बासन्ती गन्ध
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सोचा था,
उस पार ,
शान्त निर्विघ्न क्षणों में,
पहुंच,
तुम्हारी मधुरस्मृति को सतत करूंगा।।
अलसाये ललचाये मन की तृप्ति हेतु,
नवकल्पित स्वरूप में,
खुद को व्यथित करूंगा।।
पर हाय! निठुर इस विपुल पवन के
तीक्ष्ण शूल,
ले आये,
बासन्ती गन्धयुक्त मधु झरित फूल।।
रह गया भ्रमित इस पार,
प्रिये!
उस पार.…
तुम्हारी याद रही.…
अब बतलाओ ,
मैं,
मधुर तुम्हारे…
Added by Dr T R Sukul on February 5, 2016 at 3:00pm — 15 Comments
Added by Janki wahie on February 5, 2016 at 1:33pm — 10 Comments
अपना अधिकार रहने दो ....
व्यथित हृदय
कुछ तो रहने दो मन में
व्यथा को शब्दों के लिबास मत दो
शब्द सज संवर के आएंगे
जाने क्या क्या कह जाएंगे
अपने मौन को
शब्दों के आश्रित मत करो
सफर में शब्द भाव बदल देते हैं
जो अपनी होती है
वही बात
शब्दों के परिधान पहन
पराई हो जाती है
अपनी बात को
लोचन में पिघलने मत दो
अन्यथा व्यथा का रूप बदल जाएगा
बात का अपनापन
परायेपन की आशंका से
व्यर्थ में गीला हो जाएगा
बात…
Added by Sushil Sarna on February 5, 2016 at 12:50pm — 6 Comments
शहर और बस्तियाँ घुस आई हैं
जंगल के भीतर
और जंगली बंदर निकल आए हैं
जंगल से शहर में, बस्तियों में....
बंदरों को अब नहीं भाते
जंगल के खट्टे- मीठे, कच्चे-पके फल
उनके जी चढ़ गया है
चिप्स, समोसे, कचोरियों का स्वाद
आदमियों के हाथों से,
दुकानों से , घरों से छिन कर खाने लगे हैं
वे अपने पसंदीदा व्यंजन
इन्सानो को देख जंगल में छुप जाने वाले
शर्मीले बंदर
अब किटकिटाते हैं दाँत
कभी कभी गड़ा भी देते हैं
भंभोड़ लेते हैं अपने पैने दांतों से…
Added by Neeraj Neer on February 4, 2016 at 10:24pm — 14 Comments
कल का छोकरा – ( लघुकथा ) -
"दद्दू , जय हिन्द"!
फ़िर उसने दद्दू के पैर छू लिये!दद्दू राम सिंह ने अपना चश्मा उतारा ,साफ़ किया,फ़िर पहना!
"कौन है भाई,पहचान नहीं पाये"!
"दद्दू, हम अमर सिंह के बडे बेटे सूरज हैं"!
"ये फ़ौज़ी बर्दी किसकी पहन ली"!
"यह अपनी ही है दद्दू"!
"क्यों मज़ाक करते हो बेटा,फ़ौज़ की बर्दी इतनी आसानी से नहीं मिलती!इस गॉव में अभी तक केवल हम ही हैं ,रिटायर्ड सूबेदार मेजर राम सिंह, जो ये सम्मान पाये हैं"!
"दद्दू,आपको याद है,जब हमने…
ContinueAdded by TEJ VEER SINGH on February 4, 2016 at 6:23pm — 23 Comments
लाल रंग"
शिवरात्रि को रौशनी शंकर जी के मंदिर में पूजा कर रही थी तभी उसे सूरज की आवाज सुनाई देती है
"रोशनी रुक जाओ मेरी बात तो सुनो"
"नहीं सूरज तुम नहीं जानते हमारे इस तरह मिलने ये समाज क्या क्या ताने मारेगा......।
"रोशनी किन तानो से डरती हो ....?
जो दर्द ,जो शापित जिंदगी तुम जी रही हो क्या इसकी ज़िम्मेदार तुम हो।"
"नहीं सूरज मैं विधवा हूँ मेरे ज़िन्दगी में रंगों की कोई जगह नहीं.....
"रौशनी बीस वर्ष की उम्र में वैध्वय..क्या जो समाज तुम्हारे जीवन से खुशियो के…
Added by Amit Tripathi Azaad on February 4, 2016 at 6:23pm — 5 Comments
Added by kanta roy on February 4, 2016 at 5:30pm — 6 Comments
1212 1122 1212 22
हिसाब ( गजल )
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खुदा के सामने सबका हिसाब होता है
हरेक शख्स वहां बे-नकाब होता है
अगर सवाल कोई है तो पूछ ले रब से
कि उसके पास तो सबका जवाब होता है
बिछे हों राह में कांटे अगर तो डर कैसा
इन्हीं के बीच में खिलता गुलाब होता है
धरम के नाम पे मिलकर रहें तो अच्छा है
धरम…
ContinueAdded by Sachin Dev on February 4, 2016 at 1:30pm — 8 Comments
" माँ ! आप मुझे ज़रा भी प्यार नहीं करती । शौर्य ने उलाहना देते हुए कहा।
" ऐसे क्यों बोला मेरे लाल ?"
" क्योंकि आप हमेशा अबीर,आनिया और मेहुल की तारीफ़ करती रहती हो।" नीली आँखों में नमी तैर आई।
" आप तो मेरे राजकुमार हैं ।" मीता ने शौर्य को गले से लगा लिया ।
"माँ ! आप हमेशा कहती हो अबीर पढ़ने में अच्छा है।आनिया की ड्रॉइंग बहुत अच्छी है। मेहुल तीन बार दूध पीता है।मैं उनके जैसा नहीं हूँ ।गन्दा बच्चा हूँ ना ?
"ऐसी बातें नहीं करते , नहीं तो मेरा दिल टूट जाएगा । आप तो मेरे…
Added by Janki wahie on February 4, 2016 at 12:00pm — 18 Comments
चुप्पी में
कई चीखते हुए सवाल हैं
शायद
जिनके उत्तर
किसी भी पोथी
किसी भी दिग्ग्दर्शिका
किसी भी धर्मग्रन्थ
में नहीं हैं
अगर रहे भी हों तो
उन्हें मिटा दिया गया है
हमेसा हमेसा के लिए
ताकि
इन चुप्पियों से
कोई आवाज़ न उठे
चुप कराने वालों के ख़िलाफ़
मुकेश इलाहबदी --------
मौलिक और अप्रकाशित
Added by MUKESH SRIVASTAVA on February 4, 2016 at 11:11am — 13 Comments
उस पार ...
सच मानिए
नदिया के उस पार तो
कुछ भी नहीं है
जो कुछ भी है
सब इस पार यहीं है
आरम्भ भी यहीं है
अंत भी यहीं है
खुद से मिलने का
खुद में समाया
जीव का अलौकिक
पंत भी यहीं है
उस पार तो
कुछ भी नहीं है //
एक घर से
दूसरे घर की दूरी
एक श्वास भर ही तो है //
एक स्वप्न और
यथार्थ की दूरी
एक श्वास भर ही तो है //
एक मिलन और
विछोह की दूरी
एक श्वास भर ही…
Added by Sushil Sarna on February 3, 2016 at 8:40pm — 12 Comments
वो छुपाते रहे अपना दर्द
अपनी परेशानियाँ
यहाँ तक कि
अपनी बीमारी भी….
वो सोखते रहे परिवार का दर्द
कभी रिसने नहीं दिया
वो सुनते रहे हमारी शिकायतें
अपनी सफाई दिये बिना ….
वो समेटते रहे
बिखरे हुये पन्ने
हम सबकी ज़िंदगी के …..
हम सब बढ़ते रहे
उनका एहसान माने बिना
उन पर एहसान जताते हुये
वो चुपचाप जीते रहे
क्योंकि वो पेड़…
ContinueAdded by नादिर ख़ान on February 3, 2016 at 6:30pm — 12 Comments
अपने बंगले के बगीचे की दीवार के पास जमा भीड़ देखकर उसने गाड़ी रोक दी I
" क्या हुआ "? बाहर निकल उसने पूछा I
"कोई भिखारी मर गया "I
" कैसे ?"
" कैसे क्या साहब ,ठण्ड से अकड़ कर I पिछले कुछ दिनों से यहीं पड़ा रहता था दीवार के पास I"
गाड़ी में बैठते उसे लगा ,उसका सारा शरीर ठण्ड से जमा जा रहा है I चार दिन पहले पत्नी ने कहा था कि पुराने गर्म कपडे कम्बल काफी जमा हो गए हैं , कहीं दान करने चलना है I और फिर बात आई गयी हो गयी थी I
" अरे, अब क्या चद्दर डाल रहे हो…
ContinueAdded by Pradeep kumar pandey on February 3, 2016 at 6:18pm — 7 Comments
Added by Rahila on February 3, 2016 at 6:05pm — 29 Comments
विवाद समाप्त होते न देख,मामले को कोर्ट के सुपुर्द कर दिया।शनि को भी पार्टी बनाया गया,बकायदा समन भेजा गया।निर्धारित तारीख पर कोर्ट में उपस्थिति हेतु आवाज लगाई।सभी पार्टियां मुस्कुरा रही थी,हूंह अब शनि आयेंगे गवाही देने।तत्क्षण विटनेस बाक्स में भुजंग काला सुगठित शरीर,गदा लिए,दिव्य प्रकाश के साथ उपस्थित हुए।विस्मय से चकित न्यायाधीश ने शपथ की कार्रवाई कराई ।
"सत्य बोलूंगा,सत्य के सिवा कुछ नहीं बोलूंगा,जो भ्रमित है ,उन्हें भी सत्य पर चलना सिखाता हूँ।"
" तो प्रवेश पर रोक क्यों…
Added by Pawan Jain on February 3, 2016 at 8:47am — 15 Comments
उपेक्षित....
दसों दिशाओं में डंका बजाता
चक्रवर्ती सम्राट......दिन!
यशस्वी-प्रकाशवान
निरंतर गतिमान
नित्य महासमर के उपरांत शिथिल,
क्लांत वश पिघल जाता
रक्त का कण-कण
संगठित करता लाल सागर
विचलित होती आत्मा
अश्रु आश्चर्यचकित...!
कपोलों पर ठिठके...
हवाएं अट्टहास करती
मचलती ज्वार-भाटा आदत से…
ContinueAdded by केवल प्रसाद 'सत्यम' on February 3, 2016 at 7:12am — 9 Comments
2222 2222 2222 222
सुनते सुनते गीत प्रेम का क्या सूझी पुरवाई को
कोयल आँसू भर भर देखे आग लगी अमराई को /1
बात कहूँ तो बन जाएगी जग की यार हँसाई को
जैसे तैसे झेल रहा हूँ जालिम की रूसवाई को /2
दिन तो बीते आस में यारो शायद चलती राह मिले
किन्तु पुराने खत पढ़ काटा रातों की तनहाई को /3
वो साहिल की रेत देख कर चाहे यूँ ही लौट गया
ख्वाबों में देखेगा लेकिन दरिया की गहराई को /4
भर कर जेबें रोज चढ़े है मस्ती को सैलानी…
Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on February 3, 2016 at 12:05am — 16 Comments
सुधि-बुधि बिसराई
व्याकुल पनीली आँखें,
अधखुले केश, बेसुध आँचल
अस्त-व्यस्त आभूषण...
कराहती सिसकती चीत्कारती
पल-पल जमती जाती करुण वाणी से
कहाँ-कहाँ नहीं पुकारा-
पर,
लौट-लौट आती थी
हर पुकार की कर्णपटों को बेधती
हृदय विदारक प्रतिध्वनि...
लिख चुकी थी नियति
यशोधरा के भाग्य में
अंतहीन निष्ठुर विरह...
कितनी प्रबल रही होगी
सत्यान्वेषण को आतुर
अंतरात्मा की वो पुकार,
कि नहीं थम…
ContinueAdded by Dr.Prachi Singh on February 2, 2016 at 11:30pm — 4 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on February 2, 2016 at 8:30pm — 23 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on February 2, 2016 at 8:17pm — 4 Comments
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