिलाया जाए ।।



एक हसरत के लिए जिद भी कहाँ है वाजिब ।

गैर चेहरों को चलो दिल में बसाया जाए ।।



बिक गई आज निशानी भी जो तुमने… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on April 6, 2017 at 11:14pm — 5 Comments

ग़ज़ल

२१२२/१२१२/२२

हमने अपने ही पाँव काटे हैं,
इस सड़क पर के छाँव काटे हैं।

जो परींदा मजे से रहता था,
उनके तो सारे ठाँव काटे हैं।

दौड़ना चाहती है हर बेवा,
पर ये दुनिया ने पाँव काटे हैं।

वार जिसने भी करना चाहा तो,
उसके तो सारे दाँव काटे हैं।

जानकर जा रहे शहर(१२) तुम भी,
इस शहर(१२)ने ही गाँव काटे हैं।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by Hemant kumar on April 6, 2017 at 9:00pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल -और हम भी प्यार की जागीर को समझे नहीं - ( गिरिराज )

2122    2122   2122   212

कट गये सर वो मगर शमशीर को समझे नहीं

घर जला, पर आग की तासीर को समझे नहीं

 

ख़्वाब ए आज़ादी कभी ताबीर तक पहुँचे भी क्यूँ 

सबको समझे वो मगर जंजीर को समझे नहीं

 

वो मुसव्विर पर सभी तुहमत लगाने लग गये  

जो उभरते मुल्क़ की तस्वीर को समझे नहीं

 

मजहबों में बाँट, वो नफरत दिलों में बो गये   

और हम भी उनकी इस तदबीर को समझे नहीं

 

उनका दावा है, वो चार: दर्द का करते रहे

हमको शिकवा है…

Continue

Added by गिरिराज भंडारी on April 6, 2017 at 9:00am — 23 Comments

तरही ग़ज़ल नंबर-2

फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन



आज तारीफ़ें मिरी उनकी ज़बानी हो गईं

हासिदों की देख शकलें ज़ाफ़रानी हो गईं



उनके रुख़सारों की गर्मी अलअमाँ सद अलअमाँ

सब चटानें बर्फ़ की यकलख़्त पानी हो गईं



आज हैं मासूम सीता की तरह ये रावणों

क्या करोगे लड़कियाँ गर ये भवानी हो गईं



देखते थे कल हिक़ारत से हमें वो देख लें

किस क़दर नस्लें हमारी आज ज्ञानी हो गईं



मैं तो हूँ ख़ामोश लेकिन लोग कहते हैं "समर"

तेरी ग़ज़लें एह्ल-ए-दिल की तर्जुमानी हो… Continue

Added by Samar kabeer on April 6, 2017 at 12:29am — 31 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
‘नया मुर्दा’ (लघु कथा 'राज')

 नदी का वो  घाट पर जहाँ दूर-दूर तक मुर्दों के जलने से मांस की सड़ांध फैली रहती थी साँस लेना भी दूभर होता था वहीँ थोड़ी ही दूरी पर एक झोंपड़ी ऐसी भी थी जो चिता की अग्नि से रोशन होती थी|

भैरो सिंह का पूरा परिवार उसमे रहता था दो छोटे छोटे बच्चे झोंपड़ी के बाहर रेत के घरोंदे बनाते हुए अक्सर दिखाई दे जाते थे |

दो दिन से घाट पर कोई चिता नहीं जली थी बाहर बच्चे खेलते-खेलते उचक कर राह देखते- देखते थक गए थे कि अचानक उनको राम नाम सत्य है की आवाजें सुनाई दी सुनते ही बच्चे ख़ुशी से उछल पड़े…

Continue

Added by rajesh kumari on April 5, 2017 at 9:00pm — 20 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
कसमें चलो मासूम लें ....गीत /डॉ० प्राची

लिख दें इबारत इश्क की, 

आओ ज़रा सा झूम लें..

इक दूसरे को जी सकें, कब वक़्त ही इतना मिला 

बस दूरियाँ थामे रहीं नज़दीकियों का सिलसिला,

कुछ पल मिले हैं साथ के आओ इन्हें जी लें अभी 

हमको मिलें ये पल न जाने ज़िंदगी में फिर कभी,

ले उँगलियों में उँगलियाँ 

आओ ज़रा सा घूम लें ...

लिख दें...

जब प्यार के एहसास के पहलू कई हैं अनछुए 

क्यों पूछते हैं आप फिर गुमसुम भला हम क्यों हुए ?

सपने हमारे…

Continue

Added by Dr.Prachi Singh on April 5, 2017 at 6:06pm — 4 Comments

मैं चुप रही.....

मैं चुप रही ....

रात के पिछले पहर

पलकों की शाखाओं पर

कुछ कोपलें

ख़्वाबों की उग आई थीं

याद है तुम्हें

तुम ने

चुपके से

मेरे ख्वाबों की

कुछ कोपलें

चुराई थीं

मैं चुप रही

तुमने

अपने स्पर्श से

उनमें बैचैनी का

सैलाब भर दिया

मैं चुप रही

तुमने

मेरी पलकों की

शाखाओं पर

अपने अधरों से

सुप्त तृष्णा को

जागृत किया

मैं चुप रही

रात की उम्र

ढलती रही…

Continue

Added by Sushil Sarna on April 5, 2017 at 5:50pm — 14 Comments

व्यर्थ है......

व्यर्थ है......

व्यर्थ है

कुछ भी कहना

बस

मौन रहकर

देखते रहो

दुनिया को

तमाशाई नज़रों से

पूरे दिन

व्यर्थ है

कुछ भी सुनना

अर्थहीन शब्दों के

कोलाहल में

भटकते भावों की

तरलता में लुप्त

संवेदना के

स्पंदन को

व्यर्थ है

कुछ भी ढूंढना

इस नश्वर संसार में

आदि और अंत का

भेद पाने के लिए

स्वयं में

स्वयं से

मिलने का

प्रयास करना …

Continue

Added by Sushil Sarna on April 5, 2017 at 3:30pm — 8 Comments

आओ सब मिल कर संकल्प करें

आओ सब मिल कर संकल्प करें।

चैत्र शुक्ल नवमी है आज, नूतन कुछ तो करें।

आओ सब मिल कर संकल्प करें॥



मर्यादा में रहना सीखें, सागर से बन कर हम सब।

मर्यादा में रहना सिखलाएं, तोड़े कोई इसको जब।

मर्यादा के स्वामी की, धारण तो यह सीख करें।

आओ सब मिल कर संकल्प करें॥



मात पिता गुरु और बड़ों की, सेवा का ही मन हो।

भIई मित्र और सब के, लिए समर्पित ये तन हो।

समदर्शी सा बन कर हम, सबसे व्यवहार करें।

आओ सब मिल कर संकल्प करें॥



उत्तम आदर्शों को हम,… Continue

Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 5, 2017 at 11:49am — 3 Comments

ग़ज़ल-नूर की - इस तरह हर इक गुनह का सामना करना पड़ा,

२१२२/२१२२/२१२२/२१२ 

.

इस तरह हर इक गुनह का सामना करना पड़ा,

हश्र में ख़ुद के किये पे तब्सिरा करना पड़ा.

.

सुल्ह फिर अपने ही दिल से यूँ हमें करनी पड़ी,

फ़ैसले को टालने का फ़ैसला करना पड़ा. 

.

क़ामयाबी की ख़ुशी में चीखता है इक मलाल,

सोच कर निकले थे क्या कुछ और क्या करना पड़ा.

.

एक मुद्दत से कई चेहरे थे आँखों में असीर,

आँसुओं की शक्ल में सब को रिहा करना पड़ा.

.

झूठ के नक्क़ारखाने में बला का शोर है,…

Continue

Added by Nilesh Shevgaonkar on April 5, 2017 at 9:16am — 18 Comments

हाइकु

मौज मनाने
छुट्टियों में हैं आते
नदी किनारे

बड़ी सुहानी
हवा चलती यहाँ
नदी किनारे ।

मन मोहक
नज़ारा यहाँ होता
नदी किनारे ।

मस्त लहर
आकर टकराती
नदी किनारे ।

भीड़ अधिक
हो जाती है अक्सर
नदी किनारे ।

संग पिया के
सन्ध्या देखने आती
नदी किनारे ।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on April 4, 2017 at 7:59pm — 1 Comment

मधुमालती छंद ( मात्रा विधान - 7-7 , 7-7)

शारदे माँ ( मधुमालती छंद)

माँ शारदे वरदान दो
सत बुद्धि दो संग ज्ञान दो
मन में नहीं अभिमान हों
अच्छे बुरे का सज्ञान दो

वाणी मधुर रसवान दो
मैं मैं का न गुणगान हों
तुमसे कभी हम दूर हों
न ऐसे कभी मज़बूर हों

दिल में सदा ही तुम रहो
रात और दिन बस तुम रहो
तुम बीन न यह जीवन हों
माँ शारदे ऐसा वर दो ।।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on April 4, 2017 at 7:06pm — 7 Comments

*माटी का गुरूर* राहिला (लघुकथा)

"अब क्या करें? वैध जी तो दूसरे गाँव गये हुए है, कल तक लौटेगें | इतने दूर वापस भी नहीं जा सकते ।शाम होने को है, इतने छोटे गाँव में कहाँ रुकेंगे?"कहते हुए महिला के माथे पर चिंता की लकीरें खींच गयी।

"फ़िक्र ना कर, बलवीर सर इसी गाँव का तो हैं जिन्होंने मुझे इस वैध के बारे में बताया था। उन्हीं के घर रूक जाते हैं|" पति ने उसे आश्वासन दिया|

नाम सुनते ही उसे याद हो आया वह दिन ,जब फौजी पति पहली बार उसे अपने साथ ले गये थे और वहाँ वह पति के सीनियर इन्हीं बलवीर के यहाँ भोजन पर आमंत्रित हुई थी। न… Continue

Added by Rahila on April 4, 2017 at 5:52pm — 12 Comments

गूंज....लघुकथा //अलका ललित

कुछ दिनों से गर्ल्स स्कूल के सामने लड़को की भीड़ और उनकी बद्तमीज़ियां बढ़ती ही जा रही थी ,छात्राओं का गेट से निकलना भी मुश्किल होता जा रहा था। आज यहाँ बहुत तेज तेज आवाज़े गूंज रही है क्योकि स्कूल टीचर्स  की कंप्लेंट पर आज पुलिस ने सादा लिबास में मजनुओं की टोली को पकड़ लिया था और पुलिस स्टेशन ले जा रहे थे। 

उनके खिलाफ गवाही देने के लिए  नीलम और उसके साथ की ही कुछ अन्य टीचर्स भी पुलिस स्टेशन पहुंच गई  कुछ इंतजार के बाद  ही उन लड़को के पेरेंट्स भी पुलिस स्टेशन पहुँच गए और अपने लड़को को डांटते …

Continue

Added by अलका 'कृष्णांशी' on April 4, 2017 at 4:00pm — 11 Comments

ग़ज़ल(जीवन पथिक संसार में चलते चलो तुम सर्वदा)

बह्र-- 2212 2212 2212 2212



जीवन पथिक संसार में चलते चलो तुम सर्वदा,

राहों में आए कष्ट जो सहते चलो तुम सर्वदा।



अनजान सी राहें तेरी मंजिल कहीं दिखती नहीं,

काँटों भरी इस राह में हँसते चलो तुम सर्वदा।



बीते हुए से सीख लो आयेगा उस को थाम लो,

मुड़ के कभी देखो नहीं बढ़ते चलो तुम सर्वदा।



बहता निरंतर जो रहे गंगा सा निर्मल वो रहे,

जीवन में ठहरो मत कभी बहते चलो तुम सर्वदा।



मासूम कितने रो रहे अबला यहाँ नित लुट रही,

दुखियों के मन… Continue

Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 3, 2017 at 7:24pm — 14 Comments

सांगोपांग सिंघावलोकन मनहरण घनाक्षरी .//अलका ललित

घनाक्षरी में सांगोपांग सिंहावलोकन छंद के साथ  प्रथम प्रयास 

**

जाइए यहाँ से अभी

सरदी बहुत है जी

बादल आवारा सुनो

गर्मियों में आइए

.

आइए जो गरमी में

बरखा बहार संग

ठंडी सी हवाओं वाला

रस भी तो लाइए

.

लाइए जो बिजली तो

गरज गरज कर

कसक बरसने की

हमे न दिखाइए

.

खाइए न भाव अब

उचित समय पर

कृषकों की आस जरा

पूरी कर जाइए

**

 "मौलिक व…

Continue

Added by अलका 'कृष्णांशी' on April 3, 2017 at 3:00pm — 18 Comments

कुछ मुक्तक (भाग-४)

सजी दुल्हन के जोड़े में, हंसी वो रूप की रानी।

सुनहरे रंग की बिंदिया, चमक माथे पे नूरानी।

हरी चूनर खिला चहरा, गुलाबी होंठ की लाली।

हजारों हुश्न देखे पर, नहीं उसका कोई सानी।



तुम्हारी सादगी देखी, तुम्हारा साज देखा है।

मगर हर रूप में जाना, जुदा अंदाज देखा है।

तुम्हारी सादगी चमके, कुमुदिनी फूल के जैसे।

तुम्हारे साज में हमने, सदा ऋतुराज देखा है।



खुली आंखें रहीं मेरी, अचानक देखकर उनको।

धरा पर ईश ने भेजा, रमा रति उर्वशी किसको।

अगर नख शिख… Continue

Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on April 3, 2017 at 9:29am — 14 Comments

शाहजहाँ नहीं था वह

दुनिया का सबसे अद्भुत

पति पत्नी के बीच अमर प्रेम का स्मारक

विश्व के तथाकथित आश्चर्यों में से एक

जहा दफ़न है दो आत्माएं

जिसे बनवाया था

मुग़ल शहंशाह शाहजहाँ ने 

अपने बेमिसाल पत्नी प्रेम के आडम्बर में

या फिर अपने वैभव की झूठी शान में

जो उसके बेटे ने ही ख़त्म की   

उन्हें कैद में डालकर

 

ताजमहल

जिसे खुद शाहजहाँ ने नहीं बनाया

उसे गढा था

उस युग के बेमिसाल वास्तुकारों ने

स्तब्ध किया था दुनिया…

Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on April 2, 2017 at 8:54pm — 5 Comments

ग्रीष्म के हाइकु

1. झुलसी काया
आतंकी-सा सूरज
बेचैन सब ।
2.सूनी सड़कें
पसरा है सन्नाटा
जारी खर्राटे ।
3.डाल से टूटे
बरगद के पत्ते
सुनाए राग ।
4. सूखने लगे
पोखर औ तालाब
छोटी रात ।
5.नन्ही चीड़िया
करके जलपान
फुर्र हो जाए ।
6.चैत्र महीना
रात-दिन तपाए
किधर जाएँ ।
7.लू के थपेड़े
साँय-साँय सन्नाटा
सुस्ती में तन ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on April 2, 2017 at 3:30pm — 15 Comments

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