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All Blog Posts (19,140)

हास्य (तुकांत)

प्रथम प्यार की आस में

मैने किया प्रयास

सजनी एट्टीट्यूड में

तनिक न डाले घास

पोथी पढ़कर प्यार की

तनिक न असर बुझाय

जब-जब भी कोशिश किया

चप्पल-जूताखाय



हर महफिल हर रंग में

चेहरा जिसका भाय

उसने राखी बाँध के

भाई लिया बनाय



घरवालों की मान के

डाल दिया जयमाल

दो दो मेरे सालियाँ

पकड़ के खीचें गाल

मारा-मारा फिर रहा

जबसे हुआ विवाह

बीबी ऐसी मिल गई

रहती…

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Added by Pawan Kumar on October 13, 2014 at 12:00pm — 8 Comments

सरकार की रेल

एक ओर हैं ,

जनरल की बोगीं। 

जिसमें बैठते हैं... 

दमघोंटू माहौल में जीने की कला सीखे,

कुछ योगी,

और सरकारी बीमारियों से पीड़ित,

असंख्य रोगी। 

दूसरी ओर हैं ,

उन्हीं बोगी से लगी हुईं कुछ ख़ास बोगीं।

जिनमें बैठते हैं... 

भोगों से घिरे हुए,

भोग भोगते भोगी,,

और ग़रीबी से अछूते,

कई निरोगी।

कितना अनोखा,

यहाँ सुख-दुख का तालमेल है,,

जनता की सुविधा के लिए बनाई गई,

ये सरकार…

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Added by संदेश नायक 'स्वर्ण' on October 13, 2014 at 10:00am — 6 Comments

यथार्थ ....(लघुकथा)

पूरे मोहल्ले में केवल बब्लू के घर की ही पक्की छत थी, बाकि सारे मकान कच्चे थे. बब्लू को बचपन से ही पतंगबाजी का बड़ा शौक था. हमेशा छत पर चढ़कर  पतंग उड़ाकर वो मोहल्ले के लोंगो, जो कि अपने आँगन से पतंगबाजी करते थे, सभी की पतंग काट दिया करता था. अभी  चार माह पहले ही पतंग उड़ाते हुए ,छत से बुरी तरह से नीचे जमीन पर गिर जाने के बाद भी बब्लू का पतंग उड़ाने का शौक तो नही गया, किन्तु अब छत की हद को बार-बार ध्यान में रखता हैऔर एक दिन में कई पतंगें कटवा देता…

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Added by जितेन्द्र पस्टारिया on October 13, 2014 at 8:00am — 20 Comments

मेरा सूरज है तू...!

मेरा सूरज है तू...!

मंदिरों में दिये सजाए जाते

नित्य सुबह और शाम!



जला दी जाती हैं बातियॉं

ज्ञान की राह में,

रोशनी की आस में,

बेटों की कतार में,

चिरागों की मृगतृष्णा,

ताख को काला कर देती है।



बातियां,

सारी उम्र जल कर

रोशनी देती,

खुशियां बांटती।



दीपक,

पल-पल तेल सोखता

चतुर महाजन सा

ब्याज पहले और मूलधन बाद में

स्वयं के होने का एहसास कराता।



बातियां भ्रूण सी,…

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Added by केवल प्रसाद 'सत्यम' on October 12, 2014 at 5:30pm — 2 Comments

दो ग़ज़लें (डॉ. राकेश जोशी)

दो ग़ज़लें (डॉ. राकेश जोशी)



1

सब मिला है पर यहाँ सदभाव की बातें नहीं

गाँव का मौसम है लेकिन गाँव की बातें नहीं



आ, यहाँ पर बैठकर सुस्ता लें थोड़ी देर हम

धूप की बातें करेंगे, छाँव की बातें नहीं



इससे ज़्यादा क्या लिखें, इस दौर की नाकामियां

इस अँधेरे युग में भी बदलाव की बातें नहीं



दूर से ही ठीक था फैला समुंदर देखना

अब लहर के पास आकर नाव की बातें नहीं



बाद बरसों के मिले तो दोस्त बनकर हम मिलें

दर्द की बातें तो हों, पर घाव… Continue

Added by Dr. Rakesh Joshi on October 12, 2014 at 5:27pm — 7 Comments

लघुकथा : भूत

बहुत दिनों की खोजबीन के बाद परा -वैज्ञानिक उस औरत में घुसने वाले भूत पर सिर्फ इतना निष्कर्ष निकाल पाये , कि जिस रात इसका पति इसे बेहिसाब मारता है ,अगली सुबह इस औरत में वो भूत आता है !

.

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

Added by Neeles Sharma on October 12, 2014 at 3:00pm — 6 Comments

इंतज़ार रहता है …..

हुस्न को दर्पण का ...

प्रीत को समर्पण का ..

विरह को क्रंदन का ....

इंतज़ार रहता है//

भोर को अभिनन्दन का ...

बाहों को बंधन का ...

भाल को चन्दन का ...

इंतज़ार रहता है//

धड़कन को चाहत का ...

यौवन को आहट का ...

घायल को राहत का ...

इंतज़ार रहता है//.

तिमिर को प्रात का ...

वृद्ध को साथ का...

चाँद को रात का ...

इंतज़ार रहता है//

आस को विशवास का…

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Added by Sushil Sarna on October 12, 2014 at 2:53pm — 6 Comments

लघुकथा : दिवाली

"बाबू जी, दीये ले लो, बहुत सस्ते हैं, इतना बड़ा त्यौहार है ! "

आठ साल की फटी हुई फ्रॉक ने एक रेशम के कुर्ते को पीछे से खींचते हुए पूछा !

"अच्छा, बड़ा त्यौहार है ! पता भी है क्यों मनाते हैं बड़ा त्यौहार ?"

" हाँ, भगवान रामचन्दर ने बहुत सारे दीये ख़रीदे थे !"

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

Added by Neeles Sharma on October 12, 2014 at 2:39pm — 11 Comments

ममता का मोल

नौ महीने तक सींच रक्त से, जिसको कोख में पाला,

आज उसी बेटे ने माँ को, अपने घर से निकाला।

जर्जर होती देह लिए, माँ ने बेटे को निहारा,

मानो उसके जीने का अब, छूट रहा हो सहारा॥

भूल गया गीली रातें, जब रोता था चिल्लाता था, 

हाथ पैर निष्क्रिय थे तेरे, पड़े-पड़े झल्लाता था।

तब त्याग नींद! तेरी जगह लेट, सूखे में तुझे सुलाती थी,

अपने सीने से लिपटा, बाँहों में तुझे झुलाती थी॥

भूल गया वो सूखे दिन, जब गर्मी से घबराता था,

सन्नाटे की चादर ओढ़े,…

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Added by संदेश नायक 'स्वर्ण' on October 12, 2014 at 2:33pm — 8 Comments

लगन - डॉo विजय शंकर

लगभग पचास वर्ष पूर्व जब मैं बहुत छोटा था , प्रायः दीवारों पर लिखा एक विज्ञापन पढ़ा करता था , " न मच्छर रहेगा , न मलेरिया रहेगा , डी डी टी छिड़किये , मच्छरों को दूर भगाइए " .

पता नहीं क्या हुआ , कुछ समय बाद , दीवारों का विज्ञापन बदल गया , कुछ यूँ हो गया , " मच्छर रहेगा पर मलेरिया नहीं रहेगा " .

कुछ समय और बीता , दीवार के विज्ञापनों की श्रृंखला में , मच्छरों , मलेरिया ग्रस्त रोगी के चित्र , कुनैन जैसी दवाओं के साथ मलेरिया के लक्षण और उपचार कराने और मलेरिया से लड़ने के बड़े-बड़े सचित्र… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on October 12, 2014 at 12:32pm — 5 Comments

क्षणिकाएँ (राम शिरोमणि पाठक)

१-कहा था मैंने

क़र्ज़ न ले उससे

मुफलिशी बेशर्म है

कपडे उतार लेती है

२-वो फिर से चला ढूँढने

दो रोटी

बजबजाते कूड़े के ढेर में

३-नदी के किनारे वाला पेड़

आज प्यास से मर गया

४-मैं मोम था

शायद इसीलिए

धूप में बैठा गयीं मुझे

५-मैं तुमसे हाँथ जरूर मिलाऊंगा

मेरा कद मुकम्मल हो जाने दो

६-मुझे पाने की अजीब हवस है उन्हें

रेत में गिरा आँसू हूँ

फिर भी ढूँढ़ रही हैं



७-तुझे भी…

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Added by ram shiromani pathak on October 12, 2014 at 11:59am — 6 Comments

अहसास

अहसास

मधुप की ट्रेन खुल चुकी था। छुट्टियों के बाद वह वापस नौकरी पर जा रहा था। माधवी से मोबाइल पर बात होते –होते रह गयी, माधवी का गला जैसे रुँध गया हो। कुछ देर की चुप्पी के बाद वह  ‘ठीक है ....’ ही कह पायी थी।मधुप भी अतीत की स्मृतियों में खोने लगे,   ‘कितना खयाल रखती है माधवी उसका तथा परिवार के सभी लोगों का ? वह तो छोटी –छोटी बातों पर भी चिढ़ जाता है। तब माधवी कितने शांत लहजे में कहती है कि भला ऐसा क्या हो जाता है उन्हें कभी –कभी? बच्चों की तकलीफ जरा भी बर्दाश्त नहीं आपको।…

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Added by Manan Kumar singh on October 12, 2014 at 10:30am — 2 Comments

तलाश एक कथा की

तलाश एक कथा की

 

तलाश,

फिर-फिर तलाश,

हर पल,हर पहर,

तलाशा है तुझे,

इस उम्मीद के साथ कि

तू मिल जायेगी मुझे,

कभी-न-कभी,कहीं-न-कहीं।

सब कुछ तो साथ लिए चलता रहा,

भाव,अभिव्यक्ति,

कामना तेरे मिल जाने की,

उमंगें हसरतें खिल जाने की,

शब्दों के जिंदा रहने के,

दूरस्थता-बोध सहने के,

अहसास अभी जिंदा हैं,

रहेंगे भी तबतक शायद

जबतक तू अवतरित न हो

शब्दों का बन…

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Added by Manan Kumar singh on October 12, 2014 at 10:30am — No Comments


सदस्य कार्यकारिणी
चलो कि ज़िन्दगी को दें हम एक नाम नया -ग़ज़ल

1212 1122 1212 112/22

सफर ये राहगुज़र और ये मुकाम नया

हयात देती है अक्सर मुझे यूँ काम नया

 

अगर नसीब से बच पाये तो गनीमत है

यहाँ हर एक कदम पर है एक दाम नया         (दाम=जाल)

 

न जी सके अभी तक चलिये कोई बात नहीं                                               

करें अब के कोई जीने का एहतमाम नया

 

ये ज़िन्दगी हो फ़ना रोज़ और रोज़ शुरू

ग़ुरूबे शम्स हो तो चाँद निकले शाम नया

 

बहुत हुये गमे दौराँ की…

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Added by शिज्जु "शकूर" on October 12, 2014 at 10:22am — 12 Comments

घर मेरे सावन का..............................

आज मौसम   ....बड़ा आशिकाना है

शब्द के मोतियों से  उन्हें सजाना है

 

हर्फ़ में ही सही  तस्वीर बनाई बहुत

कहीं और    जिनका अब ठिकाना है

 

जिसकी खातिर यहाँ रातें बिताई बहुत

उनका इधर से यूँ रोज आना जाना है

 

ख्वाब में डाल पर झूले झूलेंगे हम

घर मेरे सावन का यूँ आना जाना है

 

स्वप्न में आकर फ़िर से लुभाओ प्रिय

जहाँ  न मेरा न तेरा कोई  बहाना है

 

कैसे कह दूँ उन्हें प्यार करता नहीं

पहले दीदार…

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Added by anand murthy on October 11, 2014 at 11:58pm — 3 Comments

कर्मठ (लघुकथा)

कर्मठ

जैसे ही पता चलता है कि नेताजी स्कूल प्रांगण में आ चुके हैं |कर्मवीर जी सक्रिय हो जाते हैं और दिनेश से माईक लेकर स्वागत कि घोषणा करते हैं |फिर कार्यक्रम के समापन तक सभी जगह सभी के साथ कर्मठ कर्मवीर जी कैमरे में कैद हो जाते हैं |मंच से कुछ दूर कुर्सी पर बैठा दिनेश अपनी निष्क्रियता पर गहरी सांस लेता है और कर्मठ कैमरे और कर्मठ कर्मवीर जी के चेहरे पर बार-बार आ रहे फ़्लैश को देखता रहता है |

 C-@-सोमेश कुमार

(मौलिक एवं अप्रकाशित )

Added by somesh kumar on October 11, 2014 at 7:00pm — 7 Comments

अब तू ही बता !!

ऐ चाँद !

पूजा तुझे वर्षों

हल्दी,कुमकुम,

अक्षत,रोली,पुष्प,

धूप दीप, नैवेद्य,

करती रही अर्पण

आस ये कि तू

अभिसिंचित करेगा

अपनी शीतल रश्मियों से

प्रेम की अनुभूतियों से

दूर कर देगा मेरे

प्रणय की प्रत्येक विसंगतियों से

पर यह क्या किया .....

सब कुछ बदल दिया !

तू उगलता रहा

अपनी चाँदनी में अदृश्य अंगारे

सुलगती रही जीवन की लहरें

झुलसा- झुलसा तन-मन  

अंतरमन का हाहाकार लिए

अब तू ही बता

तुझे कैसे पूजूँ अब…

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Added by Meena Pathak on October 11, 2014 at 1:00pm — 10 Comments

सच, ओर कोई नहीं.....

सच, ओर कोई नहीं.....

तन्हा बरसातों में
हिज़्र की रातों में
सुलगते जज़्बातों में
खामोश बातों में
आंसू की सौगातों में
साँसों की कफ़स में
मेरी नस नस में
चांदनी बन कसमसाती
धड़कनों से बतियाती
सच, ओर कोई नहीं
सिर्फ, तुम ही तुम हो

सुशील सरना
मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Sushil Sarna on October 11, 2014 at 12:26pm — 9 Comments

हिन्द-सपूत

मातृभक्ति गुंजित स्वर तेरे, सिंहनाद सा करते हैं,,

तेरा साहस शौर्य देख, तेरे भय से शत्रु मरते हैं । 

वेग तेरी आशा का भारी, है आंधी तूफानों पर,,

तेज तेरे चेहरे का भारी,  बिजली की मुस्कानों पर । 

शक्ति का अंबार छिपा है, तेरे दृढ़ संकल्पों में,,

जीवन का हर गीत लिखा है, तूने प्रेम के पन्नों में । 

संबल तेरा पाकर ही, निर्बल ने है लड़ना सीखा,,

देख अडिग विश्वास तेरा, पाषाणों ने अड़ना सीखा । 

धीर हो तुम! गंभीर हो…

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Added by संदेश नायक 'स्वर्ण' on October 11, 2014 at 11:30am — No Comments

मौत

देखा   असूल    मैंने    अजब   सर जमीन पर

जो    ठोकरें     लगाते   रहे    उम्र    भर    मुझे

शैतानियत ने किस कदर चोला बदल लिया

वे   ही   जनाजे    में    मेरी    कन्धा   लगा  रहे  I

 

चप्पल न  थी   नसीब   छाले   पाँव   में पड़े

मै   जिन्दगी  में   यूँ   ही   दर्दमंद  हो चला

अल्लाह   तूने   मौत   दी   तेरे   बड़े  करम

इक बार  आठ  पाँव   की सवारी तो मिली  I

 

मैंने    हयात   में    न    कभी    हार   थी  मानी

हर  वक्त   …

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 10, 2014 at 6:00pm — 14 Comments

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