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एक सूनी डगर रहा हूँ मैं (ग़ज़ल)

2122 1212 22



टूटकर अब बिखर रहा हूँ मैं।

खुद को आईना कर रहा हूँ मैं।



मुझको दुनिया की है खबर लेकिन

खुद से ही बेखबर रहा हूँ मैं।



चोट खा-खा के, अश्क़ पी-पीकर,

आजकल पेट भर रहा हूँ मैं।



फिर भँवर पार कर के आया हूँ,

फिर किनारे पे डर रहा हूँ मैं।



उम्र-भर ढूँढता रहा खुद को,

उम्र-भर दर-ब-दर रहा हूँ मैं।



पास मंज़िल के आ गया, फिर क्यों,

हर कदम पर ठहर रहा हूँ मैं?



क्या गुज़रता भला कोई उसपर,

एक सूनी… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on August 1, 2016 at 11:28am — 10 Comments


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ग़ज़ल - आप सोये, तो जहाँ सोने लगा ( गिरिराज भंडारी )

2122   2122   212 

जानवर भी देख कर रोने लगा

न्याय अब काला हिरण होने लगा

 

आइने की तर्ज़ुमानी यूँ हुई   

आइने का अर्थ ही खोने लगा

 

हंस सोचे अब अलग किसको करूँ  

दूध जब पानी नुमा होने लगा

 

ऐ ख़ुदा ! कैसा दिया तू आसमाँ

था यक़ीं जिस पर, क़हत बोने लगा

 

बदलियों ! कुछ तो रहम दिल में रखो 

चाँद अब तो साँवला होने लगा

 

आग से बुझती कहाँ है आग , फिर

जब्र से क्यूँ ज़ब्र वो धोने लगा…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 1, 2016 at 9:00am — 23 Comments

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) 39

पूर्व से आगे .........



उसी दिन से जिस दिन वेद ने पिता ने मंगला के महामात्य जाबालि के यहाँ पढ़ने जाने की बात की थी घर में उथल-पुथल मची हुई थी। जैसा अपेक्षित था वैसा ही हुआ था, बल्कि उससे भी बुरा। उसी क्षण से अम्मा ने मंगला के हाथ पीले करने की अनिवार्यता की घोषणा कर दी थी। मंगला, वेद और उनकी भाभी तीनों ही डाँट-फटकार की आशा कर रहे थे। उनके हृदयों में कहीं एक आशा की किरण भी साँस ले रही थी कि शायद बाबा अम्मा को भी राजी कर ही लें। बाबा नाराज तो हुये थे किंतु यह समझाये जाने पर कि यह…

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Added by Sulabh Agnihotri on August 1, 2016 at 8:39am — No Comments

औकात (लघु कथा): कथा-सम्राट की जयंती पर विशेष!

विमला और विशाल झगड़ रहे हैं।कैफे में बैठे लोग यह देखकर चकराये हुए हैं।अब तक उन लोगों ने इन दोनों का हँसना-खिलखिलाना ही देखा था,पर आज तो नजारा ही कुछ और है।विमला एकदम से भिन्नायी हुई है।विशाल ने कुछ कहना चाहा,पर वह खुद उबल पड़ी-

बस करो,अब रहा ही क्या कहने को......?

-मेरा मतलब, सब कुछ तो सहमति से ही हुआ था न?

-हाँ क्यों नहीं,पर कुछ और भी तो बातें हुई थीं कि नहीं,बोलो।

-हाँ,पर शादी के लिये घर वाले राजी नहीं हैं न ।उन्हें कैसे भी पता चल गया है कि तुम वहीदा हो,विमला नहीं।…

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Added by Manan Kumar singh on July 31, 2016 at 10:30pm — 4 Comments

सब में मिट्टी है भारत की (नवगीत)

किसको पूजूँ

किसको छोड़ूँ

सब में मिट्टी है भारत की

 

पीली सरसों या घास हरी

झरबेर, धतूरा, नागफनी

गेहूँ, मक्का, शलजम, लीची

है फूलों में, काँटों में भी

 

सब ईंटें एक इमारत की

 

भाले, बंदूकें, तलवारें

गर इसमें उगतीं ललकारें

हल बैल उगलती यही जमीं

गाँधी, गौतम भी हुए यहीं

 

बाकी सब बात शरारत की

 

इस मिट्टी के ऐसे पुतले

जो इस मिट्टी के नहीं हुए

उनसे मिट्टी वापस ले…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on July 31, 2016 at 7:30pm — 14 Comments

सरकारी अनुदान - ( लघुकथा ) -

सरकारी अनुदान - ( लघुकथा )  -

"अरी ओ कुसुमा, अभी तू इधर ही खड़ी है! जल्दी से फारिग होकर आजा! देख सूरज निकल आया है"!

"वही तो सोच रही हूं अम्मा, किधर जायें,चारों तरफ़ तो खेत खलिहान में आदमी लोग दिख रहे हैं"!

"इसलिये तो कहते हैं बिटिया कि अंधियारे में ही हो आया करो"!

"अम्मा, तुम तो खुद ही देख चुकी हो कि पिछले महीने दो लड़कियों को जंगली जानवर उठा ले गये"!

"अरे बिटिया, गाँव देहात में यह सब कहानी किस्से तो चलते ही रहते हैं!कौन जाने सच क्या है"!

"पर अम्मा, तुम…

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Added by TEJ VEER SINGH on July 31, 2016 at 10:46am — 12 Comments

बोलो न

बोलो न

कुछ तो बोलो न

देखो सुबह हो गयी है

आँखों के द्वार खोलो न

चिड़ियाँ भी बुला रही है

बाते उनसे भी कर लो न

मुर्गे ने तड़के बान लगाई

सुनकर उसको उठ जाओ न

बोलो न

कुछ तो बोलो न



ओस की बुँदे

चमक रही पत्तो पर

भीनी हो रही घांस भी

सौंधी सौंधी खुशबू मिट्टी की

उठकर तुम भी ले लो न

बोलो न

कुछ तो बोलो न ।



कलियां खिलने को है आतुर

सूर्य की रौशनी बढ़ रही है

झांक रहे बगुले कहीं पर

है भंवरों की गुंजन कहीं… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on July 31, 2016 at 7:48am — 8 Comments

यथार्थ के रंग ..

1.

मैं 

मेरा

हमारा

बीत गया

जीवन सारा

साँझ ने पुकारा

लपटों ने संवारा

2.

मैं

तुम

अधूरे

हैं अगर

देह देह की

प्रीत भाल पर

स्नेह चंदन नहीं

3.

हे

राम

तुम्हारा

करवद्ध

अभिनन्दन

प्रभु कृपा करो

हरो हर क्रन्दन

4.

क्या

जीता

क्या हारा

मैं निर्बल

मैं बेसहारा

प्रभु शरण लो

मैं अंश…

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Added by Sushil Sarna on July 30, 2016 at 9:00pm — 5 Comments

दीप जलकर थक गया

बहरे रमल मुसम्मन महज़ूफ़

फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलातुन फ़ाइलुन

2122 2122 2122 212



दीप जलकर थक गया ऐसे समय आये तो क्या

हो गया जीवन धुंआ तब गीत यदि गाये तो क्या



चाहता था मैं तृषित उस दृष्टि का आभास हो

नेह की सूखी फसल पावस कहर ढाये तो क्या



है प्रतीक्षा में कठिन तिल-तिल सुलगना उम्र भर

स्वाति यदि निष्प्राण चातक को नहा जाए तो क्या



हो सके कब स्वयम के, परिवार के या प्यार के

गीत के या देश के हित कुछ न कर पाए तो क्या



राग… Continue

Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on July 30, 2016 at 5:32pm — 5 Comments

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) 38

कल से आगे .............

‘‘आप यह कृपाण सदैव अपने साथ ही रखते हैं, कभी अलग नहीं करते ?’’ वेदवती ने ठिठोली करते हुये रावण से प्रश्न किया।

‘‘यह कोई साधारण कृपाण नहीं है। यह चन्द्रहास है, स्वयं भगवान शिव ने मुझे प्रदान की है। इसके साथ ठिठोली रावण को सह्य नहीं है।’’

‘‘ऐसा क्या ? तो इसे कुटिया में पूजा में सजा कर क्यों नहीं रख देते ?’’

‘‘चन्द्रहास रावण का आभूषण है। रावण आर्यों की तरह मूर्ति पूजक नहीं है। उसके शिव मूर्तियों में नहीं, उसके हृदय में निवास करते हैं और उनका…

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Added by Sulabh Agnihotri on July 30, 2016 at 9:23am — 4 Comments

अपनी-अपनी ग़रीबी (लघुकथा) /शेख़ शहज़ाद उस्मानी

लकड़ियों और बल्लियों का इंतज़ाम हो चुका था। बस कुछ खपरैल की प्रतीक्षा में रामदीन की टपरिया की मरम्मत का काम रुका हुआ था। पैसों की जुगाड़ के बारे में सोचते हुए रामदीन बीड़ी सुलगा ही रहा था कि उसके बूढ़े पिता बुधैया ने तेज़ आवाज़ में कहा- "अरे, मुनियां को इहां बुला लो! अमीरों के शौक़ मत दिखाओ मोड़ी को!"



रामदीन ने देखा कि अपने 'अच्छे' वाले कपड़े पहने मुनियां लकड़ियों के ढेर पर चढ़कर फार्म-हाउस (खेत) के दूसरी तरफ़ मालिक के परिवार की चल रही पार्टी और शोर-शराबे के मज़े ले रही थी।… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on July 29, 2016 at 10:41pm — 5 Comments

कुकभ छंद

देश-देश चिल्लाते सारे,मतलब इसका समझो तो
संस्कृति,उत्सव परम्पराएँ, गुण माटी का समझो तो
मातृ भूमि का कण-कण सारा,संग उसी के जनता है
साथ सभी ये मिल जाते हैं,देश तभी तो बनता है।


हे भारत के युवा सुनो तुम, देशभक्ति मन में भरना
जीवन अपना इसकी खातिर,सारा अर्पण तुम करना
पढ़-लिखकर है बढ़ते रहना, भारत आगे करना है
खेल,ज्ञान में मान कमाकर, प्रतिमानों को गढ़ना है

मौलिक एवम् अप्रकाशित

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on July 29, 2016 at 10:33pm — 8 Comments

यादें....

यादें....

यादें भी

कितनी बेदर्द

हुआ करती हैं

दर्द देने वाले से ही

मिलने की दुआ करती हैं

अश्कों की झड़ी में

हिज्र की वजह

धुंधली हो जाती है

चाहतों के फर्श पर

आडंबर की काई

बिछ जाती है

दर्दीले सावन बरसते रहते हैं

फिसलन भरी काई पर

अश्क भी फिसल जाते हैं

अब सहर भी कुछ नहीं कहती

अब दामन में नमी नहीं रहती

ज़माने के साथ

प्यार के मायने भी

बदल गए हैं

अब प्यार के मायने

नाईट क्लब के अंधेरों में…

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Added by Sushil Sarna on July 29, 2016 at 2:53pm — 4 Comments

परख सकती नहीं हर आँख गहना रूप का यारो - लक्ष्मण धामी ‘मुसाफिर’(ग़ज़ल)

1222    1222    1222    1222



जफा कर यूँ  मुहब्बत में  कभी ऊपर  नहीं होते

वफा के  खेत दुनियाँ  में कभी  बंजर नहीं होते।1।



खुशी मंजिल को पाने की वहाँ उतनी नहीं होती

जहाँ  राहों में मंजिल की  पड़े पत्थर नहीं होते।2।



परख सकती नहीं हर आँख गहना रूप का यारो

किसी की सादगी से बढ़  कोई जेवर नहीं होते।3।



नहीं चाहे बुलाता  हो उसे फिर तीज पर नैहर

न छोड़े गर नदी  नैहर  कहीं सागर नहीं होते।4।



यहाँ कुछ द्वार सुविधा के खुले होते जो उनको भी

पहाड़ी …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 29, 2016 at 11:25am — 11 Comments

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) 37

कल से आगे .................

अयोध्या में धोबियों के मुखिया धर्मदास के पिता का श्राद्ध था। श्राद्ध कर्म तो पुरोहित को करवाना था किंतु भोज के लिये वह नाक रगड़ कर जाबालि से भी निवेदन कर गया था। जाबालि ने स्वीकार भी कर लिया था। शूद्रों की बस्ती में उत्तर की ओर धोबियों के घर थे। अच्छी खासी बस्ती थी - करीब ढाई सौ घरों की। घर की औरतें प्रतिदिन सायंकाल द्विजों के घरों में जाकर वस्त्र ले आती थीं और दूसरे दिन पुरुष उन्हें सरयू तट पर बने धोबी घाट पर धो लाते थे। बदले में उन्हें जीवन यापन के…

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Added by Sulabh Agnihotri on July 29, 2016 at 9:04am — 1 Comment

हर कली अब कमल हो रही है

212  212  212  2

 

जिन्दगी अब सरल हो रही है

बात हर इक गजल हो रही है 

 

दलदली हो चुकी है जमीं पर,

हर कली अब कमल हो रही है

 

तितलियाँ भर रहीं हैं उड़ानें

नीति बेशक सफल हो रही है

 

आ रहा है कहीं से उजाला

रौशनी आजकल हो रही है

 

मखमली हो रही हैं हवाएं

मेंढकी भी विकल हो रही है

 

है दरोगा बड़ा लालची वो

धारणा अब अटल हो रही है

 

मौलिक/अप्रकाशित.

Added by Ashok Kumar Raktale on July 28, 2016 at 11:00pm — 15 Comments

"उम्मीद की चादर"

क्या हूँ मैं, कौन हूँ मैं,

कहाँ जा रहा हूँ,



खुद को टटोला तो पाया,



अनजान मंजिल है, अँधेरी राह है ।

और मैं एक अनजान राही हूँ ।।



भटकने का खौफ़ है ।

तो मंजिल की उम्मीद भी ।।



उम्मीद कम है-खौफ़ ज़्यादा ।

फिर भी उम्मीद की चादर में खौफ़ को बाँधे चले जा रहा हूँ ।।



ढांढस बंधाते हिम्मत जुटाते चला जा रहा हूँ ।

मंज़िल मिलेगी यही सोच कर बढे जा रहा हूँ ।।



चले जा रहा हूँ , बस चले जा रहा हूँ ।



बदन कहता है रुक जा,…

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Added by Ashutosh Kumar Gupta on July 28, 2016 at 11:00pm — 8 Comments

दिल के निहाँ ख़ाने में ....

दिल के निहाँ ख़ाने में ....

लगता है शायद

उसके घर की कोई खिड़की

खुली रह गयी

आज बादे सबा अपने साथ

एक नमी का अहसास लेकर आयी है

इसमें शब् का मिलन और

सहर की जुदाई है

इक तड़प है, इक तन्हाई है

ऐ खुदा

तूने मुहब्बत भी क्या शै बनाई है

मिलते हैं तो

जहां की खबर नहीं रहती

और होते हैं ज़ुदा

तो खुद की खबर नहीं रहती

छुपाते हैं सबसे

पर कुछ छुप नहीं पाता

लाख कोशिशों के बावज़ूद

आँख में एक कतरा रुक…

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Added by Sushil Sarna on July 28, 2016 at 2:00pm — 15 Comments

राम-रावण कथा (पूर्व-पीठिका) 36

कल से आगे ..................

रावण की दुनियाँ जैसे वेदवती के ही चारों ओर केन्द्रित होकर रह गयी थी। अपनी सारी संकल्पशक्ति समेट कर वह अपने चिंतन को दूसरी ओर मोड़ने का प्रयास करता पर चिंतन था कि घूम-फिर कर वहीं आकर अटक जाता। वेदवती की छवि उसकी आँखों में रह-रह कर कौंध जाती थी। मन छटपटाने लगता था। बड़े प्रयास से वह कई दिन तक अपने को रोके रहा पर फिर एक दिन वह दिमाग को भटकाने की नीयत से जंगल में निकल गया। पता नहीं कब तक घूमता रहा।



‘‘अरे वैश्रवण ! इतने दिन तक दर्शन ही नहीं…

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Added by Sulabh Agnihotri on July 28, 2016 at 8:48am — No Comments

कूटनी

पहले के जमाने में कुटनी औरते आती थीं और आपका सारा भेद लेकर चली जाती थी। आज भी यह परम्परा बरकरार है। कुछ औरतों का काम है कि अन्य घरों का समाचार लेकर अपने इच्छित स्थानों पर पहुंचाती हैं।और उसके द्वारा संबंधित व्यक्ति का मनमाना नुकसान करती हैं। क्या आज के समाज में ऐसे लोगों का बहिष्कार संभव नहीं है? यदि आप ऐसों से बच जाते हैं तो आगे आप का भला ही भला है।ी

एक ऐसी ही कहानी है कुटनी की जो हमारे गांव की है और आये दिन किसी न किसी के घर में हंगामा बरपा कर ही चैन लेती है। नाम है उसका रेशमी काकी।…

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Added by indravidyavachaspatitiwari on July 27, 2016 at 6:30pm — No Comments

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