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कोयल की बोली

एक कोयल कूकती है पास की अमराई में,

आजकल मैंने सुना है रात की गहराई में।

हो रहा था मेघ गर्जन साथ ही वृष्टि घनी,

क्या बुलाती है किसी को या हुई वो बावली?

फिर ये सोचा हो न मुश्किल की कहीं कोई घड़ी,

भीग शीतल नीर थर – थर काँपती हो वो पड़ी।

कुहू – कुहू सुनते हुए मैं मन ही मन गुनता रहा..

पक्षियाँ तो शाम ढलते नीड़ में खो जाती हैं,

घिरते तिमिर के साथ ही वो नींदमय हो जाती हैं।

तभी कौंधा मन, अरे ! ये धृष्टता दिखलाती है,

दुष्ट पंछी मधुर…

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Added by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 9, 2017 at 8:32pm — 3 Comments

ग़ज़ल " जिंदगी से जी भर गया कब का "

2122 1212 22

ज़िन्दगी,जी तो भर गया कब का।
टूट कर मैं बिखर गया कब का ।।

***
इक मुहब्बत का था नशा मुझको।
वो नशा भी उतर गया कब का।।
***
चाहता था तुझे दिल-ओ-जां से।
वक़्त वो तो गुज़र गया कब का।।

***
देख हालत नशे के मारों की।
ख़ुद-ब-ख़ुद वो सुधर गया कब का।।

***
देख कर छल फ़रेब दुनिया के।
एक "इंसान" मर गया कब का।।

मौलिक व अप्रकाशित

Added by surender insan on August 9, 2017 at 5:00pm — 16 Comments

ग़ज़ल...हर कदम पर जह्न मेरा आजमाता कौन है-बृजेश कुमार 'ब्रज'

2122 2122 2122 212
वेदना के तार झंकृत,गीत गाता कौन है
दर्द की ये रागनी आखिर सुनाता कौन है

कौन है ये रात के आगोश में सिमटा हुआ
चाँदनी की ओट लेकर मुस्कुराता कौन है

बादलों के पार से आवाज थी किसकी सुनी
ओढ़कर घूँघट घटा का ये लजाता कौन है

गुँजतीं हैं आहटें खामोशियों को चीरती
हर कदम पर जह्न मेरा आजमाता कौन है

चल रही पुरवा बसन्ती मुस्कुरा कर झूमती
लेके थाली आरती की गुनगुनाता कौन है
(मौलिक एवं अप्रकाशित)
बृजेश कुमार 'ब्रज'

Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on August 9, 2017 at 4:30pm — 16 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
ये जो इंसान आज वाले हैं (एक ही रदीफ़ पर दो गज़लें ---'राज')

2122  1212  22

(१)

 ये जो इंसान आज वाले हैं

कुछ अलग ही मिजाज वाले हैं

 

रास्तों पर अलग अलग चलते  

एक ही ये समाज वाले हैं

 

दस्तख़त से बनें मिटें रिश्तें   

कागजी ये रिवाज वाले हैं

 

रावणों की मदद करें गुपचुप

लोग ये रामराज वाले हैं

 

रोज खबरों में हो रहे उरियाँ

ये बड़े लोकलाज वाले हैं

 

मुंह छुपाते विदेश में…

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Added by rajesh kumari on August 9, 2017 at 1:05pm — 29 Comments

क्यों लिखूं कोई और कहानी (कविता)

क्यों लिखूं मैं कोई कहानी

जो देती जन्म एक और को



देखती हूँ जब अनगिनीत हैं

आस पास फिर एक और क्यों



पनप रहे है साँप बहुत

विषैले हैं आस पास कई



देखती हूँ अजगर कहीं

जो निगल रहे है रिश्तों को



कहीं दिख रही है मीरा

जो पी रही ज़हर हैं



है कहीं पितामाह भीष्म

बाण शैया पर लेटे हुए



रो रहे हैं खुश्क आँखों से

लोग कई ऐसे सड़कों पर



हो रहा दहन हर रिश्ते का

मोल लग रहा हैं बाज़ारों… Continue

Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 9, 2017 at 12:28pm — 6 Comments

क्या तुम सुन रहे हो ? ( कविता)

फिर आ गयी है रात 

पूनम के बाद की 

खिला हुआ चाँद 

कह रहा है कुछ 

क्या तुम सुन रहे हो ? 

तारों से कर रहें हैं  बातें 

तन्हा बीत जाती हैं रातें 

देखता है  यह चाँद यूँही 

हँसता होगा यह भी देख मुझको 

क्या तुम सुन रहे हो ?

साथ चलने को कहा था 

थामकर हाथ चल रहे थे 

फिर क्या हुआ यकायक 

कैसे गरज गए यह बादल 

क्या तुम सुन रहे हो 

चमक रही है बिजली 

चाँद…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 8, 2017 at 10:00pm — 13 Comments

हुई भोर ( कविता)

हो रहा कलरव श्यामा का  

उठो देखो बाहर 

सूर्य उठा रहा चादर 

हो रही है भोर 

नारंगी नभ से खिलता 

बादलों को चीरता हुआ 

कह रहा है हमसे 

हो रही है भोर 

पत्तों पर ओस शर्माती 

देख सूर्य की किरणे 

खुद को समेटती कहते हुए 

हो रही है भोर 

मिट्टी की सौंधी सी महक 

कलियों का खिलना 

धुप देख मुस्कुराना कहता है 

हो रही है भोर 

उठो छोडो बिस्तर अब…

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Added by KALPANA BHATT ('रौनक़') on August 8, 2017 at 9:30pm — 6 Comments

तिरी नज़रों में ....संतोष

तिरी नज़रों में ये  बात नज़र आती है
मिरी याद तो तुझे आज भी आती है

ये चाहत का मामला है जनाब,
दिल की कशिश है,लौट आती है

छुपा लो लाख इसे तुम दिल में मगर,
बात दुनियाँ को भी नज़र आती है

दिल गिरफ़्त में है और क़ैद भी'संतोष'
चाहत तिरी वो ज़ंजीर नज़र आती है
#संतोष
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by santosh khirwadkar on August 8, 2017 at 8:00pm — 9 Comments

लघुकथा---सोच

देर रात चार-पाँच लड़कियों का झुंड बदहवास , घबराया हुआ जब पुलिस स्टेशन में दाखिल हुआ तो पुलिस वालों के भी होश उड़ गए । पहले उन्हें बैठाया गया । ढाँढस बँधाया । फिर थानेदार साहब ने कहा-"हाँ , अब बताइए क्या हुआ ?"

" कुछ लड़कों ने हमारी कार का पीछा किया , हमें किडनैप करने की कोशिश की । बड़ी मुश्किल से जान बचाकर यहाँ तक आईं हैं ।" उनमें से एक लड़की ने आपबीती सुनाई ।

" देर रात आप घर से बाहर क्यों निकली ?" थानेदार साहब ने आखिर अपनी औकात बता ही दी ।

" यदि आप लड़कों को देर रात घर से बाहर न… Continue

Added by Mohammed Arif on August 8, 2017 at 6:43pm — 13 Comments

क्षणिक सुख ...

क्षणिक सुख ...

कितने

दुखों से

भर दिया

बज़ुर्गों का दामन

वर्तमान के

क्षणिक सुख की

सोच ने

सैंकड़ों झुर्रियों में

छुपा दिया

बज़ुर्गों के सुख को

वर्तमान के

क्षणिक सुख की

सोच ने

मानवीय संवेदनाओं के

हर बंध अनुबंध

बिसरा डाले

वर्तमान के

क्षणिक सुख की

सोच ने

ममता की अनुभूति

जो भूले न

आज तक

उन्हें

कन्धों तक का

मोहताज़ बना दिया

वर्तमान के…

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Added by Sushil Sarna on August 8, 2017 at 6:37pm — 6 Comments

कोमल स्पंदन मन चिर उन्मन, (गीत) :अलका ललित

16 मात्रा आधारित गीत (चोपाई छन्द आधारित )

*****

कोमल स्पंदन मन चिर उन्मन

रे स्याह भौंर गुंजन गुंजन

.

किसलय पुंजित ह्रदय हुलसित

उत्कंठा इंद्रजाल पुलकित

नित भोर भये चिर कोकिल-रव

मधु कुंज कुंज गुंजित कलरव

.

रे गंध युक्त मसिमय अंजन

रे स्याह भौंर गुंजन गुंजन

.

घनघोर घटा चितचोर विहग

नभ अंतःपुर द्युतिमान सुभग

अकलुष प्रदीप्त कोमल उज्ज्वल

तप नेह वेदना में प्रतिपल

.

रे स्वर्ण…

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Added by अलका 'कृष्णांशी' on August 8, 2017 at 4:30pm — 14 Comments

रुख से वो जब पर्दा हटा देगा

बहर - 1222 1222 1222 1222



वो ख़ुद अपनो का मारा हैं नहीं मुझको दग़ा देगा .....

मुहब्बत में यक़ीनन साथ वो मेरा निभा देगा ......





निगाहें देखकर उसकी , उसे कहते कयामत हो

कयामत होगी तब रुख से वो जब पर्दा हटा देगा ....



यहीं तो सोच के मंदिर में जाकर रोता है मुफ़लिस

कि मेरे अश्क़ को इक दिन ख़ुदा मोती बना देगा ......



वो ....बिस्तर मख़मली उसके लिए बेकार है यारों

उसे मेहनत का हासिल इक निवाला ही सुला देगा ....



मिरा घर है अँधेरे में… Continue

Added by पंकजोम " प्रेम " on August 8, 2017 at 4:30pm — 10 Comments

गहराई ...

गहराई में ही जीवित रहता शीतल जल

सश्रम ही पाता तृषित मनुज वह नीर विमल ... ||

गंभीर ज्ञान ज्ञानी का बसता अंतः तल

आता समक्ष जब स्वागत में हों ध्वनि करतल ... ||

ज्ञान अधूरा हो या छिछला - उथला जल

दिखता सुदूर पर प्राप्य सहज, करता मन चंचल ... ||

.

- करीब (मौलिक व अप्रकाशित)

Added by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 8, 2017 at 3:00pm — 4 Comments

राखी (भाग 1)

आज राखी बँध रहे थे, खूब राखी बँध रहे थे,

भाई भी सब सज रहे थे, पहन कुरते जँच रहे थे!

हीरे – मोती सोने – चाँदी, से सजे रेशम के धागे,…

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Added by श्याम किशोर सिंह 'करीब' on August 7, 2017 at 10:00pm — 8 Comments

चाँद ढूँढ रहे हो ??......संतोष

क्यूँ आसमां में चाँद ढूँढ रहे हो,

वो मेरे पास उतर आया है



हाँथों की इन लकीरों में जैसे मेरे,

ज़िंदगी बन के चला आया है



आईना सा था वो बिल्कुल साफ़,

छूने से मेरे ,उस पर कुछ दाग़ उभर आया है



चमकता सितारा हूँ ज़मीं पर उसका,

वो आसमाँ सा ज़मीं को सजाने आया है



ये मेरी मुहब्बत ही तो है उससे,

वो मुझसे मिलने ज़मीं तक आया है



जलते हो तो जलो ए दुनियाँ वालों तुम,

वो मुझसे ईद मुबारक़ कहने आया… Continue

Added by santosh khirwadkar on August 7, 2017 at 8:18pm — 10 Comments

राखी

"राखी" (चौपइया छंद)



पर्वों में न्यारी, राखी प्यारी,

सावन बीतत आई।

करके तैयारी, बहन दुलारी,

घर आँगन महकाई।

पकवान पकाए, फूल सजाए,

भेंट अनेकों लाई।

वीरा जब आया, वो बँधवाया,

राखी थाल सजाई।।



मन मोद मनाए, बलि बलि जाए,

नव उमंग है छाई।

भाई मन भाए, गीत सुनाए,

खुशियों में बौराई।

डाले गलबैयाँ, लेत बलैयाँ,

छोटी बहन लडाई।

भाल पे बिंदिया, ओढ़ चुनरिया,

जीजी मंगल गाई।।



जब जीवन चहका, बचपन महका,

तुम थी तब… Continue

Added by बासुदेव अग्रवाल 'नमन' on August 7, 2017 at 6:21pm — 6 Comments

ग़ज़ल

122 122 122 122

ख़यानत की खातिर मुहब्बत नहीं है ।

मेरी आशिकी क्या अमानत नहीं है ।।



हुई दफ़अतन जो ख़ता थी नज़र से ।

हमें अब नज़र से शिकायत नहीं है ।।



मिटा कर चले जा रहे हैं उमीदें ।

बची आप में भी सराफ़त नहीं है ।।



चले आइये बज्म में रफ्ता रफ्ता ।

मेरी आप से अब अदावत नहीं है ।।



ठहर जाने वाले यकीं कर मेरा तू ।

मेरे दिल की अब तक इज़ाजत नहीं है ।।



तेरे दर पे आना मुनासिब कहाँ अब ।

वहां आशिकों की निज़ामत नहीं है… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on August 7, 2017 at 5:25pm — 15 Comments

अधजले ठूँठ

प्रतीक्षातुर पलों में, नींदों में

आर-पार जाती पारदर्शी सोच में

परस्पर आत्मीय पहचान 

हम दोनों के ओंठ मुस्करा देते

हवा में आगामी प्रातों की ओस-सुगन्ध

हमारी बातों में कहीं  "न"  नहीं  थी

कभी कोई इनकार नहीं था, पुकार थी बस

धधकते हुए सूरज में प्रखर तेज था तब

उस प्रदीप्त धूप की छाती में

कुछ भसम करने की चाह नहीं थी

मैदानों को चीरती हवाओं में

थी रोम-रोम में उमंग 

सूरज की उजाड़ किरणों में अब

अपने…

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Added by vijay nikore on August 7, 2017 at 4:31pm — 4 Comments

कहने को शर्मीली आँखें

मापनी २२ २२ २२ २२

 

झील सी गहरी नीली आँखें

हैं कितनी सकुचीली आँखें

 

खो देता हूँ  सारी सुध बुध

उसकी देख नशीली आँखें

 

यादों  के सावन  में भीगीं

हो गईं कितनी गीली आँखें

 

मोम बना दें पत्थर को…

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Added by बसंत कुमार शर्मा on August 7, 2017 at 4:30pm — 32 Comments

भैया मेरे (लघुकथा) / शेख़ शहज़ाद उस्मानी

पोस्टमेन भी उस समय मुस्कराकर एक अजीब सी ख़ुशी हासिल कर रहा था, जब चिट्ठी हाथ में थामते हुए सलीम मुस्कराया। उसे पता था कि इस दौर में भी इस घर में अगर चिट्ठी आती है तो बहिन की चिट्ठी हुआ करती है। सलीम को बहुत दिनों बाद बहिन का ख़त मिला था। बीवी से नज़रें बचाकर जब उसने ख़त पढ़ा, तो अपने आंसुओं को रोक नहीं सका। आंसू पोंछ कर फिर से उसने वह ख़त पढ़ा। दो भाइयों की इकलौती बहिन यास्मीन के ख़त की कुछ पंक्तियां उसे झकझोर रही थीं :



"हर बार की तरह इस बार भी रक्षा-बंधन का दिन मैंने तुम दोनों के… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on August 7, 2017 at 10:42am — 5 Comments

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