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"इंतजार .." कविता/ अर्पणा शर्मा

कुछ प्रतीक्षा सी रहती है,

इक अनकहा सा इंतजार होता है,

हालातों में जहाँ,

सब कुछ मुश्किल,

अनिश्चित और दुश्वार होता है,

जीवन जब अनमना सा,

केवल जीने का व्यापार होता है,

कल्पनाओं में मन की,

कहीं कोई चमत्कार होता है,

कभी सोचते हैं हम

कहीं से आकर कोई हमदम,

कर देगा सबकुछ,

बिल्कुल ठीक और उत्तम,

प्रार्थनाओं और दुआओं में,

यही इज़हार होता है,

मनचाही खुशियाँ पाने को,

दिल सबका बेकरार होता है,

हर मन की परतों में कहीं… Continue

Added by Arpana Sharma on November 5, 2016 at 3:30pm — 6 Comments

घरोंदा - लघुकथा –

  घरोंदा - लघुकथा   –

 "सुनोजी, तुम्हारे रिटायरमेंट में डेढ़ साल बचा है।रिटायर होने के बाद यह सरकारी मकान  छोड़ना होगा।कुछ सोचा है,  कहाँ जांयेंगे"।

"सुधा, अभी अपने पास डेढ़ साल है। कुछ ना कुछ इंतज़ाम हो जायेगा"।

"इतने साल की नौकरी में तो कोई तीर मारा नहीं, अब डेढ़ साल में क्या चमत्कार कर लोगे"।

"सुधा, तुम यह कैसी बातें करती हो।बत्तीस साल, बेदाग नौकरी की है।रिटायर होने पर पी एफ़ और ग्रेचुटी का इतना तो पैसा मिल ही जायेगा कि दो कमरों का फ़्लैट खरीद सकूं"।

" वाह…

Continue

Added by TEJ VEER SINGH on November 5, 2016 at 1:05pm — 6 Comments

"रफूचक्कर"/हास्य -व्यंग्य कविता -अर्पणा शर्मा

देख पुलिस का पहरा सड़क पर,

गाज गिरी बिन हेलमेट के,

दोपहिया चालक पर,

हड़बड़ाया ,वो घबराया,

जब पुलिस ने उसे,

टिकट चालान का पकड़ाया,

बटुए का उसे खयाल आया,

अभी देता हूँ,

कहते-कहते वो घनचक्कर,

जल्दी से गाड़ी चला,

हुआ रफूचक्कर,

पुलिस ने नया दाँव अजमाया,

आरटीओ से घर का,

पता निकलवाया,

चालान टिकट उसके ,

घर भिजवाया,

अब ऊँट पहाड़ के नीचे आया,

फिजूल ही खुद को चूना लगाया,

जोश हुए ठंड़े, चालान भरकर,

सारी बदमाशी हुई… Continue

Added by Arpana Sharma on November 4, 2016 at 4:07pm — 2 Comments

गजल(हैं उभरते आजकल यूँ रहनुमा घर-घर)

2122 2122 2122 2

हैं उभरते आजकल यूँ रहनुमा घर-घर

अब सियासत का उतारा हो गया घर-घर।1



अब न पढ़ना है, न कुछ करना जरूरी ही,

बस वजीरों का मुहल्ला बन चला घर-घर।2



गलतियों से आपकी लाला मिनिस्टर हैं

कुर्सियों पर आजकल चिपटा पड़ा घर-घर।3



अँगुलियों पर नाचकर रहबर बना है वो

बढ़ गया कुनबा बड़ा इतरा रहा घर-घर।4



रोशनी की खोज में लड़ कर मरे पुरखे

बस अँधेरा ही यहाँ छितरा रहा घर-घर।5



जोड़ने की बात के थे मुंतजिर सारे

तोड़ने का… Continue

Added by Manan Kumar singh on November 4, 2016 at 4:00pm — 6 Comments

राजनीति (नवगीत)

घुला हुआ है

वायु में,

मीठा-सा  विष गंध



जहां रात-दिन धू-धू जलते,

राजनीति के चूल्हे

बाराती को ढूंढ रहे  हैं,

घूम-घूम कर दूल्हे



बाँह पसारे

स्वार्थ के

करने को अनुबंध



भेड़-बकरे करते जिनके,

माथ झुका कर पहुँनाई

बोटी-बोटी करने वह तो

सुना रहा शहनाई



मिथ्या-मिथ्या

प्रेम से

बांध रखे इक बंध



हिम सम उनके सारे वादे

हाथ रखे सब पानी

चेरी, चेरी ही रह जाती

गढ़कर राजा-रानी



हाथ… Continue

Added by रमेश कुमार चौहान on November 4, 2016 at 2:57pm — 3 Comments

बस , यूँ ही ....

बस , यूँ ही ....

मुस्कुराई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

गुनगुनाई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

शरमाई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

बहार बन के

आई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

मुझ में समाई थी

उस रात

क्या तुम

बस

यूँ ही

मेरे लिए

रोयी थी

उस रात

क्या तुम

बस …

Continue

Added by Sushil Sarna on November 3, 2016 at 4:30pm — 6 Comments

घरवाली (राहिला)लघुकथा

"निकल जा मेरे घर से...बड़ा कमाने वाली हो गयी।तू क्या समझती है तेरे वगैर काम नहीं चलेगा मेरा!बड़ी आई उपदेश देने वाली।" शराब के नशे में धुत भावसिंग,रोज की तरह कुसमा के साथ मारपीट कर, बके जा रहा था।

"अरे शर्म कर नासमिटे..!भगवान से डर ।जो दिनभर घर ,घर काम करके तेरी औलाद और मुझ अपाहिज़ का पेट पाल रही है, उसे,जानवर की तरह मारते हुए तुझे जरा भी लाज नहीं आती।"अपाहिज़ लाचार माँ ने अपनी ही नाकारा औलाद को कोसा।

"तू चुप कर,ज्यादा वकील मत बन इसकी!वरना इसके साथ तुझे भी बाहर का रास्ता दिखा… Continue

Added by Rahila on November 3, 2016 at 3:16pm — 4 Comments

ओ मेरी जान! //रवि प्रकाश

ओ मेरी जान!

तुम्हें जान से कम कुछ कहूँ

तो कितना कम लगता है

वैसे तो हर संबोधन में तुम केवल

अंजुरी भर ही आते हो,

फिर भी जब कहती हूँ अपनी जान तुम्हें

मैं ख़ुद को ज़िंदा पाती हूँ,

मुझको यूँ लगता है

जैसे दूर कहीं क्षितिज पर

दो अलग अलग उड़ते बादल

अपना-अपना रंग-रूप,आकार भूल कर

एक दूजे में घुलमिल जाएँ

और अलग कर पाना अब उनको

नामुमकिन बात लगे प्यारे!

(देखो मैं भी कविता करने लगी हूँ...वाह! वाह!)

और बताऊँ?

क्यों बताऊँ?

छोड़ो,… Continue

Added by Ravi Prakash on November 3, 2016 at 12:52pm — 2 Comments

ग़ज़ल (अनमोल क्षण)

बहर :- 2212 2212 2212 2212

(हरिगीतिका छंद)



अनमोल क्षण जीवन के जो मन में बसा हरदम रखें,

जो जिंदगी के खाश पल उर से लगा हरदम रखें।



जिन याद से मस्तक हमारा शान से ऊँचा उठे,

उन याद के ख्वाबों को सीने में जगा हरदम रखें।



सन्तोष जो हमको मिला जब स्वप्न पूरे थे हुए,

उन वक्त के रंगीन लमहों को बचा हरदम रखें।



जब कुछ अलग हमने किया सबने बिठाया आँख पे,

उन वाहवाही के पलों को हम सजा हरदम रखें।



जो आग दुश्मन ने लगाई देश में आतंक…

Continue

Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on November 3, 2016 at 10:30am — 3 Comments

ग़ज़ल/सतविन्द्र कुमार राणा

बह्र:2122 2122 2122 212

--

बातें ही बातें रही हैं आज करने के लिए

हामी उसने अब भरी ना साथ चलने के लिए।



गिर रहे हर बार फिर भी अक्ल तो आई नहीं

एक ठोकर ही सही है बस सँभलने के लिए।



घुल फ़िजा में अब गया है जह्र चारों ही तरफ

ना जमीं ही है बची कोई टहलने के लिए।



चाहता है सीखना तो कर सही कौशिश सभी

फौरी पढ़ना कब सही है कुछ समझने के लिए।



ना रुकावट से डरे जो वो बढ़े राणा सही

हाँ ,मगर कुछ रास्ते भी हों तो चलने के… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on November 2, 2016 at 11:21pm — 4 Comments

सवैये - प्रथम प्रयास

वागीश्वरी सवैया सूत्र : यगण X 7 + ल गा



(1)

कहीं भी कभी भी यहाँ भी वहाँ भी, किसी को किसी का भरोसा नहीं |

यही है ज़माना बताऊँ तुझे क्या, ज़रा भी सलीक़ा नहीं है कहीं |

इसी के लिये तो हमारी वफ़ा ने, जहां में कई यातनाएं सहीं |

बड़ों ने बताया जिसे ढूंढते हो, भरोसा यहीं है मिलेगा यहीं ||



(2)

भलाई हमें तो दिखी है इसी में, कभी भी दुखों में न आहें भरें |

हमारे लिये तो यही है ज़रूरी, यहाँ कर्म अच्छे हमेशा करें |

हमें ये सिखाया गया है कि भाई, हदों को न… Continue

Added by Samar kabeer on November 2, 2016 at 10:56pm — 16 Comments

अंत के गर्भ में .....

अंत के गर्भ में .....

मैं
व्यस्त रही
अपने बिम्बों में
तुम्हारे बिम्ब को
तलाशते हुए

तुम
व्यस्त रहे
अपने
स्वप्न बिम्बों को
तराशने में

हम
व्यस्त रहे
इक दूसरे में
इक दुसरे को
ढूंढने में

पर
वक्त ने
वक्त न दिया
हम
ढूंढते ही रह गए
आरम्भ को
अंत के गर्भ में

सुशील सरना
मौलिक एवम अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on November 2, 2016 at 10:11pm — 2 Comments

ज़माना संग-दिल, मैं काँच का हूँ (ग़ज़ल)

1222 1222 122

तभी अंदर ही अंदर जल रहा हूँ
मैं अपनी तिश्नगी को पी गया हूँ

कहीं देखा है मेरे हमसफ़र को?
भटकते रास्तों से पूछता हूँ

मैं इक दरिया हूँ, तू मेरी रवानी
तेरे बिन देख ले, ठहरा हुआ हूँ

खुला आकाश मेरे सामने है
परिंदा हूँ, मगर मैं पर-कटा हूँ

मुझे मालूम है अंजाम अपना
ज़माना संग-दिल, मैं काँच का हूँ

कहीं मिलता नहीं हूँ ढूंढने पर
मैं अपने आप ही में खो गया हूँ

(मौलिक व अप्रकाशित)

Added by जयनित कुमार मेहता on November 2, 2016 at 4:19pm — 1 Comment

कल की ही तो बात थी

अभी कल की  ही  तो बात  रही 

दो चार ही पल छीन पाए  
इक उगती  शाम  की  झोली से 
फिर न चाँद ऊगा न  सितारे ढल  पाए 
शर्मसार  हो  डूबा  सूरज स्वंय को स्वंय से  छिपाए
 …
Continue

Added by amita tiwari on November 1, 2016 at 10:00pm — 3 Comments

पार्क के पिंजड़े (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

नेताजी ने अभी हाल ही में नेशनल पार्क में फोटोग्राफ़ी की थी। उनके इस छायांकन के शौक़ पर सवाल दाग़ते हुए पत्रकार ने कहा- "पिंजड़े में बंद उस बाघ की तस्वीरें विभिन्न कोणों से लेते हुए आपको कैसा अनुभव हुआ?"



"अनुभव? मुझे तो लग रहा था जैसे कि वह मुझे पहले से ही भली-भाँति पहचनता हो...हा हा हा!"



"नहीं, हमारा मतलब यह है कि क्या आपको उसमें विपक्षी दल नज़र आ रहे थे या दिल्ली का आम आदमी का कोई नेता-वेता या आपके दल का कोई रिटायर्ड बुद्धिजीवी!"



"हा हा हा... देखने और गुर्राने… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on November 1, 2016 at 6:02pm — 5 Comments

दिए कुछ आस के ...

दिए कुछ आस के ......

 

आँखों से झांक रहे

सपने विश्वास के

देहरी पर जल रहे

दिए कुछ आस के

 

नेह के भरोसे ही

कुछ रिश्ते जोड़े हैं

तुमने न जाने क्यूँ

अनुबंध सारे तोड़े हैं

मौन की पीडाएं ही

मुझको तो छलती हैं

पास तुम आते हो

दूरी तब ढलतीं हैं

सम्बन्ध ले आये हैं

रिश्ते कुछ पास के

देहरी पर जल रहे

दिए कुछ आस के |

 

 

नश्तर से चुभते हैं

धूप के सुनहरे…

Continue

Added by Abha saxena Doonwi on November 1, 2016 at 4:00pm — 2 Comments

गीतिका/हिंदी गजल(आनंदवर्द्धक छंद)

देश से अपने हमें तो प्यार है

देशद्रोही मत बनो, धिक्कार है।1



धूप-धरती सब मिले तुझको यहाँ

देश की तुझको सखे दरकार है।2



जड़ बिना पौधा कहीं पनपा नहीं

देश की माटी बड़ा आधार है।3



चल रहे हैं बेवजह के चुटकुले

भेदियों की हो गयी भरमार है।4



सनसनाते हैं यहाँ नारे बहुत

'भारती'माँ की कहो जयकार है।5



कैद तेरी बात अब क्यूँ हो गयी?

रे! जवानी को बड़ी ललकार है।6



रोशनी पूरब से' देखो हो रही

झाँक लो अंदर यही मनुहार… Continue

Added by Manan Kumar singh on November 1, 2016 at 8:30am — 9 Comments

दर्दीली पहचान

असंतोष की छटपटाहटें समेटते

गहन वेदना की छायाओं में पले

टूटे विश्वास के घाव खुले-के-खुले

न सिले

सिले ओंठ उन घावों की आस्था की

तकलीफ़ भरी पुकार के

मिट्टी के ढेले के उड़ गए कण हों मानो

उन घावों के मैदान से तुम तक अब

कोई आवाज़ तक नहीं आती

आदि से अनन्त हुए

सनातन संघर्षी घावों की आयु है कब से

तुम्हारे संवेदनशील भावों से अनजान

घायल दिन का अस्थि-पंजर समेटे

एक और न गुज़रती रात की अकथनीय पीड़ा…

Continue

Added by vijay nikore on October 31, 2016 at 3:00pm — 6 Comments

ग़ज़ल (शबे विशाल की दुल्हन को इंतज़ार रही)

1212      1122     1212     112

अवाम में सभी जन हैं इताब पहने हुए

सहिष्णुता सभी की इजतिराब पहने हुए |

गरीब था अभी तक वह बुरा भला क्या कहें

घमंडी हो गया ताकत के  ख्याब पहने हुए |

मसलना नव कली को जिनकी थी नियत, देखो (२२-११२)

वे नेता निकले हैं माला गुलाब पहने हुए |

अवैध नीति को वैधिक बनाना है धंधा (२२-११२)

वे करते केसरिया कीमखाब पहने हुए |   

शब-ए -विशाल की दुल्हन को इंतज़ार रहा

शबे…

Continue

Added by Kalipad Prasad Mandal on October 31, 2016 at 10:30am — 10 Comments

अस्ल दीपावली ( लघुकथा

सुरेश को घर में आता देख बच्चे फ़ौरन उनके पास आगये और थैले को देखने लगे ,वो बाज़ार से जो सामान लेकर आए थे

उनमें उनके पटाखे भी थे |



बच्चे पटाखे देख कर बोले " यह क्या पापा आप तो सिर्फ़ फुलझड़ी ,अनार और चरखी ही लाए हैं , आवाज़ वाले बम ,और

रॉकेट वग़ैरा नहीं लाए "

सुरेश ने जवाब में कहा " दीपावली रोशनी का त्योहार है ,इसमें सिर्फ़ रोशनी करनी चाहिए "

बच्चे फिर बोले " हर तरफ से पटाखों की आवाज़ें आ रही हैं , कितना अच्छा लग रहा है ,दूसरे बच्चे चिढ़ाएगे कि हमारे…

Continue

Added by Tasdiq Ahmed Khan on October 31, 2016 at 9:30am — 9 Comments

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