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न कोई दिन बुरा गुजरे न कोई रात भारी हो
जुबाँ को खोलना ऐसे न कोई बात भारी हो /1
दिखा सुंदर तो करता है हमारा गाँव भी लेकिन
बहुत कच्ची हैं दीवारें न अब बरसात भारी हो /2
न तो धर्मों का हमला हो न ही पंथों से हो खतरा
न इस जम्हूरियत पर अब किसी की जात भारी हो /3
पढ़ा विज्ञान है सबने करो तरकीब कुछ ऐसी
न तो हो तेरह का खतरा न साढ़े सात भारी हो /4
महज इक हार से जीवन…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on March 1, 2016 at 11:29am — 12 Comments
दिन ढलने का वक़्त क़रीब आरहा था कि अचानक रास्ते पर सामने से कारवां की तरफ कोई आदमी भागता हुआ नज़र आया | वह हांफता हुआ पास आकर बोला ,आगे ख़तरा है मेरा क़ाफ़ला लुट चूका है | सालारे कारवां ने बिना सोचे समझे उसकी बातों पर यक़ीन करके वहीँ पर क़याम करने का हुक्म देदिया ,हामिद ने लाख कहा इस पर यक़ीन मत करो , मुझे इसकी आँखों में फ़रेब नज़र आरहा है | ...... मगर सब बेकार गया | रात को जब क़ाफ़ले वाले बेख़बर सो रहे थे ,हामिद की आँखों से नींद गायब थी | ...... यकबयक उसे घोड़ों के टापों की आवाज़ सुनाई दी…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on March 1, 2016 at 7:30am — 12 Comments
Added by amita tiwari on March 1, 2016 at 1:30am — 2 Comments
हॉल में बेचैनी से चहलकदमी करता हुआ दिनेश पत्नी के पास आकर बैठ जाता है। "बरखा तुम्हें पता ही है, मैं और विक्रम कितने गहरे मित्र हैं। तुम भी तो हमारी सहपाठी थी"। कहते हुए दिनेश ने पत्नी की ओर सहमति की आस से देखा। "हाँजी पता है, और मुझे आपके विश्वास पर पूर्ण विश्वास भी"। कहते हुए बरखा ने पति की ओर देखा।
"विक्रम भाई साहब तुम्हारे एहसानों का बदला चुकाते हुए इस जनहित प्रनेजेक्ट के साथ अवश्य न्याय करेंगे" ।
दिनेश ने बड़े ही आत्मविश्वास से बरखा के हाथ पे थपकी दी और उठ खड़ा हुआ। "कहाँ जाते…
Added by shikha tiwari on February 29, 2016 at 9:30pm — 3 Comments
Added by Rahul Dangi Panchal on February 29, 2016 at 1:16pm — 8 Comments
Added by शिज्जु "शकूर" on February 29, 2016 at 8:00am — 4 Comments
मातृभूमि के पूत सब, प्रश्न लियें हैं एक ।
देश प्रेम क्यों क्षीण है, बात नही यह नेक ।।
नंगा दंगा क्यों करे, किसका इसमें हाथ ।
किसको क्या है फायदा, जो देतें हैं साथ ।।
किसे मनाने लोग ये, किये रक्त अभिषेक । मातृभूमि के पूत सब
आतंकी करतूत को, मिलते ना क्यों दण्ड ।
नेता नेता ही यहां, बटे हुये क्यों खण्ड़ ।।
न्याय न्याय ना लगे, बात रहे सब सेक । मातृभूमि के पूत सब
गाली देना देश को, नही राज अपराध ।
कैसे कोई कह गया, लेकर मन की…
Added by रमेश कुमार चौहान on February 29, 2016 at 7:30am — 4 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on February 29, 2016 at 12:30am — 9 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on February 28, 2016 at 12:30pm — 7 Comments
मुश्किल से माँ-बाप सालों बाद अपने बेटों से मिलने मुंबई पहुंचे थे। एक के बाद एक पांचों मुंबई में बस गए थे और उनमें से एक खो दिया था। डर लग रहा था कि कहीं ग़लत धंधों में तो नहीं पड़ गये फ़िल्मी दुनिया में दाख़िला पाने के मोह में। दो दिन ही हुये थे माहिम में बड़े बेटे के घर में रुके हुए । बेटे की वास्तविक माली हालत उसकी सेहत और घर देख कर कुछ समझ में नहीं आ रही थी। एक दिन चावल न खाने की बात पर बेटा बाप पर बरस पड़ा।
"अबे, बुढ़ऊ जो मिल रहा है चुपचाप खा ले, मेरी बीवी के पास इत्ता टाइम नहीं है…
Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 28, 2016 at 12:00pm — 6 Comments
"महज़ सात वर्ष की उम्र में "सिल्वर स्क्रीन लिटिल चैम्पियन" जीतने वाला तुम्हारे डांसर बेटे का ,ये क्या हाल हो गया रेखा ?"
" उस लिटिल चैम्पियनशिप ने ही तो उसको बरबाद किया है " उसने अपने आँखों में उतरे समंदर को संभालते हुए कहा ।
" ये क्या कह रही हो तुम ! "
"हाँ ,सच कह रही हूँ , उस चैम्पियनशिप जीतने के बाद नाचने में ही वह लगा रहा , पढ़ाई छूट गयी उसकी , और तुम तो जानती हो कि फिल्मी दुनिया के भाई -भतीजेवाद में कहाँ मिलता है बाहर वालों को स्थान ? "
" वह स्टेज परफॉर्मर तो बन…
Added by kanta roy on February 28, 2016 at 11:00am — 6 Comments
Added by Seema Singh on February 28, 2016 at 8:06am — 8 Comments
नयी क़बा ....
कितनी अजब होती है
वो प्रथम अभिसार की रात
पुष्पों से सेज सुरभित रहती है
पलकों में उनींदे ख्वाब रहते हैं
एक जिस्म
दो कबाओं में सिमटा
किसी अनजाने पल के इंतज़ार में
ख़ौफ़ज़दा होता है
न चाह कर भी
अपने हाथों से
कुवांरे ख़्वाबों की क़बा का
कत्ल करना पड़ता है
मुहब्बत के
रेशमी अहसासों का नया पैराहन
खामोश वज़ूद को
एक नया नाम दे देता है
कुवारी क़बा
इक चुटकी भर सिन्दूर में लिपट…
Added by Sushil Sarna on February 27, 2016 at 8:00pm — No Comments
Added by Manan Kumar singh on February 27, 2016 at 7:48pm — 2 Comments
कर रहा क्या करम धर्म के नाम पर
आदमी बेशरम धर्म के नाम पर
दान की लाडली देव घर के लिये
बन गये वो हरम धर्म के नाम पर
लूटते मारते काटते आदमी
ज़न्नतों का भरम धर्म के नाम पर
कर दिये हैं फ़ना बेजुबां जानवर
कौन साईं हुये?और शनि देव है?
है बहस ये गरम धर्म के नाम पर
मिट गया बाँकपन खोइ शालीनता
भाड़ में गइ शरम धर्म के नाम पर…
Added by बृजेश कुमार 'ब्रज' on February 27, 2016 at 6:00pm — 9 Comments
Added by Rahul Dangi Panchal on February 27, 2016 at 3:39pm — 6 Comments
उस जमाने में बी ए प्रथम श्रेणी से पास होने पर बाबू जी को कालेज के प्राचार्य ने पारितोषिक स्वरूप दिया था ।बाबू जी ने न जाने कितनी कहानियाँ,कविताएँ लिखी इस पेन से। हमेशा उनकी सामने की जेब में ऐसे शोभा बढ़ाये रखता जैसे कोई तमगा लगा हो। मेरी पहली कहानी सारिका में प्रकाशित होने पर बाबू जी ने प्रसन्न हो कर मेरी जेब में ऐसे लगाया जैसे कोई मेडल लगा रहे हों और साथ में हिदायत दी कि इस पेन से कभी झूठ नहीं लिखना,और न ऐसा सच जिससे किसी का अहित हो। आज बाबू जी की पुण्य तिथि पर उनकी तस्वीर पर माला चढा कर…
ContinueAdded by Pawan Jain on February 27, 2016 at 11:30am — 8 Comments
वह समय था
जब हम जाते थे माँ के साथ
नीरव-विजन मंदिर में
देव-विग्रह के समक्ष
सांध्य-दीप जलाने
क्रम से आती थी गाँव की
अन्य महिलाएं
मिलता था तोष
एक अनिवर्चनीय सुख
जबकि नहीं देते थे भगवान्
कुछ भी प्रत्यक्षतः
सिर्फ रहते थे मौन
आज वही विग्रह
करते है अवगाहन रात भर
ट्यूब–लाइट की दूधिया रोशनी मे
नहीं आती अब वहां ग्राम की बधूटियां
पर उपचार, देव-कार्य करते हैं
एक उद्विग्न कम उम्र के…
ContinueAdded by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on February 27, 2016 at 11:04am — 1 Comment
पंचामृत......दोहे
सावन-भादों सूखते, ठिठुरी आश्विन-पूस.
माघ-फाल्गुनी रक्त रस, रही प्रेम से चूस. १
अपने सारे दर्द हुए, जीवन के अभिलेख.
कुछ पन्ने इतिहास से, कुछ इस युग के देख. २
सत्य अहिंसा प्रेम-धन, सब पर्वत के रूप.
मन-मंदिर को ठग रहे, जैसे अंधे कूप. ३
राग-द्वेष नेतृत्व की, धारा प्रबल प्रवाह.
जन गण मन को डुबा कर, कहें स्वयं को शाह. ४
मौसम के हर रंग हैं, जीवन के संदेश.
कभी…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 26, 2016 at 9:30pm — 1 Comment
किसान का बेटा...
गंदे फटे वस्त्रों में उलझी धूल
झाड़ती सोंधी-सोंधी खुशुबू.
नीम की छांव में बैठ कर
निमकौड़ी !
खुद पिघल कर रचती
नये-नये अंकुर.
सावन मस्त होकर झूमता
वर्षा निछावर करती
जीवन के जल-कण
छप्पर रो पड़ते
किसान फटी आंखों से सहेज लेता...
जल-कण
बटुली में
थाली में.
धान के खेत लहलहाते
गंदे-फटे वस्त्र धुल जाते
चमकते सूर्य सा
साफ आसमान…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 26, 2016 at 6:00pm — No Comments
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