काम सारे
ख़त्म करके
रुक गई बहती नदी
ओढ़ कर
कुहरे की चादर
देर तक सोती रही
सूर्य बाबा
उठ सवेरे
हाथ मुँह धो आ गये
जो दिखा उनको
उसी से
चाय माँगे जा रहे
धूप कमरे में घुसी
तो हड़बड़ाकर
उठ गई
गर्म होते
सूर्य बाबा ने
कहा कुछ धूप से
धूप तो
सब जानती थी
गुदगुदा आई उसे
उठ गई
झटपट नहाकर
वो रसोई में…
ContinueAdded by धर्मेन्द्र कुमार सिंह on February 2, 2016 at 3:44pm — 12 Comments
ये शबे-गम किसने दिया दिल को
किसने अपना बना लिया दिल को
मेरी नजरों में तेरे ख्वाब सनम
कह रहे हैं ये शुकरिया दिल को
इश्क तुमसे किया है शिद्दत से
और बे चैन कर लिया दिल को
पीला-पीला बसंती सा आंचल
मिस्ल-ए-गुलशन बना गया दिल को
चाँदनी दूर जा के चमके कहीं
हमने अब तो जला लिया दिल को
रूठी तकदीर आज जागी है
कौई तकदीर दे गया दिल को
छुप गया चाँद रात होने पर
उसने जब प्यार से छुआ दिल को
तंग…
Added by kanta roy on February 2, 2016 at 1:00pm — 5 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 2, 2016 at 9:25am — 7 Comments
Added by Dr. Vijai Shanker on February 2, 2016 at 8:21am — 5 Comments
शाम का समय था और गाँव के बाजार में अचानक किसी ने मास्टर जी की साईकिल को पीछे से पकड़ कर रोक लिया और बोला, “अरे पहचानिए–पहचानिए ।’’
“अच्छा रुकिये जरा नजदीक से देखने दीजिये -मास्टर जी ने अपना चश्मा लगाया और बोले -अरे रामजी मिश्रा, तुम! कब आये दिल्ली से? और बताओ, कर क्या रहे हो आजकल ?”
“रिक्शा ठेल रहा हूँ साले तुम्हारी कृपा से, साला जिंदगी नरक हो गयी है दिल्ली की सड़कों पर, जिसको देखो वही १-२ रुपयों के लिए लतिया कर चल देता है, न ढंग की जगह है रहने को, न…
ContinueAdded by Hari Prakash Dubey on February 2, 2016 at 12:52am — 6 Comments
Added by Dr.Prachi Singh on January 31, 2016 at 2:46pm — 9 Comments
ग़ज़ल (पत्थर निकला ) -------------------------
- 2122 ---1122 ---1122 --22
मेरि बर्बाद मुहब्बत का ये मंज़र निकला /
जिसको उल्फत का ख़ुदा समझा वो पत्थर निकला /
दिल को तस्कीन तो हासिल हुई हमदर्दी से
पर निगाहों से नहीं ग़म का समुन्दर निकला /
ज़ुल्म ने जब भी ज़माने में उठाया है सर
लेके ख़ुद्दार क़लम अपना सुख़नवर निकला /
नीम शब मिलने की तदबीर भी बेकार गयी
सुबह होते ही गली कूचे में महशर निकला…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on January 31, 2016 at 12:56pm — 21 Comments
रंगों की दुनिया में असुरक्षा का माहौल बनता देख लाल ,पीले और नीले रंग के मंत्रियों ने सफ़ेद रंग के सरदार से आपात मीटिंग बुलाने को कहा /हर तरह के रंगों को आमंत्रित किया गया /.... मीटिंग शुरू हुई --मुद्दा था ऐसा क्या करें कि हर वर्ग हमें प्यार से देखे /..... लाल और पीले रंग बोल उठे ,हमारे रंग को हिन्दुओं ने पसंद कर लिया ,मुसलमान हमारी तरफ अजीब नज़रों से देखते हैं /.... नीले और पीले एक साथ कहने लगे हम दोनों से बने हरे रंग को मुसलमानों ने अपना लिया , हिन्दू हमें नफरत की नज़र से देखते हैं /.....…
ContinueAdded by Tasdiq Ahmed Khan on January 31, 2016 at 10:00am — 7 Comments
2122 2122 2122 212
दोष उनको दे रहे क्यूँ आप कुछ तो बोलिये
मौन यह कबतक चलेगाआज मुँह तो खोलिये।1
सिर रहे धुन क्या मिला आगे मिलेगा और क्या
याद करनाआप क्यूँ ऐसे किसीके हो लिये।2
पर्व था जनतंत्र का चलते जरा आगे कहीं
मिल गये नाले समझ नद आपने मुँह धो लिये।3
हाथ में डोरी पड़ी थी हाँकते रथ और भी
घिर गयी क्षणभर घटा ढीले पड़े फिर सो लिये।4
आपके वरदान से राजा बने कितने सभी
मिल गया थोड़ा कहीं फिर तो बहुत कुछ खो…
Added by Manan Kumar singh on January 31, 2016 at 8:30am — 14 Comments
दर्द भरी गहरी पुकार
हमारा रिश्ता
एक ढहा हुआ मकान ...
तुम बदले
तुम्हारे इमान बदले
मेरे सवाल, और
तुम्हारे उन सवालों के जवाब बदले
सुना है
इमान का अपना
अनोखा चेहरा होता है
सूर्य की किरणों-सा अरुणित
बर्फ़ीली दिशाओं को पिघलाता
आसमान को भी पास ले आता है
उसी अरुणता को
अपने "आसमान " को
तुम्हारे इमान को
मैं तुम्हारी आँखों में देखती…
ContinueAdded by vijay nikore on January 31, 2016 at 7:11am — 12 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 30, 2016 at 2:23pm — 5 Comments
Added by Alok Mittal on January 30, 2016 at 12:39pm — 7 Comments
Added by MOHD. RIZWAN (रिज़वान खैराबादी) on January 30, 2016 at 11:38am — 7 Comments
रात की ओलावृष्टि के बाद गांव में मातम का माहौल था । हरिया खेत की मेड पर सर पकडे बैठा था कभी गिरी हुई फसल तो कभी पास में खेलते अपने बच्चों को देख रहा था । मन ही मन सोच रहा था... हे भगवान कैसे पालूंगा बिना मां के इन दोनों बच्चों को अगर किसानी छोड कर मजदूरी भी शुरू कर दूं तो मजदूरी मिलेगी कहां सारा गांव तो छोटे किसानों का ही है जिनके पास बमुश्किल चार पांच बिघे खेत हैं । शहर भी तो नहीं जा सकता इन बच्चों के साथ न रहने का ठौर न काम का ठिकाना ।
रह रहकर उ…
Added by kumar gourav on January 29, 2016 at 11:28pm — 3 Comments
ज़िंदगी और मौत के बीच फासला कितना,
पता नहीं किसी को कब आ जाए फरिस्ता ।
मौत के सौदागर उगाते हैं घृणा की फसल
समाज में खड़ी करते हैं नफरत की दीवार ।
बुझाते सभी के सामने जलता हुआ चिराग
सोचो सच और झूठ में अंतर है कितना ॥
एक बंदा भरी में कुछ आंशू बहा के कहता
विश्वास करो मुझपर हूँ भरी सभा में कहता ।
आज हमारे समाज से मिट रही साहिस्णुंता
आज घोल रहे विष देश में कुछ हमारे नेता ॥
मैं तुम्हारे दुख की घड़ी में बेहद गम जुदा हूँ
कोई…
ContinueAdded by Ram Ashery on January 29, 2016 at 10:00pm — 3 Comments
उम्र का सफर ....
हम उम्र के साथी
शायद मेरी तरह
बूढ़े होने लगे हैं
केशों में चमकती चांदी
चेहरे की झुर्रियां
जीवन का सफर का
बेबाक आईना हैं
हाँ, सच
ये तो मेरी ही तरह बूढ़े हो चुके हैं
इनके हाथ काम्पने लगे हैं
मुंह की लार बस में नहीं है
ज़िंदगी को
बिना किसी सहारे के जीने वाले
बूढ़ी थकी लाठी पर
अपनी देह का बोझ लादे
डगमगाते पाँव लिए
जीवन का शेष सफर
तय करते नज़र आते हैं
क्या ! जीवन के सूरज का…
ContinueAdded by Sushil Sarna on January 29, 2016 at 8:53pm — 8 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on January 29, 2016 at 7:25pm — 2 Comments
बृहस्पति और राहू के टकराव से सभी बहुत व्यथित थेI जब भी बृहस्पति के शुभ कार्य प्रारंभ होते तो राहू शरारत करने से कोई अवसर न चूकताI और जब कभी बृहस्पति पाप कर्म पर अंकुश लगाने की कोशिश करते तो राहू कुपित हो जाताI न तो राहू अपनी क्रूरता व अहंकार त्यागने को तैयार था न ही बृहस्पति अपनी नेकी व सौम्यताI बृहस्पति के साधु स्वाभाव तथा राहू की क्रूरता व दंभ के मध्य प्रतिदिन होने वाले टकराव से पृथ्वी त्राहिमाम त्राहिमाम कर रही थीI धर्म-कर्म के ह्रास से और बढते हुए पाप से त्रस्त देवगण ब्रह्मदेव के समक्ष…
ContinueAdded by योगराज प्रभाकर on January 29, 2016 at 3:30pm — 14 Comments
सागर की उठती गिरती लहरें, पथ पर चलना सिखा रही ।
ढूंढती पल पल किनारा, मंज़िल से पहले कभी रुके नहीं ।
सारी व्यथा अपने मन की आपस में एक दूसरे से कहती ।
सागर की गहरी शांति के विरुद्ध रौद्र रूप भरकर बहती ।
ख़तरों से आगाह कराती मंज़िल से पहले कभी रुके नहीं ।
हर काल परिस्थिति में हमको जीवन लक्ष्य बता देती ।
घायल, व्यथित खतरों से खेल, किनारों से दांस्ता कहती ।
संदेशा मानव को देकर कुछ खट्टे मीठे अनुभव कहती ।
आदि से लेकर अंत तक का लेखा…
ContinueAdded by Ram Ashery on January 29, 2016 at 3:00pm — 6 Comments
2122 1122 1122 22
खूब परहेज भी करता है दिखाने के लिए
है जरूरत भी मगर प्यार जमाने के लिए /1
सोच मत सिर्फ बहाना है बहाने के लिए
वक्त है पास कहाँ तुझको मनाने के लिए /2
शौक पाला जो सितम हमने उठाने के लिए
आ गई धूप भी राहों में सताने के लिए /3
देख हालात को खुद ही तू जगा ले अब तो
कौन आएगा तुझे और जगाने के लिए /4
पढ़ सके तू जो अगर रोज किताबों सा पढ़
है नहीं बात कोई मुझ में छुपाने के लिए /5
कैसी किस्मत थी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on January 29, 2016 at 10:55am — 12 Comments
2024
2023
2022
2021
2020
2019
2018
2017
2016
2015
2014
2013
2012
2011
2010
1999
1970
आवश्यक सूचना:-
1-सभी सदस्यों से अनुरोध है कि कृपया मौलिक व अप्रकाशित रचना ही पोस्ट करें,पूर्व प्रकाशित रचनाओं का अनुमोदन नही किया जायेगा, रचना के अंत में "मौलिक व अप्रकाशित" लिखना अनिवार्य है । अधिक जानकारी हेतु नियम देखे
2-ओपन बुक्स ऑनलाइन परिवार यदि आपको अच्छा लगा तो अपने मित्रो और शुभचिंतको को इस परिवार से जोड़ने हेतु यहाँ क्लिक कर आमंत्रण भेजे |
3-यदि आप अपने ओ बी ओ पर विडियो, फोटो या चैट सुविधा का लाभ नहीं ले पा रहे हो तो आप अपने सिस्टम पर फ्लैश प्लयेर यहाँ क्लिक कर डाउनलोड करे और फिर रन करा दे |
4-OBO नि:शुल्क विज्ञापन योजना (अधिक जानकारी हेतु क्लिक करे)
5-"सुझाव एवं शिकायत" दर्ज करने हेतु यहाँ क्लिक करे |
© 2024 Created by Admin. Powered by
महत्वपूर्ण लिंक्स :- ग़ज़ल की कक्षा ग़ज़ल की बातें ग़ज़ल से सम्बंधित शब्द और उनके अर्थ रदीफ़ काफ़िया बहर परिचय और मात्रा गणना बहर के भेद व तकतीअ
ओपन बुक्स ऑनलाइन डाट कॉम साहित्यकारों व पाठकों का एक साझा मंच है, इस मंच पर प्रकाशित सभी लेख, रचनाएँ और विचार उनकी निजी सम्पत्ति हैं जिससे सहमत होना ओबीओ प्रबन्धन के लिये आवश्यक नहीं है | लेखक या प्रबन्धन की अनुमति के बिना ओबीओ पर प्रकाशित सामग्रियों का किसी भी रूप में प्रयोग करना वर्जित है |