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लघुकथा - मज़हब –

लघुकथा - मज़हब –

"मेरी राय में ,हमें  उनके प्रस्ताव को स्वीकार करने  से पहले पुनः विचार करना चाहिए"!

"यार तू बार बार ऐसी शंका ले कर क्यों बैठ जाता है"!

"देख भाई , वो लोग पांच बडे शहरों में पांच ज़गह बम्ब रखवाना चाहते हैं, और वो ज़गह हैं , स्कूल,अस्पताल,रेलवे स्टेशन, बस स्टैंड और सिनेमा घर"!

"और बदले में हमें दैंगे दस करोड, हम पांचों को दो दो करोड मिलेंगे,समझा"!

"पर यार इन सब ज़गहों पर अपने मज़हब के लोग भी तो होते हैं"!

"अरे यार ये क्या मज़हब की रट लगा रखी…

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Added by TEJ VEER SINGH on July 31, 2015 at 1:00pm — 6 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
साजन का होने को है दीदार लिखो (सावन ऋतु पर एक हिंदी ग़ज़ल 'राज')

 

धरती का नूतन नखशिख सिंगार लिखो

सावन लाया है  मोती के  हार लिखो

 

दादुर मोर मयूरी का आभार लिखो

नदियों नालों में जल का विस्तार लिखो

 

पत्ता पत्ता डाली डाली झूम रही

बूँदे बूँदे चूम रही हैं प्यार लिखो

 

प्यास बुझाती कुदरत कितने प्यासों की

तिनके तिनके पर उसका उपकार लिखो

 

खेतों खेतों  धान उगाते हैं हाली

भेज रहे बादल जल का उपहार लिखो 

 

सागर नदिया लहरों की रफ़्तार…

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Added by rajesh kumari on July 31, 2015 at 10:10am — 9 Comments

सूर्य नमस्कार (लघुकथा)

पांच दिनों की लगातार बारिश के बाद कल शाम से आसमान साफ़ है और आज सुबह से सूरज खिला है 

जॉगर्स पार्क में आज रौनक है I पार्क का योगा हॉल ' हा हा  हो हो ' से गूँज रहा है , एक तरफ खुल कर हंसने की  और दूसरी तरफ सूर्य नमस्कार की कवायद  जारी हैI

बुधवा ने अपनी झुग्गी से बाहर निकल कर आसमान की तरफ देखाऔर चिल्लाया 

"अरे अम्मा i  सूरज देवता आय गए हैं , परेसान मत हो  , आज तो दिहाड़ी मिल ही जाएगी , रासन भी ले आऊँगा और तेरी दवाई भी "

उसका मन किया झुग्गी  के बाहर भरे पानी…

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Added by pratibha pande on July 31, 2015 at 10:00am — 4 Comments

गजल

गजल
2212 2212
हर बार मजहब मत उठा,
नाचीज यह गजब मत ढा।
जो हो न कुछ,खबर न सजा,
आका, कभी रहवर न बना।
रोटी पकी, अब चुप रहो,
जनता जली,जन को न जला।
झंडे उठा तू था गया,
दे कर उसे, तूने छला।
मजहब भला करता कि वह
हरदम रहा मरता चला?
ढोते रहे बस भार-से,
ईमान तो उनकी बला।
सुना कि मानेंगे सभी
मजहब,कभी बातें भला?
'मौलिक व अप्रकाशित'@मनन

Added by Manan Kumar singh on July 31, 2015 at 12:03am — 2 Comments

अख़बारों में (सुझाव के निमित्त प्रस्तुत)

बिक जाता है चन्द रूपये की खातिर अख़बारों में।

बहुत तलाशा मिला नहीं पर सच आख़िर अख़बारों में।।



बेंच रहे हैं ज़हर मिलाकर भोजन में बाज़ारों में।

विज्ञापन की बाढ़ आ गयी पैसे से अख़बारों में।।



पेड़ बचाओ करो सफाई ऐसे कैसे संभव है।

भौतिकता का नशा बेंचते रोज़ रोज़ अख़बारों में।।



चोरी और अपराध रुकेगा किस तरहा से कहिये ना।

महंगी वाली कार-मोबाइल दिखते जब अख़बारों में।।



लोभ-मोह का त्याग सिखाते गुरुकुल सारे गायब हैं।

मैकाले की नीति बाँचते विद्यालय…

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Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 30, 2015 at 10:00pm — 4 Comments

दलदली जमीं पर ख्वाबों की बुनियाद

दलदली जमीं पर ख्वाबों की बुनियाद

 

यामिनी हर दिन अपनी बेटी को लोरी सुनती थी ,जो आम लोरी से कुछ हट के होता था .

“मैं कम पढ़ी लिखी ,मजबूर और अकेली थी “.

तुम तन्हा नहीं ,मैं हूँ ना

“मेरे पास धन नहीं सिर्फ तन की दौलत थी “

तुम इतनी कंगाल नहीं होगी कि तुम्हे अपनी दुर्लभ तन बेचनी पड़े .

“संसार में कोई काम छोटा नहीं होता ,मैं भी हमदोनों की पेट की खातिर ही इसे काम समझ करती हूँ .”

तुम इतना सक्षम होगी कि छोटे काम तुम्हे करने ही नहीं…

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Added by Rita Gupta on July 30, 2015 at 9:50pm — 8 Comments

कलाम - तुझ को मेरा सलाम (कविता)

किसी के अब्दुल थे

किसी के तुम कलाम

दृढ़ थे संकल्प तेरे

वहुआयामी कलाम I

माँ भारती के लाल

तुझ को मेरा सलाम I

 

होते हुए भी अर्श पर

भूले न जो थे फ़र्श पर

व्याधि वाधा सांझा कर

दी सदा उन्हें संघर्ष पर

लगाओ पंख अग्नि को

न होंगे कभी तुम नाकाम I

जियो मरो देश के लिए

न होंगे कभी तुम गुलाम I

माँ भारती के लाल

तुझ को मेरा सलाम I

 

विपत्तियों से न डरो

बीच धारा से…

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Added by कंवर करतार on July 30, 2015 at 9:30pm — 2 Comments

दरकते रिश्तों की हक़ीक़त(कहानी)

‘पूजा, कितनी बार कहा है तुम्हें कि अपने काम और पढ़ाई-लिखाई से मतलब रखा करो, लड़कों से ज्यादा घुला-मिला, ज्यादा हँसी-मज़ाक मत किया करो, ये सही नहीं है, तुम मेरी बात सुनती क्यों नहीं हो?’

‘मैं कहाँ किसी लड़के से ज्यादा हँसी-मज़ाक करती हूँ या घुलती-मिलती हूँ?’

‘मुझे सब दिखता है, अंधी नहीं हूँ मैं. एक सप्ताह से तुम्हारी पढाई-लिखाई बंद है, खाना-पीना तक ठीक से नहीं कर रही हो. 10 दिनों के लिए प्रवीण आया है हमारे घर और तुम अपना सारा…

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Added by Prashant Priyadarshi on July 30, 2015 at 3:48pm — 4 Comments

बजता हूँ बन के साज तेरे मंदिरों में अब (इस्लाही गजल )

2212 2212 2212 22

बजता हूँ बन के साज तेरे मंदिरों में अब,

देता तुझे आवाज  तेरे मंदिरों में अब |



मांगी थी मैंने उम्र की संजीदगी लेकिन, 

क्यों इस तरह  मुहताज तेरे मंदिरों में अब |



मन जिसका देखूं दुश्मनी की नीव पे काबिज़, 

कैसे करूँ परवाज़ तेरे मंदिरों में अब | 



बस रौशनी की खोज में भटका तमाम उम्र

पगला गया, नेवाज तेरे मंदिरों में अब |



ले चल मुझे शमशान, कोई गम जहाँ ना हो, 

मेरा गया हमराज, तेरे मंदिरों में अब |…

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Added by Harash Mahajan on July 30, 2015 at 11:02am — 37 Comments

गजल

भ्रमर,कली से---गजल

2122 2122 2122 212

सोचता हूँ क्या कली की बंदगी का नाम दूँ?

कह गया हूँ मैं बहुत, लो आ तुझे पैगाम दूँ।

रूप की आराधना हो साधना यह कामना,

इश्क करना चाहिये मैं नाम और इनाम दूँ।

घूम आया हर गली मैं बात प्यारी गुनगुना,

अब न टूटें दिल कभी यह देख मैं पैगाम दूँ।

राग-रस की कामना अनुरागियों की प्रीत है,

तू बसी मन में हमारे, और कौन मक़ाम दूँ?

रात तेरी, दिन तुझे री सुबह तुझको शाम दूँ,

पंखुड़ी के होंठ तेरे गीत उनके नाम दूँ।

कह रहे सब… Continue

Added by Manan Kumar singh on July 30, 2015 at 8:49am — 4 Comments

गुज़रा ज़माना ........इंतज़ार

कभी ऐसे भी दिन थे

होती है सोच हैरानी

बचपन हरा कर

जब जीती थी मासूम जवानी !

याद है जब मैंने

चूमी थी तेरी पेशानी

आज भी भुला नहीं पाता

है मुझ को हैरानी ! 

वो आंखें मिलाना

तेरा हाथ छूने के

नादान बहाने जुटाना

तेरी नज़र बचा कर

तुझे तकते जाना !

हवा के झोंके से

जब तेरा पल्लू मुझे छू जाना

उफ़ ...तुझ पे इसकदर मर जाना

क्यूँ होता है

दिल ऐसा दीवाना

हैरां हूँ वो भी क्या था ज़माना ! 

ये बात है इतनी पुरानी

आज…

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Added by Mohan Sethi 'इंतज़ार' on July 30, 2015 at 7:00am — No Comments

लघुकथा " घात"

"घात"



"" अरे तु चल मेरे साथ दो हाथ जमा उंगा तो सब कबूल देगा कमीना। रात दिन भैया ,भैया करता रहा और हमसे ही इतनी बड़ी गद्दारी। "" मोहन जैसे आगबबूला हुए जा रहा था।

""नहीं ,नहीं एकदम से कैसे कहेगें ,हमारे पास कोई सबूत गवाह भी तो नहीं है। "" रीमा ने रुआंसी आवाज में कहा !



"अरे क्या सबूत क्या गवाह तुझे विश्वास है ना ये उसी ने किया है तो फिर । "" अरे पुलिस के चार डण्डे पडेगें ना तो सब कबूल लेगा। अरे तुम्हारी सारी कमाई ले गया ! ""

" पुलिस नहीं नहीं पुलिस को मत कहो ! यदि… Continue

Added by babita choubey shakti on July 30, 2015 at 6:49am — 3 Comments

ग़ज़ल :- "ग़ालिब" से माज़रत के साथ

फ़ाइलातुन मफ़ाइलुन फ़ेलुन/फ़इलुन



इस तरफ़ भूल कर नहीं आती

ये ख़ुशी मेरे घर नहीं आती



आप रूठे हुए हैं जिस दिन से

"कोई उम्मीद बर नहीं आती"



बच निकलने की,ज़िन्दगी तुझसे

"कोई सूरत नज़र नहीं आती"



"मौत का एक दिन मुअय्यन है"

वक़्त से पैशतर नहीं आती



दिन में सोते हैं और पूछते हैं ?

"नींद क्यूँ रात भर नहीं आती"



देख लेती थी जो पस-ए-दीवार

वो नज़र,अब नज़र नहीं आती



"काबा किस मुंह से जाओगे",बोलो

शर्म तुमको "समर"… Continue

Added by Samar kabeer on July 29, 2015 at 9:38pm — 10 Comments

ये ज़िंदगी ....

ये ज़िंदगी ....

ज़िंदगी हर कदम पर रंग बदलती है

कभी लहरों सी मचलती है

कभी गीली रेत पे चलती है

कभी उसके दामन में

कहकहों का शोर होता है

कभी निगाहों से बरसात होती है

संग मौसम के

फ़िज़ाएं भी रंग बदलती हैं

कभी सुख की हवाएँ चलती हैं

कभी हवाएँ दुःख में आहें भरती हैं

बड़ी अजीब है ज़िंदगी की हकीकत

जितना समझते हैं

उतनी उलझती जाती है

अन्ततः थक कर

स्वयं को शून्यता में विलीन कर देती है

न जाने कब

ज़हन में यादों का…

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Added by Sushil Sarna on July 29, 2015 at 8:10pm — 2 Comments

ताज़ा ग़ज़ल : टूट के कर गया आशियां दर ब दर

बह्र  212 212 212 212

टूट के  कर गया आशियां दर ब दर

घूमते फिर रहे हम यहां दर ब दर

 

आ गये  लौट कर अक्‍ल वाले सभी    

पर जुनूं में हुए लामकां दर ब दर

 

कमसिनी छोड़कर अब महकने लगे 

जख्‍म मेरे हुए बेकरां दर ब दर

 

खाल में भेड़ की भेडि़ये घुस गये

मर गये मेमने बकरियां दर ब दर

 

हो सकी क्‍या हमें खुद हमारी सनद

फिर रहा आदमी बेनिशां दर ब दर

हम कहां से चले थे कहां आ गये

कर…

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Added by Ravi Shukla on July 29, 2015 at 6:00pm — 10 Comments

दुनियादारी निभा रहा हूं! (कविता)

आंखों में आंसू हैं, और गीत ख़ुशी के गा रहा हूं!

कुछ नहीं यारों, मैं तो बस दुनियादारी निभा रहा हूं!!

कुछ अपनों ने लूटा हमको,

कुछ गैरों ने सताया..

मौका मिला जिसे भी, उसने

जी-भर हमें रुलाया..

सबपे किया भरोसा, उसकी क़ीमत चुका रहा हूं!

नित सांझ ढले यादों की,

बारात जब आती है..

भर रहे ज़ख्मों को,

फिर से कुरेद जाती है..

मैं दिल के घाव पे तो, मरहम लगा रहा हूं!

उजड़ गया वो…

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Added by जयनित कुमार मेहता on July 29, 2015 at 12:47pm — 3 Comments

गोलियों के बाद

खौफ् कॆ बारुद्

फिज़ा मॆं उड गयॆ

नक़ाब् के चह्ररॆ

श्हर् मॆं मिल् गयॆ

गॊलियॊ कि अवाज़्

कुछ् ऐसॆ बिखर् गयी

दॆखते ही देखते धर्रती

कि सुरत् बदल् गयी

कि कॊइ रॊता भी नही

कॊइ मुस्कुरता भी नही

कॊइ सॊता भी नही

कॊइ जागता भी नही

कॊइ चलता भी नहीं

कॊइ रुक्तता भी नही

कॊइ हारता भी नही

कॊइ हराता भी नही

कॊइ सहमता भी नही

कॊइ शर्रमाता भी नही

कॊइ खॊता भी नही

कॊइ पाता भी नही

कॊई आता भी नही

कॊई जाता भी… Continue

Added by S.S Dipu on July 29, 2015 at 9:20am — 7 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
मज़बूत बुनियाद - (लघुकथा) - मिथिलेश वामनकर

“मम्मा मेरे लिए ब्रेकफास्ट में केवल फ्रूट सलाद बनाना.”

“आज फ्रूट्स नहीं है... कुछ और बना दूं ?”

“नहीं” - परी ने मना कर दिया क्योकिं पार्टी में हैवी डाईट के कारण ब्रेकफास्ट लाईट करना चाहती थी. तभी बेडरूम से पापा बाहर आये. अपनी इकलौती बेटी को देर रात से घर आने के लिए समझाते रहें और मॉर्निंग-वाक के लिए निकल गए.

“मम्मा... ये पापा सुबह-सुबह चालू हो जाते है, ये करो, ये मत करो.... ये लेट नाईट पार्टीज हमारा कल्चर नहीं है. ब्ला ब्ला ब्ला.......”

“तुम्हारी केयर करते है पापा, इसलिए…

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Added by मिथिलेश वामनकर on July 29, 2015 at 2:58am — 23 Comments

खिजाँ आयी है किस्मत में बहारों का भी दम निकले ( इस्लाही ग़ज़ल )

खिजाँ आयी है किस्मत में बहारों का भी दम निकले,

जहाँ ढूँढू मैं अरमां को , वहां अरमां भी कम निकले |



हजारों गम मेरे दिल में न मुझको राख ये कर दें ,

कहीं इन सुर्ख आँखों से नदी बन के न हम निकले |



तुम्हें लिख-लिख के ख़त अक्सर कभी मैं भूल जाता था,

पुराने ख़त दराजों से जो निकले आज, नम निकले |



किसी की जुस्तजू करके कि खुद को खो चुका हूँ मैं,

उधर से बेरुखी उनकी इधर दुनिया से हम निकले |



जगह छोड़ी है जख्मों ने कहाँ अब 'हर्ष' सीने में,…

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Added by Harash Mahajan on July 28, 2015 at 7:00pm — 4 Comments

एक ग़ज़ल - सुधिजनो द्वारा परिमार्जन हेतु

खूब सूरत है नज़ारे क्‍या करें

गुरबतों के लोग मारे क्‍या करें

 

सो गए फुटपाथ पर जोखिम मगर

नींद जो उनको पुकारे क्‍या करें

 

साल मे इक माह मिलती छुट्टियां

चॉंद को गर ना निहारे क्‍या…

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Added by Ravi Shukla on July 28, 2015 at 5:30pm — 9 Comments

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