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October 2017 Blog Posts (156)

लघुकथा--मलिका

" कौन हो तुम ?"
" जन्म से मुस्लिम , मन से सच्चा हिन्दुस्तानी , तन से अधनंगा और पेट से भूखा हूँ ।"
"लेकिन आप यह सब क्यों पूछ रही हैं ?आप कौन हैं ?"
" हा! हा! हा ! हा ! हा !" ज़ोर का अट्टहास किया और बोली-" मुझे दंगों की दुनिया की बेताज मलिका "साम्प्रदायिकता" कहते हैं । " उसने बस इतना ही कहा और एकदम पिस्टल निकालकर दो-तीन गोलियाँ उसकी कनपटी में दाग दी और फरार हो गई ।
मौलिक एवं अप्रकाशित ।

Added by Mohammed Arif on October 17, 2017 at 10:59pm — 33 Comments

जानामि त्वां प्रकृतिपुरुषं कामरूपं मघोन:[कालिदास कृत ‘मेघदूत’ की कथा-वस्तु-, भाग-2 ] - डॉ० गोपाल नारायण श्रीवास्तव

शापित यक्ष का इस प्रकार मान-मर्दन होने से उसकी महिमा घट गयी. अतः अपने निर्वासन का दंड भुगतने के लिए उसने अलकापुरी से दूर रामगिरि को अपना आश्रय स्थल बनाया. इस पर्वत पर भगवान राम ने अपने वनवास के कुछ दिन कभी काटे थे, इसीलिये वह पर्वत-प्रदेश रामगिरि कहलाता था . वहां जगजननी सीता के पवित्र स्नान कुंड थे . छायादार घने वृक्ष थे. यक्ष ने वहाँ के आश्रमों में बस्ती बनायी और प्रवास के दिन व्यतीत करने लगा. इस प्रकार प्रिया-संतप्त यक्ष ने किसी तरह आठ माह बिताये. ग्रीष्म ढल जाने पर आषाढ़ मास के पहले दिन…

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Added by डॉ गोपाल नारायन श्रीवास्तव on October 17, 2017 at 8:03pm — 9 Comments

ग़ज़ल,,,,में अपनी हसरतें,,,,,

1222/1222/1222/1222



जो सच हो ही नहीं सकता वो सपना छोड़ आया हूँ

में अपनी हसरतें सहरा में तंहा छोड़ आया हूँ।



ख़िरद ने जबसे जोड़ा है हक़ीकत से मेंरा रिश्ता

तख़य्युल को ख़लाओं में भटकता छोड़ आया हूँ।



ज़रूरत मुझको ले कर आ गई परदेस में लेकिन

में अपने घर में इक पुतला अना का छोड़ आया हूँ।



सबब जिसके हुए जाते थे अपने ही मेंरे दुश्मन

वो चाँदी छोड़ दी मैंने वो सोना छोड़ आया हूँ।



वो इक लम्हा जो गफ़लत में तेरी चाहत के बिन… Continue

Added by Afroz 'sahr' on October 17, 2017 at 7:30pm — 10 Comments

ग़ज़ल (आ गये सिमट के)

फइलात -फ़ाइलातुन -फइलात -फ़ाइलातुन



सरे राह उसने देखा जो मुझे पलट पलट के |

उसी दिन से रह गया हूँ मैं मुआशरे से कटके |

अभी रूठ कर उठे थे कि कड़क के बर्क़ चमकी

मेरी बाहों में वो सहमे हुए आ गये सिमट के |

बड़ी रात जा चुकी है कोई ख़ाक आएगा अब

शबे ग़म मेरी इधर आ तुझे रो लूँ मैं लिपट के |

जो ग़रीब हौसला है उसे होगा कुछ न हासिल

वही जाम पा सकेगा जो उठा ले ख़ुद झपट के |

जिन्हें गुमरही का डर था वही पा गये हैं…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on October 17, 2017 at 6:00pm — 20 Comments

ग़ज़ल (ख़ौफे ख़ुदा नहीं है )

मफऊल -फाइलातुन -मफऊल -फाइलातुन



मेरे हबीब इस में तेरी खता नहीं है |

इल्ज़ामे बे वफ़ाई किस पर लगा नहीं है |

ओ प्यार के मुसाफिर इस पर भी ग़ौर कर ले

यह राहे ग़म है इस में कोई मज़ा नहीं है |

माली तेरी कमी से गुलशन में है तबाही

तू अब भी कह रहा है तुझको पता नहीं है |

दीदार मैं अभी तक चहरे का कर रहा हूँ

ठहरो अभी न जाओ यह दिल भरा नहीं है |

ग़मदीदा दिलसे उल्फ़त तुझसे न निभ सकेगी

कर तर्के इश्क़ कुछ भी…

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Added by Tasdiq Ahmed Khan on October 17, 2017 at 4:30pm — 12 Comments

अपना चेहरा- लघुकथा

"सरकार, आज अगर एक बार देख लिया जाए तो हमका तसल्ली होइ जात", लच्छू की आवाज़ बहुत घबराई लग रही थी| उसने एक बार सर ऊपर उठाया और लच्छू को गौर से देखा, दोनों हाथ जोड़े हुए उसका चेहरा बेहद कातर लग रहा था|

"किसको देखना था लच्छू?, लच्छू कई बार किसी के लिए कह रहा था, इतना तो याद आया लेकिन किसके लिए कहा था, याद नहीं आया| कितनी बार तो टाल चुके हैं इसको, फिर भी!

"सरकार, पतोहू कई दिन से बीमार है और लड़का बाहर काम करत है, एक बार आप देख लेते तो ठीक हो जात", लच्छू की आवाज़ में अब थोड़ी उम्मीद जग…

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Added by विनय कुमार on October 17, 2017 at 3:48pm — 7 Comments


सदस्य टीम प्रबंधन
वक़्त के संग कुछ बदल // डॉ० प्राची

तारतम्यों के भँवर में

क्या उम्मीदें कर रहा है?

बावरे अब तो सम्हल जा

वक्त के संग कुछ बदल...



क्यों ठगा सा तू खड़ा है भावनाओं को लिये

बाँचता है क्यों भला वो अश्रु जो तूने पिये,

रख अगर उम्मीद रखनी है स्वयं से खूब रख

तृप्ति की जो बूँद निस्सृत हो हृदय से खूब चख,



आज के परिपेक्ष्य में अपनत्व

की संभावना को,

खोजना क्या है उचित?

रे मूर्ख! जाएगा फिसल...



सिर्फ बातों के लिए सबने सभी बातें कहीं

अर्थ उनमे खोजता क्यों अब तलक अटका… Continue

Added by Dr.Prachi Singh on October 17, 2017 at 1:07pm — 8 Comments

मधु-मीतों का व्यक्तिवाद (लघुकथा)/ शेख़ शहज़ाद उस्मानी

"धर्मों, महात्माओं की गरिमा की तो धज्जियां उड़ रही हैं! कितने पवित्र नाम कैसी-कैसी मानसिकताओं के साथ जुड़ गए!"

"नयी पीढ़ी है, उसकी अपनी सोच विकसित हुई है वैश्वीकरण और इंटरनेट के दौर में!"

"क्या यही है जीवन जीने की कला? यह कैसा विकृत रूप है धर्मों, धर्मावलंबियों और विपश्यना जैसी साधनाओं का?!"

"बाबाओं ने पाश्चात्य रंग दे डाले हैं... और कट्टरपंथियों ने आतंक के!"

घटनाओं और हालात पर कुछ तथाकथित बुद्धिजीवी बेबाक चर्चा कर रहे थे। अधिकतर उनकी बुराई कर रहे थे, जबकि उनमें से कुछ… Continue

Added by Sheikh Shahzad Usmani on October 17, 2017 at 12:43pm — 8 Comments

उपलब्धियाँ - डॉo विजय शंकर

उप-शीर्षक -आर्टिफिशयल इंटेलिजेंस से आर्टिफिशल हँसी तक।

प्रकृति ,
अनजान ,
पाषाण ,
ज्ञान
विज्ञान ,
गूगल ,
आट्रिफिश्यल विवेक ,
आर्टिफिशियल हँसी ,
शुभ प्रभात।

मौलिक एवं अप्रकाशित

Added by Dr. Vijai Shanker on October 17, 2017 at 7:34am — 12 Comments

हुस्न को ......संतोष

अरकान:-फाइलुन मफ़ाईलुन

हुस्न को छुपा कर रख
तू इसे बचा कर रख

अक्स है मेरा इनमें
आँखों को झुका कर रख

इश्क़ है अगर तुझको
आरज़ू दबा कर रख

ज़िन्दगी का मारा हूँ
सीने से लगा कर रख

रौशनी मिले सबको
इक दिया जला कर रख
~संतोष
(मौलिक एवं अप्रकाशित)

Added by santosh khirwadkar on October 16, 2017 at 10:52pm — 5 Comments

एक ग़ज़ल

122 122 122 122



न तकरार समझी न समझा गिला है

बुरी आदतों का यही फाइदा है



गलत ही तलाशा था मय में नशे को

निगाहों में जबके नशा ही नशा है



न अल्फाज कुछ भी बयां कर सकें हों

जो दिल में बसा आँखों से दिख रहा है



ये चेहरे पे रौनक न जाने है कैसे

जिगर जबकि छलनी हमारा हुआ है



किसी तिफ्ल के रूठ जाने से सीखें

भुलाना किसी को अगर सीखना है



बना लो मुहब्बत को औजार यारो!

शज़र नफरतों के अगर काटना है



क़मर पे चढ़ी जा… Continue

Added by सतविन्द्र कुमार राणा on October 16, 2017 at 10:30pm — 11 Comments

क्यों न दिवाली कुछ ऐसे मनायें

क्यों न दिवाली कुछ ऐसे मनायें

दिवाली यानी रोशनी, मिठाईयाँ, खरीददारी , खुशियाँ और वो सबकुछ जो एक बच्चे से लेकर बड़ों तक के चेहरे पर मुस्कान लेकर आती है।

प्यार और त्याग की मिट्टी से गूंथे अपने अपने घरौंदों को सजाना भाँति भाँति के पकवान बनाना नए कपड़े और पटाखों की खरीददारी !

दीपकों की रोशनी और पटाखों का शोर…

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Added by dr neelam mahendra on October 16, 2017 at 10:14pm — 4 Comments

दिल का ये मसअला है कोई दिल लगी नहीं - सलीम रज़ा रीवा : ग़ज़ल

221 2121 1221 212

..

दिल का ये मसअला है कोई दिल लगी नहीं,

मुमकिन तेरे बग़ैर मेरी ज़िन्दगी नही

..

ये और बात है कि वो मिलते  नहीं मगर,

किसने कहा कि उनसे मेरी दोस्ती नहीं

..

तेरे ही दम से खुशियां है घर बार में मेरे,

होता  जो तू नहीं तो ये होती ख़ुशी नहीं

..

वो क्या गया की रौनके महफ़िल चली गयी,

जल तो रही है शम्अ मगर रोशनी नहीं

..

ख़ून-ए-जिगर से मैंने सवाँरी है हर ग़ज़ल,

मेरे, सुख़न  का  रंग…

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Added by SALIM RAZA REWA on October 16, 2017 at 10:00pm — 14 Comments

पराजित हिन्द (लघुकथा)

“जय हिन्द सर।” उसने जोश भरे स्वर में कहा। मोबाइल फोन पर बात करते हुए वह तन कर भी खड़ा था।

“जय हिन्द।” दूसरी तरफ से आवाज़ आई।

“हुजूर, बात यह है कि... मॉडर्न स्कूल के प्रिंसिपल साब ने बुलाया था। दिवाली पर वे आपको लैपटॉप और ए.सी. उपहार में देना चाहते हैं।”

“क्यूँ?” दूसरी तरफ से प्रश्न पूछा गया लेकिन संयत स्वर में।

“हुजूर, उनके स्कूल में फीस दूसरे स्कूलों से थोड़ी-बहुत ज़्यादा है, ऐसी ही कुछ और छोटी-मोटी कमियाँ थीं तो... जिला शिक्षा अधिकारी साहब ने उनको पाबन्द कर दिया।…

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Added by Dr. Chandresh Kumar Chhatlani on October 16, 2017 at 4:30pm — 5 Comments

ग़ज़ल: जिन्दगी में न वन्दगी आई

जिन्दगी में न वन्दगी आई
देख सब से बड़ी ये रुसवाई
राम अल्लाह सच गुरु नानक
बात यीशू ने सच की बतलाई
आखरी वक्त काम आएँगे
सीख रिश्तों की थोड़ी तुरपाई
साथ माँ बाप…
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Added by munish tanha on October 16, 2017 at 9:30am — 4 Comments

गजल(आग जलने...)

2122 2122 2122
आग जलने पर धुआँ होगा बखूबी
रोशनी की हो नहीं लेकिन मनाही।1

क्यूँ अँधेरा साथ चलता है दियों के
पीटते हैं ढ़ोल की जाती मुनादी।2

गुल खिलाते हैं अँधेरे रोशनी में
और मिलती खूब उनको वाहवाही।3

आ गए कुछ दूर इतना मान भी लें
लग रहा है,हो रही अब भी दिहाड़ी।4

बँट गये हम 'वाद' के 'अवसाद' में बस
और जूठन छानती भूखी 'बुलाकी'।5
"मौलिक व अप्रकाशित"

Added by Manan Kumar singh on October 16, 2017 at 9:07am — 10 Comments

ग़ज़ल नूर की - किसी साधू के गहरे ध्यान से हम

२१२२, १२१२, २२ (११२) +१ 

.

किसी साधू के गहरे ध्यान से हम

बैठे रहते है इत्मिनान से हम.

.

तुम हो इक टूटती हुई दीवार

एक ढहते हुए मकान से हम.

.

गर ख़ुदा को वहाँ नहीं पाया,   

लौट आयेंगे आसमान से हम.   

.

बात जो कुछ है साफ़ साफ़ कहें

ऊँचा सुनने लगे हैं कान से हम.

.

बुतकदे में जलाने को दीपक

जाग जाते हैं इक अज़ान से हम.   

.

एक एल्बम में तुम हसीं थी बहुत 

साथ में थे बड़े जवान से हम. 

.

वस्ल का पल, ये…

Continue

Added by Nilesh Shevgaonkar on October 16, 2017 at 8:18am — 21 Comments

ग़ज़ल -- इस्लाह हेतु / ज़िन्दगी भर सलीब ढ़ोने को / दिनेश कुमार

2122--1212--22



ज़िन्दगी भर सलीब ढ़ोने को

हक़परस्ती है सिर्फ़ रोने को



दिल को पत्थर बना लिया मैंने

ख़्वाब आँखों में फिर पिरोने को



दूर मंज़िल है वक़्त भी कम है

कौन कहता है तुम को सोने को



एक बस वो नहीं हुआ मेरा

क्या नहीं होता वर्ना होने को



किस लिये हैं इन आँखों में आँसू

पास भी क्या था जब कि खोने को



ज़िद नहीं करता अब खिलौनों की

क्या हुआ दिल के इस खिलौने को



दाग़ कुछ ऐसे भी हैं दामन पर

अश्क… Continue

Added by दिनेश कुमार on October 15, 2017 at 11:56pm — 14 Comments

ग़ज़ल पास रह गया मेरे है , आपका कलाम भी

*212 1212 1212 1212*



आपकी ही रहमतों से मिल गई वो शाम भी ।

कुछ अदा छलक उठी है कुछ नज़र से जाम भी ।।

---------------------------------------------------------------

ढूढ़िये न आप अब मेरे उसूल का चमन ।

दिल कभी जला यहां तो जल गया मुकाम भी ।।

--------------------------------------------------------------------

नज्र कर दिया गुलाब तो हुई नई ख़ता ।

हुस्न आपका बना गया उसे गुलाम भी ।

------------- -------- ------------------------------- ----

जब चिराग… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on October 14, 2017 at 11:01pm — 7 Comments

उसी का तसव्वुर पढ़ा जा रहा है

एक लंबी ग़ज़ल 30 शेर के साथ



122 122 122 122

अगर आप में कुछ सलीका बचा है ।

तो फिर आप से भी मेरी इल्तिजा है ।।



रकीबों की महफ़िल में क्या क्या हुआ है ।

सुना आपका ही तो जलवा रहा है ।।



यूँ रुख़ को पलट कर चले जाने वाले ।

बता दीजिए क्या मुहब्बत ख़ता है ।।



हया को खुदा की अमानत जो समझे ।

उन्हें ही सुनाई गई क्यों सजा है ।।



अगर दिल में आये तो रहना भी सीखो ।

मेरी तिश्नगी का यही मशबरा है ।।



मुख़ालिफ़ हुई ये हवाएं चमन… Continue

Added by Naveen Mani Tripathi on October 14, 2017 at 10:30pm — 17 Comments

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