त्याग, बलिदान, जोश, श्रम
चार पावों पर खड़ी हूँ मैं
सत्ता की मै बन धुरी
चमक-धमक से सजी-धजी
जादू की फूलझड़ी हूँ मैं
सपनों की सुंदर परी हूँ||
महत्वकांक्षा की कड़ी हूँ मैं
स्वागत को तेरे खड़ी हूँ मैं
धैर्य की सबकी परीक्षा लेती
कर्म मार्ग की लड़ी हूँ मैं
नियत, मेहनत का मूल्यांकन करती
तेरे सुख-दुख की कड़ी हूँ मैं||
उठक-बैठक कर खेल…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on August 27, 2019 at 4:21pm — 2 Comments
शाम को जिस वक़्त खाली हाथ घर जाता हूँ मैं
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on August 26, 2019 at 3:30pm — 4 Comments
एक विरह गीत
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रस्सा-कशी खेल था जीवन
एक तरफ का रस्सा छोड़ा |
इतनी भी क्या जल्दी थी जो
मीत अचानक नाता तोड़ा |
**
जीवन नदिया अपनी धुन में
अठखेली करती बहती थी |
और खुशी भी इस आँगन में
अपनी मर्जी से रहती थी |
सब कुछ अपने काबू में था
कैसे रहना क्या करना है,
हाँ थोड़े से दुख के झटके
कभी ज़िंदगी भी सहती थी |
लेकिन तुम थे साथ हमेशा
हँस हँस कर सह ली हर…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on August 25, 2019 at 1:30pm — 6 Comments
सीख - लघुकथा -
गाँव के कुछ जाने माने लोग हरी राम के घर आ धमके,"भाई हरी राम जी, आपने अपनी भेंसें बिना कोई जाँच पड़ताल किये किसी अजनबी इंसान को बेच दीं?"
"भाई लोगो, मेरी माली हालत आप लोगों से छिपी नहीं है। बाढ़ के कारण मेरा घर द्वार और खेती सब तबाह हो गया। खुद को खाने को नहीं था तो भेंसों को क्या खिलाता। अभी तो वे दूध भी नहीं दे रहीं थीं।"
"लेकिन भैया बेचने से पहले उस आदमी की पृष्ठ भूमि का तो पता कर लेते?"
"क्यों भाई ऐसा क्या गुनाह कर दिया उसने?"
"अरे भाई, वह…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on August 25, 2019 at 11:21am — 10 Comments
Added by Pratibha Pandey on August 25, 2019 at 7:00am — 1 Comment
221 2121 1221 212
मुझको तेरे रहम से मयस्सर तो क्या नहीं
जिस और खिड़कियां है उधर की हवा नहीं
हमको तो तेरी खोज में बस ये पता चला
तेरा पता बस इतना है तू लापता नहीं
उसने तमाम गीत लिखे औरों के लिए
फिर भी वो मेरे दिल के लिए बेवफा नहीं
यूं तो तमाम लोग तरक्की पसंद है
मैं इश्क से अलग कभी कुछ लिख सका नहीं
वह इसलिए ही जीत के बेहद करीब है
क्या-क्या कुचल गया है कभी सोचता नहीं
सबका…
ContinueAdded by मनोज अहसास on August 24, 2019 at 11:30pm — 3 Comments
जो डूब चुका है कंठ तक झूठ के सवालों में
उससे ही हम न्याय की उम्मीद लगा बैठे ।
देश आज फंस चुका है गद्दारों के हाथों में
हमारी आपसी मतभेद का फाइदा उठा बैठे ।
हमसे मांगते मंदिर का सबूत न्यायालय में
भारत में भी तालिबानी फरमान सुना बैठे ।
राम के मंदिर के लिए लड़ रहे न्यायालय में
सुबह की रोशनी में अपना अस्तित्व देख बैठे ।
आज न्यायालय ही खड़ा हो गया सवालों में
जो संविधान को अलग रख निर्णय ले बैठे ।
न्यायाधीस को शर्म नहीं…
ContinueAdded by Ram Ashery on August 24, 2019 at 8:30pm — No Comments
Added by Sushil Sarna on August 24, 2019 at 6:30pm — 2 Comments
ऐ हवा .............
कितनी बेशर्म है
इसे सब खबर है
किसी के अन्तःकक्ष में
यूँ बेधड़क चले आना
रात की शून्यता में
काँच की खिड़कियों को बजाना
पर्दों को बार बार हिलाना
कहाँ की मर्यादा है
कौमुदी क्या सोचती होगी
क्या इसे ज़रा भी लाज नहीं
इसका शोर
उसे मुझसे दूर ले जायगा
मेरा खयाल
मुझसे ही मिलने से शरमाएगा
तू तो बेशर्म है
मेरी अलकों से टकराएगी
मेरे कपोलों को
छू कर निकल जाएगी
मेरे…
Added by Sushil Sarna on August 23, 2019 at 7:00pm — 4 Comments
वर्तमान राजनैतिक व्यवस्ठा पर तंज
वक्त दोहराता है अपने आप को
कैसे कैसे दिन दिखाता आपको
भूलना हम जिसको चाहें बारहा
फिर वही मंज़र दिखाता आपको
जो सबक माज़ी में तुम भूले उसे
याद फिर-फिर से दिलाता आपको
जिस के संग जैसा किया है सामने
वक्त बस शीशा दिखाता आपको
शह नहीं है खेल बस शतरंज का
मात वो देना सिखाता आपको
तुम अगर सच्चे थे तब वो आज है
फिर वो क्यूँ झूठा कहाता आपको
सांच को ना आंच होती है कभी…
Added by प्रदीप देवीशरण भट्ट on August 23, 2019 at 12:00pm — 1 Comment
कौन कहता है कि इतिहास कोईअदालत होती है
जिस में हार गयों की महज़ मुखाल्फत होती है
और यह भी कि
यह केवल विजयी का फलसफा लिखती है
सफे पर सफा लिखती है
इसलिए मान लिया जाना चाहिए
कि जीत यकीनन लाजिमी है
कैसे भी हो पर हो केवल विजय
लेकिन
शायद सही हो…
Added by amita tiwari on August 23, 2019 at 1:00am — 4 Comments
तुम हुए जो व्यस्त
अभिभावक कहें किससे व्यथा?
हो गए कितने अकेले
क्या तुम्हे यह भी पता?
जिन्दगी की राह में
तुम तो निकल आगे गए
वे गहन अवसाद, द्वन्दों
में उलझ कर रह गए
सहन कर पाए न वे
संतान की ये बेरुखी
बेसहारा , ढलती वय
थक कर, हताशा में फंसी
तुम उन्हे कुछ वक्त दो
प्यार दो , संतृप्ति दो
जिन्दगी जीने को कुछ
आधार कण रससिक्त दो
पुष्प फिर आशीष के
तुम पर बरस ही जाएंगे
कवच बन संसार…
Added by Usha Awasthi on August 22, 2019 at 9:50pm — 5 Comments
जिनको हमने चुनकर भेजा,सत्ता के गलियारों में
उनको लड़ते देखा जैसे, श्वान लड़ें बाज़ारों में
कब क्या कैसे गुल ये खिलाते,कोई जान नहीं पाया
इनके असली रंग हैं दीखते, तीज और त्योहारों में
चोर उच्चके…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on August 22, 2019 at 12:30pm — 1 Comment
चले आओ .....
जाने कौन
बात कर गया
चुपके से
दे के दस्तक
नैनों के
वातायन पर
दौड़ पड़ा
पागल मन
मिटाने अपने
तृषित नैनों की
दरस अभिलाषा
पवन के ठहाके
मेरे पागलपन का
द्योतक बन
वातायन के पटों को
बजाने लगे
अंतस का एकांत
अभिसार की अनल को
निरंतर
प्रज्वलित करने लगा
कौन था
जिसका छौना सा खयाल
स्पर्शों की आंधी बन
मेरी बेचैनियों को…
Added by Sushil Sarna on August 21, 2019 at 12:56pm — 2 Comments
कभी खूनी, कभी कातिल
कभी गुनाहों का मार्ग कहलाती
जुर्म को होते देख चीखती
खून खराबे से मैं थर्राती
कभी खून की प्यासी तो
कभी डायन हूँ कहलाती
चाह के भी कुछ कर ना पाती
बेबसी पर नीर बहाती ||
हैवानियत की, कभी बलात्कार की,
ना चाह मैं साक्षी बनती
हत्या कभी षडयंत्रो का
अंजान देने पथ भी बनती
तैयार की गई हर साजिश को
हादसो का मैं नाम दिलाती…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on August 20, 2019 at 4:29pm — 2 Comments
‘दीदी, आप अपनी लहरों में नाचती हैं I कल-कल करती हैं I इतना आनंदित रहती हैं, कैसे ?’ -पोखर ने नदी से पूछा I
‘अपनी आगे बढ़ने की प्रवृत्ति के कारण’- नदी ने उछलकर कहा I
.
(मौलिक/अप्रकाशित )
Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on August 20, 2019 at 3:00pm — 4 Comments
एक गीत प्रीत का
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क्यों चिंता की लहरें मुख पर आखिर क्या है बात प्रिये ?
पलकों के कोरों पर ठहरी क्यों कर है बरसात प्रिये ?
**
शुष्क अधर क्यों बाल बिखर कर अलसाये हैं शानों पर ?
काजल क्रोधित होकर पिघला जा पहुँचा है कानों पर |
मीत कपोलों पर जो रहती वह गायब है अरुणाई |
ऐसा लगता है ज्यों खो दी चंद पलों में तरुणाई…
Added by गिरधारी सिंह गहलोत 'तुरंत ' on August 20, 2019 at 9:00am — 4 Comments
(13 अगस्त-2018-इटली का मोरांडी पुल हादसा)
अटठावन वर्ष की उम्र भी कोई उम्र होती है
ना तो पूर्ण रुपेण युवा और ना ही पूरे वृद्ध
तुम्हारा यूँ इस तरह अकस्मात ही चले जाना
पूरे शहर को कर गया है अचम्भित और विक्षिप्त…
ContinueAdded by प्रदीप देवीशरण भट्ट on August 19, 2019 at 5:00pm — 2 Comments
पीछे मायूसी का साया आगे खतरा अनजाना है
हर लम्हा ये सोच रहा हूँ खुद को कैसे समझाना है
तेरी यादों का सूरज भी काम नहीं आता अब मेरे
मुझको इस मुश्किल मौसम में खुद से दूर चले जाना है
हम दिल की बातें लिखते हैं दिल न दुखाने की सीमा तक
ऊंची सोच की इस महफिल से हमको जल्द ही उठ जाना है
तेरे खतों की मधुर कहानी सोच से पीछे छूट गई है
पैथोलॉजी की रिपोर्ट का हाथों में एक अफसाना है
मां की हथेली चूम के निकला फौजी बेटा अपने घर…
ContinueAdded by मनोज अहसास on August 18, 2019 at 10:30pm — 3 Comments
कागज की किस्ती और वर्षा का पानी,
वह बचपन की यादें हैं बहुत याद आती
आज रूठी गई दादी और वर्षा की रानी
न कहती है कहानी न बरसता है पानी॥
बच्चों को पता नहीं कैसे बहती है नाली
छतों से गटर में बहता, बरसा का पानी
गटर जब चोक हो ,सड़क पर बहे पानी
सड़के और गलियाँ नदियाँ बनके बहती ॥
वह कागज की किस्ती तभी याद आती
दादी की कहानी, रिमझिम बरसता पानी
बहुत याद आती वह बचपन की कहानी
माँ बाप को फुरसत कहाँ कहे जो…
ContinueAdded by Ram Ashery on August 18, 2019 at 3:00pm — 2 Comments
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