Added by Manan Kumar singh on July 6, 2016 at 12:01pm — 9 Comments
Added by Mahendra Kumar on July 6, 2016 at 11:00am — 10 Comments
Added by Sheikh Shahzad Usmani on July 6, 2016 at 9:18am — 15 Comments
छाये नभपर घन मगर, सहमी है बरसात |
देख धरा का नग्न तन, उसे लगा आघात ||
उसे लगा आघात, वृक्ष जब कम-कम पाए,
विहगों के वह झूंड, नीड जब नजर न आए,
अब क्या कहे ‘अशोक’, मनुज फिरभी इतराए,
झूठी लेकर आस, देख घन नभ पर छाए ||
कहीं उडी है धूल तो, कहीं उठा तूफ़ान |
देख रहा है या कहीं, सोया है भगवान ||
सोया है भगवान, अगर तो मानव जागे,
हुई कहाँ है भूल , जोड़कर देखे तागे,
जीवन की यह राह, गलत तो नहीं मुड़ी है
देखे क्यों…
ContinueAdded by Ashok Kumar Raktale on July 6, 2016 at 8:59am — 2 Comments
22 22 22 22 22 22 – बहरे मीर
आज उठाये घूम रहे हैं जिनको सर में
वो सब पटके जाने लायक हैं पत्थर में
अपनी बीमारी को बीमारी कह सकते
इतनी भी ताक़त देखी क्या, ज़ोरावर में ? (ताक़तवर)
फेसबुकी रिश्ते ऐसे भी निभ जाते हैं
वो अपने घर में कायम, हम अपने घर में
रोज उल्टियाँ वैचारिक कर देने वालों
चुप्पी साधे क्यों रहते हो कुछ अवसर में ?
जब समाचार में गंग-जमन का राग लगे, तुम
मन्दिर-मस्ज़िद खेल…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 6, 2016 at 8:27am — 8 Comments
जैसे ही वो भिखारी उनके दरवाज़े पर पहुंचा और आवाज़ लगायी "भगवान के नाम पर कुछ दे दो बाबा", पंडितजी ने डपट कर कहा "यहाँ क्यों आये माँगने, वहीँ से ले लिया करो"|
भिखारी ऐसी झिड़कियों का आदी था, कुछ देर सोच में पड़ा रहा फिर बोल "हम तो मांग के खाने वाले हैं, जहाँ मिल जाए, ले लेते हैं"|
"फिर भी, सोचते नहीं हो कि कहाँ माँगना है और कहाँ नहीं", कहते हुए पंडितजी की नज़र किनारे वाले घर की ओर चली गयी|
भिखारी ने भी गर्दन उस तरफ किया, किनारे वाला घर अहमद भाई का था जिनके यहाँ से उसने अभी कुछ खाने…
Added by विनय कुमार on July 5, 2016 at 10:30pm — 8 Comments
ऑफ़िस से आकर सब काम निपटाते -निपटाते थक कर चूर हो गई थी वह. बस! बर्तन जमा कर दूध मे जामन लगाना शेष था. उसके हाथ तेजी से प्लेटफार्म साफ़ कर रहे थे.पसीने से …
ContinueAdded by नयना(आरती)कानिटकर on July 5, 2016 at 7:00pm — 8 Comments
Added by जयनित कुमार मेहता on July 5, 2016 at 7:00pm — 5 Comments
Added by Pankaj Kumar Mishra "Vatsyayan" on July 5, 2016 at 5:25pm — 8 Comments
अम्बर के दरीचों से फ़रिश्ते अब नहीं आते
न परियाँ आबशारों में नहाने को उतरती हैं
न बच्चों की हथेली पर कोई तितली ठहरती है
न बारिश की फुआरों में वो खुशियाँ अब बरसती हैं
सभी लम्हे सभी मंज़र बड़े बेनूर से हैं सब
मगर हाँ एक मंज़र है
जहां फूलों के हंसने की अदा महफूज़ है अब भी
जहाँ कलियों ने खिलने का सलीक़ा याद रखा है
जहां मासूमियत के रंग अभी मौजूद हैं सारे
वो मंज़र है मेरे हमदम
तुम्हारे मुस्कुराने का
- शेख…
ContinueAdded by saalim sheikh on July 5, 2016 at 4:21pm — 4 Comments
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भावजड़ता
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अहंमन्यता की तलैया में
मूर्खता की कीचड़ से जन्म ले
ए भावजड़ता !
तू कमल की तरह खिलती है।
अपने आकर्षण के भ्रमजाल में
उलझाती है ऐसे,
कि सारी जनता
लहरों पर सवार हो बस तेरे गले मिलती है।
झूठ सच के विश्लेषण की क्षमता हरण कर
आडम्बर ओढ़े, गढ़ती है नए रूप।
धनी हों या मानी, गुणी हों या ज्ञानी
तेरे कटाक्ष से सब होते हैं घायल
क्या साधू क्या फक्कड़ , बड़े बड़े भूप।
भू , समाज और भूसमाज भावना…
Added by Dr T R Sukul on July 5, 2016 at 11:23am — 10 Comments
मुझे पूर्ण कर जाएगा.....
न जाने कितनी बार
मैं स्वयं को
दर्पण मेंं निहारती हूँ
बार बार
इस अास पर
खुद को संवारती हूँ
कि शायद
अाज कोई मुझे
अपना कह के पुकरेगा !
मेरी इस सोच से
मेरा विश्वास
डगमगाता क्यूँ है ?
क्या मैं दैहिक सोन्दर्य से
अपूर्ण हूँ ?
क्या मेरा वर्ण बोध
मे्रे भाव बोध के अागे बौना है ?
फिर स्वयं के प्रश्न का उत्तर
अपने प्रतिबिंब से पूछ लेती हूँ …
Added by Sushil Sarna on July 4, 2016 at 9:30pm — 8 Comments
Added by shree suneel on July 4, 2016 at 8:36pm — 4 Comments
१२२२/१२२२/१२२२/१२२२
नहीं आती मुझे अब नींद जीभर के पिला साकी
निशा गहरी डगर सूनी कहाँ जाएँ बता साकी
मुहब्बत मेरी पथराई जमाने भर की ठोकर खा
अहिल्या की तरह मेरी कभी जड़ता मिटा साकी
मैं भंवरों सा भटकता ही रहा ताउम्र बागों में
कमल से अपने इस दिल में तू ले मुझको छुपा साकी
ये मंजिल आखिरी मेरी ये पथ भी आखिरी मेरा
मेरी नजरों से तू नजरें घड़ी भर तो मिला साकी
जो सीना चीर पाहन का निकलता मैं…
ContinueAdded by Dr Ashutosh Mishra on July 4, 2016 at 2:00pm — 13 Comments
Added by Rahila on July 4, 2016 at 1:53pm — 20 Comments
Added by दिनेश कुमार on July 4, 2016 at 12:55pm — 6 Comments
Added by रामबली गुप्ता on July 4, 2016 at 12:18pm — 9 Comments
Added by सुरेश कुमार 'कल्याण' on July 4, 2016 at 10:21am — 6 Comments
एक वैचारिक रचना --'' भीड़ ''
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व्यक्तियों के समूह को भीड़ कह लें
अलग अलग मान्यताओं के व्यक्तियों का एक समूह
जो स्वाभाविक भी है
क्योंकि मान्यता व्यक्तिगत है
पर भीड़ विवेक हीन होती है
क्योंकि विवेक सामोहिक नही होता
ये व्यक्तिगत होता है
हाँ , समूह का उद्देश्य एक हो सकता है , पर
प्रश्न ये है कि क्या है वह उद्देश्य ?
भीड़ हाँकी जाती है
भेड़ों की तरह
गरड़िये के…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 4, 2016 at 9:23am — 6 Comments
22 22 22 22 22 22 22 2
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मेरा ओछा पन भी उनको झूम झूम के गाता है
जिन शेरों में कुत्ता –बिल्ली, हरामजादा आता है
वफा और समझ का मानी एक कहाँ दिखलाता है
रख के टेढ़ी पूँछ भी कुत्ता इसीलिये इतराता है
खोटे दिल वालों की नज़रें, सुनता हूँ झुक जातीं हैं
और कोई बातिल सच्चों में आता है, हकलाता है
वो क्या हमको शर्म- हया के पाठ पढ़ायेंगे यारो
जिनको आईना भी देखे तो वो शर्मा जाता है
सबकी चड्डी फटी…
ContinueAdded by गिरिराज भंडारी on July 4, 2016 at 7:30am — 18 Comments
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