1222 1222 1222 1222
हुआ अब तक नहीं है हुस्न का दीदार जाने क्यों ।
बना रक्खी है उसने बीच मे दीवार जाने क्यों ।।
मुहब्बत थी या फिर मजबूरियों में कुछ जरूरत थी ।
बुलाता ही रहा कोई मुझे सौ बार जाने क्यों ।।
यहाँ तो इश्क बिकता है यहां दौलत से है मतलब ।
समझ पाए नहीं हम भी नया बाज़ार जाने क्यों ।।
तिजारत रोज होती है किसी के जिस्म की देखो ।
कोई करने लगा है आजकल व्यापार जाने क्यों ।।
कोई दहशत है या फिर वो कलम…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on November 23, 2018 at 1:30am — 12 Comments
चुनावी महाकुंभ के नगाडे की टंकार में
चौतरफा राजनीति का हुआ महौल गरमागरम
ईद के चांद हुए नेता जो ,
चिराग लेकर ढूंढने पर थे नदारद
योजनाओं की बरसात होने लगी
धूल उडती गड्ढे वाली सडकों पर
चुनावी सीमेंट चढ गया
उजाड बंजर खेती पर
हरियाल करने का मरहम लगाते
कंबल, साडी, दारू, मुर्गा का
बंदरबांट का फार्मूला चलाते
नित नए तरीकों से वोटरों को रिझाते
चरणवंदन कर, घडियाली ऑंसू बहाते
खोखले वायदों की दहाड,
ना खायेंगे, ना खाने देगे
दिए प्रलोभन, दिखाई…
Added by babitagupta on November 22, 2018 at 3:19pm — 5 Comments
2122 2122 2122 212
सोचता हूँ तुझमें कब बंदा नवाज़ी आएगी
तेरे तर्ज़े क़ौल में किस दिन गुदाज़ी आएगी //१
मैं अभी बच्चा हूँ मुझको छेड़ते हो किसलिए
मैं बड़ा भी होऊँगा, क़द में दराज़ी आएगी //२
देखता तो है पलट कर वो इशारों में अभी
मुस्कुराएगा वो कल, तब-ए- तराज़ी आएगी //३
तेरा ये हुस्ने मुजस्सम और मेरी दीवानगी
मिल गए हम दोनों फिर…
Added by राज़ नवादवी on November 21, 2018 at 6:00pm — 22 Comments
( ग़ज़ल )
जहाँ का दर्द समाया सभी की आह में है।
तमाम शहर का मंज़र मेरी निगाह में है।।
जिसे भी कमियों से उसकी किया ज़रा आगाह।
बड़ा सा दाग़ दिखाता वो शख़्स माह में है।।
तमाम ख़ार में इक आध गुल कहीं दिखता।
बहार गर्दिश-ए-सहरा की ज्यूँ पनाह में है ।
बचा रहा है बशर ख़ुद को हक़ बयानी से ।
के ख़ौफ़ इतना है जैसे वो क़त्ल गाह में है।।
नहीं है कुछ भी ख़बर रोज़-ए-हस्र क्या होगा।
फँसा हर एक बशर शौक से गुनाह में है।।
जो कर रहीं हैं सभी साँस की लहरों पे…
ContinueAdded by Vivek Raj on November 21, 2018 at 5:55pm — 6 Comments
ज़िंदगी दी है खुदा ने,मुस्कुराने के लिए
भूलना लाज़िम है तुमको,याद आने के लिए
बेखयाली मे कदम फ़िर, खींच लाये है मुझे
मैं नहीं आया किसी का, दिल चुराने के लिए
यूँ ही मिल जाए कोई फ़िर, क़द्र करता ही…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on November 21, 2018 at 1:00pm — 3 Comments
122 122 122 122
हक़ीक़त न बोले बनाये फ़साना
अज़ब ये तरक्की अज़ब है ज़माना //१
नहीं आज उसमें ज़रा सी भी शफ़क़त
ग़रीबों की लाशों में ढूंढे ख़ज़ाना //२
सँवारा जिसे था बड़ी आरज़ू से
बुढ़ापा में छीना वही आशियाना //३
ज़रूरी कहाँ है गिराना ज़मीं पे
है काफ़ी उसे बस नज़र से गिराना //४
गुलों की तरह है मेरे दिल की हसरत
मसल दो न छोड़े ये ख़ुशबू लुटाना //५
क़मर जाने कब से भटक ही रहा है
तेरा शह्र दर शह्र ढूंढे ठिकाना…
Added by क़मर जौनपुरी on November 21, 2018 at 12:30am — 9 Comments
पास इतना जो मन के वे आते नहीं
स्यात नयनों से यूं दूर होते नहीं
मिल के सपनों के दुनिया बसाते न जो
काँच के ये महल चूर होते नहीं
अब तो बर्बाद हूँ लुट गया हूँ सनम
अर्धविक्षिप्त हूँ और बेहाल हूँ
सोहनी-सोहनी रट रहा हूँ मगर
गम का मारा हुआ एक महिवाल हूँ
कोई गहरी अगर चोट खाते न जो
इस कदर दिल से मजबूर होते नही
पास इतना...
हमने वादा किया साथ मरने का था
क्योंकि जीना हमें रास आया…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 20, 2018 at 12:30pm — 4 Comments
सन्नाटा - लघुकथा -
सोनू ने स्कूल से आते ही, स्कूल बैग पटक कर, सीधे दादा जी के कमरे का रुख किया, "दादा जी, ये ब्लफ मास्टर क्या होता है?"
दादाजी अपने दोस्तों के साथ वर्तमान राजनीति पर चर्चा में मशगूल थे।जिनमें कुछ लोकल लीडर भी थे| अतः सोनू को टालने के लिये कहा,"सोनू, अभी तुम स्कूल से आये हो। ड्रेस बदल कर कुछ खा पी लो। फिर बात करते हैं।"
"नहीं दादाजी, मुझे पहले यह जानना अधिक जरूरी है।"
"सोनू, अभी हम लोग देश के मौजूदा हालात के बारे में कुछ आवश्यक बात कर रहे…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on November 20, 2018 at 10:34am — 15 Comments
2122 2122 2122 212
चल गया जादू सभी अंधे औ बहरे हो गए
ज़ालिमों के ज़ुल्म के दिन अब सुनहरे हो गए //१
था किया वादा बनाएगा महल सपनों का वो
यूँ किया उसने कि गड्ढे और गहरे हो गए //२
चुप है हाकिम चुप है मुंसिफ चुप है ये सारा जहाँ
मुजरिमों की लिस्ट में मासूम चेहरे हो गए //३
हाथ में अब आ गया है ज़ालिमों के वो हुनर
राम हारे रावणों के अब दशहरे हो गए //४
झूठ बोले हर सभा में और पा जाए सनद
सच जो बोले उस ज़ुबाँ पे सख़्त पहरे हो गए //५
--…
ContinueAdded by क़मर जौनपुरी on November 20, 2018 at 8:00am — 7 Comments
प्रजातांत्रिक देश स्वतंत्र व्यक्ति
अभिव्यक्ति की आजादी
विकास यात्रा सत्तर साल की
सरकारी नक्शे पर दर्ज इलाका
हालात जस के तस
टूटे घने जंगलों में बसा वीराना सा गांव
टूटी फूटी नदी, दम तोडती पुलिया
जर्जर धूल उडाती सडकें
विकराल संकटों से जूझ रहा
जीवन से लडता
रोजीरोटी की जद्दोजहद
मैले कुचैले अर्धवदन ढके
बदहाली मे आपस में दुख बांटते
अपने गांव की पीडा समझाते
चेहरे पर पीडा झलक आती
नेताओं के झूठे वादे घडियाली ऑसू
बिना लहर के हिलोरें…
Added by babitagupta on November 19, 2018 at 7:52pm — 7 Comments
बैसाख की दुपहरी में कंचाना खुर्द मोहल्ला बड़ा शांत था I गर्मी के कारण औरतें घरों में दुबकी थीं और मर्द घर के बाहर अधिकांशतः नीम या किसी अन्य पेड़ के नीचे आराम फरमा रहे थे I फ़कीर इस मोहल्ले में बड़े कुंए की तलाश करता-करता एक बड़े से उत्तरमुख घर के पास पहुँचा, जिसकी चार दीवारी के अन्दर आम, नीम व बरगद एवं पाकड़ आदि के कुछ पेड़ थे I घर का मालिक एक अधेड़ सा व्यक्ति बरगद के नीचे बड़े से तख़्त पर नीली लुंगी और सफ़ेद बनियाइन पहने लेटा था I…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on November 19, 2018 at 5:25pm — 3 Comments
अहसासों के टोस्ट: ३ क्षणिकाएं
मर्म
सपनों का
बिना
काया का
साया
न अपना
न पराया
.................
कितने लम्बे
सपनों के धागे
सोच के पाँव
आसमाँ से आगे
नैन जागें
तो ये टूटें
नैन सोएं
तो ये जागें
......................
सर्द सवेरा
चाय की प्याली
उठती भाप
अहसासों के टोस्ट
नज़रों की चुस्कियाँ
उम्र के ठहराव पर
काँपते हाथों सी
ठिठुरती…
Added by Sushil Sarna on November 19, 2018 at 2:30pm — 6 Comments
सोच समझ कर बोलिए, बातें सदा विनीत
छूटा धनु से बाण जो, लौटा कब हे! मीत
तीर-धनुष-तलवार से, बड़े दया औ' प्रेम
इन्हें बना लें शस्त्र यदि, जग को लेंगे जीत।
द्वेष-दंभ सम अरि सखे! यहाँ मनुज के कौन
बिन इनके संहार के, उपजे कब हिय प्रीत
सतत प्रयासों के करें, ऐसे तीव्र प्रहार
पर्वत पथ खुद छोड़ दें, होकर भय से भीत
अधर-सुधा घट भौंह-धनु, मुख…
Added by रामबली गुप्ता on November 19, 2018 at 1:21pm — 3 Comments
2212 1212 2212 1212
ख़ुशियों से क्या मिले मज़ा, ग़म ज़िंदगी में गर न हो
शामे हसीं का लुत्फ़ क्या जब जलती दोपहर न हो
लुत्फ़े वफ़ा भी दे अगर बेदाद मुख़्तसर न हो
इक शाम ऐसी तो बता जिसके लिए सहर न हो
हालात जीने के गराँ भी हों तो क्या बुराई है
मजनूँ मिले कहाँ अगर सहराओं में बसर न हो
ऐसी रविश तो ढूँढिए गिर्यावरी ए आशिक़ी
तकलीफ़ देह भी न हो, नाला भी बेअसर न हो
ख़ुशियों के मोल बढ़ते हैं रंजो अलम के क़ुर्ब से
तादाद…
Added by राज़ नवादवी on November 19, 2018 at 10:00am — 15 Comments
Added by क़मर जौनपुरी on November 18, 2018 at 10:24pm — 3 Comments
Added by नवीन श्रोत्रिय उत्कर्ष on November 18, 2018 at 5:00pm — 2 Comments
साथी सो न, कर कुछ बात।
यौवन में मतवाली रात,
करती है चंदा संग बात,
तारें छुप-छुप देख रहे हैं, उनकी ये मुलाकात।
साथी सो न, कर कुछ बात।
झींगुर की झंकार उठी,
रह-रह, बारंबार उठी,
चकवा-चकवी की पुकार उठी, अब छोड़ो न मेरा हाथ।
साथी सो न, कर कुछ बात।
लज्जा से मुख को छुपाती,
अधरों से मधुरस टपकाती,
विहँस रही मुरझाई पत्ती, तुहिन कणों के साथ।
साथी सो न, कर कुछ बात।
-- क़मर जौनपुरी
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
Added by क़मर जौनपुरी on November 18, 2018 at 9:30am — 2 Comments
2122 1122 1122 22/ 112
सब्र रक्खो तो ज़रा हाल बयाँ होने तक
आग भी रहती है ख़ामोश धुआँ होने तक //१
समझेंगे आप भला क्यों ये गुमाँ होने तक
इश्क़ होता नहीं है दर्दे फुगाँ होने तक //२
तज्रिबा ये जो है सब आलमे सुग्रा का यहाँ
जाँ गुज़रती है सराबों से निहाँ होने तक //३
मुझको फ़िरदोस ने फिर से है निकाला बाहर
कौन है आलमे बाला में…
Added by राज़ नवादवी on November 17, 2018 at 11:00am — 11 Comments
2212 1212 2212 1212
ख़ुश्बू सी यूँ हवा में है, लगता वो आने वाला है
आबोहवा का हाल भी पिछले ज़माने वाला है //१
बाहों का तुम सहारा दो, तूफ़ान आने वाला है
दरिया तुम्हारे प्यार का सबको डुबाने वाला है ///२
बनते हो तीसमार खाँ, मेरी भी पर ज़रा सुनो
इक दिन ये वक़्त आईना तुमको दिखाने वाला है //३
मैं तो बड़े सुकून से सोया था तन्हा अपने घर
मुझको…
Added by राज़ नवादवी on November 17, 2018 at 10:15am — 6 Comments
सिस्टम से अब और निभाना मुश्किल है,
आँसू पीकर हँसते जाना मुश्किल है।।
लंबे चौड़े दफ्तर हैं पर छोटी सोच लिए।
भाँग कुएँ में मिली हुई है पानी कौन पिए।
कागज के रेगिस्तानों में भटक रहा,
मृग तृष्णा से प्यास बुझाना मुश्किल है।
भावुकता में मैदां छोड़ूँ क्या होगा।
कोई और यहाँ आकर रुसवा होगा।।
अजगर बन कर पड़ा रहूँ कैसे संभव,
जोंकों को भी खून पिलाना मुश्किल है।
लानत और मलामत का है भार बहुत।
न्याय नहीं निर्णय का शिष्टाचार…
Added by Ravi Shukla on November 16, 2018 at 9:48pm — 5 Comments
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