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सपनों के गुब्बारे -- ( लघु कथा ) जानकी बिष्ट वाही - नॉएडा

विशाल प्राँगण में खूबसूरत फूलों की प्रदर्शनी , सुंदर रंग और सन्तुष्ट लोग। ये मंज़र आँखों को सुक़ून दे रहा था। तभी बगल से खिलखिलाते बच्चों का हुजूम गुजरा, उनके हाथों में पकड़े गैस के गुब्बारों पर नज़र ठहर गई।

एक पर कलात्मक शब्दों में लिखा था- " डॉक्टर -पीहू" दूसरे पर, "इंजीनयर - उत्कर्ष" तीसरे पर, "अंतरिक्ष विज्ञानी- निहारिका "

कौतूहल से मनीष ने इधर -उधर देखा,कुछ दूरी पर गुब्बारे वाले के पास बच्चों की भीड़ दिखी।



" अच्छा तो आप हैं जो मासूम बच्चों को सपने बेच रहे हैं ?" मनीष… Continue

Added by Janki wahie on June 18, 2016 at 1:29pm — 16 Comments

बहुत खुश हैं हम अपने बोरिये पर (ग़ज़ल)

1222 1222 122



बिछाया जिसने कंकड़ रास्ते पर

वो क्यों चुपचाप है इस हादिसे पर



अना के बदले सबकुछ मिल रहा था

हमीं राज़ी नहीं थे बेचने पर



हमारे पाँव में जब मोच आई

थी मंज़िल कुछ क़दम के फासले पर



ज़ुबाँ सिल ले, जिसे है जान प्यारी

कटेंगे सर यहाँ, सच बोलने पर



अधिष्ठाता वही इस देश के हैं

अभी तक जो रहे हैं हाशिये पर



मकाँ तब्दील हो जाता है घर में

डिनर पर, या सवेरे नाश्ते पर



बिठाए आपको पलकों पे… Continue

Added by जयनित कुमार मेहता on June 17, 2016 at 10:00pm — 6 Comments

अनंगशेखर छंद.......महीन है विलासिनी

महीन है विलासिनी  

महीन हैंं विलासिनी तलाशती रही हवा, विकास के कगार नित्य छांटते ज़मीन हैं.

ज़मीन हैं विकास हेतु सेतु बंध, ईट वृन्द, रोपते मकान शान कांपते प्रवीण हैं.

प्रवीण हैं सुसभ्य लोग सृष्टि को संवारते, उजाड़ते असंत - कंत नोचते नवीन हैं.

नवीन हैं कुलीन बुद्ध सत्य को अलापते, परंतु तंत्र - मंत्र दक्ष काटते महीन हैं.

मौलिक व अप्रकाशित

रचनाकार.... केवल प्रसाद सत्यम

Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on June 17, 2016 at 8:30pm — 13 Comments

आक्रोश – (लघुकथा) –

आक्रोश – (लघुकथा) –

" रूपा, तू यहाँ, रात के दो बजे! आज तो तेरी सुहागरात थी ना"!

"सही कह रही हो मौसी, आज हमारी सुहागरात थी! तुम्हारी सहेली के उस लंपट छोरे के साथ जिसे तुम बहुत सीधा बता रहीं थी! बोल रहीं थीं कि उसके मुंह में तो जुबान ही नहीं है"!

"क्या हुआ, इतनी उखडी हुई क्यों है"!

"उसी से पूछ लो ना फोन करके, अपनी सहेली के बिना जुबान के छोरे से"!

"अरे बेटी, तू भी तो कुछ बोल! तू तो मेरी सगी स्वर्गवासी  बहिन की इकलौती निशानी है"!

"तभी तो तुमने उस नीच के…

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Added by TEJ VEER SINGH on June 17, 2016 at 10:53am — 26 Comments

ग़जल/नीरज

2222  2222  2222  2222

दिन रात भरी तनहाई में इक उम्र गुज़ारी भी तो है ।

पाकर तुमको एहसास हुआ इक चीज हमारी भी तो है ।

हम बैठ तसव्वुर में तेरे बस ख्वाब नहीं देखा करते,

तेरी सूरत इन आँखों से इस दिल में उतारी भी तो है…

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Added by Neeraj Nishchal on June 17, 2016 at 10:00am — 12 Comments

गजल(धूप का मंजर बला था)

2122 2122



धूप का मंजर बला था

साथ पर साया चला था।1



आज जितना तब कहाँ यह

छाँव का आलम खला था।2



सच कहा है घर हमेशा

खुद चिरागों से जला था।3



क्यूँ मिटाने पर तुले अब

बच गया जो अधजला था।4



बातियों का नेह बहकर

हो गया तब जलजला था!5



स्वेद सिंचित हो गयी भू

पेड़ तब कोई पला था।6



रंग सबके मिल गये थे

इक तिरंगा तब फला था।7



रश्मियों के प्रेम-रस पग

जड़ हिमालय भी गला था।8



कट रहे हम… Continue

Added by Manan Kumar singh on June 16, 2016 at 11:00pm — 6 Comments

अपनी टपरिया, अपनो सिलसिला (लघुकथा)

"अबकी हमयीं करेंगे जो काम, तुम औंरें नीचे ठांड़े रईयो, जैसी कहत जायें, करत जईयो!" यह कहते हुए ज़िद्दी बाबूजी ऊपर चढ़ गए छप्पर सही करने।



"का फ़ायदा ई घास-फूस के छप्पर से, आंधियन में फिर सब बिखर जैहे!" कन्हैया ने व्यंग्य करते हुए कहा।



"बेटा, आंधी-तूफ़ानों से कैसे निपटो जात है, जो हमईं खों मालूम है, तुम औरों ने तो कछु नईं भोगो अभै तक!" बाबूजी ने कन्हैया और उसकी पत्नी के हाथों कुछ बल्लियें (लकड़ियें) और घास-फूस लेते हुए कहा- "झुग्गी झोपड़ियों में ज़िन्दगी ग़ुज़ारवे को लम्बो… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on June 16, 2016 at 5:11pm — 11 Comments

चेहरा ...

चेहरा ...

एक चेहरा एक पल में

लाखों चेहरे जी रहा

कौन जाने कौन सा चेहरा

हंस के आंसू पी रहा

एक चेहरा लगता अपना

एक क्यों बेगाना लगे

कौन दिल की बात कहता

कौन होठों को सी रहा

कत्ल होता रोज इक चेहरा

रोज इक जन्म हो रहा

एक जागे किसी की खातिर

आगोश में इक सो रहा

एक चेहरा ख्वाब बन के

ख़्वाबों में बस जाता है

एक चेहरा अक्स बन के

नींदें किसी की पी रहा

एक चेहरा अपनी दुनिया

चेहरों में बसाता है

एक चेहरा दुनिया…

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Added by Sushil Sarna on June 16, 2016 at 2:59pm — 6 Comments

इश्क है ये मस्त खुशबू का कोई झोंका नहीं

२१२२  २१२२  २१२२  २१२

इक दफा ये मर्ज लग जाये तो छुटकारा नहीं  

इश्क है ये मस्त खुशबू का कोई झोंका नहीं 

यार तुमने जिन्दगी को गौर से देखा नहीं  

दरमियाँ मेरे तुम्हारे लक्ष्मनी  रेखा नहीं 

तपती साँसों की तपिश कुछ सच बयानी कर रही 

धड़कने कहती हैंं दिल की प्‍यार है धोखा नहीं 

इश्क का अहसास कैसे ज़िंदगी में आ गया 

शेख जी कुछ राय देंगे मैंने कुछ सोचा नहीं 

इश्क है रब की इबादत राज गहरा जान लो 

देख…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on June 16, 2016 at 2:30pm — 5 Comments

गीत - दिए जो तूने मुझको गम

दिए जो तूने मुझको गम,

हुए जुदा खुद से हम,

रुख़ ये तूने मोड़ा क्यूँ,

दिल मेरा तोड़ा क्यूँ...

तेरी यादों मे जिया, ज़ख़्म दिल का है सिया,

तेरी यादों मे जिया, ज़ख़्म दिल का है सिया,

आँखों से बहते रहे अश्क, दर्द का प्याला पिया....

दिए जो तूने मुझको गम,

हुए जुदा खुद से हम....

बातें तेरी अनकही,

पास तू भी है नही,

बातें तेरी अनकही,

पास तू भी है नही,

करले कुछ वक़्त यार तू अब, प्यार झूठा ही सही....

दिए जो तूने मुझको…

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Added by M Vijish kumar on June 16, 2016 at 9:30am — No Comments

हमारे पास भी

हमारे पास  भी 
 
कहने को तो बहुत कुछ है हमारे पास भी 
ये बात अलग है कि कहते बनता नहीं 
ऐसा भी नहीं कि कहना नहीं जानते 
शब्द भंडार भी है अपार 
जानते हैं खूब वाक्य विन्यास 
फिर भी ऐसा कुछ है निःसन्देह  
रोक लेता है जुबान को 
लफ्ज़-ए - ब्यान को 
 
ठीक वैसे ही  जैसे 
सतीतत्व- प्रमाणिकता बनाम   
विश्वास भरोसे संवारती जानकी
अग्नि -परीक्षा के लिए…
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Added by amita tiwari on June 15, 2016 at 10:00pm — 5 Comments

विकास-यात्रा /लघुकथा

"ओ रे बुधिया , अब ये फूस हटाना ही पड़ेगा अपनी टपरी से "

" ई का कह रहे हो बुड्ढा , अब हम सब बिना छत के रहें का ? "

" नाहीं रे , कुछ टीन टपरा जोड़  लेंगे  "

"  काहे जोड़ लेंगे  टीन-टप्पर , क्यु कहे तुम  फूस हटाने को ?"

" खेत से आवत रहें तो गाँव के जोरगरहा दुई जन  को कुछ कहते सुनत रहे , ओही से कहे है "

" का सुन लिये रहे हो ?"

" कहत रहे कि फुसहा घर गाँव के विकास में…

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Added by kanta roy on June 15, 2016 at 8:00pm — 5 Comments

ग़ज़ल

2122_1212_22

दर्द ओ इजतराब जैसा हूं
ग़मो की इक किताब जैसा हूं

धूप का इक लिबास है तन पर
और मैं आफताब जैसा हूं

खार हर हाथो में कि शाखों पर
मैं झुलसता गुलाब जैसा हूं

कुछ न हासिल मेरी मुहब्बत को
मैं कि दरिया चनाब जैसा हूं

रेत है प्यास औ मेरी आहें
बेसदा कोई खाब जैसा हूं

मौलिक एवम् अप्रकाशित

Added by dileepvishwakarma on June 15, 2016 at 1:46pm — 5 Comments

वो इक बार दिल में हमें दाखिला दें

बहर- 122*4



सभी आज शरमों हया हम मिटा दें

हमें है मुहब्बत उन्हे हम बता दें





सजोंये सदाचार है जो अभी तक

अनोखा मेरा गाँव तुमको दिखा दें





नज़र लग न जाये बड़ी खूबसूरत

ये तस्वीर उनकी कहीँ हम छुपा दें





न हो दुश्मनी साथ मिलकर रहे हम

कोई फूल यारो हम ऐसा खिला दें





डिग्री साथ होगी हमारी विदाई

वो इक बार दिल में हमें दाखिला दें



यही आरजू है हमारी खुदा से

हमें हर जनम में उन्ही का बना… Continue

Added by maharshi tripathi on June 15, 2016 at 1:06pm — 14 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ग़ज़ल - डूब भी जाये कोई , पार उतारा लिख दो ( गिरिराज भंडारी )

2122   1122    1122   22 /112

.

तुम जो चाहो तो ये गिर्दाब, किनारा लिख दो

डूब भी जाये कोई , पार उतारा लिख दो

 

कैसे उस चाँद को धरती पे उतारा लिख दो

कैसे आँगन में हुआ खूब नज़ारा लिख दो

 

खटखटाने से कोई दर न खुले, तो दर पर 

बारहा मैने तेरा नाम पुकारा लिख दो

 

जंग अपनो से भला कैसे कोई कर लेता

ख़ुद को जीता, तो कहीं मुझको ही हारा लिख दो 

 

हो यक़ीं या कि न हो तुम तो लिखो सच अपना   

दश्ते…

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Added by गिरिराज भंडारी on June 15, 2016 at 9:30am — 59 Comments

चीखते नारों से क्या होगा ?

    बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम

मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन मुफ़ाईलुन

    1222 1222 1222 1222

            ग़ज़ल

सड़क पर बजबजाते चीखते नारों से क्या होगा

हवा में फुस्स हो जायें जो, गुब्बारों से क्या होगा ?

 

लडाई है बहुत बाकी बहुत कुछ कर गुजरना है

नही है हौसला दिल में तो नक्कारों से क्या होगा ?

 

जिन्हें हमने अता की है,  हकूमत देश की यारों

उन्ही में बदगुमानी है तो उद्गारों से क्या होगा ?

 

पड़े है एक कोने…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on June 15, 2016 at 8:39am — 18 Comments

ग़ज़ल ( यक बयक हादसा घट गया )

ग़ज़ल (  हादसा घट गया )

--------

212 -212 -212

यक बयक हादसा घट  गया ।

राहे उल्फत से वह हट गया ।

ज़ुल्म में ही था शामिल करम

था गुमाँ मुझको वह पट गया ।

जाऊं सदक़े सियासत तेरे

हर कोई क़ौम में बट गया ।

नाव भी डगमगाने लगी

हो रहा है गुमाँ तट गया ।

ऐसा लगता है फ़हरिस्त से

नाम शायद मेरा कट गया ।

खाये पत्थर गली में तेरी

सर मेरा यूँ नहीं फट गया…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on June 15, 2016 at 7:33am — 21 Comments

गंगा में बह रहे हैं फूल

आज तुम असमंजस में क्यूँ हो

देखकर गंगा में बहते फूलों को

जब तुम ही नहीं हो अब सुनने को

अब अपाहिज हुए अनुभूत तथ्यों को

अंधेरे बंद कमरे में कल रात

बड़ी देर तक ठहर गई थी रात

अकुलाती, दर्द भरी, रतजगी

आस्था रह न गई

ख़्यालों के अनबूझे ब्रह्माण्ड में

छटपटाती छिपी हुई कोई गहरी पहचान

भोर से पहले रात की अंतिम-दम चीखें

अन्धकार भरे अम्बर में जीवन्त पीड़ा

ऐसे में हमारे निजी अनुभूत तथ्यों ने

लिख कर…

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Added by vijay nikore on June 15, 2016 at 1:55am — 18 Comments

गरीब होने का सुख /लघुकथा

 ईंट का आखिरी खेप सिर से उतार कर पास रखे ड्रम से पानी ले हाथ-मुँह धो सीधे उसके पास आकर खड़ा हो गया ।

" सेठ , अब जल्दी से आज का हिसाब कर दो "

" कल ले लेना इकट्ठे दोनों दिन की मजूरी ।"

" नहीं सेठ , आज का हिसाब आज करो , कल को मै काम आता या नहीं , भरोसा नहीं "

" मतलब "

" इस हफ्ते पाँच दिन काम किया ना , बहुत कमा लिया ,इतना ही काफी है । अब अगले हफ्ते ही काम पर आऊँगा ।"

" बहुत कमा लिया , हूँ ह ! इतनी-सी कमाई में क्या - क्या करोगे ?"

" क्या-क्या नहीं…

Continue

Added by kanta roy on June 14, 2016 at 12:30pm — 22 Comments

लघु - कवितायें - 01 - डॉo विजय शंकर

तालाब की दुर्गन्ध
दूर दूर तक फ़ैली थी ,
वो कुछ मछलियों
के भाग जाने का
हवाला दे रहे थे।
**********************
लोग जितने नासमझ होगे
उतनी आप की बात मानेंगे।
लोग जितने टूटेंगे ,
आप उतने मजबूत होंगे।
आप जितनी रोटियां बाटेंगे ,
लोग उतने आपके होंगे।
***********************
राम का नाम सत्य है ,
कभी राम का निर्वासन हुआ ,
आज सत्य का हुआ है।
कारण तब भी राजनैतिक थे ,
अब भी राजनैतिक है।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on June 14, 2016 at 11:03am — 20 Comments

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