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August 2013 Blog Posts (253)

माँग भरकर सुहागन खड़ी रह गई

ख़्वाब पूरे हुए आस भी रह गई

जिंदगी में तुम्हारी कमी रह गई

फ़ौज से लौट कर आ सका वह नहीं   

माँग भरकर सुहागन खड़ी रह गई 

खैर तेरी खुदा से रही मांगती  

चाह तेरी मुझे ना मिली रह गई 

छोड़ कर तुम भँवर में न होना खफा 

घाव दिल को दिए जो छली रह गई 

आजमाइश तूने की अजब है सबब 

मांगने में कसर जो कहीं रह गई 

प्यार गुल से निभा बुल फिरे पूछती  

आरजू में बता क्या कमी रह गई 

घाव…

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Added by Sarita Bhatia on August 23, 2013 at 1:30pm — 13 Comments

माँ की डायरी से

१- सितार के टूटे हुए तार

 वह एक भावुक, कमनीय सी लडकी; सब सहपाठी छात्राओं से, आयु में कहीं छोटी।  कई क्लासें फांदकर बारहवीं तक पहुंची थी ताकि विधवा माँ को, हर बार, फीस के पैसे न चुकाने पड़ें.  उसके अभावग्रस्त परिवार में, सपनों के लिए, कोई स्थान न था. लेकिन ख्वाबों के पर, फिर भी, निकल ही आते हैं! अम्मा ने किसी प्रकार पैसे जोड़कर, उसे एक नन्हा सा सितार दिलवाया क्योंकि स्कूल में, सितार भी एक विषय था. सितार को देखते ही, उसे रोमांच हो आया. हृदय की सुप्त उमंगें, उमड़ पड़ीं.

अब…
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Added by Vinita Shukla on August 23, 2013 at 11:15am — 24 Comments

ग़ज़ल : कोई चले न जोर तो जूता निकालिये

बह्र : मफऊलु फायलातु मफाईलु फायलुन (221 2121 1221 212)

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चंदा स्वयं हो चोर तो जूता निकालिये

सूरज करे न भोर तो जूता निकालिये

 

वेतन है ठीक  साब का भत्ते भी ठीक हैं

फिर भी हों घूसखोर तो जूता निकालिये

 

देने में ढील कोई बुराई नहीं मगर

कर काटती हो डोर तो जूता निकालिये 

 

जिनको चुना है आपने करने के लिए काम

करते हों सिर्फ़ शोर तो जूता निकालिये

 

हड़ताल, शांतिपूर्ण प्रदर्शन, जूलूस तक

कोई…

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Added by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on August 22, 2013 at 9:54pm — 29 Comments

मुझ पर तू यकीन कर ले !

मैं तेरा हूँ बस तेरा

तेरे दिल में मेरा बसेरा

मेरे दिल में तेरा ही डेरा

सारी उम्र तू हसीन कर ले

मुझ पर तू यकीन कर ले.....

क्यूँ बार बार दिल तोडती है

इरादों को यूँ मोड़ती है

जब किस्मत हमें जोड़ती है

दूरियों को तू महीन कर ले

मुझ पर तू यकीन कर ले.....

आजा छोटा सा जीवन है

चार दिनों का यौवन है

हर मौसम ही सावन है

खुशी  को तू आमीन कर ले

मुझ पर तू यकीन कर ले....

हम दोनों है…

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Added by जितेन्द्र पस्टारिया on August 22, 2013 at 6:30pm — 28 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
एक कदम ( लघु कथा )

बोलो नेहा ! इतनी उदास क्यों हो ?

पर सूनी आँखों में कोई ज़वाब न देख, अपने हक के लिए कभी एक शब्द भी न कह पाने वाली दिव्या,  अचानक हाथ में प्रोस्पेक्टस के ऊपर एडमीशन फॉर्म के कटे-फटे टुकड़े लिए, बिना किसी से इजाज़त मांगे और दरवाजा खटखटाए बगैर, सीधे ऑफिस में घुसी और डीन की आँखों में आँखे डाल गरजते हुए बोली “देखिये और बताइये– क्या है ये? आपकी शोधार्थी नें एडमीशन फॉर्म के इतने टुकड़े क्यों कर डाले? दो साल से सिनॉप्सिस तक प्रेसेंट नहीं हुई, क्यों ? इतना कम्युनिकेशन गैप? आखिर समय क्यों नहीं…

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Added by Dr.Prachi Singh on August 22, 2013 at 6:30pm — 31 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
गज़ल --" क्यों अन्धेरों में सुलह से रौशनी घबरा रही है "

2122    2122   2122    2122

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क्या हवायें आज कुछ पैग़ाम ले के आ रही है

धूप भी कुछ गा रही है, छाँव भी इतरा रही है

 

बेख़याली मे कहीं हम हद के बाहर तो नहीं है

आदमीयत आज बैठी क्यूँ यहां शर्मा रही…

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Added by गिरिराज भंडारी on August 22, 2013 at 6:00pm — 36 Comments

नज़्म / नीरज

तड़पा करूँ तेरी याद में हर पल ।

बन के रहूँ तेरे प्यार में पागल ।

मेरी जाना । मेरी जाना ।

मेरी जाना । मेरी जाना ।

तुझे भूलूं न कभी तुझे छोड़ूं न कभी ।

तेरे लिए मै जियूँ तू है मेरी ज़िन्दगी ।

दीवाने दिल की चाहत बनकर ।

आती हो मेरे ख़्वाबों में अक्सर ।

मेरी जाना । मेरी जाना ।

मेरी जाना । मेरी जाना ।

तेरा सपना सजाऊं तुझे अपना बनाऊं ।

लाऊं तोड़ के तारे तेरी मांग सजाऊं ।

तोड़ न जाना जन्मों…

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Added by Neeraj Nishchal on August 22, 2013 at 4:57pm — 4 Comments

मेरे पागल दिल से पूछो [नज़्म]

तुमसे बिछड़ के क्यों जीता हूँ ,

मेरे पागल दिल से पूछो ।

दर्द के आंसू क्यों पीता हूँ ,

मेरे पागल दिल से पूछो ।

तनहाई के दौर बहुत हैं ।

दर्द मिले इस तौर बहुत हैं ।

ये न समझना एक तुम्ही हो,

दिल के साथी और बहुत हैं ।

टूटे सपने क्यों सींता हूँ ,

मेरे पागल दिल से पूछो ।

माना तुमसे दूर बहुत हैं ।

हम दिल से मजबूर बहुत हैं ।

प्यार की रस्मे कैसे निभायें,

दुनिया के दस्तूर बहुत हैं ।

किन…

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Added by Neeraj Nishchal on August 22, 2013 at 4:31pm — 11 Comments

राज़ नवादवी: मेरी डायरी के पन्ने-५५-५६ (तरुणावस्था-२ व ३)

(आज से करीब ३२ साल पहले)

 

शनिवार ०४/०४/१९८१; नवादा, बिहार

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आज भी दवा मुझपे हावी रही. स्कूल से घर आने के बाद कुछ पढ़ाई की. परन्तु जैसे किसी बाहरी नियंत्रण में आकर मुझे पढ़ाई रोकनी पड़ी. ऊपर गया और मां से खाना माँगा. मगर ठीक से खाया भी नहीं गया. एक घंटे के बाद चाय के एक प्याले के साथ मैं वापिस नीचे अपने कमरे आया. कलम कापी उठाई और लिखने बैठ गया. मन कुछ हल्का हुआ.

 

मैंने ऐसा महसूस किया कि दवा का प्रभाव खाने के…

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Added by राज़ नवादवी on August 22, 2013 at 2:00pm — 2 Comments

अकथ्य व्यथा

अकथ्य व्यथा

 

अरक्षित अंतरित भावनाओं को अगोरती,

क्षुब्ध   अनासक्त   अनुभवों  से  अनुबध्द,

फूलों   के   हार-सी  सुकुमार

मेरी कविता, तुम इतनी उदास क्यूँ हो ?

 

पँक्ति-पँक्ति  में   संतप्त,  कुछ  टटोलती,

विग्रहित   शिशु-सी   रुआँसी,

बगल में ज्यों टूटे खिलोने-से

किसी  पुराने रिश्ते को थामे,

मेरे   क्षत-विक्षत  शब्दों में  तुम 

इतनी  जागती  रातों  में  क्या  ढूँढती हो ?

 

अथाह सागर के दूरतम…

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Added by vijay nikore on August 22, 2013 at 12:30pm — 31 Comments

इंतज़ार

वह एक छोटा सा टुकड़ा

जिस में मैने आशाओं को कैद कर

तुम्हें समर्पित किया था,

क्या तुमने वह

कागज का दिल

स्वीकार किया है,

कान्हा …. ?

मेघमाला के द्वारा

जो संदेश तुम्हें भेज था -

क्या उस दिल की धड़कन

तुमने सुनी थी

प्रभु. … ?



हवा में लहराते

मेरे शब्दों की गूँज

क्या तुन तक

पहुँच पायी है,

नाथ  … ?

चंद्रमा को देखते हुए

मेरे दिल में अंकित तुम्हारा रूप

जो मुझे नज़र आता है,

उस चंद्रमा में…
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Added by Lata tejeswar on August 22, 2013 at 9:30am — 8 Comments

उनको सुवर हराम, अहिंसा अपने आड़े-

मौलिक / अप्रकाशित

"पक्के-बाड़े" में पिले , जबसे सु-वर तमाम ।

मल-मलबा से माल तक, खाते सुबहो-शाम ।

खाते सुबहो-शाम, गगन-जल-भूमि सम्पदा ।

करें मौज अविराम, इधर बढ़ रही आपदा ।

उनको सुवर हराम, अहिंसा अपने आड़े ।

"मत" हिम्मत से मार, शुद्ध कर "पक्के-बाड़े" ।।

Added by रविकर on August 22, 2013 at 8:58am — 6 Comments

!!! वंदना !!!

वंदना......हरिगीतिका

हे!  ज्ञान  दाती   दुःख  हरती   प्रेम  ममता   वारती।

यम नियम नियमन दिशा दर्शन गगन गुरूता धारती।।

तुम सर्व हो  तुम गर्व हो  तुम आदि  गंगा गामिनी।

रति सौम्य सागर सती आगर मोक्ष वरदं दायिनी।।1

रघुवीर पूजें  कृष्ण कूंजे  शक्ति दुर्गा  दामिनी।

अभिमान ऐसा क्लेष जैसा पाप शापं नाशिनी।।

अरि नष्ट करती मित्र बनती हाथ सिर पर फेरती।

सुख सार भरणी कष्ट हरणी तोष निश-दिन टेरती।।2

मैं मूर्ख जातं आत्म…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 22, 2013 at 7:52am — 22 Comments

कविता - छोड़ दे झंडे !

कविता - छोड़ दे झंडे !

 

छोड़ दे झंडे और झंखाड़े

उठाले परचम पकड़ अखाड़े

मत फंदों और जाल में फंस तू

ज़हर बुझे दातों से डंस तू

देख कोई भी बच न पाए

व्यूह तिमिर का रच न पाए

 

षड्यंत्रों की खाल उधेड़

ऊन भरम है ख़ूनी भेड़

भीतर भीतर काले दांत

मूल्य हज़म हों ऐसी आंत

कर पैने कविता के तीर

अन्धकार की छाती चीर

 

विमुखों और उदासीनों को

भाले बरछी संगीनों को

जो चेतन हैं तू उनको…

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Added by Abhinav Arun on August 22, 2013 at 6:29am — 22 Comments

कुंठित मन

वंजर धरती को जोते हम

डाल उर्वरक हरा बनाये

सालों साल वृथा मिटटी जो

आज हँसे लहके लहराए !

 

कुंठित मन को कुंठा से भर

दुखी रहें क्यों हम अलसाये

कुंठित बीज हरी धरती में

कुंठित फसल भी ना ला पायें !

 

नाश करें खुद के संग धरती

वंजर  वृथा ह्रदय अकुलाये

जोश उर्जा क्षीण हो निशि दिन

ख़ुशी हंसी मन को खा जाए !

 

सहज सरल भी चुभें तीर सा

बिन बात बतंगड़ बनती जाए

घुन ज्यों अंतर करे…

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Added by SURENDRA KUMAR SHUKLA BHRAMAR on August 21, 2013 at 11:00pm — 14 Comments

पीछे हट जाने का डर है।

घोर तिमिर है, 

कठिन डगर है, 

आगे का कुछ नहीं सूझता,

पीछे हट जाने का डर है।

मन में इच्छाएं बलशाली 

शोणित में भी वेग प्रबल है,

रोज लड़ रहा हूँ जीवनसे

टूट रहा अब क्यों संबल है

मैंने अपनी राह चुनी है 

दुर्गम, कठिन कंटकों वाली 

जो ऐसी मंजिल तक पहुंचे 

जो लगे मुझे कुछ गौरवशाली

धूल धूसरित रेगिस्तानी हवा के छोंकें 

देते धकेल , आगे बढ़ने से रोकें 

सूखा कंठ, प्राण हैं अटके 

कब पहुंचूंगा निकट भला पनघट के

आगे बढ़ना भी दुष्कर…

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Added by Aditya Kumar on August 21, 2013 at 4:27pm — 21 Comments

रक्षा बंधन // कुशवाहा //

रक्षा बंधन // कुशवाहा //

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अंधियारी बाग़ की पतली गलियों में माँ आयशा की अंगुली पकडे लगभग घिसटती सी चली जा रही सात वर्षीय अलीशा की नजरें सड़क के दोनों ओर दुल्हन सी सजी दुकानों को देख रही थी . कहीं मिठाई और कहीं सूत, राखी से सजी दुकान. ऐसा उसने कभी अपने गाँव में न देखा था. लगभग एक माह दुर्घटना में अब्बू का इंतकाल हो जाने पर पुष्पा दीदी , प्रसिद्ध समाज सेविका , आयशा और अलीशा को अपने घर ले आयीं थीं .

पुष्पा जी के घर में रक्षा बंधन के पावन पर्व पर जश्न…

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Added by PRADEEP KUMAR SINGH KUSHWAHA on August 21, 2013 at 12:11pm — 9 Comments

बंधन रक्षा का है, यह दिलों का भी है

बंधन रक्षा का है, यह दिलों का भी है।

भाई-बहनों के पावन मिलन का भी है।

प्यारी बहना सलामत रहे हर सदा।

मेरी ख्वाहिश तुम्हारे दिलों में भी है। 

ले लो संकल्प बंधन के इस पर्व पर।

हर गली, हर मोहल्ले में बहना ही है। 

बंधन रक्षा का है ......................।

प्यारी बहना को उपहार देते समय,

उसको पुचकार औ प्यार देते समय।

दिल्ली की सड़कों की याद कर लो जरा,

अरसा पहले जो गुजरा नजारा वही,

याद कर लो जरा, बात कर लो जरा।

लो…

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Added by Atul Chandra Awsathi *अतुल* on August 21, 2013 at 11:04am — 1 Comment

!!! पिया के घर चली रजनी !!!

!!! पिया के घर चली रजनी !!!

गजल बह्र- 1 2 2 2, 1 2 2 2

सुहानी रात की रजनी,

सुमन सुख बेल सी रजनी।

बना है चांद दूल्हा जब,

सजी दुल्हन तभी रजनी।

चली बारात तारों की,

मगन आकाश सी रजनी।

करे परछन यहां आभा,

वहां सकुचा रही रजनी।

हवन आदित्य में पूरे,

किए फेरे जगी रजनी।

विदाई कर रहीं किरनें,

सिमट कर रो पड़ी रजनी।

किरन-आभा मिली जैसे,

फफक कर चीखती…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on August 21, 2013 at 8:46am — 14 Comments

कवि का मन - (रवि प्रकाश)

छंद -15 गुरु अथवा 30 मात्राएँ (16 पर यति)



अम्बर कैसे झूला झूले,नदियाँ कैसे गाती हैं;

तारों की सौगातें ले कर,रातें मन बहलाती हैं।

सूरज के माथे पे आख़िर,किसके मद की लाली है;

अँगड़ाई लेते पत्तों पर,किसने शबनम डाली है।

किरणों के आभूषण पहने,भोरें क्यों इठलाती हैं;

कलियों की चटकीली गलियाँ,भौँरों को भरमाती हैं।

सुध-बुध अपनी खो कर कितना,दोपहरें अलसाती हैं;

दिन की पीड़ा हरते-हरते,साँझें क्यों सँवलाती हैं।

गुलमोहर की डाली से क्यों,चंदा उलझा रहता… Continue

Added by Ravi Prakash on August 21, 2013 at 5:30am — 7 Comments

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