2122--2122--2122--212
इस मकां को बामो-दर से एक घर करती रही |
माँ मुसलसल काम अपना उम्र भर करती रही |
|
धूप बारिश सर्दियों को मुख़्तसर करती रही |
बीज की कुछ कोशिशें मिलकर शज़र करती रही… |
Added by मिथिलेश वामनकर on August 5, 2015 at 1:00am — 16 Comments
गज़ल........122, 122, 122, 122
तुम्हारी कसम बेसहारा नहीं हूँ.
महज़ इक गज़ल हित आवारा नहीं हूँ.
सँवारे ज़मी आस्माँ चाँद तारें
वही इक जुगनू बेचारा नहीं हूँ.
गली घाट घर गाँव सबका सहारा
सजग कौम कुत्ता दुलारा नहीं हूँ.
लगी आग महलों दुमहलों में जब भी
बुझाया हमेशा लुकारा नहीं हूँ.
सकल जीव मे आत्मा एक सत्यम
सदा सच कहूं इक तुम्हारा नहीं हूँ.
के0पी0 सत्यम / मौलिक व…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 4, 2015 at 9:06pm — 5 Comments
नित्य करेला खाकर गुरु जी, मीठे बोल सुनाते हैं,
नीम पात को प्रात चबा बम, भोले का गुण गाते हैं.
उपरी छिलका फल अनार का, तीता जितना होता है
उस छिलके के अंदर दाने, मीठे रस को पाते हैं.
कोकिल गाती मुक्त कंठ से, आम्र मंजरी के ऊपर
काले काले भंवरे सारे, मस्ती में गुंजाते हैं.
कांटो मध्यहि कलियाँ पल कर, खिलती है मुस्काती है
पुष्प सुहाने मादक बनकर, भौंरों को ललचाते हैं.
भीषण गर्मी के आतप से, पानी कैसे भाप बने
भाप बने बादल जैसे ही, शीतल जल को लाते…
Added by JAWAHAR LAL SINGH on August 4, 2015 at 9:00pm — 4 Comments
Added by Manan Kumar singh on August 4, 2015 at 8:30pm — 10 Comments
Added by Ravi Prakash on August 4, 2015 at 4:56pm — 13 Comments
एक दिन की लिली …
ContinueAdded by Dr.Brijesh Kumar Tripathi on August 4, 2015 at 4:30pm — No Comments
'ला सत्ते की बहू! कुछ काम हो तो बता दे, एक कप अदरक वाली चाय भी पिला दे, आज कुछ तबियत भी ढ़ीली सी लग रही है। फिर सुना है, पंडताईन की बहू के बेटा हुआ है---, ज़रा होकर आऊंगी, मुझे याद कर रही होगी। नंबरदारनी के भी जाना है, कह रही थी, दादी ! ज़रा सिर में तेल डाल देना-----।' रह रह कर गूंज रहे थे, उसके आखिरी शब्द, मेरे कानों में।
यही क्रम था असगरी नायन का रोज़ का। सारा गांव उसे दादी कहकर ही बुलाता…
ContinueAdded by Dr. (Mrs) Niraj Sharma on August 4, 2015 at 3:00pm — 26 Comments
221 2121 1221 212 ( आ. दुष्यंत कुमार की ज़मीन पर )
( अच्छा हुआ कि सर पे कोई छत नही रही )
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जब से किसी के कोई भी चाहत नहीं रही
तब से किसी से कोई शिकायत नहीं रही
फिर जोश कह रहा है कि टकरा जा संग से
पर होश ये कहे है , वो ताकत नहीं रही
मेरी ही कोशिशों में कमी कुछ तो थी ज़रूर
मै क्यूँ कहूँ कि वो मेरी क़िस्मत नहीं रही
बाती के साथ तेल लिये घूमता हूँ,…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on August 4, 2015 at 2:53pm — 24 Comments
कुछ क्षणिकाएँ :
१.
कितना अद्भुत है
ये जीवन
कदम दर कदम
अग्रसर होता है
एक अज्ञात
संपूर्णता की तलाश में
और ब्रह्मलीन हो जाता है
एक अपूर्णता के साथ
२.
छुपाती रही
जिसकी मधु स्मृति को
अपने अंतस तल की गहराई में
वो खारी स्याही से
कपोल पर ठहर
इक बूँद में
विरह व्यथा का
सागर लिख गया
३.
मैंने सौंप दिया
सर्वस्व अपना
जिसे अपना मान
छल गया वही
पावन प्रीत को …
Added by Sushil Sarna on August 4, 2015 at 1:30pm — 8 Comments
सुरभि की छाँव में आकर हुआ दरपन सहज कायल
तुम्हारा रूप बादल सा इबादत की तरह निर्मल
नहाकर ओस से निकली प्रकृति की नायिका तड़के
उषा की बाँह फैलाये विमोहित रवि हुआ चंचल
न दो व्यवधान अलियों को उन्हें करने निवेदन दो
सुवासित प्रीति का उपवन, समर्पण के खिले शतदल
समूचा सींच डाला मन, बदन, अस्तित्व रिमझिम ने
तुम्हारी याद सावन सी बरसती हर घड़ी, हर पल
नदी की धार पर लिक्खा किसी ने गीत प्राणों का
बहा जब मन तरल होकर, लहर भी हो उठी…
Added by Sulabh Agnihotri on August 4, 2015 at 11:02am — 13 Comments
2122 212 2122 1212
सर फरोशों के लिए बंदिशे क्या हुदूद क्या
होंसलों के सामने आँधियों का वजूद क्या
बांटता सबको बराबर न रखता कोई हिसाब
इक समन्दर के लिए मूल क्या और सूद क्या
बूँद इक मोती बनी दूसरी ख़ाक में मिली
सिलसिला है जीस्त का बूद है क्या नबूद क्या
जिन चिरागों की जबीं पर लिखी हुई हो तीरगी
अर्श उनके वास्ते लाल, पीला, कबूद क्या
उस अदालत में…
ContinueAdded by rajesh kumari on August 4, 2015 at 10:55am — 24 Comments
गंगा तो पवित्र है
इन्सानों के दुष्कर्म
अनवरत बहाना इसका चरित्र है
मैली पड़ जाती है
फिर भी बहती जाती है
आखिर माँ है
चुप चाप सहती जाती है
मगर दूषित करने वाले
माँ पुकार कर भी
ज़हर पिलाते जाते हैं
दुखों का अम्बार जुटाते जाते हैं
कहाँ किसी को ये प्यार दे पाते हैं
स्वार्थ ही तो कर्म है इनका
बस यही धर्म निभाते जाते हैं
इक दिन ये राख़ बन जाएंगे
माँ से मिलने फिर वापस आएंगे
किस मुहं से मुक्ति मांग पाएंगे
मगर गंगा तो आखिर गंगा माँ…
Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on August 4, 2015 at 7:56am — 21 Comments
संशोधित तरही गज़ल
२२ २२ २२ २२ २२ २२ २२ २
नींदों से जब मिलकर आये कुछ पल बैठ कयाम किया
ऐसा करके सपनों ने भी कुछ तो मेरा काम किया
कब ये दुनिया औरत को घर अपने का हिस्सा माने
मर्द की जेब को हर पल देखा सुबह व् शाम सलाम किया
मुझ को अक्सर आके वो बातें ऐसी बदलाती है
रौशन कैसे दुनिया होगी न अँधेरा नाकाम किया
हर पल उसके पास रहूँ मैं,फिर भी गुम हो जाती है
साथ तो उसका पाया अक्सर याद मेंरी गुमनाम किया
बीत गई जिंद सोच में उलझे कैसे होती तो फुर्सत
रात…
Added by मोहन बेगोवाल on August 4, 2015 at 1:16am — 3 Comments
मोम के पिघलने का
सदियों से रहा है दस्तूर
कोई पत्थर अब पिघला दे
तो कोई बात बने
ऐसा भी नही
कि हर शाम हो हसीन
धूप पर पानी छिड़क
तो कोई बात बने
लड़खड़ाकर मन्दिर का
दिया करता है रोशन
घर के परदे को सिल
तो कोई बात बने
.
मौलिक व अप्रकाशित"
Added by S.S Dipu on August 3, 2015 at 9:00pm — 11 Comments
Added by saalim sheikh on August 3, 2015 at 8:00pm — 15 Comments
2122 2122 2122 212
बन गया मैं यूँ खुदा, सूली पे चढ़ जाने के बाद,
पत्थरों में पूजे मुझको, अब सितम ढाने के बाद |
बनके पत्थर देखता हूँ, इंतिहा बुत परस्ती की,
फूल बरसाए है दुनियां, चोट बरसाने के बाद |
मैं था पागल इश्क में, उसको न जाने क्या हुआ,
लौ बुझा दी इस दीये की, इतना समझाने के बाद |
बे-वफाई छेदती है, नर्म दिल की परतों को,
हूर रुख्सत हो कभी दिल में वो बस जाने के बाद |
इतना रोया हूँ, मगर अब, अश्क आँखों में…
Added by Harash Mahajan on August 3, 2015 at 1:30pm — 9 Comments
212—212—1222 |
|
पास दिल के जो डर नहीं आता |
राहे-हक हमसफर नहीं आता |
|
आज बेटा बदल गया कितना |
एक आवाज़ पर नहीं… |
Added by मिथिलेश वामनकर on August 3, 2015 at 9:30am — 42 Comments
२१२ / २१२ / २१२
इश्क के बाद है क्या मिला?
वाँ भी था याँ भी पर्दा मिला
.
अब सनम जबकि तुम खो गये
ख़ुद से मिलने का मौक़ा मिला
.
उनके वादों का हासिल है क्या?
हाथ वादों के वादा मिला
.
हमने दुनिया बहुत देखी पर
कोई मुझको न तुमसा मिला
.
लाख़ कोशिश की हमने मगर
दिल से दिल का न सौदा मिला
.
जब खुला ख़त मेरे वास्ते
नाम हर शय में उसका मिला
.
बेतकल्लुफ़ न इतना हो…
ContinueAdded by Krish mishra 'jaan' gorakhpuri on August 3, 2015 at 9:00am — 16 Comments
क्यों तू बात नहीं करता
उस नीम के पेड़ की?
जिसके भूत की बातों से,
बचपन में मुझे डराता था
और फिर मजे लेकर
मेरी हंसी उडाता थाI
उस कुँए की भी तू
अब बात नहीं करता ,
जिसमे पत्थर फेंक
हम दोनों चिल्लाते थे ,
फिर कुँए के भूत भी
पलटकर आवाज़ लगाते थेI
उन इस्माइल चाचा का भी
जिक्र तू टालता है
जिनके बाग़ से कच्चे
अमरुद खाते थे और
वो कितना चिल्लाते थे,
पर रात को पके…
ContinueAdded by pratibha pande on August 2, 2015 at 11:08pm — 12 Comments
दो गायक महीनों बाद सवेरे की सैर पर साथ निकले|
एक ने पूछा, "तुमने शास्त्रीय संगीत छोड़ कर ये घटिया राग अलापना क्यों शुरू किया?"
दूसरे ने कहा, "शास्त्रीय संगीत ने आत्मा को चैन और अमन की दौलत दी, लेकिन मेरी पत्नी और बच्चे भूखे रहे| अब मेरे गानों को गली में घूमने वाले गाते हैं, पान की दुकानों और वाहनों में बजता है, बच्चे उन पर नृत्य करते हैं.... और अब देखो कल ही ये खरीदा है|"
उसने एक बड़े से मकान की ओर इशारा किया, जिसे देखते ही पहले के फटे कपड़ों में से शास्त्रीय संगीत की…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on August 2, 2015 at 8:00pm — 12 Comments
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