1222 1222 1222 1222
गज़ब करता है अय्यारी ज़माने से ज़माना भी
हक़ीक़त जो है इस पल में है कल का वो फ़साना भी
न मानो तो सकल संसार है इक शै महज़, लेकिन
हर इक शै ज्ञान का खुद में है अतुलित इक खज़ाना भी
बहुत अलगाव का परचम उठाए फिर लिए यारों
समय कहता है आवश्यक हुआ सबको मिलाना भी
उन्होंने पूछा उसको किस लिए फ़िलवक्त चुप है वो
समंदर हौले से बोला है इक तूफाँ उठाना भी
बहाते नीर हो क्यूँकर, जो बादल से कहा…
ContinueAdded by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on April 28, 2019 at 2:30pm — 4 Comments
दो क्षणिकाएं : ....
नैन पाश में
सिमट गयी
वो
बनकर एक
एक भटकी सी
खुशबू
और समा गई
मेरी
अदेह देह में
..........................
जल पर पड़ी
जल
सूखने लगा
पेड़ों पर पड़ी
पेड़ सूखने लगा
जीवों पर पड़ी
तो कंठ सूखने लगा
तृप्ती की आस में
अंततः
साँझ की गोद में
तृषित ही
सो गई
धूप
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on April 28, 2019 at 1:58pm — 4 Comments
मौजूँ मत
राजनीति की दूषित दरिया,मिलकर स्वच्छ बनाएं
मतदाता परिपक्व हृदय से,अपना फर्ज निभाएं ll
माननीय बन वीर बहूटी,नित नव रूप दिखाएं
ये बर्राक करें बर्राहट ,इनको सबक सिखाएं ll
किरकिल सा बहुरूप बदलते,झटपट चट कर जाते
ये बरजोर करें बरजोरी, खाकर नहीं अघाते ll
वक्त आ गया समझाने का,अब इनको मत छोड़ो
सेवक नहीं बतोला बनजी, दोखी दंश मरोड़ो.ll
हर मत की कीमत को समझें,है मतदान जरूरी
बूथों पर मौजूँ मत करके, इच्छा…
Added by डॉ छोटेलाल सिंह on April 28, 2019 at 1:14pm — 5 Comments
"सच कहूं! मुझे भी पता नहीं था कि मेरी अग्नि से मिट्टी के आधुनिक चूल्हे पर चढ़ी एक साथ चार हांडियों में मनचाही चीज़ें एक साथ पकाई जा सकती हैं!"
"तो तुम्हारा मतलब हमारे मुल्क की मिट्टी में आज़ादी के चूल्हे पर लोकतंत्र के चारों स्तंभों की हांडियां एक साथ चढ़ा कर मनचाही सत्ता चलाने से है ... है न?"
"तो तुम समझ ही गये कि इस नई सदी में तुम्हारे मुल्क में मेरी ही आग कारगर है; फ़िर तुम इसे चाहे जो नाम दो : धर्मांधता, तानाशाही, सामंतवाद, भ्रष्टाचार, भय या तथाकथित हिंदुत्व…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 28, 2019 at 9:36am — 2 Comments
साहिलों पर .... (लघु रचना )
गुफ़्तगू
बेआवाज़ हुई
अफ़लाक से बरसात हुई
तारीकियों में शोर हुआ
सन्नाटे ने दम तोड़ा
तड़प गयी इक मौज़
बह्र-ए-सुकूत में
और
डूब गए सफ़ीने
अहसासों के
लबों के
साहिलों पर
(अफ़लाक=आसमानों )
सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by Sushil Sarna on April 27, 2019 at 5:41pm — 4 Comments
प्याज भी बोलते हैं- एक लघुकथा
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हर कोई सब्ज़ी वाले से बड़ा प्याज माँगता है। कल मैं भी ठेलेवाले भाई से प्याज ख़रीदते समय बड़े प्याज माँग बैठा। तभी, बड़े प्याजों के बीच बैठे एक छोटे प्याज ने मुझसे कहा,
"भाई साहब, हर कोई बड़ा प्याज माँगता है, तो हमारा क्या होगा? हम भी तो प्याज हैं!"
मैं सकपका गया, ये कौन बोल रहा है? प्याज? क्या प्याज भी बोलते हैं? तभी मैंने देखा वहीं पड़े कुछ बड़े प्याज आंनद…
Added by राज़ नवादवी on April 27, 2019 at 1:00pm — 7 Comments
1212-1122-1212-22
हरेक बात पे उसका जवाब उल्टा है ।।
मगर वो प्यार मुझे बेशुमार करता है।।
वो मेरे इश्क-ए- मरासिम* बनाएगा' इकदिन यूँ।(प्यार के रिश्ते)
बड़े यकींन से उल्फ़त की बात करता है।।
यूँ बर्फ आब-ओ-हवा वादियों से गुजरी हो।
उसी तरह से मेरा ज़िस्म अब पिघलता है।।
कभी भी वक्त न ठहरा हुआ लगे मुझको।
के चावी कौन भला सुब्ह शाम भरता है।।
यकीं न हो तो जरा गौर कर के देखो तुम ।
तुम्हारी आँख में भारी तुम्हारा'…
Added by amod shrivastav (bindouri) on April 27, 2019 at 12:30pm — 3 Comments
तेरे मेरे दोहे ....
द्रवित हुए दृग द्वार से , अंतस के उदगार।
मौन रैन में हो गए, घायल सब स्वीकार।।
रेशे जीवन डोर के, होते बड़े महीन।
बिन श्वासों के देह ये, लगती कितनी दीन।।
दृशा दूषिका से भरी, दूषित हुए विचार।
वर्तमान में हो गए, खंडित सब संस्कार।।
लोकतंत्र में है मिला, हर जन को अधिकार।
अपने वोटों से चुने, वो अपनी सरकार।।
हर भाषण में हो रही, प्रजातंत्र की बात।
प्रजा झेलती तंत्र के ,नित्य नए…
Added by Sushil Sarna on April 26, 2019 at 4:28pm — 8 Comments
वो भी क्या दिन थे यारो
जब मिलजुल कर मौज मनाते थे
कभी पेड़ की डाल पर चढ़ जाते
कभी तालाब में डुबकी लगाते थे
रंग-बिरंगे फूलों से तब
भरे रहते थे बाग-बगीचे
सुंदर वातावरण बनाते और
आँगन को महकाते थे ||
कू-कू करती कोयल के
हम सुर से सुर मिलाते थे
रंग-बिरंगे तितलियों के पीछे
सरपट दौड़ लगाते थे
पक्षियों की चहचाहट में
जैसे, खुद को ही भूल जाते थे
मिलजुल कर मौज मनाते थे ||
स्वच्छ वायुं…
ContinueAdded by PHOOL SINGH on April 26, 2019 at 2:32pm — 2 Comments
"अरे, उस भलेमानस के पास जाना है, चलिए मैं ले चलता हूँ", सामने वाले व्यक्ति ने जब उससे यह कहा तो उसे एकबारगी भरोसा ही नहीं हुआ. अव्वल तो लोग आजकल किसी का पता जानते ही नहीं, अगर जानते भी हैं तो एहसान की तरह बताते हैं. और राकेश के बारे में उसकी राय तो भलेमानस की बिलकुल ही नहीं थी.
चंद साल ही तो हुए हैं जब राकेश उसकी टोली का सबसे खतरनाक सदस्य हुआ करता था. किसी को भी मारना पीटना हो, धमकाना हो या वसूली करनी हो तो राकेश सबसे आगे रहता था. और इसी वजह से उसे एक प्राइवेट फाइनेंस कंपनी में नौकरी भी…
Added by विनय कुमार on April 25, 2019 at 7:14pm — 6 Comments
नहीं वक़्त है ज़िन्दगी में किसी की, सदा भागते ही कटे जिन्दगानी
कभी डाल पे तो कभी आसमां में, परिंदों सरीखी सभी की कहानी
ख़ुशी से भरे चंद लम्हे मिले तो, गमों की मिले बाद में राजधानी
सदा चैन की खोज में नाथ बीते, किसी का बुढ़ापा किसी की जवानी।।
शिल्प-लघु-गुरु-गुरु (यगण)×8
(मौलिक व अप्रकाशित)
Added by नाथ सोनांचली on April 25, 2019 at 6:47am — 8 Comments
हजज़ मुरब्बा मक़बूज
अरकान :- मुफाइलुन मुफाइलुन (1212-1212)
मुझे उसी से प्यार हो ।।
जो तीर दिल के पार हो ।।
पहाड़ जैसी' जिंदगी ।
कोई तो दाबे'दार हो।।
सवाल बस मेरा यही ।
अदब ओ ऐतबार हो।।(शिष्टाचार,विश्वास)
नफ़स की धुन नहीं थमें।(आत्मा,soul)
कोई भी कितना यार हो।।
लुग़त* की …
ContinueAdded by amod shrivastav (bindouri) on April 24, 2019 at 11:00pm — 1 Comment
जाल .... ( 4 5 0 वीं कृति)
बहती रहती है
एक नदी सी
मेरे हाथों की
अनगिनित अबोली रेखाओं में
मैं डाले रहता हूँ एक जाल
न जाने क्या पकड़ने के लिए
हाथ आती हैं तो बस
कुछ यातनाएँ ,दुःख और
काँच की किर्चियों सी
चुभती सच्चाईयाँ
डसते हैं जिनके स्पर्श
मेरे अंतस में बहती
जीत और हार की धाराओं को
काले अँधेरों में भी मुझे
अव्यक्त अभियक्तियों के रँग
वेदना के सुरों पर
नृत्य करते नज़र आते हैं
नदी
हाथों की…
Added by Sushil Sarna on April 24, 2019 at 1:24pm — 5 Comments
22 22 22 22 22 22 22 2
एक ताज़ा ग़ज़ल
आदमी सोच के कुछ चलता है,दुनिया में हो जाता कुछ।
मानव की इच्छाएं कुछ है, अर मालिक का लेखा कुछ ।
अपने अपने दुख के साये मैं हम दोनों जिंदा है ,
तू क्या समझे,मैं क्या समझूं, तेरा कुछ है, मेरा कुछ ।
दुनिया के ग़म ,रब की माया और सियासत की बातें ,
खुद से बाहर आ सकता तो, इन पर भी लिख देता।
एक जरा सी बात हमारी हैरानी का कारण है,
ख्वाब में हमने कुछ देखा था ,आंख खुली तो…
Added by मनोज अहसास on April 23, 2019 at 10:51pm — 5 Comments
वह ताश की एक गड्डी हाथ में लिए घर के अंदर चुपचाप बैठा था कि बाहर दरवाज़े पर दस्तक हुई। उसने दरवाज़ा खोला तो देखा कि बाहर कुर्ता-पजामाधारी ताश का एक जाना-पहचाना पत्ता फड़फड़ा रहा था। उस ताश के पत्ते के पीछे बहुत सारे इंसान तख्ते लिए खड़े थे। उन तख्तों पर लिखा था, "यही है आपका इक्का, जो आपको हर खेल जितवाएगा।"
वह जानता था कि यह पत्ता इक्का नहीं है। वह खीज गया, फिर भी पत्ते से उसने संयत स्वर में पूछा, "कल तक तो तुम अपनी गड्डी छोड़ गद्दी पर बैठे थे, आज इस खुली सड़क में फड़फड़ा…
ContinueAdded by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on April 23, 2019 at 10:20pm — 3 Comments
अम्मा को चारपाई पर लेटे देख बिटिया किशोरी भी उसके बगल में लेट गई और दोनों हाथों से उसे घेर कर कसकर सीने से लगाकर चुम्बनों से अपना स्नेह बरसाने लगी। इस नये से व्यवहार से अम्मा हैरान हो गई। उसने अपनी दोनों हथेलियों से बिटिया का चेहरा थामा और फ़िर उसकी नम आंखों को देख कर चौंक गई। कुछ कहती, उसके पहले ही बिटिया ने कहा :
"अम्मा तुम ज़मीन पे चटाई पे लेट जाओ!"
जैसे ही वह लेटी, किशोरी अपनी अम्मा के पैर वैसे ही दाबने लगी, जैसे अम्मा अपने मज़दूर पति के अक्सर दाबा करती…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 23, 2019 at 6:19pm — 4 Comments
महाभुजंगप्रयात सवैया
कड़ी धूप या ठंड हो जानलेवा न थोड़ी दया ये किसी पे दिखाती।
कि लेती कभी सब्र का इम्तिहां और भूखा कभी रात को ये सुलाती।।
जरूरी यहाँ धर्म-कानून से पूर्व दो वक्त की रोटियाँ हैं बताती।
गरीबी न दे ऐ खुदा! जिंदगी में कि इंसान से ये न क्या क्या कराती?
शिल्प-लघु गुरु गुरु(यगण)×8
रचनाकार- रामबली गुप्ता
मौलिक एवं अप्रकाशित
Added by रामबली गुप्ता on April 23, 2019 at 5:23pm — 5 Comments
प्रतीक्षा लौ ...
जवाब उलझे रहे
सवालों में
अजीब -अजीब
ख्यालों में
प्रतीक्षा की देहरी पर
साँझ उतरने लगी
बेचैनियाँ और बढ़ने लगीं
ह्रदय व्योम में
स्मृति मेघ धड़कने लगे
नैन तटों से
प्रतीक्षा पल
अनायास बरसने लगे
सवाल
अपने गर्भ में
जवाबों को समेटे
रात की सलवटों पर
करवटें बदलते रहे
अभिव्यक्ति
कसमसाती रही
कौमुदी
खिलखिलाती रही
संग रैन के
मन शलभ के प्रश्न
बढ़ते रहे
जवाब…
Added by Sushil Sarna on April 22, 2019 at 6:25pm — 8 Comments
छकपक ... छकपक ... करती आधुनिक रेलगाड़ी बेहद द्रुत गति से पुल पर से गुजर रही थी। नीचे शौच से फ़ारिग़ हो रहे तीन प्रौढ़ झुग्गीवासी बारी-बारी से लयबद्ध सुर में बोले :
पहला :
"रेल चली भई रेल चली; पेल चली उई पेल चली!"
दूसरा :
"खेल गई रे खेल गई; खेतन खों तो लील गई!"
फ़िर तीसरा बोला :
"ठेल चली; हा! ठेल चली; बहुतन खों तो भूल चली!"
दूर खड़े अधनंगे मासूम तालियां नहीं बजा रहे थे; एक-दूसरे की फटी बनियान पीछे से पकड़ कर छुक-छुक…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on April 22, 2019 at 3:32pm — 2 Comments
कनक मंजरी छंद "गोपी विरह"
तन-मन छीन किये अति पागल,
हे मधुसूदन तू सुध ले।
श्रवणन गूँज रही मुरली वह,
जो हम ली सुन कूँज तले।।
अब तक खो उस ही धुन में हम,
ढूंढ रहीं ब्रज की गलियाँ।
सब कुछ जानत हो तब दर्शन,
देय खिला मुरझी कलियाँ।।
द्रुम अरु कूँज लता सँग बातिन,
में यह वे सब पूछ रही।
नटखट श्याम सखा बिन जीवित,
क्यों अब लौं, निगलै न मही।।
विहग रहे उड़ छू कर अम्बर,
गाय रँभाय रही सब हैं।
हरित सभी ब्रज के तुम पादप,
बंजर…
Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on April 22, 2019 at 10:54am — 4 Comments
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