बसंत - लघुकथा –
रजनी के पति का जन्म बसंत पंचमी को हुआ था इसलिये घरवालों ने उसका नाम बसंत ही रख दिया था। रजनी उसके जन्म दिन को खूब जोश के साथ मनाती थी। शादी को चार साल हुए थे लेकिन अभी तक उसकी गोद खाली थी। इसका एक मुख्य कारण उसके पति का सेना में होना भी था। चूंकि बसंत की तैनाती सीमा पर थी अतः परिवार साथ नहीं रख सकता था।
अभी कुछ दिन पहले एक फोन आया था कि बसंत लापता है, तलाश जारी है। रजनी के अरमानों पर तो मानो वज्रपात हो गया था। वह बसंत के जन्म दिन के लिये क्या क्या सपने बुन रही…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on January 22, 2018 at 6:20pm — 14 Comments
"ज़्यादा मत उड़ो, ज़मीन पे रहो; घर-गृहस्थी पे ध्यान दो, समझे!"
"ऐसा क्यों कह रहे हैं बाबूजी, मुझसे क्या ग़लती हुई?"
"ग़लती नहीं, ग़लतियां कर रहे हो मियां!"
" समझा नहीं! क्या मेरी साहित्यिक यात्राओं से आपको कोई कष्ट?"
" मुझे ही नहीं, हम सब को तक़लीफ है! सुना है कि कल फिर तुम दिल्ली से क़िताबें सूटकेश में भर कर लाये हो! पगलिया गये हो क्या?"
"बाबूजी, ये वे पुस्तकें हैं जिनमें मेरी रचनाएं प्रकाशित हुई हैं या जिन्हें पढ़कर मुझे अपना लेखन सुधारना है!"
"अब बहू ही तुम्हें…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 22, 2018 at 4:34am — 5 Comments
मखमल के गद्दों पे गिरगिट सोए हैं
कंठ चीर तरु सरकंडों के
अल्गोज़े की बीन बनी है
अंतड़ियों के बान पूरकर
तिलचट्टों ने खाट बुनी है
मजबूरी ने कोख में फ़ाके बोए हैं
लूट खसोट के दंगल भिड़तु
किसने लूटी किसकी जाई
बुक्का फाड़ देवियाँ रोती
सनी लहू में साँजी माई
कंधों पे संयम के मुर्दे ढोए हैं
छल के पैने नाखूनों से
देह खुरचते जात धरम की
मक्कारी की आरी लेकर
लाश बिछाते लाज शरम…
ContinueAdded by rajesh kumari on January 21, 2018 at 10:08pm — 17 Comments
1222 1222 122
बढ़े तो दर्द अक्सर टूटता है
अबस आँखों से झर कर टूटता है
गुमाँ ने कस लिया जिस पर शिकंजा
भटकता है वो दर-दर,टूटता है
नहीं गम घर मेरे आता अकेले
कि वो तो कोह बनकर टूटता है
सुने गर चीख बच्चे की तो देखो
रहा जो सख़्त पत्थर टूटता है
बजें बर्तन हमेशा साथ रह कर
भला इनसेे कभी घर टूटता है
मौलिक अप्रकाशित
अबस:बेबस
कोह:पहाड़
Added by सतविन्द्र कुमार राणा on January 21, 2018 at 9:00pm — 10 Comments
1222 1222 1222 1222
गुलाबों से किताबों तक समाईं धूल की परतें
जरा देखो तो अब माथे पे आईं धूल की परतें!!
ये किस आगोश ने सारे शहर को घेर के रक्खा
घना है कोहरा या फिर हैं छाईं धूल की परतें?
गया इक वक़्त वो आया न तो सन्देश ही आया
हमीं ने रिश्ते नातों पर चढ़ाईं धूल की परतें
गिला इस बात का उनसे करें भी तो करें कैसे
गमे दिल ने मेरे लब पर सजाईं धूल की परतें
बड़े ही फख्र से छोड़ी थीं अपने गाँव की गलियां
मगर 'ब्रज'…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on January 21, 2018 at 7:00pm — 23 Comments
हे भारत के वीर युवाओं,
कर लो नमन माँ सरस्वती को,
दिखा दो ताकत दुनियाँ को,
कितनी शक्ति है तेरे कलमों में!!
कोई बाँट ना पाये हमको,
ऐसा इतिहास लिखो युवाओं,
हर घर में वीर जन्मा है,
बस कोई उन्हें जगा दो!!
तलवार नहीं अपनी-अपनी कलम उठाओ,
देश में ऐसा क्रान्ति लाओ,
लूटेरे और भ्रष्टाचारियों को,
अपनी कलम की ताकत दिखा दो!!
कलम की ताकत को समझ लो युवाओं,
ये बिन चिंगारी के भी आग जलाती है,
देश के गद्दारों और दुश्मनों को, …
Added by Sushil Kumar Verma on January 21, 2018 at 12:00pm — 1 Comment
हृदय की फुलवारी में
राग-बसंती छिड़ गया
अंग-प्रत्यंग प्रफुल्लित
आनंदित हो गया
चहुँदिश दिशा में
छा गया यौवन
लग गया बाग़ों में फिर से
सरसों , जूही , केतकी का मेला
चटखने लगी कमसिन कलियाँ
उन्हें भी प्रेम निमंत्रण मिलने लगा
मतवाले भँवरों का कारवाँ चला
देखो, कामदेव का जादू फिर चला ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।
Added by Mohammed Arif on January 21, 2018 at 10:06am — 19 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 20, 2018 at 10:35pm — 7 Comments
लघुकथा - गवाह –
नेताजी की हवेली में काम करने वाली चंपा की नाबालिग लड़की रूपा की नेताजी के लड़के ने ज़बरन इज्जत लूट ली। नेताजी ने साम, दाम, दंड और भेद सब हथकंडे अपना लिये, लेकिन चंपा किसी भी तरह मामले को रफ़ा दफ़ा करने को राजी नहीं हुयी।
आखिरकार नेताजी अपनी औक़ात पर आ गये। चंपा को बोल दिया,"जा जो तेरी मर्जी हो कर ले"।
चंपा भी इतनी आसानी से हार मानने वाली नहीं थी। चीख चीख कर सारी बस्ती इकट्ठा कर ली। चंपा के दो चार पुराने शुभ चिंतकों ने मशविरा दे डाला कि सब जुलूस लेकर थाने चलो…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on January 20, 2018 at 8:54pm — 8 Comments
फ़ाइलातुन फ़ईलातुन फ़ईलातुन फ़ेलुन
तेरे नज़दीक ही हर वक़्त भटकता क्यों हूँ
तू बता फूल के जैसा मैं महकता क्यों हूँ
मैं न रातों का हूँ जुगनू न कोई तारा पर
उसकी आँखों में मगर फिर भी चमकता क्यों हूँ
इस पहेली का कोई हल तो बताओ यारो
हिज्र की रातों में आतिश सा दहकता क्यों हूँ
घर बनाया है तेरे दिल में उसी दिन से सनम
सारी दुनिया की निगाहों में खटकता क्यों हूँ
हासिदों को बड़ी तश्वीश है इसकी…
ContinueAdded by santosh khirwadkar on January 20, 2018 at 11:21am — 8 Comments
वो कहते हैं मेरी पहचान को मिटटी में मिला डाला
बह्र-1222-1222-1222-1222
वो कहतें हैं मेरी पहचान को मिटटी में मिला डाला।।
मैं कहता हूँ पुरानी थी नया रिश्ता बना डाला।।
न भूला कर की रिश्ते में मैं तेरा बाप हूँ बेटा।
कहाँ भूला यही तो सोंच उल्फत को भुना डाला।।
मैं कहता हूँ मेरी पहचान इक दिन आप की होगी।
वो बोले तुझ से कितने बीज बो कर के उगा डाला ।।
मुझे अब तक यकीं होता न उल्फत की मिसालों पर।
मुहब्बत नाम है किसका उसे किसका बना…
Added by amod shrivastav (bindouri) on January 19, 2018 at 7:29pm — 2 Comments
बह्र- 122-122-122-122
मुझे है भला क्या कमी जिंदगी से।।
है रिश्ता मेरा तीरगी ,रौशनी से।।
मुझे बज्म इतना न पहचां रही है।
है पहचान मेरी-तेरी माशुकी से।।
कई बार गुजरे हैं तेरे शह्र से।
तेरी आशिक़ी से तेरी बेरुख़ी से।।
मुहब्बत के कुछ ऐसे क़िस्से सुने हैं।
की डर लगता है आज की आशिक़ी से।।
दिये की जरुरत किसे अब नही है?
बता किसकी कब है बनी तीरगी से??
पता मुझको उस शख्स का भी जरा…
ContinueAdded by amod shrivastav (bindouri) on January 19, 2018 at 5:24pm — 5 Comments
2122 2122 212
बेखुदी की जिंदगी है आजकल ।
खूब सस्ता आदमी है आजकल ।।
जी रहे मजबूरियों में लोग सब।
महफिलों में ख़ामुशी है आजकल ।।
लग रही दूकान अब इंसाफ की ।
हर तरफ़ कुछ ज़्यादती है आजकल।।
छोड़ कर तन्हा मुझे मत जाइए ।
कुछ जरूरत आपकी है आजकल ।।
अब नहीं मिलता कोई मुझसे यहां।
बर्फ रिश्तों पर जमी है…
Added by Naveen Mani Tripathi on January 19, 2018 at 1:07pm — 5 Comments
ग़ज़ल ( निकल कर तो आओ कभी रोशनी में )
----------------------------------------------------------
(फऊलन-फऊलन-फऊलन-फऊलन)
चलाओ न तीरे नज़र तीरगी में |
निकल कर तो आओ कभी रोशनी में |
कमी दर्दे दिल में तो अब भी नहीं है
मज़ा आ रहा है तुम्हें दिल लगी में |
मेरी ही नहीं है यह सबकी ज़ुबा पर
लुटे क़ाफ़िले सब तेरी रहबरी में |
करूँ फ़ख़्र मैं क्यूँ न क़िस्मत पे अपनी
दिवाना हुआ हूँ तुम्हारी गली में |
यूँ…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on January 18, 2018 at 9:59pm — 10 Comments
प्रिय शेखर,
दोस्त! तुम मेरे सब से अच्छे दोस्त रहे हो, अब तुमसे क्या छुपाऊं? मैं इन दिनों बहुत परेशान हूँ, तुम्हें तो पता है मैं क्रेडिट कार्ड इस्तेमाल करता आया हूँ| मेरी और तुम्हारी जॉब एक साथ ही लगी थी, कितने खुश थे न हम दोनों! अच्छा पैकेज पाकर ,मैं हवा में उड़ने लगा,तुमने कई बार मुझे टोका भी; पर मैं अपनी ही उड़ान भरता रहा, मैं यह भूल गया था कि प्राइवेट सेक्टर में जॉब; बरक़रार रहे जरुरी नहीं ,और ऐसा ही हुआ।सात महीनों से जॉब के लिए दर-दर भटक रहा हूँ, और दूसरी तरफ़ बैंक के क़र्ज़ तले दबता जा…
Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on January 18, 2018 at 9:58pm — 8 Comments
ग़ज़ल (शिकायत भला हम करें क्या किसी से )
----------------------------------------------------------
(फऊलन- फऊलन-फऊलन-फऊलन)
चुने हैं ग़मे यार अपनी ख़ुशी से |
शिकायत भला हम करें क्या किसी से |
मिले सिर्फ़ धोके ही अपनों से हम को
वफ़ा अब करेंगे किसी अजनबी से |
खिज़ाओं ख़बरदार उनकी है आमद
सदा फूल खिलते हैं जिनकी हँसी से |
मिला कर नज़र से नज़र यह बताएँ
हुआ दिल ये बर्बाद किस की कमी से |
कभी दोस्तों…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on January 18, 2018 at 9:33pm — 10 Comments
गीत
मात्र भार १६ १६
बहला रहा रोज इस दिल को,
किस्से बचपन के कह कर के.
तेरी महकी महकी यादें,
मैंने रख लीं हैं तह कर के.
प्रथम दृष्टि का वह सम्मोहन,
भूल नहीं अब तक मैं पाया.…
ContinueAdded by बसंत कुमार शर्मा on January 18, 2018 at 8:30pm — 2 Comments
चाँद से पूछें.....
आखिर
ख़्वाब टूटने का सबब
क्या है
चलो
चाँद से पूछें
करते हैं
जो दिल की मुरादें पूरी
उन तारों का पता
चलो
चाँद से पूछें
मुहब्बत में
अश्कों का निज़ाम
किसने बनाया
चलो
चाँद से पूछें
धड़कनों के पैग़ाम
क्यूँ हुए रुसवा
चलो
चाँद से पूछें
क्यूँ पूनम का अंजाम
बना अमावस
चलो
चाँद से पूछें
पेशानी पे मुहब्बत की…
ContinueAdded by Sushil Sarna on January 18, 2018 at 1:18pm — 4 Comments
कभी उनकी खूब चलती थी।कोर्ट-कचहरी सब वही थे।और सरकार तो थे ही।सचिव लोग गाहे-बेगाहे जरूरी फाइलें लेकर उनके आवास जाते,तो झिड़की मिलती।टका-सा मुँह लिए लौट आते।अपने नसीब को रोते कि कहाँ से कहाँ कलक्टर हुए,अर्दली ही रहते तो बेहतर होता।चैता के ताल पर 'रे ठीक से नाच बुरबक' तो न सुनना पड़ता। सुरती ठोंककर हाकिम को तो नहीं खिलानी पड़ती। उन्हें अपने लिए 'हाकिम,साहिब' जैसे शब्द गाली लगने लगे थे।वैसे अब हाकिम-सरकार के लोग इन लोगों को अर्दली जैसे ही समझते थे,आर्डर देते थे।
फिर समय ने करवट बदली। साहब जी…
Added by Manan Kumar singh on January 18, 2018 at 9:45am — 3 Comments
1212 1122 1212 22
सिला दिया है मेरे दिल में कुछ उतर के मुझे ।
जला गया जो गली से अभी गुजर के मुझे ।।
किया हवन तो जला हाथ इस कदर अपना ।
मिले हैं दर्द पुराने सभी उभर के मुझे ।।
तमाम जुल्म सहे रोज आजमाइस में ।
चुनौतियों से मिली जिंदगी निखर के मुझे ।।
अजीब दौर है किस किस की आरजू देखूँ ।
बुला रही है क़ज़ा भी यहाँ सँवर के मुझे ।।
मिटा रहे हैं…
ContinueAdded by Naveen Mani Tripathi on January 17, 2018 at 6:26pm — 1 Comment
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |