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July 2014 Blog Posts (174)

गजल नफरत की दीवार

भुलाये तो भुलाये हम तुम्‍हारे प्‍यार को कैसे

सुनाये हाल दिल का हम बता संसार को कैसे

चली जाना जरा रुक जा मनाने दे हमें खुशियाँ

बिना तेरे मनायेगें  किसी त्‍यौहार को कैसे

लुटा कर जान भी अपनी बचा पाते मुहब्‍बत को

मिले खुशियाँ हमें कितनी बताये यार को कैसे

करो नफरत भले हमसे हमारी बात सुन लो तुम

गिराये आज नफरत की खड़ी दीवार को कैसे

नहीं दिखता जनाजा क्‍या तुझे अब जा चुके है हम

दिखाओगी भला अब तुम किये श्रृंगार को…

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Added by Akhand Gahmari on July 5, 2014 at 5:19pm — 8 Comments

जमीर कीमती है ,रखते हैं - डा० विजय शंकर

हवा में दम है , उड़ा के ले जाये हमको ,

जम गए हम तो खुद ना हीं हटा करते हैं |



हुकूमत है , हुक्मरान बदलते रहते हैं ,

साथ में हम भी बदलें , यह नहीं करते हैं |



मंहगाई है ,दिन ब दिन बढ़ती रहती है ,

भाव बढ़ा लें अपना ,न , हम नहीं करते हैं |



कमोडिटी नहीं हैं , गायब हैं बाजार से ,

ज़िंदा हैं , खिदमत है दुनियां की, करतें हैं |



जमीर कीमती है , औकात है ,रखते हैं ,

सौदागर हैं , यह तिज़ारत नहीं करते हैं |



मौलिक एवं… Continue

Added by Dr. Vijai Shanker on July 5, 2014 at 1:00pm — 13 Comments

सदा सुहागन (लघुकथा) रवि प्रभाकर

“बहन ! ये औरतें गठड़ियों में क्या ले जा रही हैं ?”
”विधवा औरतों के लिए कैंप लगा है, वहां उन्हें महीने भर का राशन बांटा जा रहा है।”
पिछले तीन दिन से भूखी सुखिया ने नशे में धुत्त लेटे अपने पति को ऐसे देखा मानो आज  उसे अपने “सुहागन” होने पर पछतावा हो रहा था.

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by Ravi Prabhakar on July 5, 2014 at 1:00pm — 9 Comments

3-कह मुकरियां

देखूँ इसको मै शरमाऊं

मन का सारा हाल सुनाऊ

सांझ सवेरे इसको अर्पण

का सखी साजन ?ना सखि दर्पण

२.

चूमे होंठ लाल कर जाए

मन में शीतलता भर जाए 

उस पल रहे ना कोई भान

का सखि साजन ? ना सखि पान

3.

लम्बा है इतना जैसे ऊँट 

पहना नहीं है कोई सूट

तन के खड़ा है जैसे बन्ना

का सखि साजन ?ना सखी गन्ना      

---------पारुल'पंखुरी'

(मौलिक औए अप्रकाशित)

Added by parul 'pankhuri' on July 5, 2014 at 10:00am — 15 Comments

गज़ल/कल्पना रामानी

2121 222 2121 222

 

मानसूनी बारिश के, क्या हसीं नज़ारे हैं।

रंग सारे धरती पर, इन्द्र ने उतारे हैं। 

 

छा गया है बागों में, सुर्ख रंग कलियों पर,

तितलियों के भँवरों से, हो रहे इशारे हैं। 

 

सौंधी-सौंधी माटी में, रंग है उमंगों का,

तर हुए किसानों के, खेत-खेत प्यारे हैं।

 

मेघों ने बिछाया है, श्याम रंग का आँचल,

रात हर अमावस है, सो गए सितारे हैं।

 

सब्ज़ रंगी सावन ने, सींच दिया है…

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Added by कल्पना रामानी on July 5, 2014 at 9:30am — 10 Comments

पढ़ाई लिखाई

बीबी जी, आप नौकरी क्यों करते हो ? आपके पास तो पैसे की कोई कमी नहीं है |"
"पैसा ही सब नहीं होता रे जिंदगी में, आखिर इतनी पढ़ाई लिखाई कब काम आएगी" मैंने अपनी काम वाली बाई को समझाते हुए कहा.
अभी कुछ दिन पहले ही जब उसने तनख्वाह बढ़ाने की प्रार्थना की थी मैंने बड़े ही कठोर लहजे में मना कर दिया था | आज शायद पढ़ाई लिखाई का महत्त्व बाई की समझ में आ गया था |

(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by विनय कुमार on July 5, 2014 at 3:00am — 15 Comments

सपनो का गाँव,

सपनो का गाँव,

पीपल की छावो,

नदी का वह तट ,

नहाती जहाँ झट -पट

किनारे के लोग कभी

नहीं देखते थे एकटक .

बदल गए वो भाव

बदल गया गाँव,

झूमर औ गीत गए

रिश्ते अब रीत गए

लक्ष्मी जब भाग गई

आँखों की लाज गई

अब दीदे हुए बेशर्म

गाँव का माहौल गर्म

आतंक, भूख , भय

राजनीती देती प्रश्रय

सुख गए अब खेत,

माटी बन गई रेत,

भागे सब शहर को

कौन करे अब सेत.

पसर रहा है मौन

जिम्मेवार है कौन?

विजय प्रकाश…

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Added by Dr.Vijay Prakash Sharma on July 4, 2014 at 11:47pm — 15 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
तीन विशेष कुण्डलिया // --सौरभ

1.

खर्चा-आमद एक सा, क्या नफरत क्या प्यार

छाना-फूँका पी लिया, फिर चिंता क्या यार

फिर चिंता क्या यार, गजब हूँ धुन का पक्का

रह-रह चढ़े तरंग, जगत भी हक्का-बक्का

रहता मस्त-मलंग, फाड़ता रह-रह पर्चा

और खुले ये हाथ, यहीं हर…

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Added by Saurabh Pandey on July 4, 2014 at 10:00pm — 24 Comments

बूढ़े बरगद की आँखें नम हैं

बूढ़े बरगद की आँखें नम हैं

गाँव-गाँव पे हुआ कहर है, होके खंडहर बसा शहर है

बूढा बरगद रोता घूमे, निर्जनता का अजब कहर है

नीम की सिसकी विह्वल देखती, हुआ बेगाना अपनापन है

सूखेपन सी हरियाली में, सुन सूनेपन का खेल अजब है

ऋतुओं के मौसम की रानी, बरखा रिमझिम करे सलामी  

बरगद से पूंछे हैं सखियाँ, मेरा उड़नखटोला गया किधर है

सूखे बम्बा, सूखी नदियाँ, हुई कुएं की लुप्त लहर है

निर्जन बस्ती व्यथित खड़ी है, पहले…

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Added by sunita dohare on July 4, 2014 at 9:00pm — 5 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
आँखों देखी---(हादसा )

सन १९८३ मार्च या अप्रेल का महीना हम कुछ परिवार मिलकर विशाखापत्तनम के ऋषिकोंडा बीच पर पिकनिक मनाने गए | उस वक़्त मेरे पति भारतीय नौसेना में  अधिकारी थे अतः मित्र परिवार भी नेवी वाले ही थे|बीच पर पंहुचते ही अचानक तेज बारिश होने लगी|मेरे दोनों बच्चे बहुत छोटे थे अतः उनको  भीगने से बचाने के लिए जगह खोजने लगे |

बीच के किनारे पर मछुआरों की बस्ती थी उन्होंने हमारी परेशानी समझी और हमे अपनी झोंपड़ियों में बिठाया| मछली की बू सहन भी नहीं हो रही थी किन्तु मजबूरी थी फिर उन्होंने कहीं से दूध का…

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Added by rajesh kumari on July 4, 2014 at 8:20pm — 16 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
दिवास्वप्न... एक पुरानी कविता (डॉ० प्राची)

कभी यूँ भी हुआ है

कि

मन ही मन

उन्हें बुलाया

और वो दौड़े आये हैं...

मीलों के फासलों को झुठलाते,

मुलाकातों की सौगातें लिए,

दबे पाँव

नींदों में....

 

मुमकिन नहीं

जिन बीजों का पनपना भी,

उनकी खुशबू से

ख़्वाबों में महकती हैं

फिजाएं अक्सर....

 

और,

मैं मुस्कुराती हूँ ....

क्योंकि-

दिवास्वप्न

जिनकी मंजिल तक

कोई राह नहीं जाती

शुक्र…

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Added by Dr.Prachi Singh on July 4, 2014 at 5:00pm — 14 Comments

वो सुबह कभी तो आयगी …………..

वो सुबह कभी तो आयगी …………..

उफ़्फ़ !

ये आज सुबह सुबह

इतनी धूल क्योँ उड़ रही है

ये सफाई वाले भी

जाने क्योँ

फुटपाथ की जिन्दगी के दुश्मन हैं

उठो,उठो,एक कर्कश सी आवाज

कानों को चीर गयी

हमने अपनी आंखें मसलते हुए

फटे पुराने चीथड़ों में लिपटी

अपनी ज़िन्दगी को समेटा

और कहा,उठते हैं भाई उठते हैं

रुको तो सही

तभी सफाई वाले ने हमसे कहा

अरे…

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Added by Sushil Sarna on July 4, 2014 at 2:00pm — 12 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
हत्या ( अतुकांत चिंतन ) गिरिराज भन्डारी

कुछ ऐसी बात कह देना बे आवाज, महज़ इशारों से

जो नहीं कहनी चाहिये , किसी सूरत नहीं

या , कुछ ऐसी बात न कहना जिसे कह देना ज़रूरी है

किसी के भले के लिये ,खुशी के लिये , वो भी इसलिये

 

ताकि हम छीन सकें , किसी के होठों की हँसी

नोच सकें किसी के मन की शांति

उतार सकें , बिखरा सकें

विचारों के , भावों के समत्व को

अन्दर के प्यार को , ममत्व को  

छितरा सकें मन की शांति  

ताकि  टूट जाये , बिखर जाये किसी का व्यक्तित्व

किसी को…

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Added by गिरिराज भंडारी on July 4, 2014 at 11:30am — 15 Comments


सदस्य कार्यकारिणी
असंतुष्टि (अतुकांत )

एक बाजू गर्वीला पर्वत

अपनी ऊँचाई और धवलता पर इतराता

क्यूँ देखेगा मेरी ओर?

गर्दन  झुकाना तो उसकी तौहीन है न!   

दूजी बाजू छिः !! यह तुच्छ बदसूरत बदरंग शिलाखंड  

मैं क्यूँ देखूँ इसकी ओर

कितना छोटा है ये 

इसकी मेरी क्या बराबरी 

समक्ष,परोक्ष ये ईर्ष्यालू भीड़ ,उफ्फ!!

जब सबकी अपनी-अपनी अहम् की लड़ाई

और मध्य में वर्गीकरण की खाई

फिर क्यूँ शिकायत

अकेलेपन से!! 

अपने दायरे में

संतुष्ट क्यों नहीं…

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Added by rajesh kumari on July 3, 2014 at 10:42pm — 12 Comments

इस समंदर से कोई सूरज नहा के निकला है..

तुझे देखे अगर कोई जलन होती है सीने में,

सितम के सौ बरस गुजरें मोहब्बत के महीने में,

खुदाया क्या हुआ मुझको ये कैसा बावलापन है,

मैं खुद को जब भी देखूं तू दिखाई दे आईने में।।

----------------------------------

बेमतलब की बात बताने लगते हैं

खुद अपनी औक़ात बताने लगते हैं

नेता हैं वे राजनीति के मंचों से

सीने की भी नाप बताने लगते हैं।।

------------------------------------

अंधेरे घर में वो दीपक जला के निकला है

जिस्म की रूह से पसीना बहा के…

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Added by atul kushwah on July 3, 2014 at 10:00pm — 3 Comments

ग़ज़ल -निलेश "नूर" - कभी वो मेहमां रही है मेरी

आ. तिलक राज कपूर सर के मार्गदर्शन से एक ग़ज़ल कहने का प्रयास किया है ..  उम्मीद है आप का स्नेह प्राप्त होगा

.

12122/ 12122/ 12122/ 12122 

हया के मारे वो वस्ल के पल, नज़र का पर्दा गिरा रही है,

मगर ये गालों की सुर्ख़ रंगत, हर एक ख्वाहिश बता…

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Added by Nilesh Shevgaonkar on July 3, 2014 at 5:00pm — 19 Comments

हम जैसे सीधे सादो को क्यूँ बहकाते हो तुम

   2222          2222        2222  22

चलते चलते इन राहों में जब मिल जाते हो तुम

जाने क्या हो जाता है जो यूं सकुचाते  हो तुम

 

तेरी आँखों में लगता है काला कोइ जादू

जिसपे नजरें पड़ जाती उसको भरमाते हो तुम

 

इक पल को आते हो छत पर फिर गुम हो जाते हो

क्या बच्चो के जैसा ही हमको बहलाते हो तुम

 

उजला उजला योवन तेरा फूलों सा है भाये

क्यूँ छुईमुई जैसा छू लेने पर मुरझाते हो तुम

 

तेरी इन मादक आँखों से मदिरा छलका…

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Added by Dr Ashutosh Mishra on July 3, 2014 at 3:39pm — 8 Comments


प्रधान संपादक
नियति (लघुकथा)

जब से उस युवा चींटे के पँख निकले थे वह हवा बातें करने लगा था. उसने सभी परिजनों और मित्रजनो पर अपने नए नए निकले पँखों का रुआब डालना शुरू कर दिया था, उसका आत्मविश्वास देखते ही देखते आत्ममुग्धता का रूप धारण कर गया। इस बदले हुए स्वरूप को देख देख उसकी माँ रूह तक काँप जाती. लाख समझाने पर भी बेटा यथार्थ के धरातल पर आने को तैयार न हुआ तो एक दिन बूढ़ी माँ ने अपनी बहू को सफ़ेद जोड़ा देते हुए भरे गले से कहा "इसे अपने पास रख ले बेटी।" 

(मौलिक और अप्रकाशित)

Added by योगराज प्रभाकर on July 3, 2014 at 3:20pm — 38 Comments

3 मुक्तक …

3 मुक्तक …

१.

ऐ खुदा  मुझ  को  बता  कैसा  तेरा दस्तूर है

तुझसे  मिलने  के लिए  बंदा तेरा मजबूर है

जब तलक रहती हैं सांसें दूरियां मिटती नहीं

नूर हो के रूह का तू क्यूँ उसकी रूह से दूर है



२.

हिसाब तो  साथ  ज़िंदगी  के पूरा हुआ करता है

साँसों के  बाद  ज़िस्म फिर धुंआ हुआ करता है

टुकड़ों में बिखर जाता है हर पन्ना ज़िन्दगी का

ज़मीं का  बशर  फिर आसमाँ का हुआ करता है



३.

हम परिंदों  को  खुदा  से बन्दगी नहीं आती…

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Added by Sushil Sarna on July 3, 2014 at 11:30am — 12 Comments

आज रिश्ते क्यों सभी को - ग़ज़ल

2122 2122 2122 212

**********************

सावनों   में   फिर   हमारे   घाव   ताजा   हो  गये

रंक  सुख  से  हम  जनम के, दुख के राजा हो गये

**

साथ  माँ  थी  तो   दुखों में भी सुखों की थी झलक

माँ  गयी  है   छोड़   जब  से  सुख जनाजा हो गये

**

कल तलक जिनकी गली भी कर रही नासाज थी

आज क्यों कर वो तुम्हारे दिल के ख्वाजा हो गये                  ( ख्वाजा - स्वामी )

**

कोइ   चाहे    देह     हरना   और   कोई   दौलतें

आज …

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Added by लक्ष्मण धामी 'मुसाफिर' on July 3, 2014 at 11:00am — 8 Comments

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