#गजल#
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22 22 22 22
जैसे-तैसे आगे आता
मैं भी जनसेवक हो जाता!1
सेवा के आयाम बहुत हैं
अपनी सब करतूत गिनाता!2
नकली आँसू के छींटे दे
मन के माफिक मेवे खाता!3
पाँच बरस मुझको मिल जाते
चार पहर रोते फिर दाता!4
भाषा को हथियार बनाकर
जोर लगा मैं शोर मचाता!5
जात-धरम के पेड़ फफनते
थोड़े बिरवे और बढ़ाता!6
मेरी खातिर भींग कहें…
ContinueAdded by Manan Kumar singh on February 26, 2017 at 11:08am — 4 Comments
अब नारों से डरते हम,
ख़ामोशी से मरते हम।
ख़ौफ बढ़े जब उसका तो,
तब फिर कहाँ उभरते हम।
ये जीना कैसा जीना,
ग़र्बत में ही मरते हम।
सपने देखे तो कैसे,
जीने से ही डरते हम।
याद करे दुनिया 'आरिफ़',
काम सदा वो करते हम।
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मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Mohammed Arif on February 26, 2017 at 10:30am — 2 Comments
श्रद्धा - लघुकथा –
शिव रात्रि के मौके पर गाँव में शिव जी की रथ यात्रा निकाली जा रही थी। गाँव के हर घर के आगे रथ यात्रा रुक जाती थी । रथ यात्रा के साथ जो स्वंय सेवक लोग जुलूस के रूप में चल रहे होते थे वह घर के लोगों को आग्रह करते थे कि भोले नाथ जी के दर्शन का लाभ लें। घर के सभी लोग, स्त्रियाँ और बच्चे दर्शन करते और दान पात्र में कुछ दान पुन्य भी करते। बदले में उन्हें कुछ प्रसाद भी मिलता |
रथ यात्रा का जुलूस अभी गाँव के बीच हरिजन टोला में ही था कि दो दस बारह वर्ष के लड़के एक…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on February 26, 2017 at 10:18am — 14 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 26, 2017 at 8:16am — 3 Comments
Added by रामबली गुप्ता on February 26, 2017 at 7:00am — 18 Comments
गले में झूलते बाँहों के नर्म हार की बात।
ये बात है मेरे मौला हसीं हिसार की बात।
रखोगे आग पे माखन तो वो पिघल ही जायेगा।
भला टली है कभी , है ये होनहार की बात।
ये इंकलाब की बातें है जोश वालों की।
कहीं पढ़ी थी जो मैंने वो बुर्दबार की बात।
कहूँ किसी से भला क्यों , छुपा के रखे हैं।
उन्हीं की आँखों के किस्से उन्ही के प्यार की बात।
बड़ी कठिन है ये शेरो-सुखन नवाजी जनाब।
बेइख़्तियार से हालात , क़ि बारदार की बात।
ख़याल ही जब हिन्दोस्ताँ का हो न तो…
ContinueAdded by Ganga Dhar Sharma 'Hindustan' on February 26, 2017 at 12:39am — 3 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 25, 2017 at 5:30pm — 7 Comments
कुछ फ़र्द मंच की नज़्र :
न सही तेरी नज़रों को मुहब्बत की तमन्ना मगर !
तेरी नज़रें , नज़रों की हमराज़ तो बन सकती थीं !!1!!
माना करीबी दिल को ख़ुशगवार लगती है !
मगर दूरी में भी कम दिलकशी नहीं होती !!2!!
जाने क्यूँ आ गयी शर्म घटाओं को आज !
शायद किसी ने रुख़ पे ज़ुल्फें बिखेर दीं !!3!!
क्यूँ अँधेरे भी उजले से लगने लगे !
शायद, प्यार रूठा लौट आया है !!4!!
आये न थे तो चश्म तर-बतर थी !
गए पलट के तो कयामत ढा गए…
Added by Sushil Sarna on February 25, 2017 at 2:00pm — 2 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on February 25, 2017 at 12:04am — 1 Comment
खुशियों की चाबी - लघुकथा –
कालूराम फ़ुट्पाथ पर जूते मरम्मत करता था। उसके पास में ही रहमान तालों की चाबियाँ बनाता था।
"कालू भैया, कई दिन से देख रहा हूं कि आप कुछ दुखी हो। आजकल घर से खाना भी नहीं लाते। खाली चाय और डबल रोटी से काम चलाते हो"।
"हाँ रहमान भाई, तुमने सही कहा। मेरा घर बिखर रहा है।जब से बेटे की शादी हुई है, घर का माहौल बिगड़ गया है"।
"ऐसी क्या वज़ह हुई है"।
"बेटे की बहू अलग होना चाहती है"।
"तो हो जाने दो अलग"।
"वह चाहती है कि हम लोग इस घर…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on February 24, 2017 at 10:30am — 6 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 24, 2017 at 3:40am — 4 Comments
Added by Naveen Mani Tripathi on February 24, 2017 at 2:59am — 5 Comments
एक-दूजे के पूरक होकर
यथावत रखें संसार
पक्ष-विपक्ष राजनीति में
जनता के प्रतिनिधि
प्रतिवाद छोड़ सोचे जरा
एक राष्ट्र हो किस विधि
अपने पूँछ को शीश कहते
दिखाते क्यों चमत्कार
हरे रंग का तोता रहता
जिसका लाल रंग का चोंच
एक कहता बात सत्य है
दूजा लेता खरोच
सत्य को ओढ़ाते कफन
संसद के पहरेदार
सागर से भी चौड़े हो गये
सत्ता के गोताखोर
चारदीवारी के पहरेदार ही
निकले कुंदन…
Added by रमेश कुमार चौहान on February 23, 2017 at 6:00pm — 3 Comments
1222 1222 122
सुखनवर से वो पहले आदमी है
गलत क्या है अगर नीयत बुरी है
किताबों से कमाई कम हुई तो
सुना है, रूह उसने बेच दी है
अचानक आइने के बर हुये हैं
इसी कारण बदन में झुरझुरी है
लगावट खून से, होती है अंधी
वो काला भी, हरा ही देखती है
चली तो है पहाड़ों से नदी पर
सियासी बांध रस्ता रोकती है
दिवारें लाख मज़हब की उठा लें
अगर बैठी, तो कोयल , कूकती है…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on February 23, 2017 at 7:30am — 6 Comments
पहाड़ पर
चढ़ना भी पहाड़
सोचा ही नहीं
स्नेह आशीष
से भरा रहा सदा
माँ का आंचल
xxxxx
महकी हवा
वासंती हैं नजारे
फागुन आया ।
मादक टेसू
रंग गई चूनर
फागुन आया ।…
ContinueAdded by Neelam Upadhyaya on February 22, 2017 at 4:48pm — 2 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on February 22, 2017 at 3:38pm — 3 Comments
(16 14 मात्रा भार)
.
(1)
हाथ जोड़ कर फिरते दिखते जब-जब सीजन आता है
दर-दर पर मिन्नत होती है हर इक जन तब भाता है
काम साध कुर्सी को पाकर याद नहीं फिर कुछ आता
झुककर जो वादे कर जाते उनको कौन निभाता है?
(2)
मौसम जैसा हाल सजन का समझ नहीं कुछ आता है
इस पल होता है तौला उस पल माशा बन जाता है
प्रीत हमारी लगती झूठी जाने क्या दिल में रखते?
वादे उनके ऐसे लगते ज्यों नेता कर जाता है।
(3)
आँखों को झूठा मत समझो आँखें सच ही कहती हैं…
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on February 22, 2017 at 2:30pm — 4 Comments
Added by नाथ सोनांचली on February 22, 2017 at 1:00pm — 13 Comments
Added by विन्ध्येश्वरी प्रसाद त्रिपाठी on February 22, 2017 at 11:29am — 2 Comments
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on February 22, 2017 at 7:13am — 2 Comments
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